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Showing posts from October, 2011

पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- तीसरा दिन (धाकुडी से द्वाली)

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 3 अक्टूबर 2011 की सुबह करीब सात बजे कुछ हलचल सी सुनकर अपनी आंख खुली। याद आया कि मैं धाकुडी में पडा हूं। अरे हां, अतुल और हल्दीराम भी तो यही थे, वे कहां चले गये। इस यात्रा पर चलने से पहले मैंने दिल्ली से ही एक स्लीपिंग बैग खरीद लिया था तो मैं बैग में ही घुसा पडा था। वैसे तो पिण्डारी यात्रा में स्लीपिंग बैग की कोई जरुरत नहीं होती लेकिन कभी-कभी कहीं-कहीं कम्बल लेने के खर्चे से बच जाते हैं। जो लोग स्लीपिंग बैग के बारे में नहीं जानते उनके लिये बता दूं कि यह एक बहुत नरम, मजबूत, गरम बोरा होता है जिसमें एक अच्छा खासा इंसान घुसकर सो सकता है। इसमें घुसकर चेन बन्द करनी होती है और फिर देखो, ठण्ड कैसे दूर भागती है। मेरा बैग माइनस पांच डिग्री तक की ठण्ड को झेलने वाला था। अजीब बात ये हुई कि रात जब मैं सोया था तो अच्छी तरह अन्दर घुसकर सोया था लेकिन अब बैग से बाहर पडा हूं और मैंने बैग को रजाई की तरह ओढ रखा है।

पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- दूसरा दिन (बागेश्वर से धाकुडी)

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 2 अक्टूबर 2011 की सुबह हम बागेश्वर में थे। बागेश्वर उत्तराखण्ड के कुमाऊं इलाके में अल्मोडा से लगभग 70 किलोमीटर आगे है। आज हमें पहले तो गाडी से सौंग तक जाना था, फिर 11 किलोमीटर की पैदल यात्रा करके धाकुडी में रात्रि विश्राम करना था। हमारा कल का पूरा दिन ट्रेन, बस और कार के सफर में बीता था, इसलिये थकान के कारण भरपूर नींद आई। आज सुबह उठते ही एक चमत्कार देखने को मिला। जब तक अतुल और हल्दीराम की आंख खुली, तब तक जाट महाराज नहा चुके थे। हालांकि वे दोनों यह बात मानने को बिल्कुल भी तैयार नहीं थे। ढेर सारे सबूत देने पर भी जब उन्हें मेरे नहाने का यकीन नहीं हुआ तो मुझे कहना पडा कि ठीक है, मत मानों, लेकिन मुझे पता है कि मैं नहा लिया हूं।

पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- पहला दिन (दिल्ली से बागेश्वर)

जरूरी सूचना: इस यात्रा वृत्तान्त को पढने से पहले यह जान लें कि हम पिण्डारी और कफनी दोनों ग्लेशियरों तक गये लेकिन खराब मौसम के कारण ना पिण्डारी और ना कफनी, किसी को नहीं देख पाये। हम नहीं देख पाये तो आपको कैसे दिखा सकते हैं? इतना जानने के बाद भी अगर आप इसे पढते हैं तो बाद में यह मत कहना कि दो घण्टे बर्बाद हो गये और ग्लेशियर नहीं दिखा। 1 अक्टूबर 2011, वो शुभ दिन था जब पिण्डारी ग्लेशियर के लिये प्रस्थान किया। इसके बारे में अपने ब्लॉग पर सूचना काफी पहले ही दे दी थी, जिसका नतीजा यह हुआ कि जाने वालों में सोनीपत के अतुल और बाराबंकी के नीरज सिंह भी तैयार हो गये। वैसे तो मथुरा के ‘फकीरा’ भी तैयार थे लेकिन जैसे ही उन्हें पता चला कि कार्यक्रम एक-दो दिन का नहीं बल्कि आठ दिन का है तो उन्होंने मना कर दिया। अतुल को 30 सितम्बर की रात को मेरे पास ही आना था और बाराबंकी वाले नीरज को बाघ एक्सप्रेस (13019) से हल्द्वानी पहुंचना था।

पुरी से बिलासपुर पैसेंजर रेल यात्रा

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 23 अगस्त 2011 की रात को करीब नौ बजे मैं पुरी रेलवे स्टेशन पहुंच गया। मुझे जितनी घुमक्कडी करनी थी, कर ली। अब नम्बर था रेल एडवेंचर का। इसके लिये पुरी से बिलासपुर तक 620 किलोमीटर का मार्ग चुना गया जिसपर डेढ दिन में यह सफर करना था। रात्रि विश्राम झारसुगुडा में करना सुनिश्चित हुआ। पुरी स्टेशन के सामने ही शयन सुविधा है, बडा सा हॉल है, कोई कुर्सी बेंच नहीं हैं, ऊपर पंखे चलते रहते हैं। यह सुविधा मुझ जैसों के बहुत काम की है, रात सवा तीन बजे तक इसी का जमकर फायदा उठाया गया। साढे तीन बजे पुरी से राउरकेला पैसेंजर (58132) चलती है। चूंकि इस समय अंधेरा होता है इसलिये मैंने खोरधा रोड-पुरी लाइन पर आज सुबह ही 58407 से यात्रा की थी और अपने काम की जानकारी (नाम, ऊंचाई, फोटो) ले ली थी।

पुरी यात्रा- जगन्नाथ मन्दिर और समुद्र तट

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 23 अगस्त 2011 को दोपहर तक कोणार्क से मैं वापस पुरी आ गया। टम्पू वाले ने सीधा जगन्नाथ मन्दिर के सामने ही जा पटका। नीचे उतरते ही पण्डों ने घेर लिया कि आ गया शिकार। मैं खुद कभी पूजा-पाठ करता नहीं हूं, पण्डों की क्या मजाल कि यहां भी मुझसे करवा दें। पता चला कि अन्दर मन्दिर में जूते-चप्पल, मोबाइल, कैमरा नहीं ले जा सकते। चप्पल निकालकर मैंने मन्दिर के सामने ही जूताघर में रख दिये। जेब में मोबाइल और कैमरा, पीछे कमर पर बैग लादकर मैं मन्दिर में घुसने लगा। ‘सुरक्षाकर्मियों’ ने सीधे जेब पर हाथ मारा और कहा कि इसे अन्दर नहीं ले जा सकते। वापस जाओ। वापस गया और कैमरा, मोबाइल भी वही जूताघर में रख आया। अब धर्म के इन ठेकेदारों का कायदा-कानून देखिये कि किसी भी कथित सुरक्षाकर्मी ने मेरा भारी-भरकम बैग चेक तक नहीं किया, चेक करना तो दूर कन्धे से उतारने तक को नहीं कहा। मैं आश्चर्यचकित रह गया कि जिस सुरक्षा के नाम पर परम सुरक्षित मोबाइल, कैमरे को अन्दर नहीं ले जाने देते, वही घोर असुरक्षित बैग को कुछ नहीं कह रहे हैं। बस, एक इसी घटना के कारण भारत

कोणार्क का सूर्य मन्दिर

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 23 अगस्त 2011 को सुबह नौ बजे मैं पुरी स्टेशन पर पहुंचा। पुरी देखने से ज्यादा दिलचस्पी मुझे कोणार्क का सूर्य मन्दिर देखने में थी इसलिये तुरन्त रिक्शा करके बस अड्डे पहुंचा। यहां से कोणार्क के लिये छोटी छोटी बसें हर आधे घण्टे में चलती हैं। करीब 30-35 किलोमीटर की दूरी है। इसी यात्रा में मैंने पहली बार समुद्र देखा। सूर्य मन्दिर मुख्य रोड से हटकर करीब एक किलोमीटर दूर है। पैदल रास्ता है, दोनों तरफ दुकानें हैं जिनमें मुख्यतः हाथ से बनी वस्तुएं बेची जाती हैं। मन्दिर प्रांगण में घुसने से पहले टिकट लेना पडता है जो शायद दस रुपये का था। पहली बार सामने से मन्दिर देखा तो कसम से मैं तो एक मिनट तक मन्त्रमुग्ध सा खडा रहा।

हावडा- खडगपुर रेल यात्रा

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 22 अगस्त 2011, दिन था सोमवार। हावडा से दोपहर बाद दो बजकर आठ मिनट पर खडगपुर लोकल रवाना होती है। मैं हावडा आया था तो बस अपने दिल्ली के कुछ दोस्तों को आश्चर्यचकित करने, अब वे चले गये तो अपना भी चलना हो गया। कोलकाता में जो देखना था, जहां घूमना था, देख लिया। बाकी बचा खुचा फिर कभी देखा जायेगा। अब शुरू होता है अपना वही शौक रेल एडवेंचर। दोपहर का टाइम था, इसलिये लोकल में इतनी भीड नहीं थी, लेकिन फिर भी मेरी उम्मीद के मुताबिक ही थी। बैठना तो था नहीं, खिडकी पर खडे होना था, खडे हो गये। मुझे फोटू खींचते देख बंगाली समझ भी जाते थे कि महाराज घूमने आया है। मैं बंगालियों को भारत की सबसे बडी घुमक्कड जाति मानता हूं। यही कारण था कि उन्होंने भी अपने घुमक्कड भाई को ज्यादा कुछ नहीं कहा। हां, एक ने हिन्दी में पूछा था कि कैमरा कितने का लिया था। पांच चार स्टेशन निकलने के बाद तो खुद ही जगह मिल जाती थी कि ले, खींच ले फोटू। फिर भी इस रूट पर फोटू खींचने में मजा नहीं आया। कारण था स्टेशनों की ‘नाम प्लेट’ का गलत दिशा में होना। नाम प्लेट का मुंह रेल

कोलकाता यात्रा- कालीघाट मन्दिर, मेट्रो और ट्राम

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 22 अगस्त को सुबह सवेरे साढे छह बजे जैसे ही नई दिल्ली-हावडा एक्सप्रेस (12324) हावडा स्टेशन पर पहुंची और जाट महाराज ने कदम जमीन पर रखे तो पश्चिमी बंगाल भारत का ऐसा महसूस करने वाला 14वां राज्य बन गया (दिल्ली और चण्डीगढ को मिलाकर)। लगभग चौबीस घण्टे हो गये थे मुझे इस ट्रेन में सफर करते-करते। और कम से कम छत्तीस घण्टे हो गये थे नहाये हुए। आजकल पता नहीं क्या हो रहा है कि जल्दी-जल्दी नहाने की तलब लगने लगती है, दो दिन भी नहीं गुजारे जाते बिना नहाये हुए। फटाफट नहाने का जुगाड ढूंढा गया। स्टेशन के एक कोने में नहाने का बंगाली स्टाइल मिल भी गया। और नहाने वालों की भीड भी जबरदस्त। पता नहीं बंगाली जब घर से निकलते हैं तो नहाकर नहीं निकलते क्या? और अगलों की ‘घ्राण शक्ति’ भी इतनी विकसित कि मुझे खडे देखकर बाथरूम का इंचार्ज बंगाली हिन्दी में बोला कि नहाना है क्या। मेरे हां करने पर बोला कि आओ तो इधर, वहां क्यों खडे हो? लाइन में लग जाओ, बैग यही छोड दो, अन्दर टांगने का कोई इंतजाम नहीं है। मैंने बैग वही रखा और चार्जर निकालकर मोबाइल चार्जिंग प