Skip to main content

रूपकुण्ड यात्रा- बेदिनी बुग्याल से भगुवाबासा

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें
2 अक्टूबर 2012, जब पूरा देश गांधी जयन्ती मनाने की सोचकर सोया हुआ था, सुबह पांच बजे, मैं उठा और रूपकुण्ड के लिये चल पडा। यहां किसी के ध्यान में नहीं था कि आज गांधी जयन्ती है।
पांच बजे अच्छा खासा अन्धेरा होता है लेकिन चांद निकला था, शायद आज पूर्णिमा थी, तभी तो समूचा चांद दिख रहा था। तेज हवा चल रही थी, ठण्ड चरम पर थी। जब तक धूप नहीं निकलेगी, तब तक ठण्ड भी लगेगी, यह सोचकर मैंने पूरे गर्म कपडे पहन लिये। बैग में बिस्कुट नमकीन के पैकेट, रेनकोट, पानी की बोतल, दो चार खाली पन्नियां रख ली, बाकी सामान टैण्ट में छोड दिया। कौन ले जायेगा यहां से इस बाकी सामान को? और ले जाता हो तो ले जा, वापसी के लिये कुछ वजन कम हो जायेगा।
देखा कि आईएएस वाले अभी भी यहीं हैं। हालांकि इन्होंने रात घोषणा की थी कि चार बजे निकल पडेंगे, लेकिन इतने बडे ग्रुप में एक घण्टा लेट हो जाना कोई बडी बात नहीं है। अगर मैं भी चार बजे निकलने की प्रतिज्ञा करता तो कौन जानता है कि छह बजे निकलना होता। ठण्ड और नींद इतनी जबरदस्त आती है कि सुबह उठने का मन नहीं होता।
देवेन्द्र जो कि उनका गाइड था, रात मेरे टैण्ट में ही सोया था, बोला कि अपना बैग मुझे दो, इसमें दिन में खाने के लिये पूरियां रख लेता हूं। वैसे तो उसके पास भी एक बैग था, लेकिन मेरा बैग ज्यादा आरामदायक था और खाली भी था, इसलिये उसने ले लिया। मैंने उसमें से कुछ टॉफियां और पानी की बोतल अपने साथ ले ली और बाकी बैग उसे दे दिया।
शुरूआत में ज्यादा मुश्किल रास्ता नहीं है। बुग्याल से होकर ही जाता है और मामूली सी चढाई है। पूरी टोली सौ मीटर आगे ही चली थी कि अफसर रुक गये। वे बाइस जने थे और पानी की बोतलें थीं चार या पांच। गाइड ने बताया कि आगे पानी दस किलोमीटर बाद है, अपनी अपनी बोतल सभी को साथ रखनी चाहियी थीं। यह सुनकर वे लोग एक दूसरे पर आरोप लगाने लगे। खैर, इसमें आधा घण्टा खराब हो गया।
थोडा आगे ही चले कि वो कैमरा चैक करने वाली घटना घट गई जिसके बारे में पिछली पोस्ट में लिख चुका हूं। इसके बाद मेरा मन इन लोगों से पूरी तरह अलग हो गया और मैं इनके साथ होने के बावजूद भी अकेला रह गया। मैं जब आगे निकलने लगा तो पीछे वाले कुछ लोगों ने रोका भी कि साथ चलो, तो मैंने अनसुना कर दिया।
आगे कहीं एक ने मुस्कराते हुए पूछा कि क्या आप हमारे साथ ही रूपकुण्ड जा रहे हो? मैंने तुरन्त कहा कि नहीं।
जब सबका पानी खत्म हो गया और कालू विनायक की खडी चढाई चढी जा रही थी, ऊंचाई 4000 मीटर के आसपास पहुंचने वाली थी, अच्छी धूप भी थी, पेडों का कहीं नामोनिशाल नहीं था, पानी करीब पांच किलोमीटर आगे है; उस समय मैं इन लोगों से पीछे था। मुझे कुछ दूर से ही उनकी आवाजें आने लगीं कि वे एक दूसरे से पानी मांग रहे हैं और दूसरा मना कर रहा है कि पानी खत्म हो गया। वे आराम कर रहे थे और पचास मीटर तक रास्ते में यहां वहां बैठे थे। मेरे पास आधी बोतल पानी था, जो मेरे हाथ में ही था।
एक लडकी ने बिना मुझे देखे, मात्र पानी की बोतल देखकर, थकान से निढाल होकर, धरती की तरफ देखते हुए, पानी पानी कहते हुए बोतल लेने को हाथ बढाया, तो मैंने बोतल उसकी तरफ कर दी। तभी उसने निगाह ऊपर उठाई, मुझे देखा तो यह कहते हुए हाथ वापस खींच लिया कि सॉरी, तुम हमारे ग्रुप के नहीं हो। यानी तुम आईएएस अफसर नहीं हो, आम आदमी हो, तुम्हारे हाथ का पानी नहीं पी सकती। यानी अछूत बन गया मैं।
हालांकि कुछ कदम आगे बढते ही मेरी बोतल ले ली गई और छह साल लोगों ने मात्र एक एक घूंट पानी पीया। हालांकि बोतल खाली हो गई, लेकिन वहां की उस समय की परिस्थितियों को देखते हुए यह एक घूंट पानी भी कम मायने नहीं रखता था।
अगर आप 4000 मीटर पर चढाई कर रहे हो, अच्छी धूप निकली है, तो आपको एक तो पसीना आयेगा और दूसरे हवा की कमी भी महसूस होगी। यानी अगर पानी ना पीयें तो हवा की कमी के साथ साथ पानी की कमी भी होने लगेगी। इसका असर सबसे पहले दिमाग पर पडता है। दिमाग निर्णय लेने बन्द कर देता है। यानी आप एक शराबी की तरह हो जाते हैं। पैर कहां पड रहा है, कुछ नहीं पता। कहां रखना है, कुछ नहीं पता। खैर, यह तो बाद की स्थिति है। प्रारम्भिक स्थितियों में चक्कर आना, सिरदर्द होना और पैरो का बेकाबू होना शुरू हो जाता है।
रूपकुण्ड यात्रा कठिन नहीं है। लेकिन कुछ बातें इसे दूसरी ट्रेकिंगों से अलग और मुश्किल बनाती हैं। सबसे पहले ऊंचाई। 4800 मीटर की ऊंचाई पर है रूपकुण्ड। अगर आप पिण्डारी ग्लेशियर (3700 मीटर) जा रहे हैं तो शुरू में ही धाकुडी धार (2900 मीटर) की चढाई और उतराई आपको पूरी यात्रा की ऊर्जा दे देती है। धाकुडी धार पार करके आठ दस किलोमीटर नीचे उतरना होता है, उसके बाद पिण्डारी की असली चढाई शुरू होती है। लेकिन यही धाकुडी धार आपके शरीर को इतना सामर्थ्यवान बना देती है कि आप पिण्डारी पहुंच जाते हो और आपको पता भी नहीं चलता।
रूपकुण्ड यात्रा में कोई धाकुडी धार नहीं है। यहां तो बस चढते जाना है, चढते जाना है।
दूसरी मुश्किल चीज है कि बेदिनी के बाद पूरा रास्ता एक धार के साथ साथ चलता है। धार यानी पर्वतीय पीठ, डांडा, जिसके दोनों तरफ दूर तक ढलान हो। यह डांडा जहां पत्थर नाचनी तक एक समान रहता है, वही पत्थर नाचनी के बाद अचानक खडी चढाई में बदल जाता है। इसके ऊपरी सिरे पर कालू विनायक है जहां गणेशजी का छोटा सा मन्दिर है। कालू विनायक पहुंचकर आप पाते हैं कि इस डांडे के तीन तरफ ढलान है और चौथी तरफ यह फिर से ऊंचा होना शुरू कर देता है। लेकिन अब रास्ता डांडे का अनुसरण नहीं करता, बल्कि हल्का हल्का नीचे उतरता हुआ दो किलोमीटर आगे भगुवाबासा पहुंच जाता है।
भगुवाबासा ही वो जगह है जहां बेदिनी के बाद पानी मिलता है। वो भी इसलिये मिलता है क्योंकि रास्ता कालू विनायक के बाद डांडे को छोड देता है। डांडे अक्सर सूखे होते हैं, इनमें पानी आने का कोई साधन नहीं होता क्योंकि ये पर्वत के सर्वोपरी भाग होते हैं जहां अगर थोडा बहुत पानी हुआ भी तो वो भी नीचे चला जाता है।
कालू विनायक के बाद डांडा और भी भयंकर रूप धारण करता हुआ ऊपर चला जाता है जबकि हम थोडे से नीचे हो जाते हैं। भगुवाबासा में यही डांडा आसमान छूता हुआ और बडा डरावना लगता है। सिर पूरा उठाना पडता है इसके ऊपरी भाग को देखने के लिये।
रूपकुण्ड इसी डांडे के शीर्ष पर स्थित है। भगुवाबासा के बाद जो चढाई शुरू होती है, वो बिल्कुल पथरीली है, घास का एक तिनका भी नहीं मिलता। हमें सिर के ऊपर दिख रहे डांडे पर चढना होता है। इसी चढाई का आखिरी एक किलोमीटर वास्तव में जानलेवा है। मैं ऐसे मौसम में गया था जब बारिश बन्द हो गई थी और बर्फ भी नहीं थी। अगर बर्फ होती तो यह और भी खतरनाक स्थिति होती।
आप सोच रहे होंगे कि जब डांडों पर पानी नहीं होता, तो रूपकुण्ड तो डांडे के शीर्ष पर ही है, तो वहां पानी क्यों है। इसका जवाब अगली पोस्ट में दूंगा लेकिन इतना बता देता हूं कि उस दिन रूपकुण्ड में भी पानी नहीं था।

बेदिनी बुग्याल के बाद पत्थर नाचनी तक रास्ता आसान है।


त्रिशूल चोटी


दूर चौखम्बा पर सुबह की पहली किरण



देवेन्द्र सिंह बिष्ट


दूर त्रिशूल चोटी के नीचे बर्फ




सामने फाइबर के दो हट दिख रहे हैं। वो जगह पत्थर नाचनी है।


पत्थर नाचनी

पत्थर नाचनी के बाद कालू विनायक की चढाई शुरू हो जाती है। उसी से पत्थर नाचनी का फोटो।

अगर आप धार या डांडे के बारे में नहीं जानते तो इस फोटो से जान जाइये। इसमें रास्ता स्पष्ट दिख रहा है जो कि डांडे के समानान्तर है। डांडा वो चीज होती है जहां से दोनों तरफ ढलान होती है।




कालू विनायक पर जाटराम। मैं कालू विनायक शब्द अक्सर भूल जाता था। इसकी बजाय कभी सिद्धि विनायक और कभी गणेश टॉप का इस्तेमाल कर देता था और सब समझ भी जाते थे।

कालू विनायक पर गणेश जी का मन्दिर



इसमें रूपकुण्ड की स्थिति दिखाई गई है जो कि डांडे के शीर्ष पर है। आखिरी एक किलोमीटर का रास्ता खतरनाक और जानलेवा भी है।

भगुवाबासा

भगुवाबासा के बाद ऐसा रास्ता है।



भगुवाबासा में कैम्पिंग ग्राउण्ड भी है।

भगुवाबासा में मैं अफसरों से कुछ पीछे था। यह एक स्थानीय लडका है। ग्यारह बजे का समय था। इसने मुझसे कहा कि आप शाम चार बजे तक रूपकुण्ड पहुंचोगे। मैंने कहा कि भाई, चार बजे तक तो मैं वापस भगुवाबासा लौट आऊंगा। बोला कि सम्भव ही नहीं है। मैंने कहा कि सम्भव नहीं है तो कोई बात नहीं, रात तुम्हारे यहां रुक जाऊंगा, कम्बल का इन्तजाम करके रखना।

अगला भाग: रूपकुण्ड- एक रहस्यमयी कुण्ड

रूपकुण्ड यात्रा
1. रूपकुण्ड यात्रा की शुरूआत
2. रूपकुण्ड यात्रा- दिल्ली से वान
3. रूपकुण्ड यात्रा- वान से बेदिनी बुग्याल
4. बेदिनी बुग्याल
5. रूपकुण्ड यात्रा- बेदिनी बुग्याल से भगुवाबासा
6. रूपकुण्ड- एक रहस्यमयी कुण्ड
7. रूपकुण्ड से आली बुग्याल
8. रूपकुण्ड यात्रा- आली से लोहाजंग
9. रूपकुण्ड का नक्शा और जानकारी

Comments

  1. अद्भुत दृश्य..मनोहारी..

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬●ஜ
    ♥(¯*•๑۩۞۩~*~विजयदशमी (दशहरा) की हार्दिक शुभकामनाएँ!~*~۩۞۩๑•*¯)♥
    ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬●ஜ

    ReplyDelete
  3. Neeraj bhai post to kafi achcha hai aur photo bhi badiya hai lekin photo par copyright wala tag dekhkar maza kirkira ho raha hai. Aisa kyo karna pada aapko. Baki sabkuchh mast hai........

    ReplyDelete
  4. आप ऊपर और बादल नीचे. स्वर्ग की अनुभूति ले ही ली...

    ReplyDelete
  5. mere khyaal se aap khuud photo par tagging ke virudh the. Abki baar aisaa kyoun?

    ReplyDelete
  6. ये पत्थर नाचनी नाम क्या हैं, और कैसे पड़ा है नीरज जी...यात्रा वृत्तान्त अच्छा हैं. जय हो....

    ReplyDelete
  7. बहुत खूबसूरत... चित्र लाजवाब है पर वाटरमार्क ने सारा मजा चौपट कर दिया.. मार्क छोटा व नीचे कोने में हो तो चित्रो की सुन्दरता खराब नही होगी.

    जल्दी अगला भाग लिखिये

    ReplyDelete
  8. Neeraj Bhai post to kafi achcha hai aur photo to ek dam laazabab or mai to app ki himmat ki daad deta hu
    ek dam mast bhai

    ReplyDelete
  9. नीरज भाई....लिखा तो आपने अच्छा ही हैं...पर फोटो उससे भी खूबसूरत और शानदार लगे.....| चलो अब आपने ने भी अपने फोटो copyright कर ही लिए वाटरमार्क लगा कर .....|

    ReplyDelete
  10. Barf ho to bhagubasa se roopkund ka raasta aasan aur chota ho jata hai..sirf 1-2 jagah dhyan dene ki jarurat padti hai!!

    Jat bhi copyright ka prayog karne laga..Sahi bolu to isne tumhare blog ka maja kirkira kar diya..Ho sake to iska prayog mat karo..

    aur haan photos k rang ude hue hain...ye copyright software ka kamaal hai ya abhi apne naye camera ka prayog seekh rahe ho.

    ReplyDelete
  11. yar bada sahi citran kiya hai... wah mere cheete.... wah

    ReplyDelete
  12. 'पत्थर नाचनी'जिसे आप लिख रहे हैं वो "पातर नचौण्या " है, 'पातर' से मतलब है 'पात्र' जिसका मतलब गढ़वाली मे नर्तकी होता है !जनश्रुति मे जो नन्दा राज जात की कहानी है उसके मुताबिक यहाँ राजा ने साथ गयी नर्तिकियों को नचाया, क्योंकि यहाँ पवित्र स्थान होने कारण यह निषिद्ध था अतः वे सब पत्थर की बन गयी ! ये उन्ही लोगों की कहानी है जो वहाँ (रूपकुण्ड) मे कंकालों के रूप मे बिखरे पड़े हैं !

    ReplyDelete
  13. तुझे शाट कट के बारे में कैसे पता चलता है नीरज-----शाट कट के कारण कभी परेशानी नहीं हुई क्या ? 2 अक्टूम्बर था और सरकारी लोगो को पता ही नहीं ...जय हो !....इतना रहस्यमयी यात्रा चल रही है आगे -आगे क्या होता है ....कालू विनायक में एक 'कल्लूजी' (कव्वा )भी थे कैसे ?? इतनी ठंडी में वो भी तुम्हारी तरह बिना स्वेटर के ....

    ReplyDelete
  14. Ganeshji ke darshan ho gaye, dhanyvad neerajbhai

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब