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डायरी के पन्ने-20

मित्रों के आग्रह पर डायरी के पन्नों का प्रकाशन पुनः आरम्भ किया जा रहा है।
ध्यान दें: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। ये आपकी धार्मिक और सामाजिक भावनाओं को आहत कर सकते हैं। कृपया अपने विवेक से पढें।

1. पप्पू ने नौकरी बदली है। पहले वह गुडगांव में कार्यरत था, अब गाजियाबाद में काम करेगा।  पप्पू कॉलेज टाइम में मेरा जूनियर था और हम करीब छह महीनों तक साथ-साथ रहे थे। मैंने जब गांव छोडा, बाहर किराये के कमरे पर रहना शुरू किया तो शुरूआत पप्पू के ही साथ हुई। उसी से मैंने खाना बनाना सीखा। तब मैं फाइनल ईयर में था। पेपर होने के बाद हम दोनों अलग हो गये। मैंने नौकरी की तो उसने बी-टेक की। बी-टेक के बाद वह गुडगांव में मामूली वेतन पर काम कर रहा था। मुझसे कम से कम पांच साल बडा है। कभी-कभार बात हो जाती थी।
अब जब वह गाजियाबाद आ गया तो उसे मैं याद आया। कुछ दिन हमारे यहां से ऑफिस जाया करेगा, तब तक वहीं आसपास कोई ठिकाना ढूंढ लेगा।
अब उसकी व्यक्तिगत जिन्दगी में झांकते हैं। उसकी उम्र तीस साल से ऊपर हो चुकी है। अभी तक विवाह नहीं हुआ। घरवाले पिछले सात-आठ सालों से उसके विवाह की कोशिशों में लगे हैं, वह स्वयं भी इसके लिये तैयार है लेकिन कहीं बात नहीं बन रही। अभी तक तो मुझे इसकी वजह मालूम नहीं थी लेकिन अब इस बारे में उससे बात करके सबकुछ मालूम हो गया। सारी गलती पप्पू और इसके घरवालों की ही है। हालांकि वह अपनी गलती कभी नहीं मान सकता। उसकी नजर में उन पच्चीस-तीस लडकियों और उनके परिजनों की ही गलती है जिनसे बात हुई और आगे नहीं बढी।
पप्पू ने पहले बीएससी की, फिर मैकेनिकल का तीन साल का डिप्लोमा किया और उसके बाद बीटेक। इतना कर चुकने के बाद पिछले दो सालों से वह गुडगांव में गाडियों के किसी निजी शोरूम में बारह-तेरह हजार की नौकरी कर रहा था। अब नई नौकरी भी उसी तरह की है लेकिन यहां पैसे कुछ ज्यादा मिलेंगे। शायद पन्द्रह हजार या सोलह-सत्रह हजार। यह प्रोफाइल एक बीटेक होल्डर के लिये बिल्कुल भी आकर्षक नहीं है। इसके अलावा उसका कोई शौक भी नहीं है, कोई बिजनेस नहीं है और न ही आधुनिक सोच। इकलौता लडका है, दो बहनें है। तीनों बहन-भाई घरवालों के कडे अनुशासन में पले-बढे हैं। या यूं कहिये कि हमेशा से घरवालों के पंजे के नीचे रहे हैं। उन्हें नहीं पता कि खुली हवा क्या होती है, आसमान में कैसे उडा जाता है? यह सब पप्पू से बात करने पर साफ पता चलता है। और तो और, उसे कम्प्यूटर और इंटरनेट जैसी बेसिक चीजों तक की जानकारी नहीं है। हालांकि किसी तरह वह फेसबुक खाता बनाने में सफल हो गया। अब उसके लिये फेसबुक का अर्थ अनजान लडकियों को फ्रेण्ड रिक्वेस्ट भेजना ही है। ... जाट है। बाप पब्लिक सेक्टर में है, अच्छी आमदनी है। अच्छी खेती है। लेकिन कोई लडकी वाला न तो बाप की आमदनी देखता है, न खेती को पूछता है और न उन्हें इकलौते होने से मतलब है। उन्हें लडके से मतलब होता है। लडका इतना पढने के बाद भी ऐसी नौकरी कर रहा है, जाहिर है कि लडके में काबिलियत नहीं है। अपने ‘ना-काबिल’ लडके के लिये उन्हें ‘काबिल’ लडकी चाहिये, जो सम्पन्न परिवार से हो, बेहद सुन्दर हो, अच्छी पढी लिखी हो, घर के सारे काम जानती हो और...
... कभी लडके के साथ रहने को न कहे। लडका दिल्ली रहता है, लडकी को गांव में रहना पडेगा।
यही गलती हो जाती है। अच्छे घर की पढी-लिखी लडकी... सोचती तो होगी कि इन्हें बहू की नहीं, नौकरानी की जरुरत है। उधर अच्छे घर का पढा लिखा लडका परिवर्तन को तैयार नहीं है। आज भी उनकी नजर में पति पत्नी का साथ रहना असामाजिक है।

2. पिछले दिनों रोजाना की तरह अखबार पढ रहा था। दैनिक भास्कर में ‘महाराष्ट्र-गुजरात’ पृष्ठ पर चुनावी खबरों के बीच एक छोटी सी खबर पर निगाह पडी- प्रसिद्ध हास्यकवि अलबेला खत्री का निधन। मैं सन्न रह गया। तुरन्त फेसबुक पर ऑनलाइन हुआ। पाबला साहब और ललित शर्मा के प्रोफाइल पर भी यही था कि खत्री साहब नहीं रहे। अगर मैं उनके सम्पर्क में न आता तो यह खबर मेरे लिये कोई मायने नहीं रखती। वे लाफ्टर चैलेंज के विजेता भी रह चुके हैं और ‘बडे आदमी’ थे। हम दो बार मिले थे। एक बार रोहतक में और दूसरी बार सांपला में। दोनों बार उन्हें दिल्ली तक छोडने की जिम्मेवारी मेरी थी। सूरत में रहते थे। एक बार मैंने उन्हें सूरत फोन किया तो आवाज सुनते ही पहचान गये। मुझे लग रहा था कि बताना पडेगा कि नीरज बोल रहा हूं... वे कहते कौन नीरज... नीरज जाट... कौन नीरज जाट? तब मैं उन्हें रोहतक और सांपला के बारे में बताता। तब शायद उन्हें याद आ जाता। ऐसा ही सोचकर मैंने उन्हें फोन किया था। बडे लोगों को कौन फोन नहीं करना चाहेगा?
कई साल पहले राज भाटिया साहब जर्मनी से अपने पैतृक स्थान रोहतक आये थे। वे ब्लॉग दुनिया में एक सम्मानित ब्लॉगर हैं। मुझ समेत काफी सारे ब्लॉगर उनके भारत आने की खबर सुनकर उनसे मिलने को आतुर हो गये थे। तब रोहतक में तिलयार झील के किनारे एक ब्लॉगर सम्मेलन का आयोजन किया गया था। यह सुनते ही दिल्ली तो दिल्ली, मुम्बई और रांची-जमशेदपुर तक से ब्लॉगर रोहतक आये। तब तक अलबेला खत्री भी ब्लॉगिंग में काफी प्रसिद्ध हो चुके थे। उनके ब्लॉग पर हम जैसे लोग टिप्पणी करते थे और उसका वे जवाब देते थे, तो उनके जवाब में ‘धन्यवाद नीरज’ जैसे शब्द देखकर ऐसा लगता था जैसे अमिताभ बच्चन ने अपने घर पर मुझे डिनर पर आमन्त्रित कर दिया हो।
तो उस सम्मेलन में खत्री साहब के भी आने की हवा उड गई। हां, यह हवा ही थी। मैंने भाटिया साहब से पूछा था कि क्या वाकई खत्री साहब आ रहे हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि कहा तो है लेकिन मुश्किल है उनका आना। लेकिन हवा उडी ही रही। सम्मेलन जबरदस्त सफल रहा, काफी ब्लॉगर आये। लेकिन जब दोपहर तक खत्री साहब नहीं आये तो निराशा भी देखी गई। फिर एक खबर आई कि वे आ रहे हैं, दिल्ली पहुंच रहे हैं... रोहतक पहुंच चुके हैं... होटल में नहाने गये हैं। शाम के पांच बज चुके थे। लोग फिर भी रुके थे।
वे आये। सबसे मिले, मुझसे भी। कवितापाठ भी हुआ। एक ब्लॉगर ने पूछ लिया कि आप दो घण्टे पहले रोहतक आ चुके थे, फिर होटल चले गये, नहाने और कपडे बदलने। इससे अच्छा होता कि यहां सीधे आ जाते। बोले- मैं एक कलाकार हूं। कला मेरी रोजी-रोटी है। कलाकार को कलाकार की तरह दिखना चाहिये।
रात वे भाटिया साहब के घर पर ही रुके। सुबह देखा कि खाना बनाने वाली बाई अपने बच्चे को भी लाई थी। बच्चे को कुछ शारीरिक समस्या थी। सारी समस्या सुनकर खत्री साहब ने उसे अपना नम्बर दिया- मेरे सूरत और मुम्बई में कुछ जानकार डॉक्टर हैं। मैं उनसे इस बारे में बात करूंगा। तुम लगातार भाटिया साहब और अन्तर सोहिल के सम्पर्क में रहना। जैसे ही तुम्हें बुलाऊं, तुरन्त आना पडेगा। मुम्बई पहुंचाने तक की जिम्मेवारी राज और अन्तर की है, उसके बाद सारी जिम्मेवारी और खर्चा मेरा।
जब भाटिया साहब के निवास से रिक्शा पर बैठकर मैं और खत्री साहब बस अड्डे की तरफ चले तो उन्होंने मुझसे कहा- ‘नीरज, तुम बहुत घूमते हो। लेकिन एक बात हमेशा याद रखना कि इन रिक्शा वालों से कभी मोलभाव मत करना। मोलभाव करोगे तो ज्यादा से ज्यादा तुम्हारे दस रुपये बचेंगे। ये दस रुपये तुम्हारे लिये उतने अहम नहीं हैं जितने इनके लिये।’ जब भी मैं रिक्शा पर बैठता हूं तो मुझे उनकी यह बात याद आ जाती है।

3. 10 अप्रैल को दिल्ली में लोकसभा के लिये वोटिंग हुई। मैंने भी वोट दिया। इस बार निःसन्देह हवा भाजपा के पक्ष में चल रही है। इसका सारा श्रेय नरेन्द्र मोदी को जाता है। भाजपा ने मोदी को प्रधानमन्त्री पद का प्रत्याशी बनाकर ठीक ही किया है। वैसे वहां इस पद के लिये मोदी से भी वरिष्ठ आडवाणी जैसे दावेदार थे। मौलिक रूप से मुख्यमन्त्री और प्रधानमन्त्री के कार्यों में कोई अन्तर नहीं होता। दोनों के लिये चुनावी प्रक्रिया से लेकर सबकुछ एक सा होता है। मुख्यमन्त्री के काम करने का दायरा जहां एक राज्य होता है, वहीं प्रधानमन्त्री के लिये कई राज्य यानी पूरा देश। बस यही अन्तर होता है। मोदी इस मामले में आडवाणी से ज्यादा अनुभवी हैं।
आम आदमी पार्टी ने अवश्य कुछ समय पहले जबरदस्त उलटफेर किया था। लग रहा था कि इस उलटफेर की गूंज भारत के दूर-दराज के गांव-देहातों में भी पहुंचेगी और यह पार्टी लोकसभा चुनावों में भी एक सशक्त पार्टी के तौर पर उभरेगी। लेकिन केजरीवाल के दिल्ली में घटिया शासन ने इस पार्टी की गरिमा को भयंकर क्षति पहुंचाई है। अब यह पार्टी भले ही दिल्ली में अपना रुतबा खो चुकी हो, लेकिन गांव-देहातों में अभी भी इसका अच्छा नाम है। सीधे-साधे लोग केजरीवाल के त्यागपत्र को बलिदान मानते हैं। ... और ज्यादातर मतदाता सीधे-साधे ही हैं।
सभी बडी पार्टियां मोदी के विरोध में है। मोदी चूंकि लम्बे समय से गुजरात के मुख्यमन्त्री रहे हैं, इसलिये मोदी के विरोधी गुजरात विरोधी भी बन गये हैं। यह स्थिति देश के लिये खतरनाक है। हर राज्य के शासक अपने राज्य और गुजरात की तुलना कर रहे हैं और गुजरात को देश का सबसे घटिया राज्य सिद्ध करने में लगे हैं। इसका नुकसान मोदी या भाजपा को हो या न हो, लेकिन गुजरात को अवश्य होगा और साथ ही देश को भी। दूसरों के रास्ते में गड्ढे खोदने से बेहतर है कि अपने रास्ते के गड्ढे ठीक किये जायें।
इसी बीच सोच रहा हूं कि अगर मैं प्रधानमन्त्री होता तो क्या करता। इसका जवाब मेरे लिये बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है क्योंकि जिसकी जैसी जरुरतें होती हैं, वह सत्ता में आने पर उसी के अनुसार काम करने लगता है। मैं भी अपनी जरुरतों के अनुसार ही काम करता। मुझे दो-तीन चीजें बहुत कचोटती हैं। पहली है आरक्षण। आरक्षण यानी हर नागरिक के लिये अलग मापदण्ड। हर नागरिक में भेदभाव। योग्यता को कोई महत्व नहीं।
नम्बर दो, धारा 370 यानी कश्मीर को भारत से अलग करके देखा जाना। वैसे तो हर राज्य में कुछ न कुछ ऐसे कानून हैं जो शेष भारत में नहीं हैं लेकिन कश्मीर का यह कानून ज्यादा चर्चित है। इसे चर्चित होने की कोई वजह नहीं है। अमेरिका में तो पचास राज्य हैं और सभी का अपना अलग संविधान है। हमारे ही यहां पूर्वोत्तर की स्थिति बडी बदहाल है। मुझे आश्चर्य होता है कि भारत उनसे दुश्मनों जैसा व्यवहार करता है, वे फिर भी भारतीय बने रहना चाहते हैं। न वहां रेल है, न सडक है। वहां रेलवे लाइनें बिछे, अच्छी सडकें बनें, थोडा बहुत इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास हो। एक आम उत्तर भारतीय सुदूर दक्षिण में केरल जाना शान समझता है जबकि पूर्वोत्तर के सुदूरवर्ती राज्यों में नहीं जाता। कारण सिर्फ इतना है कि केरल तक हर तरह की ट्रेनें जाती हैं।
तीन, पुलिस को भंग करता। पुलिस भंग होते ही अपराधों में कमी आयेगी। फिर भी छोटी मोटी वारदातों को संभालने के लिये दूसरे बहुत से बल मौजूद हैं। पुलिस असभ्य लोगों का वह झुण्ड है जो सभ्य लोगों को सभ्यता सिखाने के लिये बनाया गया है।

4. योगेन्द्र सोलंकी साहब जो गुडगांव में रहते हैं, के मुजफ्फरनगर स्थित गांव में एक विवाह है। काफी दिनों पहले ही उन्होंने न्यौता दे दिया था। मैं भूल जाता था। अगली बार वे फिर पूछते थे कि आयेगा कि नहीं। मैं पूछता था कि कहां, क्यों? वे फिर याद दिलाते थे। 16 अप्रैल का विवाह है। बुधवार है। मेरी छुट्टी मंगलवार को रहती है। मंगल को ड्यूटी करके बुध की भी छुट्टी ले सकता हूं लेकिन इधर आजकल मेरी खान साहब से खटपट चल रही है जिस वजह से मैंने बुध की आकस्मिक छुट्टी लगा दी। यह पास भी हो गई। अब मंगल को गांव जाऊंगा और बुध को मुजफ्फरनगर।

5. जैसे जैसे सर्दी कम होती जा रही है, मच्छर भी बढते जा रहे हैं। मेरा ठिकाना यानी शास्त्री पार्क भी मच्छर बाहुल्य क्षेत्र में स्थित है। एक तरफ तो यमुना है, दूसरी तरफ सीलमपुर की झुग्गियां। अन्धेरा होते ही मच्छरों की फौज भयंकर प्रहार करने लगती है। रात को कमरे में रासायनिक धुआं करने पर भी मच्छर नहीं भागते।
इसी रासायनिक धुएं के बाद सुबह उठा तो गले में मामूली सी खराश मालूम हुई। शाम होते-होते यह बढ गई। निगलने पर गले में दर्द होता। न खांसी थी, न ही जुकाम। सोचा कि एक-दो दिन में अपने आप ठीक हो जायेगा। अगली रात मच्छरदानी लगाकर सोया। सुबह उठा तो गले का दर्द बढा हुआ था। दवाई लेनी पडी, साथ ही परहेज की हिदायत भी। तला-भुना नहीं खा सकते और न ही दही। आज 14 तारीख है, कल के मुकाबले कुछ आराम है। लेकिन जैसे जैसे गले का दर्द कम होता जा रहा है, खांसी और जुकाम बढता जा रहा है। लग रहा है कि मुज़फ्फरनगर जाना रद्द करना पडेगा। सचिन त्यागी आये थे, उनसे इस बारे में विमर्श किया तो उन्होंने कहा- न जाओ तो बेहतर है। क्योंकि वे अगर तुम्हारे ज्यादा अज़ीज़ हैं तो उन्हें तुम्हारे गले से हमदर्दी होगी, वे भी न आने के लिये तुमसे सहमत ही होंगे लेकिन अगर वे तुम्हारे न जाने से नाराज हो गये तो समझ लेना कि उन्हें तुमसे और तुम्हारी सेहत से कोई मतलब नहीं।

6. सचिन त्यागी आये। आभासी दुनिया यानी फेसबुक और ब्लॉग पर तो हमारा मिलना होता रहता है लेकिन वास्तविक दुनिया में मिलना पहली बार हुआ है। बडे खुश थे। उन्होंने भी एक ब्लॉग बनाया है। चाहते थे कि मैं उन्हें कुछ तकनीकी जानकारियां दूं। लैपटॉप पर उनका ब्लॉग खोला, जो परिवर्तन वे चाहते थे, वे कर दिये। उन्होंने बताया कि कैसे वे मुझ तक पहुंचे। काफी पहले वे नेट पर यात्रा सम्बन्धी लेख पढा करते थे। अचानक उन्हें सन्दीप पंवार के ब्लॉग की जानकारी मिली। फिर मेरे ब्लॉग की और उसके बाद मनु के ब्लॉग की। बताते हैं कि जिसके बारे में सबसे बाद में पता चला, उससे सबसे पहले मुलाकात हो गई और सन्दीप भाई से अभी तक मिलना नहीं हुआ। सचिन अपना खुद का ब्लॉग भी बनाना चाहते थे। उन्होंने मनु से इस बारे में पूछा तो मनु ने कहा कि लेख लिखकर उन्हें भेज दो, वे अपनी वेबसाइट पर गेस्ट-पोस्ट के तौर पर छाप देंगे। अब सचिन को किसी तरह ब्लॉग बनाना आ गया और अब वे अपने ब्लॉग पर लिखते हैं। हालांकि सचिन के नये-ताजे ब्लॉग पर अभी कोई ट्रैफिक नहीं है, न ही कोई टिप्पणी आती लेकिन फिर भी वे अपने प्रदर्शन से खुश हैं।
सचिन ने पूछा कि आपको सबसे पहले ब्लॉग बनाने का विचार कैसे आया। यह बात मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूं कि जब मैं हरिद्वार में नौकरी करता था तो मेरे पास एक कम्प्यूटर और इंटरनेट हुआ करता था। उस फैक्टरी में बनने वाली चीजों की ड्राइंग बनाना, उन्हें जरुरत के हिसाब से अपडेट करना और प्रिंट आउट निकालना मेरा काम था। छोटी सी फैक्टरी थी, मैं ज्यादातर समय खाली बैठा रहता था। आपके सामने अच्छी स्पीड वाला नेट हो, आप क्या करोगे? शुरू शुरू में आप उस पर भूखों की तरह टूट पडोगे; ये देखोगे, वो देखोगे। लेकिन एक समय के बाद मन भर जायेगा। छोडकर जा नहीं सकते तो नये नये विचार मन में आने शुरू हो जायेंगे। वहीं इसी तरह का एक विचार आया कि फ्री में वेबसाइट कैसे बनाई जाये। वेबसाइट तो नहीं बनी लेकिन ब्लॉग बन गया।
सचिन की इच्छा स्लीपिंग बैग और टैंट देखने की थी। कमरे में ही टैंट लगाकर दिखा दिया। इस बहाने कई महीनों से बन्द पडे इन दोनों सामानों को भी कुछ ताजी हवा मिल जायेगी।

7. काफी दिनों से ब्लॉग पर डोनेट बटन लगाने का मन था। कई वेबसाइटों पर देखा था कि डोनेट बटन पर क्लिक करके आप तयशुदा राशि या अपनी मर्जी की राशि दान कर सकते थे। पे-पल के माध्यम से एक इस तरह का बटन मिल भी गया लेकिन यह अपने किसी प्रोडक्ट को बेचने जैसा था। जैसे ही डोनेट पर क्लिक करते, पे-पल का पेज खुलता। उसमें प्रोडक्ट की डिटेल भरी जाती, पता भरा जाता कि यह सामान कहां पहुंचाना है, फिर क्रेडिट या डेबिट कार्ड की डिटेल भरकर पैसे दे दिये जाते। इधर मुझे तो कोई सामान बेचना ही नहीं है और न ही किसी के घर पर पहुंचाना है। पैसे तो मुझे मिल जायेंगे लेकिन डर है कि कोई शिकायत न कर दे कि हमारे घर पर फलां सामान नहीं पहुंचा।
इस बारे में फेसबुक पर लिखा। जानकार मित्रों ने बताया कि पे-पल केवल विदेश से पैसा मंगाने के काम आता है। अगर कोई भारतीय पैसा देना चाहे तो नहीं दे सकता। इस वजह से पे-पल का विचार छोड दिया। कुछ मित्रों ने दूसरी साइटों का भी नाम लिया। कुछ ने कहा कि अपने बचत खाते की डिटेल ब्लॉग पर लिखकर छोड दो, जिसकी इच्छा होगी, दे देगा।
वैसे तो डोनेट बटन और इस तरह बचत खाते की डिटेल ब्लॉग पर लिखने में कोई अन्तर नहीं है लेकिन एक मूलभूत अन्तर यह है कि डोनेट बटन पर क्लिक करके आपके पास विकल्प आयेगा कि आपका कौन सा बैंक है। फिर आपको आपके बैंक के पेज पर ट्रांसफर कर दिया जाता है और वहां से लेन-देन कर सकते हैं। जबकि दूसरे तरीके में आपको यह सारा काम स्वयं करना पडेगा। फिर अकेले डेबिट कार्ड से पैसे नहीं भेजे जा सकते। आपकी नेट बैंकिंग या मोबाइल बैंकिंग एक्टिवेट होनी चाहिये। दस तरह के और झंझट होते हैं, तब जाकर आप पैसे भेज सकते हैं।
फिर ‘डोनेट’ बटन किसी मन्दिर में रखे दान-पात्र जैसा है और खाते की डिटेल चौराहे पर कटोरे जैसी। आत्मसम्मान बीच में आ जाता है। कुछ समय पहले लगा दी थी अपने खाते की डिटेल और कुछ पैसे आये भी थे लेकिन मित्रों ने ऐसा लताडा कि उसे हटाना पडा- घूमने की औकात नहीं है तो घूमना जरूरी है क्या?

डायरी के पन्ने-19 | डायरी के पन्ने-21




Comments

  1. मन की कहते रहिये, पारदर्शिता कभी किसी को आहत नहीं करती है। जो है, वह स्पष्ट दिखना चाहिये।

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  2. आपको आमंत्रित किया था । आपकी यात्रा शैली में जो साथी बाधक न हों उनको सहयात्री बनाइये । और ये डोनेट वोनेट के चक्कर में मत पड़िए । सारे भारत में आपके चाहने वाले मौजूद है। जो आपकी मेहमान नवाजी कर के खुश नसीबी महसूस करेगे ।

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    1. Sachchi bat india a k kone kone me aapke fan he. Kaha dilhi or kha gujrat ka jamnagar city me bhi aapka fan hu .

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  3. ‘नीरज, तुम बहुत घूमते हो। लेकिन एक बात हमेशा याद रखना कि इन रिक्शा वालों से कभी मोलभाव मत करना। मोलभाव करोगे तो ज्यादा से ज्यादा तुम्हारे दस रुपये बचेंगे। ये दस रुपये तुम्हारे लिये उतने अहम नहीं हैं जितने इनके लिये।’

    ye yaad rakhna bahut jaroori hai

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  4. डायरी के पन्ने हमेशा की तरह रोचक।
    लिखते रहिये, बढ़ते रहिये
    जो जी में आये वो करते रहिये ।।

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  5. ये तो सत्य है नीरज भाई
    सारे भारत में आपके चाहने वाले मौजूद है।

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  6. Aap khud kahi mandir me ya kahi aur daan dena pasand nahi karte to kyu khud donation chahte ho??? iska jawab jaroor dena.... I'm a true fan of yours isiliye puch raha hu don't mind plz

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    1. बात तो आपकी सही है कि आप कहीं दान नहीं देते तो दान लेते क्यों हैं। जब लिखना शुरू किया था तो केवल अपने लिये लिखता था। अब यह भावना बदल गई है। अब अपने लिये तो लिखता ही हूं, साथ ही दूसरों के लिये भी लिखना होता है। लम्बे समय तक ऐसा करते रहने पर कभी कभी महसूस होता है कि क्यों लिख रहा हूं दूसरों के लिये? क्या मिलता है मुझे? तब इच्छा होती है कि अगर मिलने भी लगे तो ज्यादा बेहतर है। कम से कम मन्दिर से तो बेहतर ही है। मन्दिरों से क्या ‘आउटपुट’ निकलता है? मैं कम से कम कुछ तो ‘आउटपुट’ दे रहा हूं।

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    2. Mandir ke bhi log darshan karte hai and Aapke blog ke bhi log darshan karte hai ... Kya bhinnata hai dono me?? Mandir me to phir bhi maintenance lagta hai...

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    3. "मन्दिरों से क्या ‘आउटपुट’ निकलता है? "
      सही बात .... मंदिरों में दान करना बेवकूफी है.........वहां का आउटपुट कहाँ जाता है..ये सभी को पता है........आपका आउटपुट सही है ...और "डोनेट" जायज़ भी है......

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  7. नीरज जी अब तबियत कैसी है?
    आपसे मिलकर बहुत कुछ सीखा.
    जैसा आपने लिखा अमिताभ जी ने नयौता दिया हो आपको ऐसी ही सोच मेरी है आप से मिलकर.

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  8. अलबेला जी की कमी हमेशा खलती रहेगी। उनको ऊपर ऊपर सतही तौर पर देखकर कुछ लोग उनके बारे में खफा से हैं। लेकिन उन्होंने ये नहीं देखा कि अलबेला अपनी कमाई से क्या चैरिटी करते थे? उनमें क्या प्रतिभा थी?
    पुलिस भंग (ख्याल अच्छा है)
    सचिन त्यागी को अबसे हम भी पढा करेंगे

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  9. मोदी जीतते है क्यूंकि गुजरात में रहने वालो को पता है की डेवलपमेंट हुआ है, और यही पे विरोधी पार्टी खुली पद जाती है, और झूट पकड़ा जाता है, बाकि क्या कारन है की लगातार तीन term से आ रहे है

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  10. Neeraj ji aapki dayri ka intjar rahta hai abki baar bahut dino
    Bad padhne ko mili
    Bahut hi rochak hai...
    YK KANSAL

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  11. Is dunia me bahut se neeraj jaat hai ..aap ko koi v janta hai aapke blooger hone se ;;koi aap pm pad ke candidate nahi hoo...

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  12. Keo likh raha hoo ..dosro k liye...kiya milta hai mujhe
    ????????neeraj bhai..ye bhawna aapke maan mai aayi kaise ..main harran hoon...savi aapne liye sochte hai .kiya aap v...kiya aapne kavi soocha mera blogs aam aadmi v padta hoga...aaj tak mai kahi nahi gaya..lakin agar koi aap k gaye huwe jaghe p jaana chata to use mai us jaghe k bare me kehta hoon to log poochte hai ..kiya tum waha gaye hoo...mera jawab ..bilkul nahi ..yee to neerajjaatji.blogspot ka kamal hai.....upar wale ki kripa hai aapper..apne anuvab ko logo k saath bate...nischit roop se aapke dil me ye bhawna kavi nahi aayegi..
    ..waise v .Rupees to .R..v kamati hai...logo ka payar to nasib wallo ko hi milta hai...........Agar meri baat acchi nahi lagi ..to ..sorry...........

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    1. मैं भी कहां डायरी के चक्कर में पड गया? एक यात्रा-लेखक को केवल यात्रा सम्बन्धी लेख ही लिखने चाहिये। अपनी व्यक्तिगत बातें तो उसे कभी लिखनी ही नहीं चाहिये।

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  13. aap ki ye dairy bad me kabhi aap ki jiwani nam se book bankar prakashit hogi jise bahut sare log padh kar gyan aur anubhav prapt karenge.

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  14. neeraj bhaitamil nadu ka chakkar bhi laga lo vahi rah gaya hai

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

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इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब