Skip to main content

डायरी के पन्ने-23

ध्यान दें: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। इनसे आपकी धार्मिक और सामाजिक भावनाएं आहत हो सकती हैं। कृपया अपने विवेक से पढें।

1. 27 जून को जब ‘आसमानी बिजली के कुछ फोटो’ प्रकाशित किये तो उस समय सबकुछ इतना अच्छा चल रहा था कि मैं सोच भी नहीं सकता था कि तीन महीनों तक ब्लॉग बन्द हो जायेगा। अगली पोस्ट 1 जुलाई को डायरी के पन्ने प्रकाशित होनी थी। यह ‘डायरी के पन्ने’ ही एकमात्र ऐसी श्रंखला है जिसमें मुझे एक दिन पहले ही पोस्ट लिखनी, संशोधित करनी, ब्लॉग पर लगानी व सजानी पडती है। भले ही मैं दूसरे कार्यों में कितना भी व्यस्त रहूं, लेकिन निर्धारित तिथियों पर ‘डायरी के पन्ने’ प्रकाशित होने ही हैं। 30 जून को भी कुछ ऐसा ही हुआ। पिछले पन्द्रह दिनों में मैंने डायरी का एक शब्द भी नहीं लिखा था। बस कुछ शीर्षक लिख लिये थे, जिन पर आगामी डायरी में चर्चा करनी थी। 30 तारीख को मैं उन शीर्षकों को विस्तृत रूप देने में लग गया। मैं प्रत्येक लेख पहले माइक्रोसॉफ्ट वर्ड में लिखता हूं, बाद में ब्लॉग पर लगा देता हूं। उस दिन, रात होते होते 6700 शब्द लिखे जा चुके थे। काफी बडी व मनोरंजक डायरी होने वाली थी।

रात को ऑफिस चला गया। अगले दिन यानी 1 जुलाई की सुबह वापस लौटा तो जोरों की नींद आ रही थी। लेकिन डायरी अभी भी वर्ड में ही पडी थी, उसे ब्लॉग पर प्रकाशित करना था। और यह प्रकाशन कोई साधारण प्रकाशन नहीं होता कि वर्ड से कॉपी करके लाओ और इधर पेस्ट करके पब्लिश बटन दबा दो। पेस्ट करने के बाद भी बहुत सारी एडिटिंग करनी होती है। ज्यादातर एडिटिंग एचटीएमएल मोड में जाकर करता हूं। फिर निर्धारित जगहों पर लिंक भी लगाने होते हैं। लिंक के लिये पहले उस साइट को खोलना पडेगा, फिर यूआरएल कॉपी करके ब्लॉग में पेस्ट करना पडेगा। धीमी नेट स्पीड पर इस काम में बहुत समय लगता है। आखिरकार जब सबकुछ हो गया, तो दस बज चुके थे। नींद की हालत ये थी कि एडिटिंग करते समय मैं कई बार ‘लुढक’ चुका था। जबरदस्ती आंखें खोल रखी थीं। जिस समय पब्लिश बटन दबाने जा रहा था, तो बस यही सोच रखा था कि लैपटॉप बन्द भी नहीं करूंगा और बिस्तर पर लुढक जाऊंगा।
लेकिन पोस्ट प्रकाशित नहीं हुई। बटन दबाता, प्रोसेसिंग चलती रहती और आखिरकार प्रकाशन की मनाही हो जाती। दूसरे ब्राउजर में भी कोशिश की लेकिन बात नहीं बनी। रिफ्रेश किया, नये सिरे से ब्लॉग खोलकर कोशिश की लेकिन कुछ नहीं हुआ। इसके लिये असल में कई बातें जिम्मेदार थीं। लेकिन मुख्य रूप से जिम्मेदार धीमी नेट स्पीड थी। आखिरकार जब एक घण्टा और हो गया तो मैं सबकुछ बन्द करके सोने चला गया और साथ ही साथ मोबाइल से फेसबुक पर एक अपडेट भी डाल दिया- Good Bye Blogging.
इस घटना को आज तीन महीने हो गये। तब के मुकाबले अब ज्यादा बेहतर है- लैपटॉप भी और नेट स्पीड भी। इस बीच जो भी कुछ हुआ, वो मायने नहीं रखता। आज एक दफे तो मन में आया भी कि पिछली अप्रकाशित डायरी को ही प्रकाशित कर दूं लेकिन बासी चीज बासी होती है। समसामयिक घटनाओं को अगर आप तीन महीने बाद पढेंगे तो उसमें से बासीपन की बू आयेगी ही। 6700 शब्द ड्राफ्ट में पडे हैं, शायद डिलीट भी कर दूं लेकिन वे चूंकि बासी हो चुके हैं, इसलिये प्रकाशन योग्य नहीं रहे।
चलिये, अब बताता हूं इन तीन महीनों में मैंने क्या किया। लिखने का कुछ काम नहीं हुआ। आठ दिन छत्तीसगढ में बिताये, आठ दिन जांस्कर में और आठ ही दिन पैसेंजर ट्रेन यात्राओं में। इनमें से कोई भी यात्रा वृत्तान्त नहीं लिखा। लैपटॉप की आदत ही खत्म सी हो गई। समय ज्यादातर किताबें पढने व टीवी देखने में बीतता रहा। इसी की देखा-देखी एक दिन मोबाइल बन्द कर दिया। पूरे दिन बिना मोबाइल के रहा, यहां तक की ऑफिस में भी। फिर सोचा कि अब जमाना ही इन्हीं चीजों का है, अब इन्हें छोडकर आदिम युग में जाना मूर्खता ही कही जायेगी।

2. दिनेशराय द्विवेदी जी कोटा में रहते हैं और बडे वकील हैं। एक दिन इन्होंने लिखा कि भारत वस्तुतः एक राष्ट्र नहीं है, बल्कि कई राष्ट्रों का एक संघ है। इससे मेरा बहुत दिनों से चला आ रहा एक द्वन्द्व समाप्त हो गया।
बात हिन्दी के मुद्दे से शुरू होती है। जब भी हम देश में हिन्दी को लागू करने की बात करते हैं, तो अहिन्दीभाषी प्रदेशों में विरोध शुरू हो जाता है। होना भी चाहिये। अगर कल हमसे कहा जाये कि हमारे लिये बंगाली सीखनी आवश्यक है या तमिल सीखनी आवश्यक है तो क्या हम विरोध नहीं करेंगे? जहां मातृभाषा हिन्दी नहीं है, उनसे अगर कहा जाये कि आपको हर काम अब हिन्दी में करना है तो निश्चित ही विरोध होगा। फिर हमारे हिन्दीप्रेमी राष्ट्रभक्त आरोप लगाते हैं कि गैर हिन्दीभाषी देशप्रेमी नहीं होते।
हिन्दी कहां कहां बोली जाती है? असल में हिन्दीभाषी इलाका बडा छोटा सा है। हैरान मत होना, इस बात को समझना पहले। पूरे उत्तर भारत समेत बिहार, झारखण्ड, एमपी, छत्तीसगढ, राजस्थान को हिन्दीभाषी कहा जाता है लेकिन ऐसा नहीं है। इनमें से बहुत बडा इलाका ऐसा है जहां के निवासी दो-दो भाषाएं बोलते हैं और हिन्दी उनकी द्वितीयक भाषा है। उनकी मूल भाषा की लिपि देवनागरी है, स्कूली पढाई लिखाई हिन्दी में होती है लेकिन फिर भी हिन्दी वहां की प्राथमिक भाषा नहीं है। केवल हिन्दी जानने वाला उनकी प्राथमिक भाषा को नहीं समझ सकता। ये इलाके हैं पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ और राजस्थान। मध्य प्रदेश को भी इसमें जोड सकते हैं। ये राज्य हिन्दी भाषी नहीं हैं। हालांकि इन राज्यों की पूरी की पूरी जनसंख्या हिन्दी जानती है लेकिन केवल द्वितीयक भाषा के तौर पर ही। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड में भोजपुरी है। वह एक बेहद समृद्ध भाषा है। उसका तो सिनेमा भी भारत से बाहर विदेशों तक में पैर पसार चुका है। छत्तीसगढ में छत्तीसगढी बोली जाती है। अगर आपको छत्तीसगढी नहीं आती है, तो आप लाख दिमाग लगा लो, इस भाषा के एक भी शब्द को नहीं समझ पायेंगे। हालांकि छत्तीसगढी देवनागरी में लिखी जाती है। इसी तरह राजस्थानी है। दिल्ली के नजदीक के जो इलाके हैं- अलवर, भरतपुर आदि, यहां की राजस्थानी तो कुछ कुछ समझ में आ भी जाती है लेकिन बाकी जिलों की भाषा नहीं। कुछ शब्द समझ आ जायें तो इसका अर्थ यह नहीं है कि पूरी भाषा समझ आ रही है।
उत्तराखण्ड में गढवाली कुमाऊंनी हैं, हिमाचल में हिमाचली है, लाहौल-स्पीति में तिब्बती है। ये भी हिन्दी से बिल्कुल भिन्न भाषाएं हैं। अब बचा क्या? मन तो कर रहा है कि हरियाणवी को भी गैर हिन्दी कर दूं। और वास्तव में है भी ऐसा ही। हरियाणवी भी हिन्दी से अलग भाषा है जो काफी हद तक हिन्दी से मिलती जुलती है।
पंजाब में पंजाबी बोली जाती है और लिखी जाती है गुरमुखी लिपि में। लेकिन अगर आपके सामने कोई पंजाबी में बात कर रहा हो तो आप उसकी लगभग पूरी बात समझ जायेंगे, भले ही आपको पंजाबी पढनी-लिखनी न आती हो। लेकिन अगर आपके सामने भोजपुरी या राजस्थानी में बात हो रही हो तो आप उतना नहीं समझ सकेंगे। छत्तीसगढी और कम समझेंगे, मराठी बिल्कुल नहीं समझेंगे, बंगाली व गुजराती भी काफी हद तक समझ लेंगे। इस लिहाज से पंजाबी भाषा राजस्थानी-भोजपुरी के मुकाबले हिन्दी के ज्यादा नजदीक हुई। हरियाणवी और नजदीक हो गई। कोई भाषा हिन्दी के कितनी नजदीक है या कितनी दूर है, इससे कोई फर्क नहीं पडता।
अब तो आपको पता चल ही गया होगा कि मूल हिन्दी कहां बोली जाती है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन जो एक भाषाविद भी थे, के अनुसार मूल हिन्दी मेरठ के आसपास बोली जाती है। मेरठ के आसपास कहने का अर्थ है कि मुजफ्फरनगर सहारनपुर तक भी। अपनी जीवन-यात्रा में उन्होंने कई बार इस बात का उल्लेख किया है। एक बार वे मुजफ्फरनगर गये थे तो उन्होंने लिखा है- मैं धन्य हो गया मूल हिन्दी की धरती पर कदम रखकर।
कोई भाषा अगर देवनागरी में लिखी जाती है तो इसका यह कतई अर्थ नहीं है कि वो हिन्दी है। वो नेपाली भी हो सकती है और अरुणाचली भी।

3. फेसबुक पर एक मित्र हैं- शम्भू नाथ शुक्ला। कोई बडे आदमी हैं। अक्सर अपडेट देते रहते हैं कि फलां टीवी चैनल ने इंटरव्यू के लिये बुलाया, फलां ने बहस के लिये बुलाया। छोडिये इस टीवी की दुनिया को। फेसबुक पर ही लौट आते हैं। ये स्वयं को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं यानी सेकूलर। और हैं भी ये कट्टर सेकूलर। कट्टर सेकूलर वो होता है जो सभी धर्मों की भयंकर इज्जत करता है सिवाय भारतीय मूल धर्मों के खासकर हिन्दुत्व के। शुक्ला साहब तीस दिनों तक चलने वाले रोजों का समर्थन करते हैं, जबकि एक दिन वाले व्रत को फालतू और अन्धविश्वास बताते हैं। उनके अपडेट फेसबुक मुझे भी दिखा देता है तो मैं भी कभी कभी टिप्पणियां कर देता हूं। ज्यादातर विरोध में ही करता हूं। वे ठहरे बडे आदमी, क्यों हर किसी का जवाब देंगे?
एक और खूबी है साहब में। ये कम्यूनिस्ट भी हैं। कम्यूनिस्ट हमेशा एक ही देश की प्रशंसा करता है और वो देश है चीन। उनके लिये चीन से ज्यादा ईमानदार, सीधा, सच्चा देश दुनिया में कोई भी नहीं है। लगा दिया एक अपडेट कि भारत ने चीन का 45000 वर्ग किलोमीटर इलाका दबा रखा है। इतिहास बताने लगे कि पंजाब की सेना ने एक बार चीन पर हमला किया था तो चीनियों ने उन्हें ल्हासा से भगाया था। अंग्रेजों ने सीधे-सादे ईमानदार चीन की जमीन पर ही भारत-चीन सीमा रेखा खींच दी। यह पढकर मेरा खून जल उठा, वाकई नफरत हो गई कम्यूनिस्टों से। मैंने जवाब दिया कि आप जो चीन-चीन कर रहे हैं, वो इलाका उस समय तिब्बत देश था। पंजाब ने पहले लद्दाख को जीता, फिर लद्दाख की ही मदद से तिब्बत को जीतने चल दिया लेकिन कैलाश मानसरोवर के पास जब वे पहुंचे तो बर्फ पड गई व दोनों की संयुक्त सेनाएं वहीं फंस गईं व सर्दियां गुजरने का इन्तजार करने लगीं। तभी चीन व तिब्बत की संयुक्त सेनाओं ने इन पर आक्रमण कर दिया। ये भारतीय सेनाएं तो बेचारी ल्हासा तक भी नहीं पहुंची थीं, फिर चीनियों ने भगाया किसको था? फिर मैंने पूछा कि आप जो 45000 वर्ग किलोमीटर की बात कर रहे हैं कि भारत ने चीन का इलाका दबा रखा है, वो इलाका कौन सा है और कब दबाया था?
कम्यूनिस्ट साहब जो कभी हम जैसे तुच्छ अज्ञानी लोगों के जवाब नहीं देते थे, पहली बार जवाब दिया। लताड दिया मुझे- “चुप, तुम्हे बडों से बात करने की अक्ल नहीं है। पहले अक्ल सीखकर आओ, फिर इतिहास की बात करना।”

4. दिल्ली चिडियाघर में एक लडका सफेद बाघ के बाडे में जा घुसा। बाद में उसे बाघ ने मार डाला। मीडिया में उस लडके के प्रति बडी हमदर्दी मची हुई है। सभी उसे निर्दोष और चिडियाघर प्रशासन को दोषी ठहरा रहे हैं। मैंने चिडियाघर देखा हुआ है। यहां ज्यादातर जानवर खुले में हैं। खुले में अर्थात किसी पिंजरे में नहीं हैं। उनके छोटे से इलाके के बाहर एक गहरी खाई है जो अक्सर पानी से भरी रहती है, कभी नहीं भी भरी होती। खाई के दूसरी तरफ बडी ऊंची सीधी दीवार है जिसके पास से दर्शक बाघ को देखते हैं। तेंदुए को छोडकर सभी बडे जानवरों के बाडे इसी तरह के हैं। तेंदुआ बडा दुस्साहसी जानवर होता है। वह जोड-जाड करके कूद-फांद करके किसी तरह इस तरह की खाई को पार कर सकता है, इसलिये उसका बाडा चारों तरफ से दोहरी जाली से ढका है। किसी को तेंदुआ दिखे तो ठीक, नहीं दिखे तो भी ठीक।
उधर सफेद बाघ के लिये ऐसा करना आसान नहीं है। लेकिन अगर कोई आदमी उस दीवार को फांदकर उसके बाडे में प्रवेश कर ही जायेगा, तो बेचारा बाघ भी करेगा क्या? बताते हैं लडका बारहवीं का छात्र था। निश्चित ही अपने यार-दोस्तों के साथ आया होगा। मैंने चिडियाघर में ऐसे लडकों को खूब देखा है। वे शान्त बैठे जानवरों को खूब छेडते हैं, चिल्लाते हैं और यहां तक कि पत्थर भी फेंकते हैं। अब अगर वो लडका बाघ के बाडे में घुसता है तो ऐसे लडकों को मैं बस आवारा ही कहूंगा। अगर वो आवारागर्दी छोडकर डिस्कवरी या ज्योग्राफी चैनल एकाध बार देख लेता तो वह जान से हाथ नहीं धोता। मरना तो था ही, मौत तो निश्चित थी; इतना जानकर भी अगर वो एक बार बाघ के सामने डटकर खडा हो जाता, तो उसकी जान बच जाती। हालांकि मेरा सामना कभी ऐसे हालातों से नहीं हुआ है, बात बनानी बडी आसान है। लेकिन फिर भी मैं सही कह रहा हूं। उस लडके की ही सारी गलती है। अगर आप जानबूझकर बाघ के मुंह में सिर घुसाओगे तो बाघ आपको खायेगा ही खायेगा। इसमें चिडियाघर प्रशासन की क्या गलती है? आप जानबूझकर मरने जा रहे हो और कोस प्रशासन को रहे हो? शर्म की बात है।
वीडियो देखने से स्पष्ट पता चल रहा है कि बाघ ने लडके को खाने के लिये नहीं मारा था। वो बाघ इसी चिडियाघर में ही पैदा हुआ था, जन्म से ही मनुष्यों को देखता आ रहा था। मनुष्य ही उसे खाने को नियमित देता था। उसे मनुष्य से कोई डर नहीं था। मनुष्य को वह चूंकि जन्म से देखता आ रहा था, इसलिये उसे वह अपना मित्र समझता था। जब लडका उसके बाडे में उतरा, तो बाघ उसके पास आया लेकिन बहुत देर तक वह उसे कुतूहल से देखता रहा। उसे पता ही नहीं था कि अब क्या करूं। उसे तो बेचारे को खेलना भी नहीं आता था। बाद में दर्शकों ने जब पत्थर मारने व शोरगुल करना शुरू कर दिया तो बाघ ने इंसानियत दिखाते हुए लडके को पत्थरों से बचाने के लिये उठाया और दूर ले गया। यह बिल्ली परिवार की जन्मजात प्रवृत्ति होती है। अपने बच्चों को भी वे सुरक्षित जगह पर ले जाने के लिये इसी तरह उठाते हैं। बच्चों की गर्दन मजबूत होती है और लम्बे लम्बे बाल भी होते हैं लेकिन मनुष्य की गर्दन पर ऐसा कुछ नहीं होता। इसी बचाने की प्रक्रिया में खून बह जाने से लडके की मृत्यु हो गई।

5. हाल ही में भारत का मंगलयान मंगल की कक्षा में प्रवेश कर गया। पूरी दुनिया हैरान है, हर भारतीय एक दूसरे की पीठ थपथपा रहा है। लेकिन जब इसका प्रक्षेपण हुआ था, तब ऐसा नहीं था। ज्यादातर भारतीय इसकी आलोचना कर रहे थे। उनका कहना था कि जब देश की इतनी बडी आबादी गरीब है, ऐसे में करोडों के खर्चे वाला ऐसा काम नहीं करना चाहिये। आज भी कुछ लोगों का तो यहां तक मानना है कि अगर उस पैसे को गरीबों में बांट दिया जाता तो ज्यादा बेहतर होता। जबकि ऐसा नहीं है। आप हर आदमी को कुछ हजार रुपये देकर उसकी गरीबी दूर नहीं कर सकते। आदमी असल में धन से नहीं बल्कि अपनी सोच की वजह से गरीब या अमीर होता है। मैंने बहुत से ऐसे देखे हैं जिनके पास बहुत थोडी सी अनुपजाऊ जमीन थी। वो जमीन बाद में किसी प्रोजेक्ट भी भेंट चढ गई और उस गरीब आदमी को उसका अच्छा मुआवजा मिला। कई तो लखपति भी हो गये लेकिन जल्दी ही वे फिर से गरीब हो गये व सडकों पर आ गये। बहुत से निर्धन ऐसे देखे हैं जिन्होंने अपने एक-एक रुपये की महत्ता समझी, उसे ठीक जगह खर्च किया। आज वे धनवान हैं। बहुत से धनवानों को भी मिट्टी में मिलते देखा है।
यानी निर्धन होना या धनवान होना कोई पैसे का खेल नहीं है बल्कि आदमी की सोच का नतीजा है। हालांकि हर कोई धनवान होना चाहता है लेकिन चाहने में व सोच में बडा अन्तर है। मंगलयान का पैसा अगर गरीबों में बांट देंगे, उन्हें लखपति बना देंगे, तो कल वे फिर उसी स्थिति में आ जायेंगे। केवल पैसों से ही गरीबी दूर नहीं होती।

6. कश्मीर में बाढ आई। कथित राष्ट्रवादियों में खुशी की लहर दौड गई। अगर पाकिस्तान में ऐसी बाढ आती, पूरा लाहौर तबाह हो जाता, तब भी इतनी खुशी नहीं दिखती, जितनी अपने ही कश्मीर को बर्बाद होते देखने से हुई। सच बताऊं तो मुझे भी खुशी मिलती थी कि आज वे कश्मीरी जिनके लिये भारत कोई दूसरा देश है, हाथ फैलाये लाचार थे। सेना ने जबरदस्त बचाव कार्य किया। इसके बावजूद भी कुछ कश्मीरियों ने सेना पर ही पत्थरबाजी कर दी। यह बिल्कुल शर्मनाक हरकत है। मन में आता कि बाढ और भीषण हो जाये। डल झील काजीगुण्ड से बारामूला तक फैल जाये।
चलिये, इसी बहाने 1947 में चलते हैं। साढे पांच सौ के आसपास रियासतें थीं उस समय भारत में। भारत व पाकिस्तान को विभाजित करती हुई रेडक्लिफ लाइन खींची जा चुकी थी। लेकिन इसके बावजूद भी दोनों देशों की रियासतों को ये अधिकार था कि वे किसी भी देश में शामिल हो सकती थीं या स्वतन्त्र देश भी बन सकती थीं। भारतीय सीमा के अन्दर कुछ रियासतों ने पाकिस्तान में शामिल होने का निश्चय किया। इनमें हैदराबाद व जूनागढ मुख्य थीं। उधर कश्मीर ने तय किया कि वह एक स्वतन्त्र देश बनेगा। उस समय कश्मीर भारत के लिये बिल्कुल भी सिरदर्द नहीं था। वो भले ही पाकिस्तान में शामिल हो जाता, भारत पर इसका कोई ज्यादा असर नहीं पडना था, क्योंकि उसकी सीमा पाकिस्तान से ज्यादा मिलती थी, भारत से कम। दूसरी बात, 1947 तक भारत के नक्शे में वर्तमान पाकिस्तान व बांग्लादेश भी थे, तो हमारी मातृभूमि यानी भारतमाता ईरान से लेकर म्यांमार तक फैली हुई थी। फिर 1947 आया, विभाजन हुआ, सीमाएं बनीं तो भारतामाता का एक बहुत बडा हिस्सा कटकर अलग हो गया। अचानक नये नक्शे बने, नई भारतमाता बनी। भारत के अभिन्न अंग सिन्ध, पश्चिमी पंजाब, पूर्वी बंगाल आदि अलग हो गये। इसी दौरान अगर कश्मीर भी भारत से अलग हो जाता, तो कोई फर्क नहीं पडना था। जहां अचानक माता का इतना बडा हिस्सा अलग हुआ, वहां एक नन्हा सा हिस्सा और सही।
लेकिन एक बात और भी थी। हैदराबाद व जूनागढ पाकिस्तान में शामिल होने जा रहे थे। ये दोनों रियासतें पूरी तरह भारतीय सीमा के अन्दर थीं। तो भारत ने सोचा कि अगर यहां पाकिस्तान बन जायेगा तो यह एक नासूर की तरह होगा, एक फोडे की तरह होगा जो भविष्य में भारत के लिये घातक ही होगा। इसलिये इसका इलाज करना जरूरी समझा व सेनाएं भेज दीं। उधर कश्मीर की सीमा भारत से उतनी स्पर्श नहीं करती थी, जितनी पाकिस्तान से। अगर वह पाकिस्तान में मिलता या स्वतन्त्र देश बनता तो उसे भारत से बाहर ही बाहर रहना था, नासूर नहीं बनता। कश्मीर के स्वतन्त्र होने के निर्णय पर भारत ने चुप रहकर उसे एक तरह की मंजूरी भी दे दी थी।
बलूचिस्तान जो आज पाकिस्तान में है, ने भारत में रहने की इच्छा जाहिर की थी लेकिन जो भारत ने हैदराबाद में किया, वही पाकिस्तान में बलूचिस्तान में किया। चन्द दिनों पहले ही बलूचिस्तान भारत का हिस्सा था, वह भारत में रहना भी चाहता था लेकिन आज हमें उसके भारत में न रहने का कोई दुख नहीं है। इसी तरह अगर कश्मीर अलग हो जाता, तब भी आज हमें कोई दुख नहीं होता।
लेकिन पाकिस्तान सब्र नहीं कर सका। उसने कश्मीर पर हमला बोल दिया। चूंकि भारत के लिये कश्मीर अलग देश बन चुका था, इसलिये कोई दो देश पाकिस्तान व कश्मीर लडे, भिडें; उससे भारत को कोई वास्ता नहीं था। वास्ता तब पडा, जब कश्मीर भारत के पास सहायता मांगने आया। भारत ने शर्त रखी कि अगर तुम भारत का हिस्सा बनो तो हम सहायता करेंगे, अन्यथा नहीं। उसके बाद क्या हुआ, यह तो सबको मालूम ही है। कश्मीर ने बाकायदा यानी साढे पांच सौ रियासतों की तरह भारत में विलय कर लिया और भारत का अभिन्न अंग बन गया।

7. गांधी जयन्ती पर प्रधानमन्त्री की पहल पर देशभर में सफाई अभियान चला। इसमें मुख्यतः सडकों पर झाडू लगाई गई और फोटो खींची गई। प्रधानमन्त्री ने चूंकि इस अभियान की शुरूआत की, इसलिये उन्हें सांकेतिक तौर पर झाडू लगानी थी। उन्होंने कई स्थानों पर ऐसा किया भी। साथ ही बडे बडे गणमान्य लोगों ने भी यहां-वहां सफाई की। शाम तक सोशल नेटवर्किंग साइटों पर सफाई अभियान की फोटो काफी संख्या में दिखने लगीं। इनमें से बहुत से लोगों ने ऐसी जगह झाडू लगाई, जहां पहले से ही चकाचक सफाई थी। बहुतों ने जिन्दगी में पहली बार झाडू पकडी केवल फोटो खिंचवाने के लिये। यह सफाई अभियान नहीं बल्कि झाडू के साथ फोटो अभियान बन गया।
वास्तव में झाडू मारने से गन्दगी समाप्त नहीं होती। झाडू से केवल गन्दगी इधर से उधर हो जाती है। आपके सामने गन्दगी पडी है, आपने झाडू मार दी, गन्दगी दूसरे के सामने चली गई। दूसरा भी झाडू मारेगा, तीसरे के सामने चली जायेगी। ऐसा होता रहेगा लेकिन गन्दगी कभी समाप्त नहीं होगी। आप अपनी पूरी ऊर्जा लगा दो, पूरा पैसा लगा दो, पूरा समय लगा दो; लेकिन झाडू से कभी भी सफाई नहीं कर सकोगे। चारों तरफ का कूडा एकत्र करके एक जगह डाल दोगे, कूडे का पहाड बन जायेगा लेकिन कूडा कभी समाप्त नहीं होगा। आपके सामने पडा था, अब दूसरे के सामने पडा है।
सफाई का सर्वोत्तम तरीका है गन्दगी न फैलाना। हमें वास्तव में झाडू मारने की प्रतिज्ञा नहीं करनी है, सौ घण्टे सफाई करने की भी प्रतिज्ञा नहीं करनी है बल्कि गन्दगी न फैलाने की प्रतिज्ञा करनी है। लेकिन ऐसा होना असम्भव है। आज हमारी जरुरतें इतनी बढ चुकी हैं कि हमेशा अपशिष्ट उत्सर्जित होते ही रहते हैं। हमेशा कूडा बनता ही रहता है। चाहे हम भारतीय हों या कोई यूरोपियन या अमरीकन, सभी अपशिष्ट उत्सर्जित करते हैं। लेकिन दोनों में फर्क बस इतना है कि वहां इस अपशिष्ट का उचित निस्तारण होता है जबकि हमारे यहां नहीं होता। आज अगर जरुरत है तो बस इसी बात की कि भारत में गन्दगी का उचित निस्तारण हो। कूडे का ढेर लगाते जाओ, ढेर लगाते जाओ, ढेर लगाते जाओ; इससे कोई फर्क नहीं पडता। हमारे घर के सामने पडा था, पूरे शहर ने अपने-अपने सामने पडा कूडा उठाकर एक जगह डाल दिया और ढेर लगा दिया। कह दिया कि सफाई हो गई। लेकिन यह सफाई नहीं है। अब प्रशासन की जिम्मेदारी है कि इस ढेर को उचित तरीके से नष्ट कर दे।
हम साधारण नागरिक इतना तो कर ही सकते हैं कि बेवजह इधर-उधर गन्दगी न करें, कूडा कूडेदान में ही डालें। बाहर घूमने जाते हैं, पिकनिक मनाने जाते हैं, खाने-पीने के पैकेटों के रैपर आदि वहीं फेंक देते हैं, ऐसा न करें। इन्हें जेब में या बैग में रखकर ले जा सकते हैं और कूडेदान मिलने पर उसमें डाल सकते हैं। कूडेदान में कूडा डालने से हमने अपनी जिम्मेदारी निभा दी, अब आगे प्रशासन की जिम्मेदारी है कि वह उस कूडेदान की गन्दगी को बाद में इधर-उधर फेंकता है या उचित निस्तारण करता है। बहुत से लोगों को बार-बार थूकने की आदत होती है, इस आदत को बदलें। खुले में न मूतें। कुछ लोग खुले में मूतने के इतने शौकीन होते हैं कि अगर सामने शौचालय भी हो, तब भी खुले में ही मूतेंगे।
ये छोटी छोटी बातें हैं। फोटो खिंचवाने के लिये झाडू हाथ में लेने से बेहतर है कि इन छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखा जाये।

8. एशियाई खेल सम्पन्न हो गये। भारत की कबड्डी टीम ने स्वर्ण पदक जीता। मैं महिला कबड्डी मैच तो नहीं देख सका लेकिन पुरुष कबड्डी के कई मैच देखे। फाइनल मैच में पहले हाफ तक ईरान ने जो भयंकर बढत बनाई, लग रहा था कि भारत हार जायेगा। लेकिन कप्तान राकेश कुमार और सदाबहार रेडर जसवीर ने ऐसा नहीं होने दिया। राकेश घायल भी हो गया लेकिन तब भी मैदान में डटा रहा। उधर कुछ ही दिन पहले प्रो कबड्डी लीग के मैच हुए थे, जिसमें जयपुर पिंक पैंथर्स की टीम विजेता बनी थी। इसमें सारा रोल जसवीर का था। आज फाइनल में भी जसवीर ही हीरो रहा।
एक बात समझ में नहीं आती। भारत ने अपनी क्रिकेट टीम एशियाई खेलों में क्यों नहीं भेजी? जिस तरह क्रिकेट भारत का धर्म है, भारत को अपनी दोनों टीमें भेजनी चाहिये थीं। मैंने फेसबुक पर भी पूछा लेकिन मित्रों ने बिल्कुल हवाई हवाब दिये। सबसे ज्यादा जवाब आया- खिलाडियों को सिर्फ पैसा चाहिये। एशियाई खेलों में उन्हें पैसा नहीं मिलेगा इसलिये नहीं गये। जबकि ऐसा नहीं है। अगर भारत सरकार क्रिकेट टीम को भेजती तो कौन खिलाडी मना करता? एक तरफ तो क्रिकेट खेलने वाले देश कोशिश कर रहे हैं कि ओलम्पिक में क्रिकेट शामिल हो जाये, दूसरी तरफ एशियाई खेलों में भी भाग नहीं ले रहे।
हालांकि कुछ मित्रों ने कहा कि भारत की आधिकारिक क्रिकेट टीम ही नहीं है। जिस क्रिकेट टीम को खेलते हुए हम देखते हैं, वो असल में किसी प्राइवेट संस्था बीसीसीआई की टीम है। लेकिन यह कोई जवाब नहीं है। जो टीम भारत के झण्डे तले दुनियाभर में विश्व कप खेलती है, एशियाई कप खेलती है, चैम्पियन्स कप खेलती है, उसे इंचियोन भी भेजा जाना चाहिये था। कल ओलम्पिक में क्रिकेट शामिल हो जायेगा, तब यही बीसीसीआई की टीम ही वहां खेलने जायेगी।

कई मित्रों को शिकायत है कि मैं कम लिख रहा हूं। और लम्बी पोस्टें होनी चाहिये। इस बारे में मुझे वैसे तो कोई सफाई नहीं देनी, लेकिन एक बात पूछना चाहता हूं। क्या पूरे यात्रा-वृत्तान्त की एक ही पोस्ट बना दूं? यानी महा-पोस्ट। मान लो दस पोस्टों में कोई यात्रा-वृत्तान्त पूरा होता था, अब एक ही पोस्ट में पूरा हो जाया करेगा। इससे दोनों पक्षों को लाभ मिलेगा- मुझे भी और आपको भी। मुझे दस पोस्टें नहीं अपलोड करनी पडेंगी, एक ही पोस्ट से काम चल जाया करेगा और आपको कोई यात्रा-वृत्तान्त पढने में महीनों का इन्तजार नहीं करना पडेगा। धारावाहिक नहीं बनेगा। ‘अगले भाग में जारी...’ ऐसा लिखा नहीं मिलेगा।
इस बात का जवाब जरूर दें। आपकी टिप्पणियां ही पोस्टों का भविष्य तय करेंगीं।



यह एक स्टेशन है ‘घाघरा’। चूंकि फोटो मैंने ही खींचा है, इसलिये मुझे तो पता ही है कि यह कहां है, किस लाइन पर है। लेकिन आपको भी पता लगाना है इसका। आप किसी भी तरीके से पता लगाने की कोशिश कीजिये, किसी भी वबसाइट पर जाइये, किसी से भी पूछिये (मुझे छोडकर) या नीचे टिप्पणियां देखकर ही बता दीजिये। इतनी सुविधा होने के बावजूद भी अगर आपने गलत उत्तर बताया तो अगली डायरी में आपकी मजाक उडाऊंगा और अगर सही बता दिया तो ससम्मान आपका नाम बडे बडे काले अक्षरों में लिखूंगा। आपको बताना है कि यह स्टेशन किस राज्य में है और किस लाइन पर है?

डायरी के पन्ने- 22     ............   डायरी के पन्ने- 24




Comments

  1. bahut hi dimagdar diary h,
    aap vo 6700 wrds v post kr dijiye vrna un becharo ko bura lg jayega na, hmra kya h hm to basi v pd lete lete h akhir 3 mahine yahi to kiya h,

    ReplyDelete
  2. 6700 Words Bhi post kar dijiye Neeraj Bhai plz. Aapke dwara likha hua sab achha lagta hai so plz plz plz post it.... A true Fan of yours....

    ReplyDelete
  3. Neeaj bhai.....
    Aap ki diary ki prastuti bhaut hi sunder hai..aur aap ke bicchar vi....khas kar kashmir mamle per..
    Rahi baat gandgi nahi failane ki..to jab tak hum apni soch nahi badlenge tab tak hamara samaaj nahi badlega...gandgi dimaag me hai...dimaag ki gandgi ko saaf kare ki jarurat hai...jharu marne se kaam nahi clegaa....

    Ab aap k sawaal ka jawaab dene ki kosis karta hoon.....
    Ye station jharkhand state k west singhbhum distric ka hai...
    Aur ye TATA-BILASPUR LINE PER HAI.......
    RANJIT......

    ReplyDelete
  4. Ghaghra station ke najdik hi 19 nov 2009 ko maovadi ne tata -bilaspur passenger train ko bisfot kar udaya tha....
    Ranjit

    ReplyDelete
  5. हिंदी कई राष्ट्रों के संघ को (भारत) एक बनाने में पूर्ण मददगार है। इस भाषा के लिए हमें मेरठ , मुज़फ्फरनगर , सहारनपुर वालों का धन्यवाद करना पड़ेगा।
    सफाई अभियान की पंक्तियों को कई जगह बार बार पेस्ट करना चाहिए।
    डायरी के पन्नें - विचार सुन्दर लगे।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी सर्वेश जी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

      Delete
  6. chhoti magar bahut badi baaten saarthak prastuti hai........

    ReplyDelete
  7. नीरज जी, ज्ञानवर्धक डायरी,
    मेरे ख्याल से ये स्टेशन असम में गोहपुर - छईपुर - सोनितपुर लाइन पैर है

    ReplyDelete
  8. हावड़ा-मुम्बई रेल मार्ग के चक्रधरपुर मंडल अंतर्गत पोसैता एवं मनोहरपुर रेलवे स्टेशन के बीच घाघरा रेल पुल संख्या 192 हैं जो
    मनोहरपुर रेलवे स्टेशन से लगभग चार किलोमीटर दूर पौसेता स्टेशन की ओर घाघरा हालट हैं
    घाघरा गांव के पास पैसेंजर ट्रेन हाल्ट हैं

    पिछले माह ही 17 अक्टूबर को हाल्ट निर्माण को लेकर रेल चक्का जाम किया गया था। उस वक्त रेल प्रशासन ने एक माह का समय लेते हुए हाल्ट निर्माण की बात कही थी। लेकिन एक माह बीत जाने के बाद भी हाल्ट को लेकर रेल प्रशासन की ओर से ठोस निर्णय नहीं लिया गया। एक माह के अंदर हाल्ट निर्माण की मांग रेलवे बोर्ड के पास पहुंच गई है। पर रेलवे बोर्ड ने अब तक इस पर मुहर नहीं लगाई है। इधर विधायक गुरुचरण नायक ने कहा कि रेल प्रशासन की ओर से आश्वासन दिया गया है कि जल्द ही रेल मुख्यालय की ओर से हाल्ट निर्माण पर सकारात्मक निर्णय आएगा।

    ReplyDelete
  9. क्या कहूं आपके विचारो व आपकी यात्राओं के बारे में
    में तो बस इतना ही जानता हूं की आप लिखते है ओर हम दिल से पढते है,
    आप लिखते रहे हम पढते रहेगे.

    ReplyDelete
  10. नीरज भाई, हमेशा की तरह सुन्दर लेखन ,ब्लॉग अपडेट ना होने की समस्या की जानकारी विस्तृत रूप से मिल गई। डायरी के पन्ने आपके निजी विचार है इसलिए ज्यादा गहराई मे नही जाऊँगा,लेकिन मै आपके विचरो से सहमत हुँ। पोस्ट छोटी एवं रोचक हो तो बहेतर है, ज्यादा बड़ी पोस्ट से पाठक उकता सकता है और शायद ये व्यावहारिक भी नही होगा। बाकी ब्लॉग आपका है आप निर्णय लेने के लिए स्वतन्त्र है।

    ReplyDelete
  11. This Ghaghra station/halt should be in Jharkhand state. My guess is because name is written only in Hindi and English. UP and Bihar both have Urdu as one of official languages. Is this one close to Mccluskieganj? Some Google searches also confirm the same, but results doesn't give any specific location. Probably a small village.

    ReplyDelete
    Replies
    1. Okay, so I was wrong. In Jharkhand also Urdu is used as 3rd language for station names. Still, it should be in Jharkhand only. :)

      Delete
  12. आज एक दफे
    तो मन में आया भी कि पिछली अप्रकाशित
    डायरी को ही प्रकाशित कर दूं लेकिन
    बासी चीज बासी होती है। समसामयिक
    घटनाओं को अगर आप तीन महीने बाद पढेंगे
    तो उसमें से बासीपन की बू आयेगी ही। 6700
    शब्द ड्राफ्ट में पडे हैं, शायद डिलीट भी कर दूं
    लेकिन वे चूंकि बासी हो चुके हैं, इसलिये
    प्रकाशन योग्य नहीं रहे।
    pta h upar ki in lino se ek bat man me chubhati h ki sayad aap ne hm logo ko jo ap k reader h unhe smjha hi ni ye jante hue v ki aap in dino post ni karenge phir v hm sb log aap k blog pr is umid se ate the sayad ab koi post aa gyi ho, aj v mujh jaise log pdi hui post 3-3, 4-4 bar pd jate h hme to unme v basipan ni lga fir isme kaise lgega baki aap ki marji,
    the bst point bagh wala lga itta umda manochitran sayad aap hi kr skte h,
    lst me kasmir aaj hmri jarurat h anek karno se

    ReplyDelete
  13. डायरी की भाषा और विचार सुन्दर है। खासकर सफाई के बारे में बहुत ही बढिया लिखा है। भाषा तो सम्पर्क का जरिया है, हिन्दी को हम अगर सम्पर्क बोली के रूप में लें तो भी काम चल सकता है।

    ReplyDelete
  14. नीरज जी , मुझे आपके यात्रा-वृत्तान्त स्तरीय व रोचक होते हैं । आपकी यह पोस्ट काफी विस्तार लिये है । मैं केवल शुरु की एक दो बातों के बारे में कहना चाहती हूँ । पहली बात तो भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्त्व-सम्पन्न राष्ट्र है । राष्ट्रों का संघ नही । ऐसा कहना इसकी अखण्डता पर प्रश्न उठाना है । यह 29 राज्यों 7 केन्द्रशासित राज्यों का संघ है ।
    दूसरी बात छत्तीसगढ़ी निमाड़ी आदि हिन्दी बोलियाँ हैं ,अलग भाषा नही । स्थानीय प्रभाव से परिवर्तन आना तो स्वाभाविक है । ऐसा हर भाषा के साथ होता है । देश में सबसे अधिक बोली जाने वाली व समझी जाने वाली भाषा हिन्दी है ।
    रहा हिन्दी सीखने के विरोध की बात तो पहली बात तो किसी भी भाषा को सीखना अपने ज्ञान का दायरा बढ़ाना है । फिर आप अँग्रेजी को सीखने और अपनाने में इतने उत्सुक और गर्वित होते हैं जो कि विदेशी भाषा है तो फिर हिन्दी क्यों नही । हिन्दी के अलावा सभी भाषाएं केवल प्रान्तीय भाषाएं हैं । जैसे कि उड़िया केवल उड़ीसा में मराठी महाराष्ट्र में ,कन्नड़ कर्नाटक में वगैरा...। ये सभी भाषाएं समृद्ध हैं लेकिन जहाँ संचार भाषा का सवाल है तो भारतीय भाषाओं में केवल हिन्दी ही है । अब आप अंग्रेजी को तो राष्ट्रभाषा तो नही न बनाएंगे । सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमारा ही देश है जिसकी ऐसे ही विचारों के कारण अभी तक राष्ट्रभाषा संवैधानिक रूप से घोषित नही है जो बेहद जरूरी है । हालांकि जिन्हें यह नही मालूम वे राष्ट्रभाषा हिन्दी को ही मानते हैं और इसे तो आप भी मानते होंगे कि भाषा एकता में कितनी महत्त्वपूर्ण होती है । ...सेकुलरिज्म के बारे में आपने बहुत सटीक कहा है ।

    ReplyDelete
  15. इस बार डायरी में वो बाते है जो सब जानते है --तुम डायरी में वो लिखो जो तुम अपनी यात्रा के समय महसूस करते हो और लिख नही पाते -- ३ महीने तक न दिखने के कारन मैं भी परेशान थी फिर व्हाट्सएप्प पर कई बार पूछा की कहा हो , पर तुम्हारा कोई जवाब नहीं --फोन करना मुझे पसंद नहीं मैं बहुत काम फोन करती हूँ एक दिन अतुल का फोन आया तो मैंने तुम्हारे बारे में पूछा तब पता चला की तुम ठीक हो और अभी छ्त्तीसगड़ में हो ---सुनकर अच्छा लगा --पर न लिखने का फैसला क्यों किया पता नहीं चला --तुम्हे पढ़ने वाले तो काफी है हमारे ब्लॉग पर कोई नहीं आता इसलिए हमने तो बंद ही कर दिया है फिर भी कभी कभी लिख ही देती हूँ

    ReplyDelete
  16. और 1 बार मे पूरा पढ़ा भी नही जायेगा ....

    ReplyDelete
  17. आप अपना यात्रा व्रतान्त टुकड़ों मे ही लिखा करें . इस से पढने मे रोचकता बनी रहती है . अन्यथा बहुत बड़ा 20 पन्नों का लिख देंगे तो फिर बोरियत भी होगी और 1 बार मे पूरा पढ़ा भी नही जायेगा ....

    ReplyDelete
  18. Deoria, Faizabad, Gonda, Gorakhpur vaale root par hai

    ReplyDelete
  19. Neeraj bhai...
    Aapki diary me sacchai aur gahrai hai.. aise aur v muddo ko apni diary me nishchit likhe...jisse hum pathak ko prearn aur siksha mle..keo ki sachaai likhne ka shahas bhaut kam hi log kar pate hai...
    Akshat....

    ReplyDelete
  20. बहुत अच्छी डायरी है आपकी नीरज जी

    ReplyDelete
  21. कभी कभी मुझे बड़ी हैरानी होती है कि इतनी सारी बातें आपके दिमाग में फिट कैसे होती हैं। चलो फिट हो भी जाती होंगी लेकिन उन्हें जैसे का तैसा छाप देना, अदभुत है। वैसे भी घूमने वाले इन्सान के दिल और दिमाग से हर तरह का कड़वापन और मैल निकल जाता है । आप प्रकृति के साथ और प्रकृति आपके साथ।

    ReplyDelete
  22. Neeraj ji...jo bit gayi ...wo baat gayi..basi chije bisi hi hoti hai ..aap ki likawat me tazgi aa gayi hai....ise barkarar rakiye...samsamaik ghatnao ko apni diary me likte rahe.....aap ke is diary ne wakai gahrai se savi mudoo pe sochne k liye bibas kar diya..mai kuch aapko de to nahi sakta .......par. ..
    THANKS NEERAJ SAR....
    TO BOL HI SAKTA HOON.

    ReplyDelete
  23. Neeraj ji ..aapki yatra k post me hme wo sab mil jata hai jo aap apni yatra me mehsus karte hai...
    Agar aap diary me in sab chijo ko likhne lage to diary v ek yatra post ban kar reh jayegi....aapne is bar diary me jin muddo ko uthaya hai..aap ka prayas sarthak hai ...jante to sabi hai...lekin gehrai se sochta kaun hai.....

    ReplyDelete
  24. Ghaghrara station is in Bahraich, Uttar Pradesh.

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब