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जनवरी में नागटिब्बा-2



25 जनवरी 2016
साढे आठ बजे हम सोकर उठे। हम मतलब मैं और निशा। बाकी तो सभी उठ चुके थे और कुछ जांबाज तो गर्म पानी में नहा भी चुके थे। सहगल साहब के ठिकाने पर पहुंचे तो पता चला कि वे चारों मनुष्य नागलोक के लिये प्रस्थान कर चुके हैं। उन्हें आज ऊपर नहीं रुकना था, बल्कि शाम तक यहीं पन्तवाडी आ जाना था, इसलिये वे जल्दी चले गये। जबकि हमें आज ऊपर नाग मन्दिर के पास ही रुकना था, दूरी ज्यादा नहीं है, इसलिये खूब सुस्ती दिखाई।
मेरी इच्छा थी कि सभी लोग अपना अपना सामान लेकर चलेंगे। दूरी ज्यादा नहीं है, इसलिये शाम तक ठिकाने पर पहुंच ही जायेंगे। अगर न भी पहुंचते, तो रास्ते में कहीं टिक जाते और कल वहीं सब सामान छोडकर खाली हाथ नागटिब्बा जाते और वापसी में सामान उठा लेते। लेकिन ज्यादातर सदस्यों की राय थी कि टैंटों और स्लीपिंग बैगों के लिये और बर्तन-भाण्डों और राशन-पानी के लिये एक खच्चर कर लेना चाहिये। सबकी राय सर-माथे पर। 700 रुपये रोज अर्थात 1400 रुपये में दो दिनों के लिये खच्चर होते देर नहीं लगी। जिनके यहां रात रुके थे, वे खच्चर कम्पनी भी चलाते हैं। बडी शिद्दत से उन्होंने सारा सामान बेचारे जानवर की पीठ पर बांध दिया और उसका मुंह नागटिब्बा जाने वाली पगडण्डी की तरफ करके चलने को कह दिया।
अब हम सात जने थे- मैं, निशा, नरेन्द्र, पूनम, सचिन त्यागी, सचिन जांगडा और पंकज मिश्रा जी। ऊपर हम क्या क्या पकवान बनायेंगे, कितना बनायेंगे; सभी ने अपनी अपनी राय दी और खूब सारी सब्जियां, मसाले खरीद लिये। बर्तन ले लिये। कौन सा हमें खुद ढोना था? खच्चर जिन्दाबाद।


रात एक अजीब घटना हो गई। एक ग्रुप आया था शायद हरिद्वार से या देहरादून से नागटिब्बा की ट्रैकिंग करने। उन्हें वापस लौटना था। तो उनकी गाडी का जो ड्राइवर था, वो देहरादून का था और उसने दारू भी पी ली थी। ग्रुप ने चलने से मना कर दिया और ड्राइवर को लताडने लगे। ड्राइवर मूर्ख था। अड गया कि उसने दारू नहीं पी है। खूब शोर-शराबा हुआ। हम भी उसी होटल में बैठे तमाशा देख रहे थे। हमारे ग्रुप में दो महिलाएं थीं। सामने दारू में धुत्त आदमी बैठा गाली-गलौच कर रहा था तो उन्होंने टिकना ठीक नहीं समझा। बाद में वो चला गया, तब दोनों महिलाएं खाना खाने आईं। अब सुबह जब हम नाश्ता करने उस होटल में पहुंचे तो देखा कि वो ड्राइवर भी वही पर है। लेकिन अब उसके सिर से सारी भूत-बला उतर चुकी थी और इज्जत से बात कर रहा था। मौके की नजाकत को देखते हुए हमने उसे लपेट लिया। बेचारे ने खूब माफी मांगी और जब तक हम वहां से नाश्ता करके निकल नहीं गये, वो होटल के अन्दर नहीं आया।
अब थोडी सी बात हम पंकज मिश्रा जी के बारे में करते हैं। पंकज जी लखनऊ में कहीं ओरिएण्टल बैंक ऑफ कॉमर्स में मैनेजर हैं। उन्होंने इस ट्रैक के लिये देहरादून से देहरादून तक 4000 रुपये पहले ही जमा करा रखे थे। उधर यह मेरी भी पहली आयोजित यात्रा थी। कायदा यह था कि मैं देहरादून से ही उनके पन्तवाडी पहुंचने का इंतजाम करता। लेकिन ऐसा नहीं हो सका और मैंने उन्हें उनके ही खर्चे पर देहरादून से हरबर्टपुर बुला लिया। वे आये और कुछ कहा भी नहीं। फिर सारे मोलभाव, कमरा, खाने-पीने का खर्च सब उनके ही सामने हुआ। 1300 के तीन कमरे, 1400 में दो दिनों के लिये खच्चर, 500-600 में सारा राशन और यात्री सात। कुल मिलाकर 500-500 रुपये प्रत्येक के हिस्से में आ रहे थे। यानी पन्तवाडी से पन्तवाडी तक यात्रा का खर्च था केवल 500 रुपये प्रति व्यक्ति। अब अगर देहरादून से पन्तवाडी और वापस देहरादून आना-जाना भी जोड दें तो सारा खर्च किसी भी हालत में 1000 रुपये से ज्यादा नहीं बैठेगा। जबकि पंकज जी ने इसके 4000 रुपये चुकाये थे। 4000 रुपये देने वाले वे अकेले थे, बाकी सभी 1000 वाले ही थे। यह बात अवश्य उन्हें कहीं न कहीं खराब भी लगी होगी।
उन्हें खराब लगी हो या न लगी हो, लेकिन मुझे बहुत खराब लगी। मैं उन्हें पूरे पैसे वापस लौटाने का मन बना चुका था। जो वास्तविक खर्च होगा, उतने ही पैसे उन्हें देने होंगे। निशा से इस बारे में जिक्र किया, उसने थोडी देर रुक जाने को कहा। इसका जिक्र उसने नरेन्द्र और सचिन त्यागी से कर दिया। फिर इन दोनों ने मुझसे कहा कि उनसे 4000 की बात हुई थी, उन्होंने दे भी दिये। अब अगर किसी वजह से प्रति व्यक्ति 4000 से ज्यादा पैसे खर्च हो जाते तो क्या बाकी पैसे उनसे लेना ठीक होता? इसी तरह अगर 4000 से कम खर्च हो रहे हैं तो उन्हें लौटाना भी ठीक नहीं। मैंने कहा कि बात देहरादून से देहरादून की हुई थी, लेकिन वे हरबर्टपुर तक बस से अपने खर्च से आये और कुछ कहा भी नहीं। कोई दूसरा होता, तो आसमान सिर पर उठा लेता। सचिन ने कहा कि उन्होंने कुछ नहीं कहा, यह उनकी अच्छाई है। इसके बदले में हम उन्हें कल हरिद्वार छोड देंगे। उनकी लखनऊ वापसी की ट्रेन हरिद्वार से थी।
अक्सर मित्र लोग मेरे बारे में कहते हैं कि तू बिजनेस नहीं कर सकता। ठीक ही कहते हैं। अभी भी मैं इस बारे में सोचता हूं तो मन खराब हो जाता है। उन्होंने कुछ भी नहीं कहा लेकिन उनके सामने ही एक-एक हजार में हम सबकी यात्रा हो गई जबकि उन्हें चार गुने ज्यादा देने पडे। भले ही कुछ न कहा हो, लेकिन मन में तो जरूर आती होगी। हम कभी ट्रेन में स्लीपर में यात्रा करते हैं और कोई साधारण श्रेणी का यात्री आकर हमारी सीट पर भी बैठ जाता है तो हमें भी खराब लगता है- अबे हमने ज्यादा पैसे दिये हैं और तू कम पैसे देकर इसी श्रेणी में यात्रा कर रहा है? कहीं न कहीं महसूस जरूर होता है।
खैर, अब तो पैसे वापस लौटाने की बात करना ठीक नहीं है लेकिन पंकज जी को इससे भी रोमांचक ट्रैक पर लेकर जाऊंगा- वास्तविक खर्चे पर। मुझे उनका स्वभाव बहुत अच्छा लगा। हर परिस्थिति में हर किसी के साथ फिट हो जाने वाले और हर बात पर धीरे से मुस्करा देने वाले।
पन्तवाडी से यह सडक आगे चिन्यालीसौड गई है लेकिन इसमें से एक रास्ता अलग होता है जो करीब 10 किलोमीटर का है। कार आसानी से चली जाती है। चढाई है और नागटिब्बा वाली पगडण्डी इसे कई स्थानों पर काटती है। जो इनके काटने का आखिरी स्थान है, वहां एक तरफ कार लगा दी। कार से दस किलोमीटर तय करके हमें पैदल की 2 किलोमीटर की दूरी और 300 मीटर की ऊंचाई का फायदा हुआ। खच्चर वाला यहां मिल गया। गैर-जरूरी सामान कार में ही छोड दिया। कुछ और सामान खच्चर पर बांधा और ट्रैकिंग शुरू कर दी।

Nagtibba Trek in Winters
सबसे पीछे सचिन त्यागी की कार और सचिन जांगडा की बाइक... इन्हें हमने यहीं छोड दिया था।

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हमारा ग्रुप: बायें से- नरेन्द्र, निशा, पूनम, जांगडा, पंकज और त्यागी

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शुरू में ऐसा रास्ता है जो कभी भी अच्छा नहीं लगा।

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सचिन जांगडा धीरे-धीरे चलता रहा।

आपने अगर नागटिब्बा की दिसम्बर में की गई यात्रा का वृत्तान्त पढा होगा, तो यह भी जानते होंगे कि यहां जोरदार चढाई है। जंगल नहीं है और चौडी पगडण्डी है। मनुष्यों, खच्चरों और पशुओं का आना-जाना लगा रहता है इसलिये यहां धूल भी बहुत हो गई है। आपके आगे वाले के चलने के कारण धूल उडेगी और वो आपके फेफडों में जायेगी। इसलिये सभी इस धूल से बचते हुए अपनी-अपनी सुविधानुसार चल रहे थे और हम सात लोगों की लाइन काफी लम्बी हो गई थी। मैं सबसे कमजोर लोगों में से था, इसलिये पीछे ही रहा। सचिन जांगडा को भारी-भरकम शरीर के कारण कुछ परेशानी आई, वो पसीना-पसीना हो गया लेकिन यात्रा जारी रखी। रास्ते को देखकर उसने कहा कि वो यहां से मोटरसाइकिल भी ला सकता है। हालांकि इधर मोटरसाइकिल लाना इतना आसान नहीं है।
पानी की टंकी मिली। बोतलों में भर लिया। पांच-पांच लीटर की दो कैन भी लाये थे, जो अभी तक खाली थीं लेकिन अब उन्हें भी भर लिया। नागदेवता पर यानी जहां हम टैंट लगायेंगे, वहां एक कुआं है और उसका पानी आजकल पीने योग्य नहीं है। हालांकि स्थानीय लोग श्रद्धावश उस पानी को पी लेते हैं।

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यह जगह इस ट्रैक में पानी का एक मुख्य स्रोत है।

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इस टंकी के बाद जंगल शुरू हो जाता है लेकिन चढाई बरकरार रहती है। नीचे से कुछ परांठे पैक कराकर लाये थे। रास्ते में पडने वाले एक बुग्याल में उन्हें निपटाया। बुग्याल हमेशा ही सुन्दर होते हैं लेकिन इस बुग्याल की लोकेशन और कम ऊंचाई में स्थित होने के बावजूद काफी बडा फैलाव इसे विशेष बनाता है। बहुत से लोग यहां भी टैंट लगाकर रुकते हैं।
इस बुग्याल के बाद जंगल और घना हो जाता है और चढाई भी कम हो जाती है। अब न धूल थी और न रास्ते में पत्थर थे। जंगल का सन्नाटा और अच्छी हवा जहां चलने का हौंसला दे रही थी, वही भालू द्वारा खोदी गई मिट्टी और तनों पर पंजों के निशान डरा भी रहे थे।

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रास्ते में एक बुग्याल

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वीर तुम बढे चलो... पंकज जी और जांगडा

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आखिर में अच्छा खासा जंगल है।

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हमारा एक ऐसा साथी जो गुमनामी में खो गया... जिसकी सबसे कम परवाह की गई और सबसे कम फोटो खिंचे।

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पंकज जी एक सोते से पानी भरते हुए... इसमें कम ही पानी था लेकिन जो भी था, ताजा था।

रास्ते में नरेश सहगल की चार लोगों की टीम लौटती हुई मिली। वे सभी लोग नागटिब्बा ‘फतह’ करके आ गये थे। उन्होंने बताया कि ऊपर खूब सारी बर्फ है। बर्फ का नाम सुनते ही मेरी फूंक निकल गई। बर्फ में चलने से मुझे डर लगता है।

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रास्ते में नरेश सहगल की टीम लौटती हुई मिली... एक ग्रुप फोटो।

चार बजे हम नागदेवता मन्दिर पर पहुंचे। दूरी छह-सात किलोमीटर के आसपास है और हमने इसे साढे चार घण्टों में तय किया। रास्ते में बुग्याल में आधेक घण्टे के लिये परांठे खाने रुके भी थे। वैसे तो यहां सुबह पन्तवाडी से चलकर रात होने तक आराम से पन्तवाडी लौटा जा सकता है लेकिन 2600 मीटर की ऊंचाई पर रुकने का अलग ही आनन्द है। नरेश की टीम उस आनन्द से वंचित रह गई।
उजाले में ही टैंट लगा लिये। अब बारी थी जलाने के लिये सूखी लकडी लाने की। यहां रोज लोगों की आवाजाही हो रही है इसलिये आसपास सूखी लकडी मिलना आसान नहीं था। लेकिन बगल में ही एक सूखा ठूंठ खडा था। यह अन्दर से खोखला भी था और पूरी तरह सूखा और गला हुआ था। कुछ लोगों ने इसे गिराने का सुझाव दिया। यहां दो तरफ ढाल है, इसलिये हमें जहां से भी लकडी लानी है, नीचे ही उतरना पडेगा और उधर से बोझा ढोते हुए ऊपर चढना था। इस बारे में खच्चर वाले ने पहले ही तय कर लिया था कि लकडी के लिये हम सभी को सहयोग करना पडेगा। वो सूखा ठूंठ पास ही था, इसलिये उसे तोडने में जुट गये। लेकिन जितना हम हंगा लगाते, उतना ही वह मजबूत होता जाता। कुछ उसके नीचे से मिट्टी खोदी, कुछ रस्सी बांधकर खींचा। बेचारा कब तक टिकता? आखिरकार गिर पडा। अब बारी थी इसे दस मीटर ऊपर अपने टैंटों के पास ले जाने की। इस प्रक्रिया में इसने सभी के पसीने निकलवा दिये लेकिन सफल नहीं हुए। बल्कि दस मीटर ऊपर चढाने में यह बीस मीटर नीचे और लुढक गया। हमारी इसी को जलाने की सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया। फिर हम कुछ लोग नीचे जंगल में उतरे और वहां बहुतायत में पडे सूखे हल्के ठूंठ उठाकर ले आये।

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पहुंच गये नागदेवता... और दूर सबसे ऊंची चोटी नागटिब्बा है। आज हम यहीं रुकेंगे, कल नागटिब्बा जायेंगे।

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हमारे टैंट लग गये...

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सूखे और गल चुके ठूंठ को गिराने की कोशिश करते हुए...

चाय पीकर मैं, त्यागी और पंकज जी कुछ दूर एकान्त में बैठ गये। सूर्यास्त होने लगा था। उधर थोडी ही दूर दो लोमडियां भी दिखाई दीं- हिमालयन रेड फॉक्स। ये लोमडियां हिमालयी जंगल से लेकर उधर लद्दाख तक मिलती हैं। आदमी से दूर ही रहती हैं, हालांकि छोटे बच्चों को अकेला पाकर नुकसान पहुंचा सकती है। भेडों और बकरियों को तो नुकसान पहुंचाती ही है।

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हिमालयी लाल लोमडी...

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नागदेवता मन्दिर...

डिनर के लिये खिचडी बनाई। यह जिम्मेदारी नरेन्द्र से सम्भाली। वह बहुत अच्छा रसोईया है। उसने खिचडी बनाने में जी-जान लगा दी। इसी का नतीजा था कि यह बेहद स्वादिष्ट बनी। आप तो जानते ही होंगे कि स्वादिष्ट चीजें कम मात्रा में बनती हैं, इसलिये सभी ने दो-दो बार ले ली और सभी भूखे भी रह गये।
थर्मामीटर बता रहा था कि तापमान माइनस पांच डिग्री है। रात नौ बजे तक हम बाहर ही रहे। कभी आग के पास बैठ जाते, कभी इधर-उधर टहलने लगते। चांदनी रात थी। किसी को भी नहीं पता चला कि वे माइनस पांच डिग्री में हैं। अन्यथा शून्य से नीचे का तापमान बडा ही भयंकर माना जाता है। जब मैंने बताया कि इतना कम तापमान है तो सभी ने आश्चर्य भी किया कि महसूस ही नहीं हो रहा। लग रहा था शून्य से चार या पांच डिग्री ऊपर ही है। इसकी सत्यता जांचने को एक कप में पानी रख दिया। माइनस होगा तो सुबह जमा मिलेगा। और जब सुबह उठे तो यह अच्छी तरह जमा हुआ था।

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नरेन्द्र खिचडी बनाते हुए...

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चांदनी रात थी... तापमान माइनस पांच डिग्री था... और हम ग्रुप फोटो ले रहे थे...

हमारे पास छह स्लीपिंग बैग प्लस पांच डिग्री की क्षमता के थे और एक स्लीपिंग बैग था माइनस पांच की क्षमता का। जाहिर था कि माइनस पांच वाला स्लीपिंग बैग पंकज जी को मिला। वे अपने टैंट में अकेले थे, इसलिये रात को सर्दी लगने की ज्यादा सम्भावना उन्हीं को थी। फिर सभी लोग हल्के कम्बल भी लाये थे। स्लीपिंग बैग के अन्दर कम्बल ओढ लेने से सर्दी का असर बहुत कम हो जाता है। इसके बाद एक बात का डर और भी था। पंकज जी को अकेले होने की वजह से डर भी लग सकता है। चारों तरफ जंगल है जो लोमडियों और भालुओं, तेंदुओं से भरा है। जानवर हमारे आसपास तक भी आ सकते हैं। हालांकि टैंटों को तो कोई नुकसान नहीं पहुंचायेंगे लेकिन बाहर उनकी आवाज सुनकर अकेला आदमी डर सकता है। इसके लिये मैंने उन्हें अपने हिसाब से अच्छी तरह समझा दिया और कह दिया कि अगर डर लगे या ठण्ड लगे, या कोई भी परेशानी हो तो तुरन्त आवाज लगा देना।
मैंने और निशा ने अपना-अपना स्लीपिंग बैग जोड लिया। असल में दो तरह के स्लीपिंग बैग आते हैं- दाहिनी जिप वाले और बायीं जिप वाले। तो एक दाहिने और एक बायें बैग की चेन खोलकर इन्हें आपस में जोडा जा सकता है। मेरे पास दाहिनी जिप वाला एक ही स्लीपिंग बैग है, बाकी सभी बायीं जिप वाले हैं। इसलिये इस तरह का एक ही जोडा बन सकता है। इसके कई फायदे होते हैं। पहला फायदा, स्लीपिंग बैग के अन्दर दो इंसान होने के बावजूद भी दोनों के लिये काफी जगह बन जाती है। अन्यथा अकेला स्लीपिंग बैग बहुत तंग होता है और आप उसमें घुटने भी नहीं मोड सकते। दूसरा फायदा, एक ही बैग में दो इंसान होते हैं तो ठण्ड कम लगती है। बाकी फायदे आप अपने आप सोचते रहना।

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अगला भाग: जनवरी में नागटिब्बा-3

1. जनवरी में नागटिब्बा-1
2. जनवरी में नागटिब्बा-2
3. जनवरी में नागटिब्बा-3




Comments

  1. वो रात हमेशा याद रहेगी और वह खिचडी भी।
    मैने मिश्रा जी से पूछा था की हम सब शेयरिग बेस पर आए है ओर आप पैकेज पर, तब उन्होने कहां की ओर कम्पनियाँ भी यही पैकेज दे रही थी, लेकिन उसमे नीरज जाट व सचिन त्यागी जैसे पहचाने दोस्त नही थे, यह सुनकर अच्छा लगा।

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  2. नीरज भाई घणा हांगा लगाना भी ठीक ना.!
    बढ़िया पोस्ट..
    पंकज मिश्रा जी के साथ एक यात्रा लाजिमी है..

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    Replies
    1. सही कहा अरुण भाई... धन्यवाद आपका...

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  3. सच में ,तैयारी ना होने के कारण हमने ऊपर रात रूकने का चांस मिस कर दिया और साथ साथ ट्रैकिंग करने का भी.लेकिन जो चन्द लम्हे हमने पहली रात इकठ्ठे गुजरे वो हमेशा याद रहेंगे . फिर कभी ट्रैकिंग भी इकठ्ठी करेंगे और आपके साथ टेंट वाला अनुभव भी लेंगे .

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  4. ग्रुप में घूमने-फिरने का मजा ही कुछ और है .....

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  5. एक यात्रा तो बनती पंकज की पर कम खर्चे पर

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  6. वाह भाई वाह...
    तुम्हारे फोटो हमेशा निराले ही होते है...
    यात्रा भी रोचक है...
    ऐसा ग्रुप कम ही मिलता है...
    पंकज जी बृहद मानसिकता वाले प्रतीत होते है...
    बाकि उस पहलु पर तुम्हारा इतना सोचना तुम्हारी ईमानदारी बताता है...

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  7. बाकी फायदे आप अपने आप सोचते रहना।

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  8. बहुत खूब ,कभी मुझे भी ले चलिये

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  9. kya mai bhi chal sakta hu...!!!!

    Age 45 hai aur ek pair me thodi si problam bhi hai.

    Ashish Agrawal
    09431459211

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

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ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब