Skip to main content

चन्द्रखनी दर्रे के और नजदीक

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें
अगले दिन यानी 18 जून को सात बजे आंख खुली। रात बारिश हुई थी। मेरे टैंट में सुरेन्द्र भी सोया हुआ था। बोला कि बारिश हो रही है, टैंट में पानी तो नहीं घुसेगा। मैंने समझाया कि बेफिक्र रहो, पानी बिल्कुल नहीं घुसेगा।
सुबह बारिश तो नहीं थी लेकिन मौसम खराब था। कल के कुछ परांठे रखे थे लेकिन उन्हें बाद के लिये रखे रखा और अब बिस्कुट खाकर पानी पी लिया। सुनने में तो आ रहा था कि दर्रे के पास खाने की एक दुकान है लेकिन हम इस बात पर यकीन नहीं कर सकते थे।
मैंने पहले भी बताया था कि इस मैदान से कुछ ऊपर गुज्जरों का डेरा था। घने पेडों के बीच होने के कारण वह न तो कल दिख रहा था और न ही आज। हां, आवाजें खूब आ रही थीं। अभी तक हमारा सामना गद्दियों से नहीं हुआ था लेकिन उम्मीद थी कि गद्दी जरूर मिलेंगे। आखिर हिमाचल की पहचान खासकर कांगडा, चम्बा व कुल्लू की पहचान गद्दी ही तो हैं। गुज्जर व गद्दी में फर्क यह है कि गुज्जर गाय-भैंस पालते हैं जबकि गद्दी भेड-बकरियां। गुज्जर ज्यादातर मुसलमान होते हैं और गद्दी हिन्दू। ये गुज्जर पश्चिमी उत्तर प्रदेश व राजस्थान वाली गुर्जर जाति नहीं हैं।

इस मैदान को पार कर जब चढाई व जंगल शुरू हो गये तो गुज्जरों का डेरा भी दिखने लगा। तभी सुरेन्द्र को ध्यान आया कि उसका तौलिया नीचे ही छूट गया है। वह तौलिया लेने नीचे दौड पडा। उसकी जगह अगर मैं होता तो तौलिया लेने कभी नीचे नहीं जाता।
डेरा चन्द्रखनी वाले मुख्य रास्ते से करीब पचास मीटर हटकर था। हमें भूख तो नहीं थी लेकिन कुछ खास खाया भी नहीं था। अगर भूख लगनी शुरू हो जायेगी और खाना नहीं मिला तो फजीहत होनी तय थी। बस, थोडा प्रयास करना था और हम यहां कुछ खा सकते थे। मैंने अशोक से कहा कि वहां जाकर चाय के लिये पूछ आ लेकिन उसने जाने से बचने के लिये कुछ भी खाने-पीने से मना कर दिया। मधुर चीखने में माहिर था। उसने यहीं से चीखकर पूछा कि चाय मिल जायेगी क्या। गुज्जर उस समय यहां से विस्थापित होने की तैयारी कर रहे थे। काफी सारा सामान अगले डेरे में जा चुका था, बहुत थोडा सामान ही बचा था।
मधुर की आवाज सुनकर एक महिला की आवाज आई कि कुछ नहीं मिलेगा। हम निराश हो गये। तभी दूसरी महिला की आवाज आई कि आ जाओ। हम खुशी से दौड पडे। उसने बताया कि चाय तो नहीं है, बस दूध ही बचा है, चीनी भी नहीं है। मैंने कहा कि इसे ही गर्म कर दो। उसने एक छोटी पतीली में वहीं आग जलाकर दूध गर्म करके हमें दे दिया। अशोक ने दूध पीने से मना कर दिया। मधुर ने जैसे ही पहली घूंट भरी, बुरा सा मुंह बनाया। जब मैंने घूंट भरी, तो समझ गया कि मधुर ने मुंह क्यों बनाया था। असल में यह भैंस का दूध था। अगर आप नियमित थैलीबन्द या गाय का दूध पीते हैं, तो अचानक भैंस का दूध नहीं पी सकते। यह काफी नमकीन होता है। फिर इसमें चीनी भी नहीं थी। सुरेन्द्र ने भी एक गिलास के बाद और लेने से मना कर दिया। इसलिये मुझे ढाई-तीन गिलास दूध पीना पडा। वैसे तो मुझे भी भैंस के दूध की आदत नहीं है, दिल्ली में रहता हूं, थैलीबन्द दूध पीता हूं लेकिन इस दूध की पौष्टिकता को देखते हुए पी जाना पडा। दूध के साथ हम बिस्कुट भी खा रहे थे। उस महिला से हमसे बिस्कुट मांगे अपने बच्चों के लिये लेकिन हमें स्वयं अपनी चिन्ता थी और बिस्कुट ही हमारे आसरे थे इसलिये ज्यादा बिस्कुट हम उन्हें नहीं दे सकते थे। आधा पैकेट दे दिया। और दूध के लिये पचास रुपये भी।
गुज्जर व गद्दियों का कोई निश्चित ठिकाना नहीं होता। हिमालय में ये अपने अपने ‘माल’ के साथ गर्मियों में ऊंचाईयों पर जाते हैं और सर्दियों में नीचे आ जाते हैं। ये एक स्थान पर डेरा बनाते हैं, कुछ दिन बाद उसे छोडकर आगे बढ जाते हैं। आज इन गुज्जरों के आगे बढने का दिन था। हम कुछ ही दूर चले थे कि पीछे से वही महिला आती दिखाई दी। वह एक नम्बर की बातूनी थी। बताया कि वे कुछ आगे इस चन्द्रखनी वाले रास्ते को छोड देंगे और कुछ बायें जाकर डेरा लगायेंगे। अगर हम कहीं भटक जायें तो उनके ठिकाने पर आ जायें। वह बार-बार यही बात कहती रही। जब हमारा और उसका रास्ता अलग हो गया तब भी चिल्लाकर बताती रही- कहीं भटक जाओ तो हमारे यहां आ जाना। हमारा डेरा वहां है... देखो, वहां उस तरफ।
हमें बार-बार फोटो खींचते देखकर उसने पूछा कि आपको एक फोटो के कितने पैसे मिलते हैं? मैंने बताया कि एक भी नहीं। ... तो खींच क्यों रहे हो?... अपने मजे और यादगार के लिये।... कुछ दिन पहले एक विदेशी आया था। उसने बताया था कि बहुत पैसे मिलते हैं। हालांकि हमने उसे सन्तुष्ट करने की कोशिश की लेकिन वह सीधी-सादी अनपढ महिला सन्तुष्ट नहीं हुई। उसे लग रहा था कि ये बहुत मालदार हैं और लगातार फोटो इसीलिये खींचे जा रहे हैं ताकि और ज्यादा मालदार हो जायें।... काश! ऐसा हो पाता।
दस बजे जब हम 3000 मीटर की ऊंचाई पर थे तो एक बडा लम्बा चौडा मैदान मिला। इसे देखकर तबियत खुश हो गई। गढवाल में ऐसे मैदानों को बुग्याल कहते हैं। यह काफी ऊपर तक था। बीच बीच में पेड इसकी खूबसूरती और बढा रहे थे। मौसम खराब था ही, इसलिये बादल भी आ-जा रहे थे। अच्छा नजारा था।
इस मैदान को पार किया तो गद्दियों का एक डेरा मिला। इनकी भेडें इसी मैदान में चर रही थीं। उस समय डेरे पर दो महिलायें थीं। मौसम और भी खराब होने लगा था और हवा बडी तेज चल रही थी। इन्होंने बताया कि कुछ ही दूर एक होटल है जहां खाना मिल जायेगा। हमें भूख लगने लगी थी और चलने में परेशानी हो रही थी। खाना मिलने की बात सुनकर कुछ जान में जान आई और आगे बढ चले।
मैदान के बाद फिर से पेड दिखने लगे लेकिन अब बडे पेड समाप्त हो गये थे व छोटे पेड व झाडियां ही ज्यादा थीं। बीच-बीच में मिलने वाले छोटे छोटे ढलानदार मैदान नजारे को और भी खुशनुमा बना रहे थे। जमीन से बिल्कुल मिलकर तैरते बादल माहौल को रहस्यात्मक बना रहे थे।
बारह बजे जब 3200 मीटर पर थे तो बारिश होने लगी। रेनकोट पहनने पडे। गनीमत थी कि यह धौलाधार जैसी बारिश नहीं थी। धौलाधार में बारिश तो ज्यादा होती ही है, उससे भी ज्यादा गडगडाहट होती है और बिजलियां गिरती हैं। यहां पानी बहुत तेज गिर रहा था, हवा भी चल रही थी लेकिन गडगडाहट नहीं थी। एक जगह बैठे तो सर्दी लगने लगी। फिर उठने का मन नहीं किया। कल के चार परांठे बचे थे। चारों ने एक-एक खा लिए।
रेनकोट पहने होने के बावजूद हम चारों पूरी तरह भीग चुके थे। समझ नहीं आता कि रेनकोट के अन्दर पानी कहां से जा रहा था। क्या रेनकोट ही चू रहा है? असल में लगातार चढते रहने की वजह से पसीना खूब आ रहा था। रेनकोट ने शरीर पर एक रक्षा कवच बना दिया था। इस कवच के बाहर बेहद ठण्डा वातावरण था और अन्दर गर्म और नम वातावरण। जब अन्दर की नम हवा कवच को स्पर्श करती तो वह भी ठण्डी हो जाती और तुरन्त संघनित भी हो जाती यानी नमी पानी में परिवर्तित हो जाती। इससे कपडे और तेजी से गीले होने लगते। नतीजा हमें और ज्यादा ठण्ड लगने लगी।
ठण्ड से बचने का सर्वोत्तम तरीका था उठो और चलो। हमने ऐसा ही किया। कुछ देर बाद बारिश रुक गई और बादल इधर उधर हो गये। छोटे छोटे ढलानदार मैदान मिलते गये। चलने से पहले मेरा अन्दाजा था कि 3200 मीटर के बाद पेड पौधे मिलने बन्द हो जायेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऐसा हुआ लगभग 3400 मीटर की ऊंचाई पर पहुंचकर। हिमालय में एक निश्चित ऊंचाई के बाद पेड पौधे नहीं उगते। सिर्फ घासफूस और छोटी छोटी झाडियां ही होती हैं। ऐसे में हम दूर दूर तक देख सकते हैं। जब हम पेडों के साम्राज्य से बाहर निकले तो सामने एक ‘होटल’ दिखाई दिया।
यह लकडी और तिरपाल की एक झोंपडी थी जिसमें से धुआं उठता दिखा। समझते देर नहीं लगी कि यही वो जगह है जिसके बारे में हम नीचे से सुनते आ रहे हैं कि खाना मिलेगा। जल्दी ही हम इसके अन्दर थे। इसके बराबर में एक झोंपडी और थी जहां रजाई-गद्दे थे और रात को वहां आराम से सोया जा सकता था।
चन्द्रखनी दर्रा यहां से बहुत नजदीक दिख रहा था क्योंकि हमारे और दर्रे के बीच में कोई भी अवरोध नहीं था।
अब ज्यादा कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है कि हमने क्या-क्या खाया, क्या-क्या पीया, क्या-क्या किया। हालांकि हमारे पास दो टैंट थे लेकिन तय हुआ कि एक ही टैंट लगायेंगे। मधुर और अशोक रजाईयों में सोयेंगे।
आज हमने 2675 मीटर की ऊंचाई से पैदल चलना शुरू किया था और अब 3425 मीटर पर थे अर्थात केवल 750 मीटर ही ऊपर चढे। लेकिन लग रहा था कि 1000-1500 मीटर ऊपर आ गये हों। सामने दर्रा होने और पर्याप्त समय होने के बावजूद भी हमारी किसी की भी हिम्मत आगे बढने की नहीं हुई। हालांकि दर्रे पर टैंट लगाने लायक पर्याप्त से ज्यादा जगह थी।
कुछ देर बाद कुछ विदेशी आये। उनके बाद एक भारतीय दम्पत्ति आये। इन पति-पत्नी के साथ इनके 8-10 साल के दो बच्चे भी थे। अपना राशन-पानी और बडा टैंट, स्लीपिंग बैग ये स्वयं ढो रहे थे। ये दिल्ली के रहने वाले थे। आदमी तो दिल्लीवासी लग रहा था लेकिन उसकी पत्नी दिल्ली की नहीं थी। हमने पूछा तो नहीं लेकिन वह शक्ल-सूरत से लद्दाखियों से मिलती-जुलती थी। उनका सारा वार्तालाप अंग्रेजी में था जिससे मेरा यकीन बढ गया कि यह लद्दाख की ही है। हालांकि दिल्ली के कुछ ‘बडे’ लोग अपने बच्चों से भी अंग्रेजी में ही बोलते हैं। सुरेन्द्र ने कहा कि महिला गढवाली लग रही है। मैंने तुरन्त नकार दिया। गढवाल में तो बडी सुन्दर महिलाएं होती हैं। हां, ऐसा हो सकता है कि वह गढवाल के हिमालय-पार के इलाके की हो जैसे कि नेलांग और माणा।
यहां से कुल्लू हिमालय की कुछ ऊंची चोटियां दिखाई देती हैं। बायें मनाली की तरफ हनुमान टिब्बा और सामने इन्द्रासन। इनके अलावा बडा भंगाल और स्पीति की तरफ की भी कई चोटियां दिखाई देती हैं।
जब यहां टैंट लग गया तो सुरेन्द्र ने कहा कि उसके सिर में दर्द हो रहा है, उसे कुछ आराम करना है। ऊंचाई पर जाने पर अक्सर सिर में दर्द होने लगता है। वह टैंट में लेट गया और टैंट की चैन बन्द कर ली। मैं बाहर ही घूमता रहा और इधर उधर जा-जाकर नजारे देखने लगा। कुछ देर बाद वापस लौटा और जब चैन खोली तो शराब की दुर्गन्ध का भभका बाहर आया। सुरेन्द्र के साथ अशोक भी बैठा था। मैं शराब का विरोधी हूं लेकिन अगर सामने वाले ने पीनी शुरू कर ही दी है तो उसे रोकने में अपना दिमाग खराब नहीं करता हूं। मैंने कहा कि अगर तुम्हें पीनी ही है तो क्यों टैंट में घुसकर पी रहे हो? बाहर खुले में बैठकर पीयो। बोले कि नहीं, कोई ऐतराज करेगा तो...। मैंने कहा कि यहां कोई ऐतराज करने वाला नहीं है। अगर तुम्हें और चाहिये तो ‘होटल’ वाले से ले सकते हो। ये लोग घर की बनी हुई शराब पीते हैं।
फिर हिदायत दी कि तुम दोनों रजाई में सोओगे, नहीं तो रातभर टैंट में बदबू आती रहेगी। सुरेन्द्र बोला कि नहीं, बदबू नहीं आयेगी। इस बारे में कुछ देर तक बहस होती रही। हालांकि इसके बाद टैंट की चैन खुली रखी ताकि बदबू बाहर निकल जाये।
हम दो दिन चलकर यहां तक आये थे। लेकिन यह घाटी हिमालय की बाकी घाटियों की तरह टेढी-मेढी न होकर सीधी है। सामने ब्यास घाटी दिखती है और मनाली भी। इसका ढाल पश्चिमाभिमुख है तो डूबता सूरज व उसकी लालिमा देर तक दिखती रही। यह एक वाकई जादुई नजारा था। अन्धेरा हो जाने पर जादुई नजारे दिखाने का काम मनाली ने संभाल लिया। ब्यास की विस्तृत घाटी, मनाली और उसके परे सोलांग की रोशनियों ने रात को भी समां बांधे रखा।
यह जगह सभ्यता से दूर तो है लेकिन चूंकि सभ्यता सामने दिख रही थी तो मोबाइल नेटवर्क भी अनवरत काम करता रहा। कम से कम मेरा एयरटेल तो ठीक काम कर रहा था और इंटरनेट भी चल रहा था। इतनी ऊंचाई पर अत्यधिक ठण्ड में टैंट और स्लीपिंग बैग में घुसकर इंटरनेट चलाना वाकई मजेदार और अद्वितीय अनुभव था।

रात यहीं सोये थे।

गुज्जर डेरे पर हमारे लिये दूध गर्म हो रहा है।



दुग्धपान



एक बडा मैदान






गद्दण




सामने दिखता चन्द्रखनी दर्रा

सुरेन्द्र सिंह रावत के साथ

मधुर गौड के साथ। सफेद तम्बू में कुछ विदेशी रुके थे।

घाटी में ऊपर उठते बादल


इन्दौर वासी अशोक भार्गव



चन्द्रखनी दर्रा और उसके परे बर्फीली चोटियां


यहां मोबाइल नेटवर्क अच्छा काम कर रहा था।


यहां से सूर्यास्त के रंग देखने लायक होते हैं।






सूर्यास्त का एक दुर्लभ नजारा... साइज कम करने से फोटो में ब्लर आ गये हैं।




टैण्ट के अन्दर सुरेन्द्र


अगला भाग: चन्द्रखनी दर्रा- बेपनाह खूबसूरती

चन्द्रखनी ट्रेक
1. चन्द्रखनी दर्रे की ओर- दिल्ली से नग्गर
2. रोरिक आर्ट गैलरी, नग्गर
3. चन्द्रखनी ट्रेक- रूमसू गांव
4. चन्द्रखनी ट्रेक- पहली रात
5. चन्द्रखनी दर्रे के और नजदीक
6. चन्द्रखनी दर्रा- बेपनाह खूबसूरती
7. मलाणा- नशेडियों का गांव




Comments

  1. अत्यंत मनमोहक शब्द और फोटो, नीरज भाई। दिन की अद्भुत शुरुआत आपकी पोस्ट के साथ।
    वैसे AMS की परिस्थितियों में शराब पीना कहाँ तक उचित है, क्या यह जानलेवा भी हो सकता है? पिछले दिनों India Hikes की काफी फ़जीहत हुई थी लगातार 2 मौत के लिए, जिसमे से एक इल्जाम शराब के ऊपर लगा कर उन्होंने अपना पल्ला झाड लिया था

    ReplyDelete
    Replies
    1. शराब तो अंशुल जी कभी भी नहीं पीनी चाहिये। जैसा कि अशोक भार्गव ने नीचे टिप्पणी में लिखा भी है कि वो उस समय उनके लिये दवाई के समान थी, बिल्कुल झूठ है। जो लोग बिना शराब के जिन्दा नहीं रह सकते, उन्हें पीने के बहाने चाहिये।

      Delete
  2. गजब के खूबसूरत नजारें हैं
    धन्यवाद इस पोस्ट और फोटोज के लिये

    ReplyDelete
  3. रेनकोट में पानी का विवरण सुनते ही अपनी रुद्रनाथ यात्रा याद आ गई और कमरे में बैठे बैठे ठंडक वाली सिहरन उठ गई | तस्वीरों का तो बस क्या कहना 'अति सुंदर '|

    ReplyDelete
  4. नीरज भाई मनमोहक यात्रा का मनमोहक वर्णन , सूर्यास्त और रात के फोटो वास्तव मे अदभुद है। जब फोटो इतने अदभुद है तो वास्तिवक नज़ारा क्या होगा ? इतनी उचाई पर मोबाइल नेटवर्क और इंटरनेट का चलना वास्तव मे उन्नत टेक्नोलॉजी का ही कमाल है। अगली क़िस्त का इंतज़ार रहेगा।

    ReplyDelete
  5. Neeraj Bhai wo sharaab nahi Dawai thi us time hamare liye .... by the way nice pics and very well written, thank you so much for everything..It was a nice experience..

    ReplyDelete
  6. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति . इतनी सादगी से लिखते हो की लगता है हम खुद ही यात्रा कर रहे है. एक एक द्रश्य को अपने शब्दों से जीवंत कर देते हो .........

    ReplyDelete
  7. नीरज भाई सूर्यास्त व रात के फोटो जबरदस्त आए है.
    सुरेन्द्र व अशोक जी कितनी ले कर गए थे?,
    ये दोनो तो रम पीकर आराम से सो गए होगे पर आपको बदबू सहन करनी पडी होगी रात भर.

    ReplyDelete
  8. Maafi chahunga neeraj bhai ki aapse milne nahi aa saka..sach bolu to mujhe yaad hi nahi raha..or jab yaad aya to aap jasidih se gujar chuke the..aapko wapes likhta hua dekh ke khushi hui. ashish Gutgutia

    ReplyDelete
  9. Neeraj ji...
    Romanch badhta ja raha hai..wakai khubsurat vibran hai hai aapki yatra k...aur photo k kiya kahne..aur kisto me padhne ka maza hi kuch aur hai...
    Ranjit...

    ReplyDelete
  10. Neeraj ji...
    Romanch badhta ja raha hai..wakai khubsurat vibran hai hai aapki yatra k...aur photo k kiya kahne..aur kisto me padhne ka maza hi kuch aur hai...
    Ranjit...

    ReplyDelete
  11. अद्भुत यात्रा ..। आपके हौसलों को सलाम ।

    ReplyDelete
  12. अद्भुत यात्रा सूर्यास्त के फोटु गजब ढाह रहे है -- इस बार नीरज फोटु में छाया हुआ है ---

    ReplyDelete
  13. नीरज जी जानकारी के लिए हिमाचल जम्मू कश्मीर आदि के गुज्जर और राजस्थान दिल्ली हरयाणा आदि के गुर्जर एक ही समुदाय है। हिमाचल और जम्मू कश्मीर में दोनों तरह के गुर्जर हैं सेटल्ड भी और नोमेडिक भी। हिमालय पर ये गुर्जर असल में मारवाड़ और गुजरात से ही 12 वी सदी के बाद आये थे। गद्दी भी ज्यादातर जाति से गुज्जर ही हैं जम्मू कश्मीर में इन्हें बक्करवाल गुज्जर कहा जाता है। ये उत्तराखंड से लेकर पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान तक हैं।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब