Skip to main content

बाइक यात्रा: खरसाली से दिल्ली

इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें
21 मई 2017
कल ही तय हो गया था कि मैं और नरेंद्र आज सुबह-सवेरे पाँच बजे यमुनोत्री जायेंगे और रणविजय यहीं रहेगा। लेकिन पाँच कब बज गये, किसी को भी पता नहीं चला। छह बजे तक आँखें तो तीनों की खुल गयीं, लेकिन उठा कोई नहीं। सात भी बज गये और रणविजय व नरेंद्र फ्रेश होकर फिर से रज़ाईयों में दब गये। तीनों एक-दूसरे को ‘उठो भई’ कहते रहे और समय कटता रहा।
अचानक मुझे महसूस हुआ कि कमरे में मैं अकेला हूँ। बाकी दोनों चुप हो गये - एकदम चुप। मैंने कुछ देर तक ‘नरेंद्र उठ, रणविजय उठ’ कहा, लेकिन कोई आहट नहीं हुई। मुझे कुछ अटपटा लगा। मामला क्या है? ये दोनों सो तो नहीं गये। ना, सवाल ही नहीं उठता। मैं सो सकता हूँ, लेकिन अब ये दोनों नहीं सो सकते। इसका मतलब मुझसे मज़ाक कर रहे हैं। इनकी ऐसी की तैसी! पूरी ताकत लगाकर रणविजय की रज़ाई में घुटना मारा, लेकिन यह क्या! घुटना रणविजय की रज़ाई पार करता हुआ नरेंद्र की रज़ाई तक पहुँच गया। किसी को भी नहीं लगा।




दस मिनट तक मैं ऐसे ही पड़ा रहा। हमारे कमरे में कुंड़ी नहीं थी, इसलिये रातभर लगी भी नहीं थी। कमरा एक बरामदे में खुलता था और बरामदा सीधा खेतों में। कोई जानवर या तेंदुआ आसानी से कमरे में आ सकता था। अगर अभी अंधेरा होता, तो मैं मान लेता कि इन दोनों को तेंदुआ उठाकर ले गया है। जिसने जिम कार्बेट की ‘रुद्रप्रयाग का आदमखोर तेंदुआ’ पढ़ रखी हो, वो कुछ भी मान सकता है। लेकिन अब तो न केवल अच्छा-खासा उजाला था, बल्कि सूरज भी निकल चुका था, तो तेंदुए की थ्योरी मानने का सवाल ही नहीं था। गये कहाँ दोनों? टट्टी करके दोबारा रज़ाईयों में घुस गये थे, अब अचानक उन्हें हो क्या गया?
दस मिनट बाद बाहर घर्रर्रर्र की आवाज़ आनी शुरू हो गयी। हेलीकॉप्टर की आवाज़। सौ मीटर दूर ही हेलीपैड़ जो था। और अब जैसे ही ख्याल आया कि दोनों हेलीपैड़ पर ही होंगे, मैं भी उठ गया। रणविजय कल से ही अत्यधिक उत्साहित था कि आज उसे हैलीकॉप्टर देखने को मिलेगा और इसी वजह से वह यमुनोत्री भी नहीं जाना चाहता था। तो इसका मतलब यह है कि हेलीकॉप्टर ने जैसे ही देहरादूद्न से उड़ान भरी होगी, तभी इन्हें आवाज़ आने लगी होगी और फटाक से दोनों बाहर चले गये। कमाल के कान हैं। ये ज़रूर पिछले जन्म में कोई ऐसे जानवर रहे होंगे, जिसके कान जबरदस्त होते हैं।
जब हेलीकॉप्टर ज़मीन पर स्पर्श करने ही वाला था, तो हमारी बाइकें मेन स्टैंड़ पर खड़ी होने के बावज़ूद भी बुरी तरह हिल रही थीं। गनीमत रही कि गिरी नहीं। हेलीकॉप्टर नीचे उतरा और रणविजय सातवें आसमान पर। बच्चों की तरह नाचने लगा - हेलीकॉप्टर, हेलीकॉप्टर। वीड़ियो और फोटुओं की तो कोई गिनती ही नहीं। मैंने भी हाथ आजमाये। हेलीपैड़ कर्मचारी ने बाइक यहाँ से हटाने को कहा, हमने हटा दीं। फिर दूसरा हेलीकॉप्टर आया, फिर तीसरा और शायद चौथा भी।
“हेलीकॉप्टर को छूना मत, और फोटो जितने चाहो, जैसे चाहो, ले लो।” कर्मचारी ने कहा। फिर कहाँ हम मानने वाले थे।
यमुनोत्री जाना कैंसिल हो गया। बारह बजे तक पहुँचते और तीन-चार बजे तक वापस आते। और कल मुझे व रणविजय को हर हाल में ऑफिस जाना था। नरेंद्र थोड़ा विचलित अवश्य हुआ, लेकिन इसका ठीकरा उसी के सिर फोड़ दिया - “सुबह पाँच बजे ही यहाँ से चल देना था, लेकिन तुम उठकर फिर रज़ाई में घुस गये।”
बाइकों पर सामान बाँध दिया। चलने लगे तो कर्मचारी ने कहा - “अब के बाद यहाँ हेलीपैड़ पर बाइक खड़ी मत करना।”
नरेंद्र - “तो कहाँ खड़ी करें? इसके अलावा कहीं और जगह दिख रही है क्या तुमको?”
मैं, नरेंद्र से - “ओये चुप। वो ठीक कह रहा है। और ये बता कि अब के बाद हम यहाँ आयेंगे कब? कितने साल बाद?”
रणविजय - “ठीक बात।”
टकराव ऐसे ही होते हैं और ऐसे ही बचा जाता है।
...
जानकीचट्टी में उसी दुकान पर नाश्ता करके बढ़ चले और कुछ ही देर में बड़कोट पहुँच गये। कुछ ही देर में मतलब तीन घंटे में। रास्ते में बड़े जाम मिले। य्यै लंबी-लंबी लाइनें। लेकिन बाइक तो निकल ही जाती हैं। चौपाये फँसे रह जाते हैं।
ट्रैफिक केवल बड़कोट तक ही था। हमें धरासू नहीं जाना था। पौंटा साहिब जाना था। दिल्ली से यमुनोत्री जाना हो या यमुनोत्री से दिल्ली जाना हो, पौंटा साहिब वाला रास्ता ही सर्वोत्तम है। हरिद्वार वाला रास्ता सर्वोत्तम नहीं है।
नौगाँव तक तो अच्छी-खासी दोपहरी हो चुकी थी। तापमान 40 के आसपास रहा होगा। मई-जून में हिमालय की ये निचली घाटियाँ बुरी तरह तपती हैं और लू भी चलती है। नौगाँव में उसी दुकान पर रुके, जिसमें कल रुके थे। कुछ देर फेसबुक इत्यादि चलाया और कुछ देर चावल इत्यादि खाये। मेरा नहाने का मन था, लेकिन आलस कर गया।
अबकी बार सीधे नैनबाग रुके। नरेंद्र से मैंने पूछा - “हाँ भई, आया कुछ याद?”
“ना। कुछ याद ना आया।”
“याद कर।”
“क्या याद आना है वैसे?”
“तुम यहाँ आये हो पहले कभी?”
“अरे नहीं, मैं कहाँ घूमा हूँ ज्यादा? तुम्हारे साथ ही घूम लिया, जो भी थोड़ा-बहुत घूमा। नहीं तो मैंने कुछ देखा ही नहीं।”
“आच्छ्या। वाकई तुम्हें याद नहीं या जानबूझकर अनजान हो रहे हो?”
समोसे देखकर नैनबाग में ही एक जगह रुक गये। समोसे खाने लगे। नरेंद्र का दिमाग तेजी से चल रहा था - “हाँ, नैनबाग कुछ सुना-सा लग रहा है।”
मैं - “तो पंतवाड़ी भी सुना-सा लग रहा होगा और नागटिब्बा भी।”
“हाँ हाँ, आ गया याद। हम नैनबाग से ही तो नागटिब्बा गये थे।”
“बड़ी जल्दी भूल गया।”
“तो यह वही नैनबाग है?”
...
उधर रणविजय एक दूसरी ही उलझन में था। किसी बात पर उम्र की बात चल पड़ी। रणविजय वैसे तो मुझसे आठ-दस साल बड़ा है, लेकिन हमउम्र ही लगता है। तो कुछ ऐसी बात हो गयी कि वह ज़िद पर अड़ गया कि वह सबसे छोटा है। अपने पक्ष में उसने समोसे वाले से पूछा - “भाई, ये बताओ कि हम तीनों में सबसे उम्रदराज़ कौन लग रहा है?”
समोसे वाला - “ही ही ही, बड़ा मुश्किल है यह बताना तो। आपके किसी के भी चेहरे से पता नहीं चल रहा।”
रणविजय, जीत के लगभग समीप पहुँचता हुआ - “देखो भाई, मैं तो सबसे छोटा हूँ। ये दोनों बड़े हैं मुझसे। है ना?”
अचानक मैं बोल पड़ा - “भाई जी, पैसे कितने हुए?”
“पचास रुपये।”
मैं - “अगर पूरे पैसे चाहिये तो सुन लो - खजानची मैं हूँ। बाकी तुम समझदार हो।”
समोसे वाला, रणविजय से - “भाई जी, सही बताऊँ? सच-सच बताऊँगा। एकदम सच। आप ही बड़े लग रहे हो।”
...



नैनबाग से निकले तो आसमान के तेवर बदलने लगे। ऊपर बादल छाने लगे और तेज हवा चलने लगी। जब यमुना पुल से सात आठ किलोमीटर पहले ही रहे होंगे, एक-दो बूँदें भी गिरने लगीं। और हवाओं ने तो तूफानी रूप धारण कर लिया था। बूँदें गिरने लगीं तो रेनकोट पहन लिये। मैंने कहा - “थोड़ा ही आगे यमुना पुल है, वहाँ रुकेंगे और बारिश बंद होने के बाद चलेंगे। क्योंकि तूफान चल रहा है, तो ओले अवश्य पड़ेंगे।”
लेकिन ऊपर वाले को यह मंज़ूर नहीं था। जैसे ही थत्यूड़ नाले के पुल पर पहुँचे, अचानक दनादन ओले पड़ने लगे। एक-एक इंच व्यास के। मसूरी मोड़ आधा किलोमीटर ही आगे था। लेकिन अगर कोई ओला उँगलियों पर लग गया तो तोड़ देगा। यही सोचकर नाले का पुल पार करते ही रुक गये और पहाड़ की ओट में बैठ गये। जल्दबाज़ी में मोटरसाइकिल भी गिरी, हालाँकि कोई नुकसान नहीं हुआ।
पहाड़ की ओट में बैठने से फायदा यह था कि सीधे ओले हमें नहीं लग सकते थे, लेकिन फिर भी लग रहे थे। इनसे बचने को मैं यथासंभव सिकुड़कर बैठ गया। सिर पर हेलमेट लगा ही हुआ था। एकाध ओला हेलमेट पर लगता, टन की आवाज़ आती। एक-दो छोटे ओले कंधे पर भी लगे, जिससे मैं और ज्यादा सिकुड़ गया।
लेकिन अभी तक रणविजय को एक भी ओला नहीं लगा था। बोला - “यमुना पुल कितना दूर है यहाँ से?”
“आधा किलोमीटर।”
“वहाँ कोई दुकान है या सिर्फ़ पुल है?”
“दुकानें भी हैं।”
“तो वहीं क्यों नहीं रुके? आराम से चाय पीते।”
“देख नहीं रहा। कितने बड़े-बड़े ओले गिर रहे हैं।”
“तो। हेलमेट तो लगा ही हुआ है। हमारे पास कार थोड़े ही है, जो शीशा टूट जायेगा।”
“मेरी फटती है ओलों से।”
“बेकार में ही डरते हो। कितना सिकुड़कर बैठे हो तुम?”
“मुझे कई ओले लग चुके हैं कंधे में, और घुटने में भी।”
“हा हा हा। कितना हसीन मौसम है। ओले कितने अच्छे लग रहे हैं। सड़क सफ़ेद हो गयी है। जब हम बाइक लेकर चलेंगे तो इन ओलों पर चलाने में दिक्कत तो नहीं आयेगी?”
“ये पिघल जायेंगे तब तक।”
“तो एंजोय ओलावृष्टि।”
एक ओला हाथ में लेकर उसके डायामीटर का अंदाज़ा लगाने लगा - “एक इंच होगा या डेढ इंच।”
लेकिन मैं एक मौके की प्रतीक्षा कर रहा था।
चलिये, एक कहानी सुनाता हूँ। कहानी कुछ यूँ है कि एक नाविक अपने कुत्ते को लेकर लंबी समुद्री यात्रा पर निकला। रास्ते में तूफान घिर आया और समुद्र में ऊँची-ऊँची लहरें उठने लगीं और नाव डगमगाने लगी। नाविक नाव को बचाने की जी-तोड़ कोशिश करने लगा तो कुत्ता खेलने के मूड़ में आ गया। उसने अपने मालिक को खेलने के लिये परेशान करना शुरू कर दिया। आख़िरकार नाविक ने कुत्ते को समुद्र में फेंक दिया। लेकिन कहानी अभी समाप्त नहीं हुई है। कुछ देर बाद कुत्ता नाव में चढ़ गया और चुपचाप एक कोने में बैठ गया। उसे तूफान की भयावहता और नाविक के संघर्ष का पता चल चुका था।
और मैं इसी एक मौके की प्रतीक्षा में था। अचानक रणविजय के दाहिने हाथ के अँगूठे में एक ओला आकर लगा। उसकी जान-सी निकल गयी और वह नीचे बैठ गया। अंगूठा पकड़कर। देखते ही देखते अंगूठा सूज गया। उसकी सारी हँसी गायब हो गयी और ... ही वाज नॉट एंजोयिंग ओलावृष्टि नाऊ।
अब हँसने का समय मेरा था।
...
ओले बंद होने के बाद हम आगे बढ़े। मसूरी मोड़ पर एक दुकान में रुक गये। चाय और मैगी ले लिये। और भी कई यात्री यहाँ बारिश बंद होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। सभी ओलावृष्टि पर आश्चर्य व्यक्त कर रहे थे। रणविजय अंगूठा पकड़े कुर्सी पर बैठा रहा। चाय-मैगी भी हम बेचारों ने लाकर दी उसे।
तभी मेरी एक बस पर निगाह गयी। उत्तराखंड़ परिवहन की यह बस मसूरी की तरफ़ से आयी और विकासनगर की तरफ़ जाने लगी। दस मिनट पहले ही यह बस नैनबाग की तरफ़ से आकर मसूरी की तरफ़ गयी थी। इसका मतलब मसूरी रोड़ पर भूस्खलन हो गया और सड़क बंद हो गयी है।
सड़क पर जगह-जगह छोटे-छोटे पत्थर पड़े थे। ये बारिश के पानी के साथ बहकर आये थे। एक जगह मामूली-सा भूस्खलन भी मिला। छोटा-सा जाम भी लगा था और रास्ता वन-वे बन गया था।
कालसी के पास पहुँचकर जब पहाड़ समाप्त हो गये तो बड़ी राहत मिली। शाम हो चुकी थी और सूरज भी ढलने वाला था। एक खाली दुकान पर, जिसे एक महिला चला रही थी, मोमो ले लिये। चटनी अच्छी थी। घर पर बात की। फेसबुक इत्यादि पर अपडेट डाले। इरादा था कि रात में बाइक चलायेंगे। अंदाज़ा लगाया कि दस-ग्यारह बजे तक पानीपत पहुँच जायेंगे। तो समालखा के रहने वाले मित्र विमल बंसल को बोल दिया कि हम ग्यारह बजे तक आयेंगे और आपके यहाँ खाना खायेंगे। बहुत दिनों से विमल बंसल अपने यहाँ आने को कह रहे थे, आज यह काम भी हो जायेगा।
लेकिन यमुना भी पार नहीं की कि तूफान आ गया। चालीस-पचास की स्पीड़ पर भी संतुलन बनाना मुश्किल हो रहा था। ऐसे में डर इस बात का था कि कहीं कोई पेड़ हमारे ऊपर न गिर पड़े या कोई डाल न गिर पड़े या किसी घर का टिन छप्पर ही उड़कर हमारे सामने न आ जाये। रात में बाइक चलाने का इरादा डाँवाडोल होने लगा। और पौंटा साहिब पहुँचकर तो वहीं घुटने गाड़ दिये। विमल को मना करना पड़ा।
गुरुद्वारे में रुकना फ्री था, लेकिन हमें रात दो या तीन बजे ही निकलना था। समय पर ऑफिस पहुँचना ज्यादा आवश्यक था। गुरुद्वारे में चहल-पहल में नींद नहीं आयेगी, तो सामने एक होटल में कमरा ले लिया। गुरुद्वारे में खाना खा आये, होटल में नहाये और सो गये।
दो बजे तीनों उठ गये। ढाई बजे तक निकल पड़े। सड़क अच्छी हो तो अंधेरे में बाइक चलाने में कोई परेशानी नहीं है। मैं इस सड़क पर कई बार आ-जा चुका था, तो इसके बारे में मुझे कोई संदेह नहीं था। फिर मेरे पास नाइट विजन चश्मा भी है। इसे लगाने से सामने से आ रहे वाहनों की लाइटों की चौंध नहीं लगती। रात में तो वैसे भी ज्यादातर लंबी दूरी के ट्रक ही चलते हैं और इन ट्रकों से बेहतर ड्राइवर पूरे भारत में कोई नहीं। अगर दूर से ही कोई वाहन लाइट कम कर ले, तो समझो कि वो ट्रक है अन्यथा कार है।
यमुनानगर स्टेशन के सामने ताजे बन रहे समोसे खाकर दिल्ली की तरफ़ खींच दी। और समय पर ऑफिस पहुँच गया।
इस यात्रा में आनंद आ गया। सहयात्री ही ऐसे हों तो आनंद किसे नहीं आयेगा?






नरेंद्र

यात्रियों में इंतज़ार में 

यात्रियों में इंतज़ार में 











इस यात्रा के सभी भाग:
1. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी
2. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग दो
3. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग तीन (त्यूणी और हनोल)
4. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग चार (हनोल से पुरोला)
5. बाइक यात्रा: पुरोला से खरसाली
6. बाइक यात्रा: खरसाली से दिल्ली
7. ‘कुमारहट्टी से जानकीचट्टी’ यात्रा की वीडियो



Comments

  1. हमेशा की तरह लाजवाब यात्रा का आनंद घर बैठे ही दिलवा दिया, बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम
    #हिन्दी_ब्लॉगिंग

    ReplyDelete
  2. वाह मज़ा गया.... रणविजय भाई का अंगूठा ठीक हो गया था न??

    ReplyDelete
  3. वाह ! सुंदर विवरण नीरज जी.... रणविजय भाई के ओला लगने का किस्सा बहुत हास्य रहा।

    ReplyDelete
  4. मैं तेरे प्यार में क्या क्या न बना मीना
    कभी बना कुत्ता, कभी कमीना

    😀😀🤓😀😀

    मस्त, सब फिरसे याद आ गया मुझ भुलक्कड़ को ♥🙏♥

    ReplyDelete
  5. बढिया यात्रा विवरण है
    Nite vision चश्मा कहाँ मिलेगा नीरज भाई

    ReplyDelete
  6. bahut accha laga
    Narendra

    ReplyDelete
  7. बहुत ही शानदार लिखा है। पढ़ कर मज़ा आ गया।

    ReplyDelete
  8. "टकराव ऐसे ही होते हैं और ऐसे ही बचा जाता है"
    (समझदार सा होता जा रिया है भाई तू तो, अब वो बात रही नहीं ... हे. हे. हे.

    "ही वाज नॉट एंजोयिंग ओलावृष्टि नाऊ। अब हँसने का समय मेरा था।".....
    (भाई ऐसे समय में जो हँस पाए वही सच्चा दोस्त होता है, और उन्ही पे एक ऐड भी बनी है, "हर दोस्त कमीना होता है" )

    "सहयात्री ही ऐसे हों तो आनंद किसे नहीं आयेगा ?"
    (सही बात....)

    "वहीं घुटने गाड़ दिये" (जे नई बात सुनी भाई)

    बाकि कुल मिला के सब मजेदार.....

    ReplyDelete
  9. बढ़िया पोस्ट नीरज भाई ......

    ReplyDelete
  10. युमुना पुल पर यमुना नदी की गहराई कितनी होगी?

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब