Skip to main content

रूपकुण्ड यात्रा की शुरूआत

रूपकुण्ड उत्तराखण्ड में 4800 मीटर की ऊंचाई पर एक छोटी सी झील है। वैसे तो हिमालय की ऊंचाईयों पर इस तरह की झीलों की भरमार है लेकिन रूपकुण्ड एक मामले में अद्वितीय है। इसमें मानव कंकाल बिखरे पडे हैं। वैज्ञानिकों ने इनकी जांच की तो पाया कि ये कई सौ साल पुराने हैं। इतने सारे मानव कंकाल मिलने का एक ही कारण हो सकता है कि कोई बडा दल वहां था और उनके ऊपर जानलेवा विपत्ति आ पडी। वहां इतनी ऊंचाई पर इतने लोग क्या कर रहे थे, क्यों थे; यह भी एक सवाल है। इसके भी दो जवाब बनते हैं- एक तो यह कि जिस तरह आज हर बारह साल में यहां नन्दा देवी राजजात यात्रा होती है, उसी तरह तब भी होती होगी और यात्रा में भाग लेने वाले श्रद्धालु थे वे। दूसरा जवाब है कि वे व्यापारी थे जो शायद तिब्बत जा रहे थे।
लेकिन व्यापारियों वाली बात हजम नहीं होती क्योंकि इधर से तिब्बत जाने का मतलब है कि वे नीति पास के रास्ते जायेंगे। वान या लोहाजंग या देवाल के लोग अगर नीति पास जायेंगे तो अलकनन्दा घाटी के सुगम रास्ते का इस्तेमाल करेंगे, रूपकुण्ड और उससे आगे के दर्रे का इस्तेमाल करना गले नहीं उतरता। इसलिये तीर्थयात्रा वाली कहानी ज्यादा वास्तविक लगती है।
मैं इस झील की ट्रेकिंग करने से डरता था। डर उन कंकालों की वजह से नहीं लगता था बल्कि कई दूसरे कारण थे। सबसे पहला कारण इसकी ऊंचाई। मुझे 3000 मीटर के बाद पैदल चलने में परेशानी होने लगती है, इसकी ऊंचाई तो 4800 मीटर है। हालांकि पिछले साल श्रीखण्ड यात्रा में मैंने 5200 मीटर का लेवल पार कर रखा है।
दूसरा कारण था कि यहां जाने के लिये अपना खुद का इंतजाम करना होता है- सोने और खाने पीने का। मैंने आज तक अपनी ट्रेकिंग जिन्दगी में इसी साल तपोवन जाने में ऐसा किया था। सच कहा जाये तो वो भी मैंने नहीं किया बल्कि अपने साथी चौधरी साहब के उत्तरकाशी निवासी मित्र ने सबकुछ करके हमें दे दिया। मेरा इस मामले में कोई अनुभव नहीं है कि गाइड लो, पोर्टर लो, राशन-पानी लो, उनसे मोलभाव करो आदि आदि। मुझे वे ट्रेक करने ज्यादा पसन्द हैं जहां खाना ना सही, रहना मिल जाये।
तीसरा कारण वे यात्रा वृत्तान्त हैं जो इसे मुश्किल ट्रेक में रखते हैं। हालांकि वे बिल्कुल ठीक कहते हैं, लेकिन उन्हें पढते पढते मुझे पसीना आने लगता था कि हे भगवान! क्या मैं यह सब कर सकूंगा? मैं कोई मजबूत इंसान नहीं हूं, बिल्कुल कमजोर शरीर का हूं। शारीरिक ताकत नहीं है मुझमें लेकिन मानसिक ताकत खूब है। इसी के बूते घुमक्कडी चल रही है।
चौथा कारण है मौसम। सालभर में मात्र सितम्बर-अक्टूबर के वे दिन ही यहां के लिये सर्वोत्तम हैं जब हमें यकीन हो कि मानसून खत्म हो गया है। मानसून से पहले यहां और रास्ते में बर्फ रहती है। मैं बर्फ पर चलना बिल्कुल भी पसन्द नहीं करता। इसलिये बारहों महीनों में सितम्बर-अक्टूबर के मिलावटी चार हफ्ते ही रूपकुण्ड यात्रा के लिये सर्वोत्तम माने जा सकते हैं।
और जैसे ही सितम्बर का आखिरी सप्ताह शुरू हुआ, तभी मुझे पिछले साल इन्हीं दिनों की गई प्रतिज्ञा याद आ गई कि अगले साल रूपकुण्ड जाना है। कुछ महीनों पहले मैंने अपने मित्र तिवारी जी से भी प्रतिज्ञा की थी कि मानसून के बाद रूपकुण्ड जाऊंगा। तिवारी जी एक अन्तर्राष्ट्रीय घुमक्कड हैं और पचास से ज्यादा देशों में घूम चुके हैं। इसके बावजूद भी तिवारी जी को मलाल है कि वे रूपकुण्ड नहीं जा पाये। जब मुझे उनके इस मलाल का पता चला तो मैं प्रतिज्ञा कर बैठा। पिछले दिनों उन्होंने उस प्रतिज्ञा की याद भी दिलाई लेकिन तब तक मैं गोवा जाने का मन बना चुका था।
कोंकण रेलवे और दूधसागर झरना देखने की बडे दिनों से इच्छा थी मेरी। इसीलिये गोवा की योजना बनी। सारा कार्यक्रम भारत परिक्रमा पर जाने से पहले ही बन चुका था। कोंकण रेलवे और दूधसागर दोनों जगहें मानसून में ही देखने लायक होती हैं। थोडी सी चूक मुझसे यह हो गई कि 29 सितम्बर को दिल्ली से निकलना तय हुआ। यह समय किसी भी सूरत में मानसून का समय नहीं कहा जा सकता।
जैसे जैसे 29 सितम्बर नजदीक आता गया, तो इस यात्रा से मन हटने लगा। कारण वही कि मानसून गया तो इन दोनों जगहों को देखने का सर्वोत्तम समय भी गया। आखिरकार 27 सितम्बर की रात को गोवा से मन बिल्कुल हट गया और रिजर्वेशन रद्द कर दिया। अब ध्यान आया रूपकुण्ड जिसका सर्वोत्तम समय मानसून के बाद शुरू होता है।
रिजर्वेशन रद्द कराने से कुछ घण्टों पहले फेसबुक पर रूपकुण्ड और गोवा की प्रतियोगिता कराई गई, जिसमें रूपकुण्ड विजयी रहा। मुझे यह देखकर ताज्जुब हुआ कि कई मित्रों ने कहा कि गोवा दिल्ली से दूर है और हिमालय यानी रूपकुण्ड नजदीक है। नजदीक वाली जगहों पर कभी भी जाया जा सकता है, दूर जाने के मौके कम मिलते हैं। इसलिये गोवा जाओ। ये मित्र रूपकुण्ड को आम हिमालयी शहर जैसा समझ बैठे कि कभी भी चले जाओ।
रूपकुण्ड के लिये निकलने से करीब 30 घण्टे पहले ही इस यात्रा पर मुहर लगी थी, नहीं तो महीने भर से तैयारी गोवा की चल रही थी। रूपकुण्ड की सबसे पहली तैयारी होती है बेहतर शारीरिक फिटनेस। गोवा के कारण इस मामले से मैं बहुत दूर था। दूसरी तैयारी होती है रास्ते की जानकारी और पडाव। इसकी भी थोडी बहुत जानकारी थी लेकिन आधी अधूरी थी। इस आधी अधूरी जानकारी का फायदा भी मिला कि मैं लोहाजंग से लोहाजंग तक 100 किलोमीटर से ज्यादा की ट्रैकिंग मानकर चल रहा था जबकि यह वास्तव में 70 किलोमीटर है। तीसरी तैयारी होती है किसी अच्छे साथी का साथ। मैं चूंकि अकेला ही गोवा जा रहा था, इसलिये 30 घण्टे के अचानक मिले रूपकुण्ड के नोटिस को हर दोस्त ने नकार दिया।
मेरे लिये अकेला निकलना कोई नई बात नहीं है। इस विधा के बहुत फायदे मिलते हैं। हिमालय और हिमालयवासी तो आपको अकेला देखकर बडी जल्दी अपना लेते हैं। जल्दी ही आप समझ जाते हो कि आप अकेले नहीं हो। रूपकुण्ड की इस दुर्गम यात्रा में मैं तार्किक रूप से अकेला था लेकिन वास्तव में अकेला नहीं था। हिमालयवासियों ने हर जगह दिल खोलकर स्वागत किया। कहीं भी मुझे नकारात्मक उत्तर नहीं मिला, हर जगह ‘हो जायेगा’ ही सुनाई दिया।
मेरे पास एक स्लीपिंग बैग है। पक्का टैंट नहीं है लेकिन ट्यूब टैंट है। ट्यूब टैंट साधारण पन्नी ही होती है। दो लकडी गाडकर उन पर रस्सी तानकर पन्नी टांग दो, टैंट तैयार। स्लीपिंग मैट यानी मिनी गद्दा भी नहीं है। पन्नी वाला टैंट बैग के एक छोटे से कोने में आ जाता है और वजन भी सौ ग्राम से ज्यादा नहीं होता। यह मेरा आपातकाल में रात गुजारने का साधन था। हालांकि इस टैंट की जरुरत नहीं पडी क्योंकि आपातकाल नहीं आया।
यात्राओं के दौरान मेरा खानपान बिल्कुल बदल जाता है। रोटी से लगाव बिल्कुल नहीं होता। तकरीबन एक किलो नमकीन, बिस्कुट के दो पैकेट और भुने चने दिल्ली से लेकर मैं चला था। अगर किन्हीं हालातों में खाने को कुछ भी ना मिले तो यह राशन मेरे लिये दो दिनों तक चलेगा। कच्चा राशन ले जाने और फिर उसे पकाने के झंझट से मुक्त था मैं।
नन्दा देवी हिमालय में एक विशाल पर्वत गुच्छ है। इसमें नन्दादेवी, त्रिशूल, नन्दाखाट, नन्दाघूंटी सहित कई ऊंची ऊंची चोटियां आती हैं। साथ ही नन्दा देवी गढवाल और कुमाऊं के लोगों की आराध्य देवी भी है। हर बारह साल में एक बार नन्दा देवी राजजात जात्रा का आयोजन भी यहां होता है। जात्रा यानी यात्रा बेदिनी बुग्याल के बेदिनी कुण्ड स्थित नन्दा देवी मन्दिर से शुरू होकर रूपकुण्ड और उससे भी आगे होमकुण्ड पर जाकर समाप्त होती है।
इस यात्रा का आयोजन इसी साल होना था लेकिन काल गणना कुछ ऐसी बनी कि यात्रा इस बार न होकर अगले साल होगी यानी तेरह साल में। उस दौरान चूंकि लाखों लोग इस यात्रा में हिस्सा लेते हैं तो होमकुण्ड तक खाने पीने और ठहरने की सुविधाएं मिलेंगी। मैंने भी उसी दौरान इस यात्रा पर निकलने की सोच रखी थी। लेकिन अगले साल सितम्बर के शुरू में यात्रा होगी यानी मानसून में। प्राकृतिक रूप से सुन्दरतम स्थानों में शुमार इस स्थान पर मानसून में जाना कुछ घाटे का सौदा ही कहा जायेगा। एक यह भी कारण रहा मेरे इस मौसम में वहां जाने का।
यानी अचानक परिस्थितियां मेरे अनुसार ढल गईं, कुछ मैं भी परिस्थितियों के अनुसार ढल गया। यह एक ऐसी यात्रा रही जिसमें मैंने कहीं भी मोलभाव नहीं किया- एक रुपये का मोलभाव भी नहीं।
अभी तक मैंने कई ट्रैकिंग की हैं जिनमें 3000 मीटर से ज्यादा ऊंचाई पर निम्न ट्रैक रहे हैं- अमरनाथ, करेरी झील, श्रीखण्ड महादेव, पिण्डारी ग्लेशियर, गौमुख तपोवन और यमुनोत्री-केदारनाथ-तुंगनाथ-मदमहेश्वर। इनमें आखिर के चार को छोड दें तो अमरनाथ तथा श्रीखण्ड महादेव सालाना यात्रा का हिस्सा रहे। सालाना नियमित यात्राओं की वजह से इन्हें हिमालयी ट्रैक नहीं माना जा सकता। करेरी झील भी एक कठिन पैदल यात्रा के बावजूद ट्रैकिंग नहीं है। अब बचे पिण्डारी और तपोवन। तो जी, मेरे खाते में अभी तक ट्रैकिंग के लिहाज से गर्व करने लायक ये दो ही ट्रैक थे। अब इस खाते में रूपकुण्ड भी जुड गया है। पिण्डारी जहां एक आसान ट्रैक है, वहीं तपोवन और रूपकुण्ड कठिनता की दृष्टि से मध्यम की श्रेणी में आते हैं।

अगला भाग: रूपकुण्ड यात्रा- दिल्ली से वान

रूपकुण्ड यात्रा
1. रूपकुण्ड यात्रा की शुरूआत
2. रूपकुण्ड यात्रा- दिल्ली से वान
3. रूपकुण्ड यात्रा- वान से बेदिनी बुग्याल
4. बेदिनी बुग्याल
5. रूपकुण्ड यात्रा- बेदिनी बुग्याल से भगुवाबासा
6. रूपकुण्ड- एक रहस्यमयी कुण्ड
7. रूपकुण्ड से आली बुग्याल
8. रूपकुण्ड यात्रा- आली से लोहाजंग
9. रूपकुण्ड का नक्शा और जानकारी

Comments

  1. रूपकुण्ड के बारे में काफ़ी जाना है और अधिक जानने की उत्सुकता है। नेशनल जियोग्राफ़िक ने कुछ वर्ष पहले सामान्य भारतीय के क़द से कहीं बड़े इन कंकालों के डीएनए का अध्ययन करवाया था। तुम्हारी यात्रा के आँखों देखे हाल की प्रतीक्षा है। शुभकामनायें!

    ReplyDelete
    Replies
    1. सर ! आज से लगभग 1200 साल पहले भारत की प्रजातियों मे आर्य रक्त कि अधिक शुद्धता थी, जिसके कारण इनके कद-काठ बड़े थे, आज भी पाकिस्तान, पंजाब, हरियाणा के लोगों के कद काठ देख लीजिये ! भारत मे रहने वाली अन्य प्रजातियों से मिल जाने के कारण सामान्य भारतियों के शारीरिक लक्षणों मे भी बदलाव आ गया !

      Delete
    2. आर्यन-द्रविड़ विभाजन अंग्रेजों द्वारा बनायीं गयी थी, भारतियों को बाटने के लिए, इस पागलपन को बढ़ावा देना बंद कीजिये

      Delete
  2. गजब. आपका मानसिक बल द्विगुणित हो.

    ReplyDelete
  3. रूपकुण्ड हमारे कुछ मित्र १०-१२ वर्ष पूर्व गये थे, उन्होंने भी यही बताया था और फ़ोटो भी दिखाये थे, वहाँ हड्डियाँ, चमड़े की चप्पलें और चाँदी के गहने बिखरे हुए हैं। और इतने वर्ष में कुछ खराब नहीं हुआ बर्फ़ीले मौसम के कारण, और जो चप्पलों के फ़ोटो दिखाये गये थे उनसे लगता था कि आदमी की लंबाई कम से कम १० फ़ुट रही होगी। हमने पूछा था कि चाँदी के गहने हैं तो लोग चुराकर नहीं ले जाते, तो बताया कि वहाँ कुछ शापित है, इसलिये लोग उन्हें नहीं ले जा सकते। शायद इस बारे में भी आपसे ज्यादा जानकारी मिलेगी ।

    ReplyDelete
  4. आपकी यह यात्रा का इन्तेज़ार हो रहा था . चलिए आपकी यह यात्रा अब हमें भी पढ़ने मिलेगी. यह यात्रा मैंने और कही भी नहीं देखी है न पढ़ी है. इस लिए इसे पढ़ने की बहुत उत्सुकता है. मैं भी थोडा बहुत आप जैसा हूँ. अभी संदीप भाई के साथ ४ ट्रेक किये मैंने ३ दिनों मैं. शारीरिक बल मुझमे है नहीं जितना संदीप भाई मैं है . लेकिन मानसिक ताकत बहुत है मुझमे. चाहे थोडा वक्त लगा लेकिन मैं चारों ट्रेक खतम किये.

    आगे के भाग का बेसब्री से इन्तेज़ार

    ReplyDelete
  5. आपके अनुभव घुमक्कड़ों के काम आयेंगे।

    ReplyDelete
  6. नीरज जी राम राम. रूपकुंड के बारे में एक अरसे से सुनते और पढते आ रहे हैं. एक रहस्यात्मक वातावरण रूपकुंड के बारे में मिडिया ने बनाया हुआ हैं. आपकी रूपकुंड यात्रा के बारे में सुनकर बहुत खुशी हुई. आपके यात्रा वृत्तान्त पढकर सारे रहस्यों, कथा कहानियों से भी पर्दा उठ जाएगा ऐसी उम्मीद हैं. जैसा की वैज्ञानिक रिसर्च से सामने आया हैं, रूपकुंड में जब कंकालो की कार्बन डेटिंग की गयी तो उनका समय सन ८०० के आस पास पाया गया. D.N.A. Testing में वे लोग महाराष्ट्र के सारस्वत ब्राह्मणों के सम्बन्धी थे ये प्रतीत होता हैं. ये लोग कैलाश मानसरोवर की यात्रा के लिए निकले थे. और इस स्थान पर ओला वृष्टि के शिकार होकर के यंही पर समाप्त हो गए थे. धन्यवाद..वन्देमातरम...

    ReplyDelete
  7. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
    Replies
    1. कुछ टांगों में?????? कितनी टांगें हैं???
      वाकई एक घुमक्कड के दो टांगें नहीं होती, बल्कि कई टांगें होती हैं। इस बात को मैं अच्छी तरह जानता हूं।

      Delete
    2. मुझे बड़ी खुशी हुई ये जानकर कि आप रूपकुण्ड हो आये... मजा आ गया...

      कुछ टांगे मेरी गलत हिन्दी है... मेरा मतलब है जरा टांगो मे रक्त संचालन की प्राबलम है अतः चढ़ाई पर मुश्किल होती है

      Delete
  8. प्रवीण गुप्ता जी ! मानसरोवर यात्रा के लिए रूपकुंड से जाना तब भी समझदारी नहीं थी, वे लोग राज जात के यात्री ही थे ! महाराष्ट्र या गुजरात के लोगों से डीएनए इसलिए मिलता पाया गया कि उत्तराखंड मे निवास करने वाले वर्तमान लोगों के पूर्वजों मे गुजराती और मराठी लोग भी हैं, उस समय यहाँ कि पहाड़ी जतियों से रक्त का सम्मिश्रण नहीं हुआ था या न के बराबर हुआ था, इसलिए उनका डीएनए, सारस्वत लोगों से मिलता पाया गया !

    ReplyDelete
  9. नीरज बाबु, चलो रूपकुंड का दर्शन एक रूपवान, बलवान, पहलवान के साथ हो रहा है, मजा आ जाएगा ! भगवान आपको होमकुंड तक भी पहुंचा दे, हम भी आपके साथ लटक जायेंगे बिन रूपये पैसे के ! थैंक्स रियल बिग बॉस!

    ReplyDelete
  10. Achhi jaankari roopkund ke bare me jaatji dhanyawad.

    ReplyDelete
  11. Bhai..jaat. Yaad aaya hum mile the bedn. Main.......

    ReplyDelete
  12. badi jalan hoti hai.... aap mahan dhumakkad ho or hum hath hath rakhke baithe hai

    shubh kamnayen


    jai shri ram

    ReplyDelete
  13. मैं लोहाजंग से लोहाजंग तक 100 किलोमीटर???????????

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब