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Showing posts from March, 2012

ताजमहल

आगरा यात्रा शुरू होती है दिल्ली से, हमेशा की तरह। सुबह सात बजे के करीब निजामुद्दीन से ताज एक्सप्रेस चलती है। आगरा जाना था, बीस मार्च को नाइट ड्यूटी से सुलटकर आया था। सभी को लगता होगा कि बन्दा हमेशा नाइट ड्यूटी करके ही घूमने निकलता है तो रात को खूब सोना मिल जाता होगा। हकीकत में ऐसा नहीं है। हालत ये हो जाती है कि जब सुबह छह बजे ड्यूटी छोडकर घर जाता हूं तो खाने पीने की भी सुध नहीं रहती, तुरन्त सो जाता हूं। बात चल रही थी निजामुद्दीन पर ताज एक्सप्रेस की। अगर मैं ताज ना पकडता तो इस समय गहरी नींद में सो रहा होता। रिजर्वेशन नहीं था। तीन घण्टे का ही तो सफर होता है इस ट्रेन से आगरा तक का। सारी गाडी जनरल डिब्बों के साथ आरक्षित सीटिंग वाली होती है जिसमें अनारक्षित लोग पन्द्रह रुपये अतिरिक्त देकर अपना आरक्षण ट्रेन के अन्दर भी करा सकते हैं। मैं इसी चक्कर में था कि पन्द्रह रुपये दे दूंगा। स्टेशन पर जाते ही सबसे पहले तो खुद ही देखा कि कौन सी सीटें खाली हैं। बारह के बारह डिब्बे छान मारे, किसी में एक भी सीट खाली नहीं थी। हर डिब्बे के सामने चार्ट चिपका होता है। अब किस माई के लाल में हिम्मत है कि मु

भुसावल से इटारसी पैसेंजर ट्रेन यात्रा

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 21 फरवरी 2012 की सुबह का टाइम था। आज मुझे भुसावल से इटारसी तक ही जाना था और ट्रेन थी सुबह नौ बजे के आसपास। शाम पांच बजे यह ट्रेन इटारसी पहुंचनी थी। नौ बजे होने के कारण मैं देर तक सोया। लगभग सामने ही स्टेशन था और जल्दी ही मैं टिकट लेकर स्टेशन पर हाजिर था। प्लेटफार्म तब तक घोषित नहीं हुआ था, इसलिये मैं बिल्कुल आखिर वाले पर जा पहुंचा। इस पर डेक्कन ओडिसी खडी थी। यह एक शाही ट्रेन है जिसे महाराष्ट्र पर्यटन निगम और भारतीय रेलवे मिलकर चलाते हैं। कल दोपहर यह गाडी चालीसगांव स्टेशन पर खडी थी।  यह पूरी तरह वातानुकूलित ट्रेन है जिसमें काले शीशे लगे हैं। अन्दर पर्दे भी हैं जिससे हमेशा यह भ्रम हो रहा था कि इसमें अन्दर कोई नहीं है। जबकि हकीकत यह है कि इस गाडी में यात्रा करना आम आदमी के बस से बाहर की बात है। करोडपति ही इसमें यात्रा करने की हैसियत रखते हैं। डेक्कन ओडिसी के सामने दूसरे प्लेटफार्म पर कोई दूसरी ‘साधारण’ ट्रेन खडी थी- शायद सूरत पैसेंजर। अब बार बार एक मजेदार लेकिन शर्मनाक घटना घट रही थी। दूसरे लोग जो डेक्कन ओडिसी की हकी

मुम्बई से भुसावल पैसेंजर ट्रेन यात्रा

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 20 फरवरी 2012 की सुबह साढे पांच बजे मुम्बई सीएसटी से भुसावल पैसेंजर चलती है। मैंने कल रात पांच बजे का अलार्म लगाया था और वही कसाब की कार्यस्थली जनरल क्लास वेटिंग रूम में सो गया था। सुबह सवेरे अच्छी खासी ठण्ड थी और नींद भी बढिया आ रही थी लेकिन उठना तो था ही। अब बारी आई टिकट लेने की। मैं लग लिया एक लाइन में। अच्छा हां, उठकर पता चला कि ट्रेन साढे पांच ना होकर पांच बीस की है। अब मेरे सामने और ज्यादा मुसीबत आ गई टिकट लेने की। तो जी, जिस लाइन में लगा हुआ था वो लोकल की लाइन थी। काफी लम्बी थी, लेकिन जल्दी ही नम्बर आ गया। लोकल वाली लाइन पर केवल लोकल ट्रेन के रूट की ही टिकट मिलती हैं। भुसावल लोकल के रूट पर नहीं है, इसलिये मुझसे कह दिया गया कि उधर जाओ, वहां से मिलेंगी टिकट। मैं फिर दूसरी तरफ गया, दोबारा लाइन में लगा, लेकिन दुर्योग की बात कि वह भी लोकल की ही लाइन थी। फिर से तीसरी बार लाइन बदलनी पडी। तब जाकर गाडी चलने से मात्र कुछ मिनट पहले टिकट मिल सका।

मुम्बई यात्रा और कुछ संस्मरण

इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें । 19 फरवरी 2012 का दिन था तथा मैं और अतुल मुम्बई में थे। सुबह हम एलीफेण्टा गुफाएं देखने चले गये। अतुल दादर में रुका हुआ था, मेरा कोई ठिकाना नहीं था। एलीफेण्टा जाते समय हम दादर से सीएसटी होते हुए गेटवे ऑफ इण्डिया गये थे, लेकिन इस बार हमने कोई गलती नहीं की और सीधे चर्चगेट स्टेशन पहुंचे। वसई रोड का टिकट लिया और फिर से लोकल में सवार हो गये। दोबारा दादर पहुंचे, सामान उठाया और फिर बोरिवली में एक बार लोकल बदलकर वसई रोड जा पहुंचे। हमें प्रसिद्ध महिला ब्लॉगर श्रीमति दर्शन कौर धनोए जी के यहां जाना था। वे वसई में रहती हैं।

मुम्बई- गेटवे ऑफ इण्डिया और एलीफेण्टा गुफाएं

इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें । 19 फरवरी 2012 की सुबह चार बजे मैं कुशीनगर एक्सप्रेस से कल्याण स्टेशन पर उतरा। कल शाम मैं भुसावल में था और अगले दिन यानी आज अजन्ता गुफा देखने जाने वाला था। लेकिन घटनाक्रम कुछ इस तरह बदला कि मुझे मुम्बई जाना पड गया। मुझे पता चला था कि अतुल मुम्बई में है। अतुल के साथ मैं दो बार हिमालय भ्रमण पर जा चुका हूं और हम दोनों की अच्छी बनती है। अतुल के साथ बिल्कुल देसी तरीके से मुम्बई घूमने में अलग ही आनन्द आने वाला था।  मैंने सोचा कि ट्रेन लोकमान्य तिलक पहुंच गई और मैं अपना तामझाम उठाकर अन्धेरे में बिना स्टेशन देखे ही उतर गया। अपने साथ वाली सवारियों को भी जगा दिया कि उठो, बम्बई आ गया। वे भी बेचारे हडबडी में जल्दी जल्दी उठे और सामान ट्रेन से बाहर निकाल लिया। जब तक हमारी आंख खुलती और कुछ पता चलता तब तक ट्रेन जा चुकी थी। तब पता चला कि अभी हम लोकमान्य से करीब 50 किलोमीटर पहले कल्याण स्टेशन पर हैं। अभी हम एक घण्टे की नींद और खींच सकते थे। मेरे पास वैसे तो सीएसटी तक का टिकट था, इसलिये इससे पहले कि मेरे द्वारा ट्रेन से निकाली गई सवारियां

रतलाम - अकोला मीटर गेज रेल यात्रा

इस यात्रा पर जाने से पहले दिमाग में क्या-क्या खुराफात आई थी, पढने के लिये यहां क्लिक करें । 17 फरवरी, 2012 की सुबह छह बजे हमेशा की तरह मेरी नाइट ड्यूटी खत्म हुई, तो मैंने निजामुद्दीन की तरफ दौड लगा दी। कश्मीरी गेट से मैं सराय काले खां की बस पकडता हूं, दस रुपये लगते हैं, बीस पच्चीस मिनट भी। कश्मीरी गेट से काले खां तक कोई रेड लाइट भी नहीं है, भला हो कॉमनवेल्थ खेलों का। कुल मिलाकर बात ये है कि सवा सात बजे तक मैं निजामुदीन स्टेशन पर पहुंच चुका था। गोल्डन टेम्पल मेल प्लेटफार्म पर आ चुकी थी। रात भर का जगा हुआ, गाडी चली और मैं पडकर सो गया।  कोटा से निकलकर आंख खुली, फिर भी चलते रहे, चलते रहे। आखिरकार अंधेरा होने तक रतलाम पहुंच गये। यहां मुझे उतर जाना था ही। चलने से पहले मैंने अपना यह कार्यक्रम अपने ब्लॉग पर सार्वजनिक कर दिया था। इसी का नतीजा था कि मेरे रतलाम पहुंचने से पहले ही रतलाम में रहने वाली ब्लॉगर लक्ष्मी परमार जी का फोन आ गया कि तुम तीन घण्टे तक रतलाम में रहोगे, हमारा घर स्टेशन के पास ही है, चले आना। तो जी, स्टेशन पर उतरकर मुझे उनके घर तक जाने में ज्यादा टाइम नहीं लगा।

मुम्बई यात्रा की तैयारी

अभी जो आपने रेवाडी – फुलेरा और मावली – मारवाड रेल यात्रा के किस्से पढे हैं, वे यात्राएं मैंने बिना छुट्टी लिये की थीं। मतलब कि अपने साप्ताहिक अवकाश पर यानी वीकएंड में। मेरा वीकएंड मंगलवार को होता है। सब की तरह इतवार को नहीं। वीकएंड पर मैं जहां भी कहीं जाता हूं, उसे मैं यात्रा भ्रमण नहीं मानता। बस छुट्टी थी, कहीं जाकर मुंह मार आया, ऐसा सोचता हूं। यात्रा तो वे होती हैं, जहां जाने के लिये छुट्टी लेनी पडे।  इतना लिखने का मेरा मतलब है कि पिछले साल पराशर झील से आने के बाद मैं कहीं घूमने नहीं गया। दिसम्बर के शुरू में गया था, जनवरी खाली चली गई, फरवरी आ गई। दो महीने हो गये घर में पडे-पडे। और इसका सबसे बडा कारण है ठण्ड। इस मौसम में क्या जबरदस्त ठण्ड पडी! पहली दिसम्बर से ठण्ड का मामला बिगडने लगा था, ट्रेनें जो बीस दिसम्बर से रद्द होनी थीं, वे पहली तारीख से ही रद्द होने लगी। जनवरी भी पूरी चली गई, इसी तरह ठिठुरते रहे। रजाई से बाहर निकलना हिम्मत से बाहर की बात हो गई थी। फरवरी आई, हालांकि ठण्ड में कोई कमी नहीं हुई, लेकिन उन्नीस बीस का फरक होते ही दिमाग ने कहना शुरू कर दिया कि बेटा, तू घुमक्क

केरला रेलवे स्टेशन

हां जी, केरला रेलवे स्टेशन। अक्सर स्टेशनों के बाद सम्बन्धित राज्य का नाम लगा हुआ तो सबने देखा ही होगा, जैसे कि रामनगर जम्मू कश्मीर, रामनगर बंगाल, माधोपुर पंजाब, किलांवाली पंजाब, ऊना हिमाचल, धरमपुर हिमाचल, पालमपुर हिमाचल, बरियाल हिमाचल, सुलाह हिमाचल, फतेहगढ हरियाणा, बिशनपुर हरियाणा, दौलतपुर हरियाणा, इस्माइला हरियाणा, रायपुर हरियाणा, भवानीपुर बिहार, गुण्डा बिहार, जागेश्वर बिहार, लालगढ बिहार, बहादुरपुर बंगाल, श्रीरामपुर आसाम, चन्द्रपुर महाराष्ट्र, सीहोर गुजरात, ऊना गुजरात आदि। लेकिन कभी सीधे राज्य के नाम का स्टेशन नहीं देखा होगा। आज आपकी यह हसरत भी पूरी होने वाली है। अगर आप दिल्ली को राज्य मानते हैं तो थोडी देर के लिये इसे साइड में रख दीजिये।

मावली - मारवाड मीटर गेज ट्रेन यात्रा

7 फरवरी 2011, अलार्म बजा और मेरी आंख खुली। गाडी किसी स्टेशन पर खडी थी। देख लेते हैं कि कौन सा स्टेशन है। अरे, यह तो मावली है, उतर भई, जल्दी उतर। मैं मावली में उतर गया, गाडी उदयपुर की तरफ चली गई। मावली से सुबह साढे छह बजे एक पैसेंजर ट्रेन मारवाड के लिये चलती है। यह लाइन मीटर गेज है और 1936 में शुरू हुई थी। यह राजस्थान और भारत की उन गिनी चुनी मीटर गेज लाइनों में से एक है जो अभी भी परिचालन में हैं और कभी भी गेज परिवर्तन के लिये बन्द हो सकती हैं।  फरवरी में सुबह साढे छह बजे अन्धेरा होता है। अन्धेरे में गाडी अपने निर्धारित समय पर चल पडी। मुझे उम्मीद थी कि गाडी में पूरी यात्रा के दौरान ज्यादा भीड नहीं होगी क्योंकि पूरी 152 किलोमीटर की यात्रा में कोई बडा शहर नहीं पडता। ले-देकर कांकरोली को अपवाद माना जा सकता है। इसलिये मावली से कांकरोली तक ट्रेन में सर्वाधिक भीड रही और यह इतनी थी कि आराम से सीटों पर पडकर सोया जा सकता था।

रेवाडी- फुलेरा पैसेंजर ट्रेन यात्रा

भले ही यह यात्रा मैंने अभी 6 फरवरी 2012 को की हो लेकिन इसकी नींव कई साल पहले ही डाली जा चुकी थी। आज से चार साल पहले मैं ऐसा नहीं था जैसा आज हूं। उन दिनों मैं घुमक्कडी के मामले में बेहद शर्मीला था। ट्रेनों में चढकर सफर करना अच्छा तो लगता था लेकिन शर्त यह भी थी कि सुबह घर से निकलकर शाम तक वापस भी आना है। रात को भी सफर हो सकता है, इस बारे में मैं सोचता तक नहीं था।  गुडगांव में रहता था तब मैं, प्राइवेट नौकरी थी, जनरल ड्यूटी चलती थी, इतवार को छुट्टी रहती थी। तब मैंने रेल नक्शे में ज्यादा कुछ कवर नहीं किया था। दिल्ली – जयपुर लाइन पर मात्र गुडगांव तक ही पहुंच हुई थी अपनी। रेवाडी यहां से 52 किलोमीटर दूर है और बहुत बडा जंक्शन भी है। यहां से अलवर, नारनौल, सादुलपुर, हिसार और दिल्ली की दिशा में ट्रेनें मिलती हैं। यह 52 किलोमीटर की दूरी मुझे इसलिये याद है कि इसके साथ एक अजीब सा संयोग बन गया है। हमारे गांव का सबसे नजदीकी स्टेशन मेरठ कैण्ट है जहां से मुजफ्फरनगर 52 किलोमीटर दूर है। मेरठ कैण्ट से गाजियाबाद 52 किलोमीटर, गाजियाबाद से गुडगांव 52 किलोमीटर और गुडगांव से रेवाडी फिर 52 किलोमीटर।