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Showing posts from March, 2013

छत्तीसगढ यात्रा- मोडमसिल्ली बांध

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 28 फरवरी 2013 मैं राजेश तिवारी जी के घर पर था और सुबह आठ बजे तक डब्बू को आ जाना था। अब मुझे अगले तीन दिनों तक डब्बू के ही साथ घूमना है। मेरी यह यात्रा डब्बू की वजह से ही सम्पन्न हुई, नहीं तो मानसून के अलावा छत्तीसगढ घूमना मैं सोच भी नहीं सकता था। दस बजे डब्बू जी आये और हम शीघ्र ही तिवारी जी को अलविदा कहकर चलते बने। भोरमदेव जाने की योजना थी, जो जल्दी ही रद्द करनी पडी। तय हुआ कि सिहावा चलो। डब्बू ने बताया कि सिहावा में महानदी का उद्गम है। इसके अलावा उसी दिशा में सीतानदी अभयारण्य, राजिम, बारनावापारा और सिरपुर भी पडेंगे। सभी जगहें एक ही झटके में देख लेंगे। यह खबर तुरन्त ही फेसबुक पर प्रसारित कर दी। इसे देखकर कसडोल के रहने वाले सुनील पाण्डे जी ने आग्रह किया कि सिरपुर आओ तो याद करना। मैंने पूरी यात्रा भर इस आग्रह को याद रखा। हालांकि बाद में समयाभाव के कारण सिरपुर जाना नहीं हो पाया।

छत्तीसगढ यात्रा- डोंगरगढ

27 फरवरी 2013 दुर्ग स्टेशन पर मैंने कदम रखा। जाते ही राजेश तिवारी जी मिल गये। गाडी दो घण्टे लेट थी, लेकिन तिवारी जी दो घण्टे तक स्टेशन पर ही डटे रहे। ये भिलाई में रहते हैं और वहीं इस्पात कारखाने में काम करते हैं। कारखाने की तरफ से मिले ठिकाने में इनका आशियाना है। तुरन्त ही मोटरसाइकिल पर बैठकर हम भिलाई पहुंचे। कल जैसे ही तिवारी जी को मेरे छत्तीसगढ आने की सूचना मिली, तो इन्होंने आज की छुट्टी ले ली मुझे पूरे दिन घुमाने के लिये। कल सुबह ठीक समय पर दिल्ली से गाडी चल दी थी। सोते सोते झांसी तक पहुंच गया। कुछ खा पीकर आगे बढे। बीना तक ट्रेन अच्छी तरह आई। उसके बाद रुकने लगी। पता चला कि आगे किसी स्टेशन पर कुछ दंगा हो गया है, आगजनी भी हो गई है। क्यों? पता नहीं। गुलाबगंज स्टेशन पर भी तकरीबन आधे घण्टे तक खडी रहने के उपरान्त गाडी आगे बढी। विदिशा में हालांकि इस ट्रेन का ठहराव नहीं है, लेकिन रुकी तो ठसाठस भर गई। लोग यह कहते सुने गये कि पता नहीं, अगली गाडी कब आये। भोपाल तीन घण्टे लेट पहुंची।

रतलाम से कोटा पैसेंजर ट्रेन यात्रा चित्तौड के रास्ते

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । उदयपुर से अब हमें रतलाम जाना था। सबसे उपयुक्त ट्रेन है उदयपुर- इन्दौर एक्सप्रेस (19330)। यह उदयपुर से रात साढे आठ बजे चलती है और रतलाम पहुंचती है सुबह चार बजे। डिब्बे में एक सज्जन मिले। उन्हें भी रतलाम जाना था, दो बजे का अलार्म लगाकर और सबको बताकर कि उन्होंने दो बजे का अलार्म लगाया है, लेटने लगे। हमने कहा कि महाराज जी, चार बजे का अलार्म लगाइये, यह चार बजे रतलाम पहुंचेगी। सुनते ही जैसे उन्हें करंट लग गया हो, बोले- अरे नहीं, यह डेढ बजे जावरा पहुंचती है, वहां से तीस ही किलोमीटर आगे रतलाम है, दो बजे ही पहुंचेगी। हमने उन्हें आश्वस्त किया, तब वे चार बजे का नाम लेकर सोये। दिल्ली से अहमदाबाद और वहां से मीटर गेज की गाडी में उदयपुर- पूरे दो दिन लगे। इस ट्रेन में पडते ही ऐसी नींद आई कि पूछो मत। लेकिन जब तक गाडी हिलती रही, तब तक ही नींद अच्छी आई। शायद जावरा के बाद जब यह दो घण्टे के लिये खडी हो गई, तो नींद भाग गई।

अहमदाबाद-उदयपुर मीटर गेज रेल यात्रा

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 19 फरवरी 2013 सुबह साढे पांच बजे प्रशान्त का फोन आया। मैंने बताया कि स्लीपर के वेटिंग रूम में प्रवेश द्वार के बिल्कुल सामने पडा हुआ हूं। बोला कि हम भी तो वहीं खडे हैं, तू दिख ही नहीं रहा। तब मैंने खेस से मुंह बाहर निकाला, सामने दोनों खडे थे। पौने सात बजे प्लेटफार्म नम्बर बारह पर पहुंच गये। यहां से मीटर गेज की ट्रेनों का संचालन होता है। एक ट्रेन खडी थी। हमारा आरक्षण शयनयान में था। इसलिये शयनयान डिब्बे को ढूंढते ढूंढते शुरू से आखिर तक पहुंच गये, लेकिन डिब्बा नहीं मिला। ध्यान से देखा तो यह छह पचपन पर चलने वाली रानुज पैसेंजर थी। समय होने पर यह चली गई। इसके बाद अपनी पैसेंजर आकर लगी। शयनयान का एक ही डिब्बा था। मेरी और प्रशान्त की सीटें पक्की थी, जबकि नटवर अभी तक प्रतीक्षा सूची में था। यहां जब नटवर का नाम भी पक्कों में देखा तो सुकून मिला।

दिल्ली से अहमदाबाद ट्रेन यात्रा

18 फरवरी 2013,  शास्त्री नगर मेट्रो स्टेशन से सराय रोहिल्ला रेलवे स्टेशन तक जाने के लिये रिक्शा नहीं मिले। यह बडी अजीब बात थी क्योंकि यहां हमेशा रिक्शे वालों की भारी भीड रहती है। पैदल डेढ किलोमीटर का रास्ता है। पच्चीस मिनट अभी भी ट्रेन चलने में बाकी थे। पैदल ही चला गया। दस रुपये बच गये। सुबह घर से नमकीन मट्ठा पीकर चला। स्टेशन तक की ‘मॉर्निंग वाक’ में पेट में ऐसी खलबली मची कि रुकना मुश्किल हो गया। ट्रेन चलने में अभी भी दस मिनट बाकी थे, ये दस मिनट मैंने किस तरह काटे, बस मैं ही जानता हूं। ट्रेन ने जैसे ही प्लेटफार्म पार किया, जाटराम सीधे शौचालय में। इस रूट पर मैंने आबू रोड तक पैसेंजर ट्रेनों से यात्रा कर रखी है लेकिन कई चरणों में- दिल्ली से गुडगांव, गुडगांव से रेवाडी, रेवाडी से बांदीकुई , बांदीकुई से फुलेरा और आखिरी कोशिश फुलेरा से आबू रोड। वैसे भारत परिक्रमा के दौरान आबू रोड से अहमदाबाद तक का रास्ता भी देख रखा है।

जेएनयू में सम्मान

12 मार्च को प्रकाश राय का फोन आया- ‘जाटराम, हम जेएनयू से बोल रहे हैं। हमारी एक संस्था है सिनेमेला , जो लघु फिल्मों को बढावा देती है और हर साल इनके लिये पुरस्कार भी दिये जाते हैं।’ मैंने सोचा कि ये लोग मुझे कोई कैमरा देंगे कि बेटा जा, अपनी यात्राओं की कोई वीडियो बना के ला। फिर उसे पुरस्कार के लिये नामित करेंगे। उन्होंने आगे कहा- ‘इस बार हम पहली बार कुछ अलग सा करने जा रहे हैं। किसी अन्य क्षेत्र के अच्छे फनकार को सम्मानित करेंगे। पहले ही सम्मान में तुम्हारा नम्बर लग गया है। आ जाना 15 तारीख को जेएनयू में। जो भी कार्यक्रम है, मैं फेसबुक पर बता दूंगा।’ शाम का कार्यक्रम था। अब मेरा काम था सबसे पहले अपनी ड्यूटी देखना। हमारे यहां ड्यूटी करने में बहुत सारी विशेष शर्तें भी होती हैं, जिनके कारण हर दूसरे तीसरे दिन ड्यूटी बदलती रहती है। देखा कि चौदह की रात दस बजे से पन्द्रह की सुबह छह बजे की नाइट ड्यूटी है, यानी पन्द्रह को पूरे दिन खाली और अगले दिन यानी सोलह को दोपहर बाद दो बजे से सायंकालीन ड्यूटी है। इसलिये किसी भी तरह के बदलाव की आवश्यकता नहीं थी। ड्यूटी से लौटकर सोना आवश्यक था। लेकिन उससे

डायरी के पन्ने- 3

[डायरी के पन्ने हर महीने की एक व सोलह तारीख को छपते हैं।] 1-2 मार्च 2013 1. छत्तीसगढ यात्रा प्रगति पर। विवरण जल्द ही प्रकाशित। 3 मार्च 2013, दिन रविवार 1. ऑफिस में प्रदीप ने छत्तीसगढ यात्रा की शुभकामनाएं देते हुए मिष्ठान की मांग की। मांग तुरन्त पूरी हो गई, बिलासपुर की मिठाईयां अभी भी बची थीं।लेकिन सर्वांगसुन्दरी श्यामकाय श्वेतचित्त मिष्ठान देखते ही महाराज का मुंह आर्द्र होने के बजाय शुष्क हो गया। लगता है वे रंगभेद के समर्थक हैं, तभी तो इस काली कलूटी स्वादिष्ट मिठाई को नहीं खा सके। 2. मनु त्यागी का एक लेख पढा- एलेक्सा रेटिंग के बारे में। अप्रत्यक्ष रूप से मेरा व एक अन्य का उदाहरण दिया था। मुझे ‘ए’ नाम से व दूसरे को ‘बी’ नाम से सम्बोधित किया गया था। उन्होंने लिखा कि मिस्टर ए के ब्लॉग पर महीने में 27000 पेजव्यू आते हैं, चार साल से लिख रहे हैं, फिर भी 5600 पेजव्यू व मात्र चार महीने से लिखने वाले मनु त्यागी के मुकाबले एलेक्सा पर मीलों पीछे हैं। बात बिल्कुल ठीक है। मुझे लगता है कि एलेक्सा की अच्छी रेटिंग अच्छे विज्ञापनों के काम आती है।

गोवर्धन परिक्रमा

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 13 फरवरी 2013 सुबह आठ बजे सोकर उठे। कमरे में गीजर लगा था, दो तो नहा लिये, तीसरे का नहाना जरूरी नहीं था। आज हमें गोवर्धन जाना था, ट्रेन थी दस बजे यानी दो घण्टे बाद। धीरज का पाला अभी तक मेरठ छावनी जैसे छोटे स्टेशनों से ही पडा था, इसलिये अनुभव बढोत्तरी के लिये उसे गोवर्धन के टिकट लेने भेज दिया। पहले तो उसने आनाकानी की, बाद में चला गया। आधे घण्टे बाद खाली हाथ वापस आया, बोला कि दस बजे कोई ट्रेन ही नहीं है। क्यों? पता नहीं। पूछताछ पर गये तो पता चला कि यह ट्रेन कुछ दिनों के लिये रद्द है। जरूर इस गाडी को यहां से हटाकर किसी दूसरे रूट पर स्पेशल के तौर पर चला रखा होगा। अब ट्रेन की प्रतीक्षा करने का कोई अर्थ नहीं बनता था, इसलिये रिक्शा करके बस अड्डे पहुंचे और घण्टे भर बाद ही गोवर्धन।

वृन्दावन से मथुरा मीटर गेज रेल बस यात्रा

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । वृन्दावन के नाम से दो स्टेशन हैं- वृन्दावन रोड और वृन्दावन। वृन्दावन रोड स्टेशन दिल्ली- मथुरा मुख्य लाइन पर स्थित है। इसके बाद भूतेश्वर आता है, तत्पश्चात मथुरा जंक्शन। जबकि वृन्दावन स्टेशन वृन्दावन शहर में स्थित है। एकदम वीराने में है यह स्टेशन। मथुरा से यहां दिन में पांच बार रेल बस आती है, इतवार को चार बार ही। यह रेल बस सैलानियों के उतना काम नहीं आती, जितना स्थानीयों के। तीन बजे ही हम तीनों प्राणी इस मीटर गेज के स्टेशन पर जम गये। यहां का एकमात्र काफी लम्बा प्लेटफार्म देखते ही मैं समझ गया कि मीटर गेज के यौवनकाल में यहां दूर दूर से बडी ट्रेनें आया करती होंगी। ऐसा है तो दूसरा प्लेटफार्म भी होना चाहिये। अब दूसरा प्लेटफार्म तो नहीं है, लेकिन इसकी निशानी जरूर है। अतिरिक्त रेल पटरियां उखाडकर मथुरा से यहां तक के पूरे सेक्शन को सिग्नल-रहित बना दिया गया है। बीच में दो स्टेशन पडते हैं, दोनों ही हाल्ट हैं। ये दो स्टेशन हैं- मसानी और श्रीकृष्ण जन्मस्थान। मथुरा के तीन टिकट लेकर हमारे पास घण्टे भर तक प्रतीक्षा करने के सिवाय कोई चार

वृन्दावन यात्रा

12 फरवरी 2013 फरवरी का महीना घूमने के लिये सर्वोत्तम महीनों में एक है। सर्दी कम होने लगती है और गर्मी आती नहीं। मौसम अच्छा रहता है। लेकिन इस महीने की एक कमी है कि हरियाली न्यूनतम होती है। बसन्त का महीना होने के बावजूद भी हरियाली न्यूनतम। ठीक उसी तरह जिस तरह पच्चीस दिसम्बर को बडा दिन मनाया जाता है। एक दिन पहले ही साल का सबसे छोटा दिन होता है, अगले ही दिन बडा दिन। वाह! इस महीने में हिमालय की ऊंचाईयों पर नहीं जा सकते। निचले इलाकों में भी इस दौरान भारी बर्फबारी होती रही, ठण्ड भी इस बार काफी रही। अन्य राज्यों के पहाडी स्थानों पर भी जाना अच्छा नहीं है, न्यूनतम हरियाली की वजह से। इसलिये इस महीने में ऐसे स्थानों पर जाना चाहिये, जहां प्राकृतिक सौन्दर्य की महत्ता ना हो। ऐसा ही एक स्थान है मथुरा। पिछले साल इसी महीने आगरा गया था। इस बार पिताजी और छोटे भाई धीरज को भी साथ ले लिया। धीरज लगभग चार साल पहले मेरे साथ शिमला गया था। पिताजी और मैं आज तक कहीं नहीं घूमे, हालांकि एक बार मैं और माताजी दो दिनों के लिये हरिद्वार- ऋषिकेश जरूर गये थे। पिताजी बहुत समय से कहते रहे हैं मेरे साथ घूमने के लि

लेह से दिल्ली हवाई यात्रा

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 25 जनवरी 2013 की सुबह थी। आज मुझे दिल्ली के लिये उड जाना है। सीआरपीएफ के कुछ मित्र भी आज दिल्ली जायेंगे। उन्हें सरकार की तरफ से वारंट मिलता है जो जम्मू के लिये ही मान्य होता है। उन्हें चूंकि दिल्ली जाना है, इसलिये वे जोड-तोड करने जल्दी ही विमानपत्तन चले गये। बाद में पता चला कि उनका जोड तोड सही नहीं बैठा और उन्हें जम्मू वाली उडान पकडनी पडी। सवा ग्यारह बजे उडान का समय है। मैं नौ बजे ही पहुंच गया। पहचान पत्र दिखाकर पत्तन के अन्दर घुसा तो देखा कि काफी लम्बी पंक्ति बनी हुई है। मैं समझ गया कि ये सभी दिल्ली वाली उडान के यात्री हैं। एक कोने में बिजली वाला हीटर चल रहा था और दूसरी तरफ एक बडे से ब्लॉअर से गर्म हवा आ रही थी। मैं और कुछ यात्री ब्लॉअर के पास खडे हो गये। जब मैं दिल्ली से यहां आया था तो अनुभव के अभाव में खिडकी वाली सीट नहीं ले पाया था। अब पूरी कोशिश रहेगी कि खिडकी वाली सीट ले लूं।

पिटुक गोनपा (स्पिटुक गोनपा)

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । युद्ध संग्रहालय से पिटुक गोनपा करीब दो किलोमीटर कारगिल रोड पर है। मैं पैदल ही चलता चलता पहुंच गया। पहले भी कह चुका हूं कि मन बुरी तरह उदास था, मैं किसी एकान्त धूपदार स्थान पर घण्टे भर के लिये बैठना चाहता था। पिटुक के पास इसी पहाडी पर एक छोटा सा मैदान है जिसके एक सिरे पर बुद्ध मूर्ति है। मैं वहां चला गया। अभी भी हर जगह बर्फ थी लेकिन पिछले कई दिनों से लगातार अच्छी धूप निकलने के कारण यह कितने ही स्थानों से पिघल चुकी थी। मैदान तक जाने वाली सीढियों में अन्तिम कुछ सीढियां बर्फरहित थी। यह स्थान मुझे बैठने के लिये उपयुक्त लगा। घण्टे भर तक बैठा रहा, साथ कुछ किशमिश लाया था, खाता रहा। हवाई पट्टी यहां से नातिदूर है। इस दौरान वायुसेना का एक विमान भी उतरा। घण्टे भर बाद यहां से निकलकर पिटुक गोनपा में चला गया। कोई नहीं दिखा। कुछ देर बाद एक स्थानीय परिवार भी गोनपा देखने आया। मैं उनके पीछे पीछे हो लिया। इससे पहले मुझे डर था कि कोई लामा मुझे या मेरे जूतों को देखकर भगा ना दे, लेकिन इनके पीछे पीछे लगे रहने से यह चिन्ता दूर हो गई। ये ल

डायरी के पन्ने- 2

16 फरवरी 2013 1. दिन की शुरूआत बडी ही भयंकर हुई। सुबह साढे पांच बजे उठना पड गया। आज प्रातःकालीन ड्यूटी थी- सुबह छह से दोपहर दो बजे तक। मैं इस ड्यूटी को  बिल्कुल भी पसन्द नहीं करता हूं केवल जल्दी उठने की वजह से। जब भी मेरी यह ड्यूटी होती है तो मैं किसी से बदल लेता हूं। फिर मुझे या तो सायंकालीन ड्यूटी करनी पडती है या फिर रात्रि सेवा। लगातार सायंकालीन और रात्रि सेवा करते रहने की वजह से आदत भी पड गई कि ड्यूटी से आते ही सोना है। यही आदत सुबह वाली ड्यूटी में भी बरकरार रहती है। दो बजे जैसे ही घर आया, खाना खाकर सो गया। सात बजे शाम को उठा।