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रूपकुण्ड यात्रा- दिल्ली से वान

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29 सितम्बर 2012 की सुबह मैं आनन्द विहार बस अड्डे के पास उस तिराहे पर खडा था जहां से मोहननगर जाने वाली सडक का जन्म होता है और वहीं दिल्ली और यूपी की सीमा भी हैं। दुविधा में था कि हरिद्वार के रास्ते जाऊं या हल्द्वानी के रास्ते या रामनगर के रास्ते। दुविधा जल्दी ही खत्म हो गई जब देहरादून वाली बस आकर रुकी। मैं इसी में चढ गया और रुडकी का टिकट ले लिया। रुडकी से दोबारा बस बदली और दोपहर से पहले पहले मैं हरिद्वार पहुंच चुका था।
हरिद्वार में नाश्ता करके हमेशा की तरह गोपेश्वर जाने वाली प्राइवेट बस पकडी और श्रीनगर का टिकट लिया। मैं जब भी इधर आता हूं तो श्रीनगर का ही टिकट लेता हूं क्योंकि बस यहां काफी देर तक रुकी रहती है। समय बचाने के लिये इससे आगे खडी बस में जा बैठता हूं। हालांकि आज ऐसा करने की नौबत नहीं आई और यही बस जल्दी चल पडी। अब दोबारा टिकट लिया कर्णप्रयाग का, वो भी तब जब कंडक्टर ने सवारियां गिनकर ऐलान किया कि एक सवारी अभी भी बेटिकट है।
कर्णप्रयाग जाकर लगता है कि हम अब सभ्यता को छोडकर दूसरे लोक में प्रवेश करने वाले हैं। कर्णप्रयाग उत्तराखण्ड की एक ऐसी जगह है जो गढवाल और कुमाऊं दोनों का प्रतिनिधित्व करती है। यहीं पर कुमाऊं से आने वाली सडक भी मिल जाती है। और हां, पिण्डर भी, जोकि कुमाऊं की नदी है और घूमती-घामती गढवाल चली आती है। कुमाऊं में ऐसी कोई दूसरी नदी नहीं है जो गढवाल भी आती हो।
कर्णप्रयाग से आगे मुझे कहां जाना है, मैं भूल गया। खूब दिमाग लगाया, लेकिन सब बेकार। आखिरकार किसी तरह ग्वालदम याद आ गया। ग्वालदम कहते हुए एक बस में चढ गया। जैसे ही मैंने कंडक्टर को पैसे दिये कि ग्वालदम तो उसने कहा कि यह बस थराली जायेगी, थराली से ग्वालदम की मिल जायेगी। अरे हां, याद आया। मुझे थराली ही तो जाना है।
जब मैं इस बस में चढा था तो कोई सीट खाली नहीं थी, लेकिन सात आठ किलोमीटर आगे सिमली में मुझे सीट मिल गई। सिमली से ही एक सडक गैरसैंण, द्वाराहाट होते हुए रानीखेत जाती है और दूसरी ग्वालदम, कौसानी होते हुए अल्मोडा।
बस पिण्डर नदी के साथ साथ चल रही है। पिण्डर, तुझे मैंने जन्म लेते हुए देखा है पिण्डारी ग्लेशियर में। कितनी छोटी सी थी तू तब, अब तो बडी हो गई है। लेकिन तुझमें एक बदलाव नहीं आया। अभी भी तू उतनी ही उछलती-कूदती रहती है जितनी कि जन्म लेते समय। कर्णप्रयाग ज्यादा दूर नहीं रहा अब, तेरा जीवन खत्म होने वाला है लेकिन गम्भीरता कभी नहीं रही तुझमें।
थराली से पांच किलोमीटर पहले एक गांव के पास एक कुत्ता बस के नीचे आ गया। वो बेचारा तुरन्त अपाहिज होकर चीखता-चिल्लाता झाडियों में जा घुसा। ड्राइवर ने कुछ आगे जाकर बस रोक दी। तभी उस गांव के तीन आदमी ड्राइवर पर चढ दौडे कि कुत्ते पर बस चढा दी। ड्राइवर ने कहा भी कि जान-बूझकर नहीं चढाई लेकिन जब तक ड्राइवर बस से नीचे नहीं उतरा, वे शेर की तरह दहाडते रहे। ड्राइवर नीचे उतरा, कहा कि चलो, कुत्ते को बस में बैठाकर थराली ले जाता हूं, उसका इलाज कराऊंगा। उधर कुत्ता अपाहिज हो गया है, कराह रहा है, झाडियों में है, कहां हाथ आने वाला है। काफी कोशिशें हुई उसे झाडियों से निकालने की लेकिन सब असफल।
हमारे पहाडवासियों को लडना भी नहीं आता। भाईयों, कभी पहाड से नीचे उतरो, मैदान की हवा खाओ, लडना सीख जाओगे। इतना लडना कि कोई ड्राइवर खुद नीचे उतरने लायक नहीं बचेगा। हां, नीचे ऐसा ही होता है।
खैर, थराली पहुंच गया। अन्धेरा होने लगा था। जहां बस ने उतारा वहीं कुछ जीप वाले थे जो ग्वालदम जा रहे थे। अब मैं क्यों ग्वालदम जाने लगा जबकि कल फिर मुझे यहीं आना पडेगा क्योकि देवाल और लोहाजंग की गाडियां यहीं से मिलती हैं। हालांकि देवाल से ग्वालदम तक भी एक सडक है।
थराली में सौ रुपये का एक कमरा मिल गया- वो भी बिना मोलभाव किये। कमरे में मेरी जरुरत की हर चीज थी।
अगले दिन यानी 30 सितम्बर को आराम से सोकर उठा, नहा धोकर आगे के लिये चल दिया। नहाना इसलिये पडा कि अगले कई दिनों तक नहाने का सवाल ही नहीं उठता। थराली से देवाल की जीप मिली और आधे घण्टे के अन्दर देवाल पहुंच गया। देवाल भी पिण्डर तट पर ही है। देवाल के बाद मैं पिण्डर का साथ छोड दूंगा।
देवाल में लोहाजंग की जीप खडी थी लेकिन सवारियां नहीं थी। मैं दूसरी सवारी था। ड्राइवर ने कह दिया कि जब तक जीप भर नहीं जाती, तब तक नहीं चलूंगा। मैंने उसका कहा तुरन्त माना और जीप में बैठकर स्लीपिंग बैग और अपने कन्धे बैग के संयोग से ऐसा ‘बिस्तर’ बनाया कि एक घण्टे की जबरदस्त नींद आई। आंख भी तब खुली जब ड्राइवर ने कहा कि भाई, बैठ जा। हम चलने वाले हैं, तीन सवारियां आ गई हैं। वे तीनों बंगाली थे।
चार लोगों को लेकर जीप चल पडी लेकिन देवाल से निकलते निकलते पूरी भर चुकी थी। गढवाल के दूर-दराज के इलाकों में जीप वालों को पता होता है कि इस जीप से कौन कौन स्थानीय जायेगा। वे किसी को दुकान से आवाज लगाकर उठाते हैं, तो किसी को घर से आवाज लगाकर। घर के सामने जीप रोकी, आवाज दी कि ओ नेगी और तुरन्त नेगी हाजिर।
घण्टा भर लगा लोहाजंग पहुंचने में। दोपहर के एक बज चुके थे। सुबह नौ बजे थराली से निकलकर चार घण्टों में पचास साठ किलोमीटर की दूरी तय हुई। हालांकि यह खीझ वाली स्थिति होती है लेकिन मुझे कभी भी बोरियत नहीं हुई। क्योंकि समय बहुत था अपने पास।
लोहाजंग एक दर्रा है। यहां से अगर उत्तर की तरफ देखें तो दूर तक एक घाटी दिखती है और उधर कहीं आखिरी सिरे पर है वान गांव। आज मुझे वान ही जाना है। वान तक रास्ता तो बना है लेकिन दिनभर में एकाध जीप ही आती है। बस कोई नहीं चलती।
लोहाजंग में एक छोटी सी दुकान में कुकर देखकर घुस गया। मैंने पूछा कि कुछ है क्या खाने को? बोले कि नहीं, अभी तो कुछ नहीं है। मैंने तुरन्त कहा कि लाओ, तो चावल दे दो। मैं उस समय बहुत भूखा था और उम्मीद कर रहा था कि खाना जरूर मिल जायेगा। इसी उम्मीद के भरोसे मैंने पहले ही सोच रखा था कि ‘लाओ, तो चावल दे दो’ कहना है और बिना उसका उत्तर सुने कह भी दिया। हालांकि कुकर में थोडे से चावल थे, दाल भी थी, एक आमलेट बनवा लिया, पेट भर गया।
दुकान वाले का नाम भूल गया हूं लेकिन थे बडे काम के आदमी और अनुभवी भी। बोले कि आज वान पहुंचो, कल बेदिनी और परसों दिनभर में रूपकुण्ड निपटाकर वापस बेदिनी आ जाना। उन्होंने निम से पर्वतारोहण का एडवांस कोर्स कर रखा है और गौमुख से आगे गंगोत्री-1 शिखर भी फतह कर रखा है। कई साल अपनी ट्रैवलिंग कम्पनी भी चलाई और अब लोहाजंग में यह छोटी सी दुकान चलाते हैं। मैंने पूछा कि अपना कारोबार क्यों नहीं बढाया। बोले कि अपने देस में रहने के लिये।
मैं चार दिन बाद रूपकुण्ड फतह करके शाम को जब उनके यहां पहुंचा तो वे दुकान के बाहर ही खडे मिले। दूर से ही पहचान लिया। वाहवाही करने लगे कि अकेले ने इतनी जल्दी रूपकुण्ड यात्रा कर ली। दूसरे लोगों से बताने लगे कि यह बन्दा आज सुबह बेदिनी से चला था और दीदना के मुश्किल रास्ते से होता हुआ शाम होने से पहले यहां पहुंच गया। उन्होंने मेरा पचास रुपये प्रति बिस्तर में रहने का इंतजाम भी कराया। उनका नाम भूल गया हूं, चलते समय फोन नम्बर लेना था, वो भी भूल गया।
लोहाजंग से वान तक सडक बनी है और ज्यादा मुश्किल भी नहीं है। मुझे बताया गया कि दो घण्टे रुक जाओ, एक जीप वान जायेगी। मैंने मना कर दिया कि आज अगर पैदल चलूंगा तो कल इसका फायदा भी मिलेगा। और मैं पैदल चल पडा।
चार किलोमीटर आगे कुलिंग गांव है। कुलिंग से बेदिनी बुग्याल जाने के लिये दो रास्ते हैं- एक वान होते हुए, दूसरा दीदना होते हुए। वान वाला रास्ता आखिर में कुछ मुश्किल है, जबकि दीदना वाला रास्ता पहले सीधे नीचे एक नदी तक उतरता है और फिर जो सीधी चढाई चढनी होती है, वो बडी मुश्किल है। इस रास्ते में पहले दीदना गांव है, फिर आली बुग्याल और उसके बाद बेदिनी बुग्याल। कुलिंग और दीदना के बीच में एक नदी है, उस पर एक पुल है, वो समुद्र तल से 1900 मीटर की ऊंचाई पर है, दीदना 2400 मीटर और आली 3450 मीटर की ऊंचाई पर। यानी सीधे 1900 से 3450 मीटर चढना होता है दस किलोमीटर से भी कम दूरी में। बडी मुश्किल चढाई है यह।
मैंने पहले ही फैसला कर रखा था कि वान से बेदिनी जाना है और वापसी में दीदना के रास्ते आना है। वान तक सडक बनी है जबकि कुलिंग से दीदना तक पगडण्डी है। कुलिंग से नदी के उस तरफ दीदना दिखाई भी देता है। एक रास्ता और है जो कुलिंग बाइपास का काम करता है। लोहाजंग से धीरे धीरे नीचे उतरती हुई एक पगडण्डी है जो कुलिंग के नीचे नदी के पुल पर पहुंचती है। लेकिन जैसा कि मुझे बाद में पता चला कि वो बेहद कम इस्तेमाल में आती है और झाड-झंगाडों से भरी है और चूंकि अभी मानसून खत्म ही हुआ है, तो उस पर जोंक भी बहुत हैं।
वान से करीब तीन किलोमीटर दूर था कि बारिश होने लगी। मैं एक बडी सी चट्टान के नीचे बैठ गया कि बारिश बन्द हो जाये। आसमान में बारिश वाला बादल ज्यादा बडा नहीं था लेकिन चूंकि हवा नहीं चल रही थी इसलिये कहा नहीं जा सकता था कि यह बादल कितनी देर तक यहां रहेगा। फिर समय भी बहुत था, सामने वान दिख भी रहा था, मैंने रेनकोट पहनने की बजाय बैठ जाना बेहतर समझा।
तभी एक मोटरसाइकिल आई। मैं उस पर सवार हो गया। वो इन्दरसिंह था, जो वान में छोटा सा होटल चलाता है। उसने पूछा कि कहां रुकोगे, मैंने कहा कि जहां भी जगह मिल जायेगी, अभी कुछ भी तय नहीं है। बोला कि हमारे यहां रुक जाना। मैंने कहा कि अगर मेरी जेब के अनुरूप किराया होगा तो रुक जाऊंगा। बोला कि जेब के अनुरूप ही है, मात्र ढाई तीन सौ रुपये। मैंने सोच लिया कि मोलभाव करूंगा तो दो सौ में बात बन जायेगी।
और कमरा दिखाकर जब उसने खुद ही कहा कि चलो, दो सौ दे देना तो बडी राहत मिली। मैं मोलभाव करने से बच गया। वान में बिजली थी और अपना एयरटेल भी ठीक-ठाक काम कर रहा था।



लोहाजंग से वान जाने वाली सडक- दूरी करीब दस किलोमीटर

यह सडक एक नदी के साथ साथ चलती है। नदी के दूसरी तरफ का नजारा।




कुलिंग गांव



बायें कुलिंग है। सामने बिल्कुल आखिर में वान है।









यह फोटो वान से खींचा गया है।






अगला भाग: रूपकुण्ड यात्रा- वान से बेदिनी बुग्याल

रूपकुण्ड यात्रा
1. रूपकुण्ड यात्रा की शुरूआत
2. रूपकुण्ड यात्रा- दिल्ली से वान
3. रूपकुण्ड यात्रा- वान से बेदिनी बुग्याल
4. बेदिनी बुग्याल
5. रूपकुण्ड यात्रा- बेदिनी बुग्याल से भगुवाबासा
6. रूपकुण्ड- एक रहस्यमयी कुण्ड
7. रूपकुण्ड से आली बुग्याल
8. रूपकुण्ड यात्रा- आली से लोहाजंग
9. रूपकुण्ड का नक्शा और जानकारी

Comments

  1. नीरज जी, आपका लेखन इतना अच्छा हैं की एक बार पढ़ना शुरू करो तो पूरा समाप्त करके ही उठते हैं, बिलकुल वेदप्रकाश शर्मा के उपन्यास की तरह. एक बात और आपकी लेखनी में साहित्यिक पुट बढ़ता जा रहा हैं, पढ़ने में आनंद आ जाता हैं. लोहाजंग में उस होटल वाले के बारे में पढकर अच्छा लगा. अपनी मिटटी से प्यार कुछ और ही होता हैं. फोटो बहुत ही शानदार हैं. आपकी हर यात्रा एक यादगार बनती जा रही हैं. जो की संग्रहनीय हैं. अगली पोस्ट की प्रतीक्षा में. धन्यवाद, वन्देमातरम...

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  2. बहुत सुंदर यात्रा है फोटो बहुत अच्छे आ रहे हैं. बच्चे फूल बहुत सुंदर लग रहे हैं. धन्यवाद

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  3. बधाई , नवरात्र मंगलमय हो ..

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  4. बहुत ही बढ़िया लगा, वो चट्टान वाली फ़ोटो खींची हो तो वो भी लगाओ ।

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  5. अच्छा विवरण और अच्छे चित्र

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  6. photo achche hain , lekh bhi upyogi hai. dhanywad!!

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  7. Neeraj Bhai,

    kuch photo dikh nahi rahe hai..Mozilla use kar raha hun

    alok Singapore

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  8. नीरज बाबु, आगे आगे बढ़ते जाओ ! वैसे कंडक्टर को कैसे पता चला की आप भी उस बस में सफ़र कर रहे है ! कोई तो आपकी जासूसी कर रहा होगा ! नवरात्र की शुभकामनाये !

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  9. ab to jalan si ho aayi hai bhai.............

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  10. बहुत ही मनमोहक चित्र एवं दृश्य हैं । धन्यवाद !!

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  11. बहुत ही मन भवन यात्रा लगी नीरज ...एक महीने से कम्प्यूटर का मदर बोर्ड खराब होने से ब्लॉग के दर्शन नहीं हुए ..आज ठीक होते ही सबसे पहला ब्लॉग तुम्हारा ही देखा नीरज ...तुम्हारी घुमक्कड़ी को मिस किया ...

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  12. Great details of the entire trip JAT BHAI NEERAJ JI...

    KYA LAST PICS AAPKEE HAIN??????????


    They have been shot with a macro lens Of A PRO DSLR>>>

    If I am not wrong...


    AAP KAMMAL KAA LIKHTEY HO BHAIYYAA..NEERAJ ji.

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