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पराशर झील ट्रेकिंग- पण्डोह से लहर

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6 दिसम्बर को सुबह नौ बजे हमारी बस मण्डी पहुंच गई। इसे यहां से साढे नौ बजे चलना था। इस दौरान एक दुकान पर नाश्ता कर लिया गया। मैं तो वैसे पूरे रास्ते सोता हुआ ही आया था लेकिन भरत काफी परेशान था। उसे बस के सफर में उल्टियां आती हैं। उसने इस बारे में दिल्ली में बताया भी था और सेमी डीलक्स बस से चलने को कहा था। हालांकि हिमाचल रोडवेज की साधारण और सेमी डीलक्स बस के किराये में बीस रुपये का फरक होता है लेकिन सेमी डीलक्स बस में सीटें कुछ बढिया होती हैं और उन्हें पीछे काफी सीधा किया जा सकता है। इससे सोने में सहूलियत रहती है। रात साढे आठ बजे दिल्ली से कोई सेमी डीलक्स बस नहीं मिली तो मजबूरी में साधारण बस से जाना पडा।
अब बात अमित की। मार्च 2009 से मेरा रूम पार्टनर है। वैसे तो छुट्टियां लेता रहता है और हर छुट्टी में घर जाता है यानी मेरठ जाता है। इस बार पहला मौका था जब उसने छुट्टी ली और घर नहीं गया। मैं और भरत तीन दिनों के लिये आये थे जबकि अमित ने मात्र दो दिन की छुट्टियां ली। अब भी उसे इस बात का बहुत मलाल है कि छुट्टी ली और घर नहीं गया। अगर वो तीसरे दिन की भी छुट्टी ले लेता तो पराशर झील से दो दिन में वापस आकर मैं उसे मणिकर्ण घुमाकर लाता। ऐसी ठण्ड में मणिकर्ण के गर्म पानी में पडे रहना और लंगर में मुफ्त का खाना खाने से अच्छा कुछ नहीं हो सकता। एक बात और, अमित फिटनेस के मामले में बहुत बढिया है और लगातार कसरत वगैरह करता रहता है। लम्बा कद है, उसकी साधारण चाल भी मेरी तेज चाल से बहुत ज्यादा है। इसीलिये उसे दोस्त मण्डली घोडा भी कहती है। 

दस बजे पण्डोह पहुंचे। बस में अमित की एक लडकी से दोस्ती हो गई। उस लडकी को कुल्लू जाना था। अमित ने पहले तो मुझसे पूछा कि कुल्लू कितनी देर में आयेगा, तो मैंने बताया कि डेढ घण्टे में। बोला कि कुल्लू के पास घूमने लायक क्या जगहें हैं। मैंने बताया कि मनाली है, मणिकर्ण है और बिजली महादेव है। बोला कि जब कुल्लू के पास इतनी सारी जगहें हैं तो पराशर क्यों जायें। छोटी सी झील है, उससे बडा तो हमारे गांव का जोहड भी है। कुल्लू ही चलते हैं। मैं उसके साथ लगभग तीन साल से रहता हूं, उसे अच्छी तरह जानता हूं। मैंने पूछा कि सीधी बात बता, मामला क्या है। तब उसने अपनी उस नई नई गर्लफ्रेण्ड के बारे में बताया। 

किसी को अगर कोई काम करने से खुशी मिलती है तो उसे क्यों रोकना? इधर मैं भी तैयार कि चल, तेरी खातिर पराशर कुर्बान। कुल्लू ही चलते हैं। अगले को जाते ही पता चल जायेगा। गर्लफ्रेण्ड तो बस से उतरते ही अपने घर चली जायेगी, तब फिर मुझसे ही पूछेगा कि अब कहां? मनाली ले चलूंगा। तीन जने रहेंगे तो मनाली के महंगे होटल का खर्चा भी बंट जायेगा। पण्डोह पहुंचने से पहले ही तय हो गया कि कुल्लू चलेंगे। जब भरत को हमारी इस योजना का पता चला तो उसने मना कर दिया। बेचारा पहले से ही उल्टियों से परेशान था। सोचे बैठा था कि पण्डोह पहुंचकर उल्टियों से मुक्ति मिल जायेगी। उसकी परेशानी को देखने हुए कुल्लू भ्रमण रद्द कर दिया गया। पण्डोह में ही उतर लिये। 

भरत मेरे किस्से सुन-सुनकर कभी कभी कह देता था कि तुम्हें घूमना नहीं आता। शिमला जाते हो तो शिमला नहीं घूमते, मसूरी जाते हो तो मसूरी नहीं घूमते। कभी मुझे ले चलना, मैं बताऊंगा तुम्हें कि कैसे घूमा जाता है। पण्डोह पहुंचते ही मुझे वो बात याद आ गईं। मैंने भरत से कहा कि भाई, हमें तो घूमना नहीं आता, हमारी पराशर जाने की इच्छा है, कृपया हमें पराशर तक ले जाने की कृपा करेंगे। अगले का आधा काम तो मैंने कर ही दिया था कि दिल्ली से पण्डोह तक ले आया। अब उससे ही कहा गया कि आगे के सफर में हमारे लीडर आप ही रहेंगे। उसने यह बात मान ली। 

भरत ने एक से पूछा कि पराशर जाना है, कैसे जायें? उसने बताया कि आप गलत आ गये हो, वापस मण्डी जाओ, वहां से टैक्सी करके पराशर चले जाना। दूसरे ने सलाह दी कि मण्डी से टैक्सी महंगी पडेगी, कटौला चले जाओ, वहां से टैक्सी करना। इतना सुनते ही भरत मुझ पर बरस पडा कि तू गलत ले आया है। टाइम बर्बाद कर रहा है। मैंने कहा कि भाई, घुमक्कडी वक्त बर्बाद करने का एक साधन है। जिसके हाथ में वक्त होता है, वो उसे बर्बाद करने के लिये घुमक्कडी जैसा कदम उठाता है। हम यहां तीन दिन बर्बाद करने ही तो आये हैं। कहने लगा कि वापस मण्डी चलते हैं। मैंने पूछा कि टैक्सी करेगा? इतना सुनते ही सोचने लगा। वो भी मेरे जैसा ही अव्वल दर्जे का कंजूस है। और आखिरकार लीडरशिप मुझे वापस कर दी। 

मैं गूगल अर्थ का गहन अध्ययन करके आया था और जानता था कि पण्डोह में कहां उतरना है, कहां ब्यास नदी पर पुल है। हम ठीक पुल के सामने ही उतरे थे। वहां कुछ जीप वाले खडे थे। मैंने एक से पूछा कि शिवाबधार की बस कब आयेगी। बोला कि दो बजे। पण्डोह में एक पुल है ब्यास पर, लोहे का और संकरा सा। पुल पार करके यह सडक शिवाबधार नामक गांव तक जाती है। शिवाबधार से कुछ पहले एक तिराहा है, जहां से दियूरी (स्थानीय लोग इसे देवरी भी कहते हैं) के लिये रास्ता अलग होता है। देवरी से पराशर का पैदल रास्ता शुरू होता है जो करीब दस किलोमीटर का है। पण्डोह से देवरी नौ किलोमीटर है। यानी अगर हम पैदल ही चलते हैं तो देवरी पहुंचने में ही चार घण्टे लग जायेंगे। फिर कब हम दस किलोमीटर की पैदल चढाई चढेंगे। अगर मैं और अमित ही होते तो इस उन्नीस किलोमीटर को पैदल नाप सकते थे। भरत भारी शरीर वाला है, कभी उसे हमने आजमाया भी नहीं है। काफी सोच-विचार और मोलभाव के बाद डेढ सौ रुपये में एक टैक्सी ले ली गई। वैसे शिवाबधार के लिये पण्डोह से पहली बस सुबह सात बजे निकलती है। पण्डोह से छह किलोमीटर आगे एक तिराहा है जहां से देवरी के लिये सडक अलग हो जाती है। तिराहे से देवरी तीन किलोमीटर दूर है। 

साढे दस बजे हम देवरी में थे। यहां सडक अचानक खत्म हो जाती है। जहां सडक खत्म होती है, उसके बगल में ही एक स्कूल है। मैंने पहले भी बताया था कि इस रास्ते से स्थानीय लोगों के अलावा कोई भी पराशर नहीं जाता। जाता होगा कभी-कभार कोई हमारे जैसा। गांव वालों की हमारे चारों ओर भीड इकट्ठी हो गई। पहले तो उन्हें यही पता चला कि हम पैदल पराशर जा रहे हैं। फिर इतना जानते ही उन्होंने सलाह देनी शुरू कर दी, रास्ता बताना शुरू कर दिया। हमारे लिये वैसे भी रास्ता पूछना जरूरी था क्योंकि इधर कई गांव हैं, अगर कहीं दो रास्ते मिल गये तो निर्णय करना मुश्किल हो जायेगा कि किस रास्ते से जायें। खैर हम निकल पडे। 

मेरे और भरत के पास स्लीपिंग बैग थे। मैंने दोनों को पहले ही बता दिया था कि पराशर झील एक बेहद छोटी सी झील है। हमारे गांव का जोहड भी उससे काफी बडा है। उसमें आपको नैनीताल की तरह बोटिंग जैसी सुविधा नहीं मिलेगी। दोनों ने ही मुझसे पूछा था कि फिर हम क्यों जायें। मैंने बताया कि झील देखने में तुम्हें मजा नहीं आयेगा। लेकिन जो मजा उस दस किलोमीटर के पैदल रास्ते में है, उसे तुम जिन्दगी भर याद रखोगे। हम उस दस किलोमीटर के लिये जा रहे हैं। झील तो एक बहाना है। दूसरी बात उन्हें बताई कि हो सकता है कि हमें वहां रात को रुकने की जगह ना मिले, शायद खाना ना मिले। इस कारण हम स्लीपिंग बैग ले गये थे और हमारे पास इतना खाना भी था कि हमें अगले दिन नीचे उतरने के लिये ऊर्जा मिलती रहे। भरत अपने साथ खूब सारे परांठे और मठडी लाया था। 

देवरी से चले तो अमित और भरत को जल्दी ही पता चल गया कि हिमालय क्या चीज है। देवरी समुद्र तल से 1250 मीटर की ऊंचाई पर है जबकि पराशर झील 2550 मीटर पर यानी हमें दस किलोमीटर में 1300 मीटर ऊपर भी चढना है। यानी हर किलोमीटर में 130 मीटर। अगर प्रति किलोमीटर 100 मीटर ऊपर चढने का आंकडा आता है तो मैं उसे कठिन चढाई मानने लगता हूं। 130 मीटर प्रति किलोमीटर तो वाकई और भी कठिन हो जाता है। अमित और भरत अब तक इसी चीज से अनजान थे। अमित हालांकि अच्छी सेहत का मालिक है, जबकि भरत के साथ ऐसा नहीं है। नतीजा? वही जिसकी मुझे उम्मीद थी, वही जो आप सोच रहे हो। मुझे भरत के साथ साथ चलना पड रहा था और अमित आगे निकल जाता था। इस बात से मुझे कभी भी गुस्सा नहीं आया। आज हमें मात्र दस किलोमीटर ही चलना था। अगर मैं अकेला होता तो चार साढे चार घण्टे में नाप देता। अब दो तीन घण्टे और लग जायेंगे। मतलब आराम से हमें छह बज जायेंगे और दिसम्बर में छह बजे हालांकि अंधेरा हो जाता है लेकिन कोई इतनी बडी दिक्कत नहीं होती। 

रास्ता था भी काफी कठिन। हमारे साथ कुछ लोग और भी चल रहे थे। उन्हें अगले गांव लहर जाना था। वे बाराती थे और बारात करके वापस अपने गांव लौट रहे थे। उनके साथ दहेज का सामान भी था। बेड और अलमारी जैसी भारी चीजें वे कमर पर लादे ही ले जा रहे थे, इसलिये धीरे धीरे और आराम करते हुए चल रहे थे। कुल मिलाकर हमारी स्पीड उनके बराबर ही थी। उनकी वजह से हम रास्ता भटकने से भी बचते रहे और लहर के बाद भी उन्होंने सही रास्ता बता दिया। हालांकि देवरी से लहर जाने का एक ही रास्ता है और वही आगे पराशर भी चला जाता है। साढे बारह बजे हम लहर पहुंचे। हमें यहां पहुंचने में दो घण्टे लगे यानी देवरी से लहर करीब तीन किलोमीटर दूर है। 

लहर यानी देवरी-पराशर के बीच में एक छोटा सा गांव। एक घर में उत्सव जैसा माहौल था। गांव में घुसने से पहले ही एक बुजुर्ग ने हाथ जोडकर हमारा अभिवादन किया। उसने सोचा कि शायद ये मेहमान हैं। अमित और भरत तो उसका अभिवादन लेकर आगे निकल गये जबकि मुझे असली बात समझते देर नहीं लगी। मैंने उनसे तुरन्त बताया कि हम आपके मेहमान नहीं हैं, बल्कि घुमक्कड हैं और पराशर जा रहे हैं। उसने भी ‘अच्छा, अच्छा’ कहकर हमें रास्ता बता दिया। 

हम जब उस शादी वाले घर के सामने से निकल रहे थे तो एक आदमी ने हमें पीछे से आवाज लगाई, हमारे पास आकर वो बोला कि आप खाना खाकर जाना। हमने मना किया तो और लोग भी जबरदस्ती करने लगे कि आपको खाना खाकर ही जाना पडेगा। इस घटना का सबसे बडा कारण वे लोग थे जो देवरी से ही हमारे साथ साथ आ रहे थे। हम दो घण्टे तक खूब बातें करते आ रहे थे, और काफी जान-पहचान सी हो गई थी। सबसे पहले अमित ने कहा कि चलो ठीक है, लेकिन खाना जल्दी लाना। वो जाने लगा तो मैंने रोककर कहा कि हम शाकाहारी हैं। हम मीट नहीं खाते। उन्होंने इस बात पर आश्चर्य किया और काफी कुरेद-कुरेद कर आश्वस्त हुए कि हम वाकई मीट नहीं खाते। भरत मीट खा लेता है तो उसने अपने लिये मंगा भी लिया। 

मैं अण्डा खा लेता हूं जबकि मीट नहीं खाता, अमित ना अण्डा खाता है, ना मीट और भरत सबकुछ खा लेता है। अमित ने मुझसे पूछा भी कि तूने उनसे पूछा भी नहीं कि मीट भी बना है या नहीं, फिर भी तुझे कैसे पता चल गया कि मीट बना है। मैंने बताया कि पहाड पर हर जगह शादी-ब्याह जैसे कामों में मीट जरूर बनता है। अगर तुझे दारू भी पीनी है तो बता दे, यहां आज दारू भी खूब मिलेगी। हम दारू नहीं पीते। 

थोडी देर बाद तीन थालियों में खाना आ गया- चावल, राजमा और आलू की सब्जी। भरत के लिये अलग कटोरी में मीट आया। चम्मच नहीं थी, तो मैंने बाकी दोनों की मनोदशा को देखते हुए हाथ से खाना शुरू कर दिया। मेरी देखा-देखी दोनों भी शुरू हो गये। हाथ से चावल खाना दोनों के लिये नया अनुभव था। और खाने की सबसे बेहतरीन चीज तो बाद में आई- रसगुल्ले। क्या रसगुल्ले थे, आज भी स्वाद याद है। ऐसे रसगुल्ले आज तक नहीं खाये। छोटे-छोटे, कटोरी में दस के करीब और उनसे भी शानदार वो चाशनी जिसमें वे डूबे थे। बिल्कुल शहद जैसी और कई तरह के मेवे उसमें पडे थे। तीनों को एक-एक कटोरी रसगुल्ले मिले यानी तीस के करीब और हमने खा भी लिये और इच्छा थी कि और मिल जायें। खाते-खाते जब हम सिर मिलाते थे तभी तय कर लिया था कि हमारे पास इन्हें देने को तो कुछ नहीं है, सौ रुपये ही दे देंगे। खाने के बाद दूल्हे को सौ रुपये दे दिये। हालांकि उन्होंने काफी मना किया था। एक बात और कि हम अपने अपने हिस्से के चावल खा ही नहीं सके और हमें जूठा खाना छोड देना पडा, बडी शर्मिंदगी महसूस हुई। 

नीरज और अमित

भरत नागर, पूरी यात्रा में चश्मा केवल यही पर लगाया था। यह देवरी है, यहां से आगे पैदल चल चलकर इसकी हालत खराब हो गई थी।
देवरी गांव

भरत

अमित

बाराती बेड ले जाते हुए

रास्ते की सीनरी

ऐसा ही रास्ता है

भरत और अमित

नीरज जाट

बायें लाल शर्ट पहने अमित खडा है

यह है रास्ता

यह है वही घाटी जिससे होकर अभी हम आये हैं।

भरत

मेरी जेब में एक तार लटका हुआ है। इसके एक सिरे पर क्रैंक चार्जर लगा रहता है और दूसरे पर मोबाइल।

सबसे पीछे जो डाण्डा यानी पहाड दिख रहा है, उसपर चढते ही पराशर झील दिख जायेगी।

अमित ने कहा कि मैं भी देखूं कैसा लगता है पहाड पर सामान ले जाना।

वाकई खतरनाक मेहनत का काम है।

यहां हुई थी हमारी दावत

दावत चल रही है।

आ जाओ। आप भी खाना खा लो।

गांव वाले दावत कर रहे हैं।


अगला भाग: पराशर झील ट्रेकिंग- लहर से झील तक


पराशर झील ट्रैक
1. पराशर झील ट्रेकिंग- दिल्ली से पण्डोह
2. पराशर झील ट्रेकिंग- पण्डोह से लहर
3. पराशर झील ट्रेकिंग- लहर से झील तक
4. पराशर झील
5. पराशर झील ट्रेकिंग- झील से कुल्लू तक
6. सोलांग घाटी में बर्फबारी
7. पराशर झील- जानकारी और नक्शा

Comments

  1. खाने मे तो बहुत मजा आया होगा!

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  2. Daawat ke khub maze liye wah bhay wah......

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  3. पहाड़ों की सैर कर, चौधरी घना ही गोरा लग रहा है.....
    बधाई !

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  4. जय said...
    बहुत दिनो में पोस्ट लिख रहे हो,संदीप ने अपने ब्लाग पर लिखा कुछ ठण्ड लग गयी है। आशा है अब ठीक होगे। ये स्लीपिंग बैग कहां से मिलता है,और कितने में ? कई ठण्डी जगहो पर घूमने में कम्बल के बोझ ने सारा मजा खराब कर दिया।

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  5. पहाड पर जाते हुये उल्टियां होने या चक्कर आने का कोई इलाज हो तो बताईयेगा.

    प्रणाम

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  6. इतनी उंचाई पर जाकर मस्त दावत मिले तो कहना ही क्या ........

    पहाड पर जाते हुये उल्टियां होने या चक्कर आने का कोई इलाज हो तो बताईयेगा.

    इस प्रशन का उत्तर हो तो बताईएगा श्रीमान

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  7. भाई, कैमरा के टाइम को चेक कर ले. गलत टाइम दिखा रहा है.....

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  8. हाथ से चावल खाने का अपना ही मज़ा होता है

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  9. ITNI UCHAI PAR TABLE CHAIR PAR DAAWAT, MAZA AA GAYA.
    APNA PHOTO HAR JAGAH EK JAISA HI LAGTA HAI. KEISE KHINCHTE HO.

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  10. @ anonymous,
    मैंने स्लीपिंग बैग adventure 18 नामक से लिया था। इनका एक शोरूम दक्षिणी दिल्ली में भी है, वैसे भारत के कई शहरों में है। इनकी इसी नाम से एक वेबसाइट भी है, जो गूगल पर सर्च करने से आसानी से मिल जायेगी। वेबसाइट पर ही इनका पता लिखा हुआ है। मेरा बैग माइनस पांच डिग्री तापमान को झेलने वाला है और इसकी कीमत 3500 रुपये है।

    @ अन्तर सोहिल और फकीरा,
    मुझे कभी उल्टियां नहीं होती तो इसका इलाज भी नहीं पता। जिसे होती हैं, उसे तो होती ही हैं। क्यों, आपको भी होती हैं क्या?

    @ प्रकाश यादव,
    वो भरत का कैमरा है। मुझे काफी देर बाद पता चला कि उसमें टाइम का प्रिंट बनता है, पता चलते ही मैंने यह ऑप्शन बन्द कर दिया। मुझे फोटो में कभी भी डेट-टाइम का प्रिंट लेना पसन्द नहीं है, इससे फोटो की नेचुरलटी खत्म हो जाती है।

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  11. भाई आपके इच्छाशक्ति का जवाब नहीं.. आप और कश्बा वाले रवीश जी मेरे आदर्श ब्लॉगर हैं.

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  12. वाह...क्या लिखते हैं आप? अद्भुत...रोमांचकारी यात्रा को यूँ अचानक से रोक देना सही बात नहीं है ठाकुर...

    नीरज

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