Skip to main content

Posts

Showing posts from October, 2012

रूपकुण्ड से आली बुग्याल

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 3 अक्टूबर 2012 की सुबह आराम से सोकर उठा। कल रूपकुण्ड देखकर आया था तो थकान हो गई थी और नींद भी अच्छी आई। हालांकि स्लीपिंग बैग में उतनी अच्छी नींद नहीं आती, फिर भी आठ बजे तक सोता रहा।  आईएएस अफसरों में से ज्यादातर को मेरे बारे में पता था कि बेचारा दिल्ली से आया है और अच्छी नौकरी वाला है, फिर भी आखिरी समय तक किसी से ना तो दोस्ती हुई, ना ही जान-पहचान। इसके लिये काफी हद तक मैं भी जिम्मेदार हूं, क्योंकि मैं बाहर निकलकर लोगों से घुल-मिल नहीं पाता हूं। उस पर भी अगर किसी की कोई बात बुरी लग जाये तो फिर कहना ही क्या! जब हम सब रूपकुण्ड पर थे तो गाइड देवेन्द्र ने ऐलान किया कि नीचे भगुवाबासा में खाना खायेंगे। इस ऐलान में कुछ हिस्सा मेरे लिये भी था क्योंकि एक तो देवेन्द्र पहले से ही मेरे लिये खाना लाया था और मेरा बैग देवेन्द्र के पास था जिसमें सबका खाना रखा था। हवा का घनत्व कम होने के कारण मेरा दिमाग काम भी कम ही कर रहा था लेकिन तुरन्त ही उसने एक काम यह किया कि अपने बैग से बिस्कुट का एक पैकेट निकाल लिया। आईएएस अफसरों से मुझे एक त

रूपकुण्ड- एक रहस्यमयी कुण्ड

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । भगुवाबासा समुद्र तल से लगभग 4250 मीटर की ऊंचाई पर है जबकि इससे चार किलोमीटर आगे रूपकुण्ड 4800 मीटर पर। अगर चढाई का यही अनुपात 2000 मीटर की रेंज में होता तो समीकरण कुछ आसान होते। अफसरों का पूरा दल मुझसे करीब डेढ किलोमीटर आगे था। सभी लोग दिख भी रहे थे लेकिन चींटियों जैसे। आखिरी एक किलोमीटर की चढाई भी दिख रही थी, जिसे देख-देखकर मैं परेशान हुआ जा रहा था। कम ऑक्सीजन के कारण मन भी नहीं था चलने का। हालत अफसरों की भी ज्यादा अच्छी नहीं थी। जब वो आखिरी चढाई शुरू होने को आई, तब मैं उनके पास पहुंच गया। उनमें भी जो ज्यादा तन्दुरुस्त थे, वे ऊपर चढे हुए दिख रहे थे और नीचे वालों को चिल्ला-चिल्लाकर रास्ता बता रहे थे। जो मेरे जैसे थे, कमजोर मरियल से, वे सबसे पीछे थे। यहां चट्टान भी खत्म हो गई थी। था तो केवल चट्टानों का चूरा, जो हमारे सिर के लगभग ऊपर की चट्टानों से टूट-टूटकर गिरता रहता था। जब मैं उनके सबसे पीछे वाले दल से आगे निकलने लगा तो उन्होंने मुझसे कहा कि यार, तुम तो थके ही नहीं हो, इधर हमारी ऐसी तैसी हुई पडी है। मैंने कहा कि

रूपकुण्ड यात्रा- बेदिनी बुग्याल से भगुवाबासा

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 2 अक्टूबर 2012, जब पूरा देश गांधी जयन्ती मनाने की सोचकर सोया हुआ था, सुबह पांच बजे, मैं उठा और रूपकुण्ड के लिये चल पडा। यहां किसी के ध्यान में नहीं था कि आज गांधी जयन्ती है। पांच बजे अच्छा खासा अन्धेरा होता है लेकिन चांद निकला था, शायद आज पूर्णिमा थी, तभी तो समूचा चांद दिख रहा था। तेज हवा चल रही थी, ठण्ड चरम पर थी। जब तक धूप नहीं निकलेगी, तब तक ठण्ड भी लगेगी, यह सोचकर मैंने पूरे गर्म कपडे पहन लिये। बैग में बिस्कुट नमकीन के पैकेट, रेनकोट, पानी की बोतल, दो चार खाली पन्नियां रख ली, बाकी सामान टैण्ट में छोड दिया। कौन ले जायेगा यहां से इस बाकी सामान को? और ले जाता हो तो ले जा, वापसी के लिये कुछ वजन कम हो जायेगा। देखा कि आईएएस वाले अभी भी यहीं हैं। हालांकि इन्होंने रात घोषणा की थी कि चार बजे निकल पडेंगे, लेकिन इतने बडे ग्रुप में एक घण्टा लेट हो जाना कोई बडी बात नहीं है। अगर मैं भी चार बजे निकलने की प्रतिज्ञा करता तो कौन जानता है कि छह बजे निकलना होता। ठण्ड और नींद इतनी जबरदस्त आती है कि सुबह उठने का मन नहीं होता।

बेदिनी बुग्याल

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । बेदिनी बुग्याल रूपकुण्ड के रास्ते में आता है। इसकी समुद्र तल से ऊंचाई करीब 3400 मीटर है। बुग्याल एक गढवाली शब्द है जिसका अर्थ होता है ऊंचे पहाडों पर घास के मैदान। ये मैदान ढलानदार होते हैं। गढवाल में कुछ अन्य बुग्याल हैं- औली , चोपता , दयारा, पंवालीकांठा। इनमें औली और चोपता तक सडक बनी है, इसलिये ज्यादा लोकप्रिय भी हैं। औली बुग्याल में जब जाडों में बर्फ पडती है तो वहां शीतकालीन खेल भी आयोजित होते हैं। बेदिनी बुग्याल कैम्प साइट से कुछ दूर बेदिनी कुण्ड है जहां एक कुण्ड है और नन्दा देवी का छोटा सा मन्दिर है। मैं आज नीचे वान से यहां आया तो बेहद थक गया था। ना चाहते हुए भी एक चक्कर बेदिनी कुण्ड का लगाकर वापस कैम्प साइट तक आया तो काफी आराम महसूस हुआ। करीब दो घण्टे बाद फिर बेदिनी कुण्ड गया तो शरीर पूरी तरह वातावरण के अनुसार ढल चुका था। यानी कल ही रूपकुण्ड जाना है, शरीर ने इसकी अनुमति दे दी थी।

रूपकुण्ड यात्रा- वान से बेदिनी बुग्याल

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । जब मैं वान में था तो इन्दरसिंह के होटल के सामने सडक पर जो कि खाली पडी जमीन ज्यादा लगती है, दो लोग खच्चर के लिये मोलभाव कर रहे थे। अगले दिन पता चला कि वे मसूरी से आये हैं और आईएएस प्रशिक्षु हैं। यानी उनकी यह सरकारी यात्रा है। वे कुल मिलाकर बाइस जने थे, उनके साथ दो सहायक भी मसूरी से आये थे और एक सीआइएसएफ का जवान भी था। खैर, जब वे दो लोग खच्चर के लिये मोलभाव कर रहे थे तो मुझे नहीं मालूम था कि वे इतने बडे आदमी हैं। मैंने समझा कि वे दो ही जने हैं और अपने राशन पानी और तम्बू आदि के लिये खच्चर करना चाहते हैं। हालांकि इसमें कोई विशेष बात कुछ नहीं हुई लेकिन उनकी बहस और मोलभाव करना काफी मजेदार था। अब मैं सोच रहा हूं कि जब वे सरकारी खर्चे पर थे तो उन्हें मोलभाव करने की जरुरत क्या थी। अगले दिन यानी एक अक्टूबर की सुबह आराम से आठ बजे सोकर उठा। आज मुझे मात्र दस किलोमीटर पैदल चलकर बेदिनी बुग्याल तक ही जाना था। इन्दरसिंह से पता कर लिया कि वहां रुकने का क्या इन्तजाम मिलेगा, तो उसने कहा कि आप वहां पहुंचो तो सही, सारा इन्तजाम है। उसके क

रूपकुण्ड यात्रा- दिल्ली से वान

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 29 सितम्बर 2012 की सुबह मैं आनन्द विहार बस अड्डे के पास उस तिराहे पर खडा था जहां से मोहननगर जाने वाली सडक का जन्म होता है और वहीं दिल्ली और यूपी की सीमा भी हैं। दुविधा में था कि हरिद्वार के रास्ते जाऊं या हल्द्वानी के रास्ते या रामनगर के रास्ते। दुविधा जल्दी ही खत्म हो गई जब देहरादून वाली बस आकर रुकी। मैं इसी में चढ गया और रुडकी का टिकट ले लिया। रुडकी से दोबारा बस बदली और दोपहर से पहले पहले मैं हरिद्वार पहुंच चुका था। हरिद्वार में नाश्ता करके हमेशा की तरह गोपेश्वर जाने वाली प्राइवेट बस पकडी और श्रीनगर का टिकट लिया। मैं जब भी इधर आता हूं तो श्रीनगर का ही टिकट लेता हूं क्योंकि बस यहां काफी देर तक रुकी रहती है। समय बचाने के लिये इससे आगे खडी बस में जा बैठता हूं। हालांकि आज ऐसा करने की नौबत नहीं आई और यही बस जल्दी चल पडी। अब दोबारा टिकट लिया कर्णप्रयाग का, वो भी तब जब कंडक्टर ने सवारियां गिनकर ऐलान किया कि एक सवारी अभी भी बेटिकट है।

रूपकुण्ड यात्रा की शुरूआत

रूपकुण्ड उत्तराखण्ड में 4800 मीटर की ऊंचाई पर एक छोटी सी झील है। वैसे तो हिमालय की ऊंचाईयों पर इस तरह की झीलों की भरमार है लेकिन रूपकुण्ड एक मामले में अद्वितीय है। इसमें मानव कंकाल बिखरे पडे हैं। वैज्ञानिकों ने इनकी जांच की तो पाया कि ये कई सौ साल पुराने हैं। इतने सारे मानव कंकाल मिलने का एक ही कारण हो सकता है कि कोई बडा दल वहां था और उनके ऊपर जानलेवा विपत्ति आ पडी। वहां इतनी ऊंचाई पर इतने लोग क्या कर रहे थे, क्यों थे; यह भी एक सवाल है। इसके भी दो जवाब बनते हैं- एक तो यह कि जिस तरह आज हर बारह साल में यहां नन्दा देवी राजजात यात्रा होती है, उसी तरह तब भी होती होगी और यात्रा में भाग लेने वाले श्रद्धालु थे वे। दूसरा जवाब है कि वे व्यापारी थे जो शायद तिब्बत जा रहे थे। लेकिन व्यापारियों वाली बात हजम नहीं होती क्योंकि इधर से तिब्बत जाने का मतलब है कि वे नीति पास के रास्ते जायेंगे। वान या लोहाजंग या देवाल के लोग अगर नीति पास जायेंगे तो अलकनन्दा घाटी के सुगम रास्ते का इस्तेमाल करेंगे, रूपकुण्ड और उससे आगे के दर्रे का इस्तेमाल करना गले नहीं उतरता। इसलिये तीर्थयात्रा वाली कहानी ज्यादा वास्तव

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

विन्ध्याचल और खजूरी बांध

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । चुनार से निकलकर हमारा काफिला मीरजापुर की तरफ चल पडा। मीरजापुर से कुछ किलोमीटर पहले एक छोटा सा चौरास्ता है, जहां से हम बायें मुड गये और सुनसान पडी सडक पर चलते चलते खजूरी बांध के समीप पहुंच गये। वैसे तो बांध वो जगह होती है, जहां पानी को बांधा जाता है। यानी जहां पानी के बहाव में रोक लगाई जाती है। वो जगह इस सुनसान सडक से काफी दूर थी, तो यहां ज्यादा समय नष्ट न करते हुए आगे बढ चले। कुछ देर बाद हम बांध पर पहुंचेंगे। मीरजापुर-राबर्ट्सगंज रोड पर पहुंचे। इस पर करीब दो तीन किलोमीटर के बाद बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का दक्षिणी परिसर बना है। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वैसे तो वाराणसी में है लेकिन इसकी एक शाखा यहां भी है। चूंकि हम चन्द्रेश की कृपा से बाइकों पर थे तो किसी तरह के आवागमन की कोई परेशानी नहीं थी। अब वापस मीरजापुर की तरफ हो लिये और सीधे पहुंचे खजूरी बांध के मुहाने पर। यहां से एक नहर भी निकाली गई है। बांध होते ही नहरों के लिये हैं। हां, कभी कभी टरबाइन लगाकर बिजली भी बना ली जाती है। इस बांध में दरारें पडी हुई हैं। इन द

चुनार का किला व जरगो बांध

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । अगले दिन वाराणसी से निकलकर हम तीनों चन्द्रेश के गांव की तरफ चल पडे। आज चूंकि एक ही बाइक थी इसलिये तीनों उसी पर सवार हो गये। दूसरी बाइक हमें गांव से मिलेगी। वाराणसी से करीब पच्चीस किलोमीटर दूर मिर्जापुर जिले में उनका गांव है। कल पूरे दिन हम बाइकों पर घूमे थे, आज फिर से बाइक ही झेलनी पडेगी। हालांकि मैं पहले ही बाइक पर लम्बे समय तक बैठे रहने के पक्ष में नहीं था, लेकिन फिर सोचा कि आज बाइकों की वजह से हमें देश के उन हिस्सों को देखने का सौभाग्य मिलेगा, जो कथित रूप से पर्यटक स्थलों की श्रेणी में नहीं आते। बिल्कुल नई जगह। आज हमें इलाहाबाद-बनारस जैसे अति प्रसिद्ध जगहों के बीच की जमीन पर विचरण करना था, लेकिन गंगा के दक्षिण में। सबसे पहले शुरूआत होती है रामनगर किले से। यह किला वाराणसी के गंगापार स्थित रामनगर कस्बे में स्थित है। यह कभी काशी नरेश की राजधानी हुआ करता था। आजकल इसमें सैन्य गतिविधियां चल रही हैं, इसलिये हम इसके अन्दर नहीं गये। वैसे बताते हैं कि इसमें चोखेर बाली फिल्म की शूटिंग भी हुई थी और इसमें एक संग्रहालय भी है।

काशी विश्वनाथ और बनारस के घाट

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । बनारस के घाटों के सिलसिले में हम सबसे पहले पहुंचे मणिकर्णिका घाट। इससे पहले जब सारनाथ से आ रहे थे तो एक फाटक से गुजरना पडा। फाटक बन्द था और कृषक एक्सप्रेस यहां से निकली थी। कृषक एक्सप्रेस लखनऊ से मण्डुवाडीह जाती है और गोरखपुर का चक्कर लगाकर आती है। इस तरह यह ट्रेन लखनऊ-वाराणसी की तीन सौ किलोमीटर की दूरी को तय करने के बजाय साढे पांच सौ किलोमीटर का चक्कर लगाकर आती है। इस मामले में कौन सी ट्रेन सबकी गुरू है? यानी एक जगह से दूसरी जगह के लिये सीधी रेल लाइन होने के बावजूद भी बडे आडे तिरछे रूट से जाती है, खासकर दूर का चक्कर लगाकर। वो ट्रेन है विन्ध्याचल एक्सप्रेस (11271/11272) जो भोपाल और इटारसी के बीच चलती है। वैसे तो भोपाल से इटारसी 100 किलोमीटर भी नहीं है, दो घण्टे भी नहीं लगते दूसरी ट्रेनों में जबकि विन्ध्याचल एक्सप्रेस 738 किलोमीटर की दूरी तय करके भोपाल से इटारसी जाती है और साढे अठारह घण्टे लगाती है। यह भोपाल से चलकर पहले बीना जाती है, फिर सागर, कटनी, जबलपुर और पिपरिया रूट से इटारसी पहुंचती है। कौन इस ट्रेन में धुर से ध