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Showing posts from February, 2013

लेह में परेड और युद्ध संग्रहालय

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । आज मुझे खारदुंगला जाना था। कोई और दिन होता तो मैं नौ दस बजे सोकर उठता लेकिन आज सात बजे ही उठ गया। आज का पूरा दिन खारदुंगला को समर्पित था। सोच रखा था कि हर हाल में वहां तक जाना है और टैक्सी भी नहीं करनी है। बस मिलेगी तो ठीक है, नहीं तो कुछ आगे जाकर किसी ट्रक में बैठ जाऊंगा। ट्रक इस सडक पर चलते रहते हैं। परमिट था ही मेरे पास। आज परेड मैदान पर गणतन्त्र दिवस परेड का रिहर्सल भी होना था। मेरे सीआरपीएफ वाले सभी साथी परेड के लिये तैयार हो रहे थे। विकास ने विशेष प्रार्थना की कि लेह में गणतन्त्र दिवस देखने को तो नहीं मिलेगा, लेकिन रिहर्सल जरूर देखना। रिहर्सल दस बजे के बाद होना था। मैंने ग्यारह बजे तक लेह में रुकने में आपत्ति की कि जल्दी से जल्दी खारदुंगला जाना है, लेकिन विकास ने अपने कुछ तर्क लगाकर मुझे रुकने पर बाध्य कर दिया। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें हम अपना सबकुछ समर्पित कर सकते हैं। हमारे जीवन निर्माण में इन लोगों का बहुत बडा हाथ होता है। लेकिन जब ये ही लोग हम पर अविश्वास करने लगते हैं तो बडा दुख होता है। इसी तरह का एक

खारदुंगला का परमिट और शे गोनपा

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 23 जनवरी 2013, मैंने खारदुंगला जाने की इच्छा साथियों से बताई। सुनते ही युसुफ साहब ने कहा कि परमिट की चिन्ता मत करो। तुम्हें सीआरपीएफ की तरफ से परमिट दिला देंगे। जल्दी मिल जायेगा और कोई कागज-पत्र भी नहीं चाहिये। हालांकि बाद में सीआरपीएफ की तरफ से परमिट नहीं बन सका। अब मुझे खुद जिला कमिश्नर के कार्यालय से परमिट बनवाना था। विकास के साथ परेड वाली बस में बैठकर परेड ग्राउंड पहुंचा। यहां 26 जनवरी के मद्देनजर रोज दो-दो तीन-तीन घण्टे की परेड हो रही थी। परेड में सेना, भारत तिब्बत पुलिस, सीआरपीएफ, राज्य पुलिस, एनसीसी आदि थे। परेड मैदान के बगल में जिला कमिश्नर का कार्यालय है। मुख्य प्रवेश द्वार से अन्दर घुसते ही बायें हाथ एक ऑफिस है। यहां से खारदुंगला का परमिट बनता है। उन्होंने मुझसे कहा कि बाहर जाकर किसी भी फोटो-स्टेट वाली दुकान से दो इंडिया फार्म खरीदकर लाओ। साथ ही अपने पहचान पत्र की छायाप्रति भी। काफी दूर जाकर एक फोटोस्टेट वाली दुकान मिली। आसानी से इंडिया फार्म मिल गया। पहचान पत्र की छायाप्रति करके वापस डीसी ऑफिस पहुंचा। बोल

लेह पैलेस और शान्ति स्तूप

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 21 जनवरी को पूरे दिन आराम करता रहा। अगले दिन यानी 22 जनवरी को लेह घूमने निकल पडा। 25 तारीख को वापसी की फ्लाइट है और मेरे पास इतने दिनों तक कुछ भी काम नहीं है। ये तीन दिन अब लेह और आसपास दस पन्द्रह किलोमीटर तक घूमने में बिताये जायेंगे। सबसे पहले पहुंचा लेह पैलेस। इस नौ मंजिले महल का निर्माण तिब्बत में स्थित पोटाला राजमहल के अनुरूप किया गया है। नामग्याल सम्प्रदाय के संस्थापक सेवांग नामग्याल ने 1533 में इसका निर्माण शुरू किया और इनके भतीजे सेंगे नामग्याल ने इसे पूरा किया। इसमें मुख्यतः मिट्टी की ईंटों का प्रयोग हुआ है, जैसा कि लद्दाख में हर जगह होता है। पैलेस बन्द था। मुख्य द्वार पर ताला लगा हुआ था। इसके सामने सेमो पहाडी पर एक गोनपा भी दिख रहा था। यहां से गोनपा तक जाने के लिये कच्ची पगडण्डी बनी थी, मैं इस पर चल पडा। ज्यादा चढाई नहीं थी। ऊपर गोनपा से लेह शहर का बडा भव्य नजारा दिख रहा था। कमी थी बस समय की कि सूर्य मेरे सामने था, अगर सूर्योदय का समय होता तो यहां से शहर का और भी शानदार नजारा देखने को मिलता तथा और भी शानदार

चिलिंग से वापसी और लेह भ्रमण

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 20 जनवरी, रविवार। मैं तिलत सुमडो की गुफा में एक बेहद सर्द रात काटकर वापस लेह के लिये चल पडा। पता था कि आज एक बजे चिलिंग से लेह जाने वाली बस मिलेगी। तीन दिन बर्फ गिरे हो चुके थे, अब यह बर्फ काफी कडी हो गई थी। ऊपर से सडक पर चलती गाडियों ने इसे और भी कडा बना दिया जिससे अब इस पर चलना पहले दिन के मुकाबले मुश्किल हो रहा था। तीन किलोमीटर चलने के बाद सडक बनाने वालों की बस्ती आई। यहां कई कुत्ते हैं और वे रास्ते पर किसी को आते-जाते देखते ही भौंकते हैं। मैं अब से पहले तीन बार यहां से गुजर चुका था, मुझे पता चल गया था कि कालू कुत्ता भौंकने की शुरूआत करता है, बाकी कुत्ते उसके बाद ऐसे भौंकते हैं जैसे मजबूरी में भौंक रहे हों। अब कालू नहीं दिखाई दिया, बाकी सभी इधर-उधर पसरे पडे थे, भौंका कोई नहीं। थोडा आगे चलने पर कालू दिखा, देखते ही आदतन भौंका लेकिन किसी दूसरे ने उसका साथ नहीं दिया। दो तीन बार बाऊ-बाऊ करके चुप हो गया।

डायरी के पन्ने- 1

[हर महीने की पहली और 16 तारीख को डायरी के पन्ने छपा करेंगे।] 1.  सुबह एक फोन आया जयपुर से। वे दैनिक भास्कर से थे और चाहते थे कि मैं उन्हें नीलकंठ महादेव के फोटो उनकी साइट पर लगाने दूं। मैंने अनुमति दे दी। शाम को विधान का फोन आया कि भास्कर की साइट पर तुम्हारे फोटो लगे हैं। मैंने भी देखा। उनकी थीम थी राजस्थान के मन्दिरों में सम्भोग और अध्यात्म का रिश्ता। इसमें उन्होंने उदयपुर, बाडमेर के साथ नीलकंठ महादेव के कुल मिलाकर बारह फोटो लगा रखे हैं। ज्यादातर मेरे फोटो हैं लेकिन वर्णन तितर-बितर तरीके से कर रखा है। दैनिक भास्कर का वह पेज यहां क्लिक करके देखा जा सकता है।

चादर ट्रेक- गुफा में एक रात

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 19 जनवरी 2013 आज शनिवार है। लेह वाली बस कल आयेगी। सुबह के दस बजे हैं, अभी अभी सोकर उठा हूं। हालांकि आंख तो दो घण्टे पहले ही खुल गई थी, लेकिन बस पडा रहा। घरवाले भी थोडी थोडी देर बाद दरवाजा खोलकर झांककर चले जाते हैं कि महाराज उठेगा तो चाय-नाश्ता परोसेंगे। उन्हें झांकते देखते ही तुरन्त अपनी आंख मीच लेता हूं। भारी भरकम पश्मीना कम्बल और उस पर रजाई; दोनों के नीचे दबे होने में एक अलग ही आनन्द मिल रहा है। साढे दस बजे उठ गया। तुरन्त चाय और रोटी आ गई। आज एक अलग तरह की रोटी बनी है। राजस्थान में जैसी बाटी होती है, उससे भी मोटी। लकडी की आग और अंगारों की कमी तो है नहीं, अच्छी तरह सिकी हुई है। इसे मक्खन और जैम के साथ खाया। आज का लक्ष्य है कि ग्रामीण जनजीवन को देखूंगा, कुछ फोटो खींचूंगा। अचानक अन्तरात्मा ने आदेश दिया- नेरक चलो। यह आदेश इतना तीव्र और तीक्ष्ण था कि शरीर के किसी भी अंग को संभलने और बचाव करने का मौका भी नहीं मिला। सभी ने चुपचाप इस आदेश को मान लिया। हालांकि पैरों ने कहा भी कि दर्द हो रहा है लेकिन आत्मा ने फौरन कहा-

जांस्कर घाटी में बर्फबारी

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । साढे तीन बजे चिलिंग पहुंच गये। यहां कहीं रुकने का ठिकाना ढूंढना था। इसमें ड्राइवर इब्राहिम ने काफी सहायता की। यहां कोई होटल नहीं है लेकिन होमस्टे है, जहां घर के सदस्यों के साथ मेहमान बनकर रुकना होता है। हमारे जाते ही घर की मालकिन ने कमरे के बीच में रखी अंगीठी सुलगा दी। मैंने इब्राहिम से पूछा कि कितने पैसे हुए। लेह से चलते समय हमने पैसों के बारे में कोई बात नहीं की थी। बोला कि चौबीस सौ। मैं एक हजार तक के लिये तैयार था। चौबीस सौ रुपये देने मेरे बस से बाहर की बात थे। लेह से चिलिंग करीब सत्तर किलोमीटर दूर है। आखिरकार मैं हजार से बढकर बारह सौ पर पहुंच गया, वो सोलह सौ तक आ गया। वो एक ही जिद पकडे रहा कि बारह सौ में उसे भयंकर घाटा हो जायेगा। मैंने कहा कि इससे ज्यादा देने में मुझे भयंकर घाटा होगा। उसने क्रोधित होकर कहा कि तुम कुछ मत दो, ये बारह सौ भी रख लो। मैंने उससे लेकर अपने पास रख लिये और सीधे कह दिया कि इससे ज्यादा बिल्कुल नहीं दूंगा। आखिरकार वो बारह सौ लेकर ही चला गया। होमस्टे का मतलब है घर में मेहमान। बाल्टी भरकर सू

लद्दाख यात्रा- सिन्धु दर्शन व चिलिंग को प्रस्थान

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । नाश्ता करके सिन्धु घाट की तरफ चल पडा। थोडा आगे चोगलमसर है। लेह से चोगलमसर करीब आठ किलोमीटर है। लेकिन इस पूरी दूरी में अच्छी खासी बसावट है जिससे चोगलमसर लेह का ही हिस्सा लगता है। चोगलमसर के बाद आबादी खत्म हो जाती है। सिन्धु नदी- मानसरोवर से शुरू होकर कराची में खत्म होने से पहले यह तीन देशों- चीन, भारत व पाकिस्तान में बहती है। पंजाब की पांच नदियों में यह प्रमुख है लेकिन लद्दाख की भी यह प्रमुख नदी है। मुम्बई के एक मित्र का आग्रह है कि मैं उनके लिये सिन्धु जल लेकर आऊं। वे भारत की सात नदियों के जल का संग्रह करना चाहते हैं जिनमें से छह नदियां यानी गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, गोदावरी व एक और उनके पास संग्रहीत हैं। सातवीं के रूप में वे सिन्धु को चाहते हैं। कोशिश करूंगा उनके लिये सिन्धु जल लेकर जाने की। मैं चाहता हूं कि वे अपने संग्रह को बढायें। इसमें प्रेम का प्रतीक चेनाब, मोहपाशरहित विपाशा यानी ब्यास, मानसरोवर से आने वाली सतलुज, पूर्वोत्तर का जीवन ब्रह्मपुत्र, बिहार का शोक कोसी, अयोध्या वाली सरयू, दक्षिण की गंगा कावे

लद्दाख यात्रा- लेह आगमन

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । राम-राम से जुले-जुले तक लेह उतरने से कुछ मिनट पहले उदघोषणा हुई कि विमान लेह के कुशोक बकुला रिन्पोछे हवाई अड्डे पर उतरने वाला है। कुशोक बकुला रिन्पोछे नाम से ही पता चल रहा है कि हम लद्दाखी जमीन पर आ गये हैं। असल में कुशोक बकुला पिटुक गोनपा के प्रधान लामा थे। लेह के हवाई अड्डे के एक तरफ तो लेह शहर है जबकि दूसरी तरफ पिटुक गोनपा है। पिटुक को अंग्रेजी में स्पिटुक (Spituk) लिखा जाता है, जिससे कुछ लोग इसे स्पिटुक मोनेस्ट्री भी कहते हैं। जब विमान पौने आठ बजे लेह के रनवे पर लैंड कर चुका और रुकने के लिये दौडता जा रहा था, तब पुनः उदघोषणा हुई कि हम अपने मोबाइल चालू कर सकते हैं। हालांकि मुझे कोई जल्दी नहीं थी, इसलिये चालू नहीं किया। सवा घण्टे पहले हम 200 मीटर की ऊंचाई पर थे, अब 3200 मीटर की महा-ऊंचाई पर, इसलिये शरीर पर कुछ असर तो होना ही था। असर होना तभी शुरू हो गया जब विमान का दरवाजा खोला गया। अभी तक हम दिल्ली वाले वायुदाब पर ही थे, क्योंकि वायुयान एयरटाइट था। अब जब अचानक दरवाजा खोला गया तो दिल्ली की भारी हवा निकल गई और लेह की

पहली हवाई यात्रा- दिल्ली से लेह

लद्दाख यात्रा की तैयारी एक सरकारी कर्मचारी होने के नाते मेरा यह दायित्व है कि मैं हर चार साल में एक बार सरकारी खर्चे से भारत के किसी भी हिस्से की यात्रा करके आऊं। इस यात्रा में हमें पूर्वोत्तर और जम्मू कश्मीर के लिये हवाई खर्चा भी मिलता है। पूर्वोत्तर और जम्मू कश्मीर में पर्यटन को बढावा देने के लिये ऐसा होता है। वैसे तो इन इलाकों में कोई जाना नहीं चाहता, लेकिन हवाई जहाज के लालच में कुछ लोग चले जाते हैं। जब हवाई खर्चा मिल ही रहा है तो क्यों ना लद्दाख जाया जाये। सर्दियों में लद्दाख जाने का एकमात्र साधन वायुयान ही है, इसलिये वहां जाने की और ज्यादा इच्छा होने लगी। शेष भारत में किसी भी मौसम में जाया जा सकता है, लेकिन लद्दाख के साथ ऐसा नहीं है। सर्दियों में लद्दाख कैसा होता है, यह जानने की बडी तीव्र आकांक्षा थी। एक मित्र है ललित भारद्वाज। एक बार मेरे साथ त्रियुण्ड गया था। वहीं से मैंने जान लिया कि यह मेरी ‘बिरादरी’ का इंसान नहीं है। एक दिन उसने बातों बातों में मुझसे आग्रह किया कि कहीं चलते हैं। दिसम्बर 2012 की बात है। मैंने तुरन्त लद्दाख का नाम लिया। उसने बिना सोचे समझे हां कह दी।