Skip to main content

मुम्बई यात्रा की तैयारी

अभी जो आपने रेवाडी – फुलेरा और मावली – मारवाड रेल यात्रा के किस्से पढे हैं, वे यात्राएं मैंने बिना छुट्टी लिये की थीं। मतलब कि अपने साप्ताहिक अवकाश पर यानी वीकएंड में। मेरा वीकएंड मंगलवार को होता है। सब की तरह इतवार को नहीं। वीकएंड पर मैं जहां भी कहीं जाता हूं, उसे मैं यात्रा भ्रमण नहीं मानता। बस छुट्टी थी, कहीं जाकर मुंह मार आया, ऐसा सोचता हूं। यात्रा तो वे होती हैं, जहां जाने के लिये छुट्टी लेनी पडे। 

इतना लिखने का मेरा मतलब है कि पिछले साल पराशर झील से आने के बाद मैं कहीं घूमने नहीं गया। दिसम्बर के शुरू में गया था, जनवरी खाली चली गई, फरवरी आ गई। दो महीने हो गये घर में पडे-पडे। और इसका सबसे बडा कारण है ठण्ड। इस मौसम में क्या जबरदस्त ठण्ड पडी! पहली दिसम्बर से ठण्ड का मामला बिगडने लगा था, ट्रेनें जो बीस दिसम्बर से रद्द होनी थीं, वे पहली तारीख से ही रद्द होने लगी। जनवरी भी पूरी चली गई, इसी तरह ठिठुरते रहे। रजाई से बाहर निकलना हिम्मत से बाहर की बात हो गई थी। फरवरी आई, हालांकि ठण्ड में कोई कमी नहीं हुई, लेकिन उन्नीस बीस का फरक होते ही दिमाग ने कहना शुरू कर दिया कि बेटा, तू घुमक्कड भी तो है।
हिमालय तक तो सोच ही नहीं सकता था। दिल्ली में ही ठण्ड से मरे जा रहे हैं, हिमालय नहीं जाऊंगा। हां, एक काम करता हूं कि एक ट्रेन टूर करता हूं। पांच दिन लगाऊंगा, एकाध दिन किसी जगह को देख लूंगा, बाकी चार दिन ट्रेनों में घूमता रहूंगा। 

सोचता रहा, सोचता रहा। खाना खाते टाइम भी, ड्यूटी करते समय भी, उठते समय भी, सोते समय भी, नहाते हुए भी, धोते हुए भी कि किधर निकलूं। अभी तक गुजरात में एण्ट्री नहीं हुई है मेरी। आबू रोड मेरी लिस्ट में आ चुका है, रतलाम भी आ चुका है। आबू रोड की तरफ से गुजरात में घुसूंगा, पूरा दिन पैसेंजर ट्रेन में सफर करता रहूंगा तो शाम तक सूरत पहुंच ही जाऊंगा। अगले दिन मेरे नक्शे में मुम्बई भी आ जुडेगा। लगे हाथों तिकडमबाजी करके रतलाम को वडोदरा से जोड दूंगा।... नहीं मुम्बई नहीं जाऊंगा, अहमदाबाद से ओखा-द्वारका की तरफ चला जाऊंगा। द्वारका घूमूंगा...। नहीं, बिहार। छपरा मेरी लिस्ट में पहले से है ही। छपरा से आगे हाजीपुर, बरौनी, कटिहार, एनजेपी और गुवाहाटी। तीन दिन लगेंगे मुझे छपरा से पैसेंजर ट्रेनों में गुवाहाटी तक पहुंचने में। हां, ऐसा हो सकता है कि एनजेपी से दार्जीलिंग घूम आऊंगा। एनजेपी मतलब न्यू जलपाईगुडी।... नहीं, इधर भी नहीं। इलाहाबाद से हावडा को जोडूंगा। इलाहाबाद पहले से मेरी लिस्ट में है। मुगलसराय, सासाराम, गया, धनबाद, आसनसोल और हावडा। दो दिन का काम है। बाकी टाइम में गया और बोधगया देखूंगा। मैं जिन जिन रेल लाइनों पर पैसेंजर ट्रेनों में घूम चुका हूं, उनका नक्शा देखने के लिये यहां क्लिक करें। इस पूरे नक्शे पर पडने वाले सभी स्टेशन, ज्यादातर की ऊंचाई और ज्यादातर के फोटो मेरे पास सुरक्षित हैं। मुझे बडा आनन्द आता है इस तरह अपने नक्शे को, नेटवर्क को बढाने में। 

टाइम निकलता जा रहा था और मैं सोचने में लगा पडा था। सोचने से फुरसत मिले तो मैं रिजर्वेशन कराऊं। आखिरकार खूब सोच समझकर फैसला ले लिया कि रतलाम से अकोला वाली मीटर गेज की लाइन पर यात्रा की जाये। रतलाम से खण्डवा तक मैं पहले यात्रा कर चुका हूं। इसलिये दिल्ली से रतलाम और आगे रतलाम से अकोला तक का रिजर्वेशन करा लिया गया, कंफर्म सीट मिल गई। वापसी का अभी नहीं कराया। 

दो दिन में अकोला तक तो मैं पहुंच जाऊंगा। अब मेरे पास तीन दिन और बचते हैं। सोचा कि अकोला से भुसावल और जलगांव ज्यादा दूर नहीं है। तीसरे दिन जलगांव से चलकर अजन्ता गुफा देखूंगा और शाम को वापस भुसावल चला जाऊंगा। चौथे दिन भुसावल से मुम्बई तक पैसेंजर ट्रेन से यात्रा करूंगा। उसी दिन रात को मुम्बई से वापस भुसावल लौट आऊंगा। पांचवें यानी आखिरी दिन भुसावल से इटारसी तक पैसेंजर ट्रेन से यात्रा होगी और उसी दिन दिल्ली के लिये प्रस्थान। इटारसी पहले से ही मेरे नक्शे में था। हालांकि था तो खण्डवा भी लेकिन परम्परागत रूट से नहीं बल्कि रतलाम से मीटर गेज से इन्दौर होते हुए। तो इस तरह मेरे नक्शे में मुम्बई भी जुड जायेगा। 

यानी अभी दो रिजर्वेशन और भी कराने हैं। मुम्बई से भुसावल और इटारसी से दिल्ली। इंटरनेट पर देख लिया कि दोनों मार्गों पर ट्रेनों में सीटें खाली हैं। रिजर्वेशन कराने जैसे ही शाहदरा गया, तो होश उड गए। आरक्षण कराने वालों की इतनी लम्बी लाइन कि मैं बिना अपना काम किये ही वापस आ गया। पता था ही कि काफी सीटें खाली हैं, कल करा लूंगा। अगले दिन फुरसत नहीं मिली। तीसरे दिन फिर इंटरनेट पर स्टेटस देखा तो दोबारा फिर से होश उड गये। इस बार मुम्बई से भुसावल तक सैंकडों में वेटिंग चल पडी थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि परसों तक तो सीटें खाली थी, आज अचानक क्या हो गया। इसका दोष महाशिवरात्रि को दे दिया गया। इटारसी से दिल्ली का आरक्षण फटाफट करा लिया क्योंकि इधर जबलपुर-नई दिल्ली सुपर फास्ट में आरएसी चल पडी थी। 

अब मुम्बई जाना कैंसिल। बिना रिजर्वेशन के रात को सफर नहीं किया करता मैं। फिर अब चौथे दिन क्या किया जाये। पहला दिन निजामुद्दीन से रतलाम गोल्डन टेम्पल से, दूसरा दिन रतलाम से अकोला, तीसरा दिन अजन्ता गुफा और पांचवे दिन शाम तक इटारसी पहुंचना था। तो सीधी सी बात है कि पांचवे दिन भुसावल से इटारसी की यात्रा की जायेगी। फिर चौथे दिन क्या!!! फिर वही सोचना शुरू कर दिया। नतीजा निकला कि दूसरे दिन के आखिर में अकोला से भुसावल नहीं जाऊंगा, बल्कि नागपुर चला जाऊंगा। तीसरे दिन नागपुर से भुसावल तक पैसेंजर ट्रेन यात्रा और चौथे दिन अजन्ता, पांचवे दिन है ही अपना भुसावल-इटारसी। यह प्रोग्राम पक्का हो गया। खुद को शाबासी देने लगा कि वाह बेटा, क्या कार्यक्रम बनाया है। एकाध दोस्त हैं जो मेरी घुमक्कडी में दिलचस्पी लेते हैं, उन्हें जबरदस्ती कई कई बार अपना कार्यक्रम सुनाता रहता। और खुद खुश भी होता रहता कि बेहतरीन कार्यक्रम बना दिया है।

17 फरवरी अपनी यात्रा का पहला दिन था और शुक्रवार भी था। अब देखिये कि जब गोल्डन टेम्पल में बैठकर छह सात घण्टे की नींद खींच ली, तब ध्यान आया कि मुझे चौथे दिन यानी सोमवार को अजन्ता गुफाएं देखने जाना है। और सोमवार को ये गुफाएं बन्द रहती हैं। अब फिर से चौथे दिन के लिये सोचना पडेगा। सोचते सोचते रतलाम निकल गया, अकोला भी निकल गया। इत्तेफाक ऐसा बना कि दूसरे दिन की समाप्ति पर मैं भुसावल में था। प्लेटफार्म पर ही खाना खा रहा था। खाना शुरू ही किया था कि मेरे सामने कुशीनगर एक्सप्रेस आकर रुकी। मुम्बई जा रही थी। खाना खाता रहा, कुशीनगर एक्सप्रेस को देखता रहा और वही... मतलब सोचता रहा। नतीजा निकला कि कल यानी रविवार को अजन्ता चलते हैं। सोमवार की फिर देखी जायेगी। पता नहीं, कैसे दिमाग को सुकून मिला या क्या हुआ कि मुम्बई में रहने वाली दर्शन कौर धनोए को फोन मिला दिया। वे प्रसिद्ध ब्लॉगर हैं। 

बडी शान से दर्शन जी को मैंने बताया कि मैं भुसावल में हूं। मैंने अन्दाजा लगा रखा था कि मेरे भुसावल में होने पर वे मुझे मुम्बई आने को कहेंगी, तब मैं अपना ‘बिजी’ कार्यक्रम बताते हुए रौब जमाऊंगा कि नहीं, मैं नहीं आ सकता। लेकिन ना ऐसा होना था, ना हुआ। उन्होंने मेरे भुसावल में होने की खबर सुनते ही तुरन्त ऐसी बात कह दी कि मैं सुबह तक मुम्बई में था। उन्होंने कहा कि तेरा चहेता मुम्बई में है। चहेता शब्द सुनते ही मैं समझ गया कि अतुल की बात हो रही है। अतुल मेरे साथ दो बार हिमालय में जा चुका है और हमारी अच्छी पटती है। 

सामने मुम्बई जाने वाली कुशीनगर एक्सप्रेस खडी थी, सामने खाना भी बचा हुआ था। दोनों जरूरी थे। पहले खाना निपटाया। फिर कुशीनगर के टीटी से पूछा कि बता, कोई सीट खाली है क्या। बोला कि नहीं, लेकिन मनमाड से मिल जायेगी। मनमाड यानी दो घण्टे बाद। तुम अभी यहीं रुके रहो, मैं भागकर टिकट लेकर आता हूं। जब तक टिकट लेकर आया तो वही हुआ जो हमेशा होता है... गाडी चलने लगी थी... मैंने फिर भी भागकर पकड ली। 

जोड तोड करके चालीसगांव से एक बर्थ मिली और सुबह चार बजे मैं कल्याण पहुंच गया था, वहां से लोकल पकडी और पांच बजे तक दादर। अतुल को जब बताया कि बेटा, उठ जा। तेरा भाई दादर में इंतजार कर रहा है.... फिर तो पूरे दिन मैं और अतुल साथ ही घूमते रहे। 

तो इस तरह मेरा काम भी बन गया। तीसरा दिन मैंने मुम्बई घूमने में बिताया, चौथा दिन मुम्बई से भुसावल और पांचवां दिन भुसावल से इटारसी। अब धीरे धीरे इस पूरी यात्रा कथा को विस्तार से प्रकाशित किया जायेगा। 

अगला भाग: रतलाम - अकोला मीटर गेज रेल यात्रा

मुम्बई यात्रा श्रंखला
1. मुम्बई यात्रा की तैयारी
2. रतलाम - अकोला मीटर गेज रेल यात्रा
3. मुम्बई- गेटवे ऑफ इण्डिया और एलीफेण्टा गुफाएं
4. मुम्बई यात्रा और कुछ संस्मरण
5. मुम्बई से भुसावल पैसेंजर ट्रेन यात्रा
6. भुसावल से इटारसी पैसेंजर ट्रेन यात्रा

Comments

  1. आखिर ट्रेन पटरी पर आ ही गई .........मुंबई की यात्रा का विस्तार देखने का इन्तजार रहेगा नीरज ......

    ReplyDelete
  2. किशोर कुमार का पैतृक निवास खंडवा में ही है और स्टेशन के पास में. हो सके तो कुछ फोटो ले आइयेगा।

    ReplyDelete
  3. और एक चुटकी मिट्टी भी. किशोर कुमार जिन्दाबाद.

    ReplyDelete
  4. नीरज भाई इंतजार रहेगा आपके आपके बिस्तृत यात्रा वृत्तान्त का.
    एक बात मैं आपको बताना चाहता हू नीरज भाई कि आपने अभी तक जितने भी यात्रा वृतांत लिखे हैं उसका हमारे पास प्रिंट निकल के रखा हुआ है.

    ReplyDelete
  5. आपकी यात्रा की प्रतीक्षा रहेगी..

    ReplyDelete
  6. नीरज भाई, १९८४ में मुंबई गया था, कुछ कुछ यादे बाकि हैं, अब आपके बहाने मुंबई के यादे भी ताजा हो जाएँगी

    ReplyDelete
  7. इसे कहते हैं असली घुमक्कड़... पर भईया एक बार सर्दियों में हिमालय जाकर तो देखो - SS

    ReplyDelete
  8. ek baar raja ji national park be ghoom aao

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब