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Showing posts from 2011

2011 की घुमक्कडी का लेखा-जोखा

2011 चला गया। यह एक ऐसा साल था जिसमें अपनी घुमक्कडी खूब परवान चढी। जहां एक तरफ ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क के बर्फीले पहाडों में जाना हुआ, वहीं समुद्र तट भी पहली बार इसी साल में देखा गया। भारत का सबसे बडा शहर कोलकाता देखा तो नैरो गेज पर चलनी वाली गाडियों में भी सफर किया गया। आज पेश है पूरे सालभर की घुमक्कडी पर एक नजर: 1. कुमाऊं यात्रा: 20 से 24 फरवरी तक अतुल के साथ यह यात्रा की गई। जनवरी की ठण्ड में रजाई से बाहर निकलने का मन बिल्कुल नहीं करता, लेकिन जैसे ही फरवरी में रजाई का मोह कम होने लगता है तो सर्दियों भर जमकर सोया घुमक्कडी कीडा भी जागने लगता है। इस यात्रा में अतुल के रूप में एक सदाबहार घुमक्कड भी मिला। इस यात्रा में कुमाऊं के एक गांव भागादेवली के साथ रानीखेत , कौसानी और बैजनाथ की यात्रा की गई। बाद में अतुल पिण्डारी ग्लेशियर की यात्रा पर भी साथ गया था।

सुरकण्डा देवी

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । सुरकण्डा देवी गढवाल में बहुत प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। इसकी दूर-दूर तक मान्यता है। मसूरी-चम्बा के बीच में धनोल्टी है। यह चम्बा वो हिमाचल वाला चम्बा नहीं है बल्कि उत्तराखण्ड में भी एक चम्बा है। यह हिमाचल वाले की तरह जिला तो नहीं है लेकिन काफी बडा कस्बा है। चम्बा ऋषिकेश-टिहरी रोड पर पडता है।  धनोल्टी से छह किलोमीटर दूर कद्दूखाल नाम की एक जगह है जहां से सुरकण्डा देवी के लिये रास्ता जाता है। दो किलोमीटर पैदल चलना पडता है। पक्का रास्ता बना है और खच्चर भी मिल जाते हैं। मेरे लिये इस जगह का आकर्षण दूसरी वजह से था। वो यह कि मुझे बताया जाता था कि यहां जाने के लिये हालांकि पैदल का रास्ता कम ही है लेकिन चढाई बडी भयानक है। जब सन्दीप भाई ने भी इस चढाई की भयानकता पर मोहर लगा दी तो लगने लगा कि वाकई कुछ तो है।

धनोल्टी यात्रा

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । रात जब सोये थे तो मसूरी घूमने की बात सोचकर सोये थे। सुबह पता चला कि गन हिल जाने वाली रोपवे मेण्टेनेंस के कारण बन्द है, तो हमारे मित्र महोदय का मूड खराब हो गया। हालांकि मैंने बता दिया था कि गन हिल जाने के लिये एक डेढ किलोमीटर पैदल चलना पडता है लेकिन वे रोपवे का आनन्द लेना चाहते थे और कल से ही इसके बारे में रोमांचित और उत्साहित हो रहे थे। अब जब मूड खराब हो गया तो साहब बोले कि मसूरी में अब और नहीं घूमना बल्कि धनोल्टी चलते हैं। अच्छा हां, एक बात तो रह ही गई। दिल्ली से चलते समय उन्होंने मुझसे जब मसूरी यात्रा पर चलने का आग्रह किया तो मैंने उनके सामने एक शर्त रखी कि मुझे सुरकण्डा देवी मन्दिर जरूर जाना है। असल में एक तो यह शक्तिपीठ है, और उससे भी बडी बात ये है कि मैंने इसकी कठिन चढाई के चर्चे सुने हैं, यहां तक कि सन्दीप भाई भी इसकी कठिन चढाई का जिक्र करते हैं। तो यहां जाने की बडी इच्छा थी। मेरी यह शर्त तुरन्त मान ली गई। इससे मुझे एक फायदा और भी होने वाला था कि इसी बहाने धनोल्टी भी घूम लेंगे।

मसूरी झील और केम्पटी फाल

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । मन्दिर से निकलकर फिर मसूरी की तरफ चल पडे। रास्ते में एक जगह सडक के बराबर में ही गाडियां खडी दिखीं। तभी निगाह पडी- मसूरी झील। गाडी हमने भी साइड में लगा दी। यह एक कृत्रिम झील है जहां पैडल बोट का मजा लिया जा सकता है। हमने भी लिया। लेना पडता है अगर परिवार में हैं तो। जो होता मैं अकेला तो इस झील की तरफ देखता भी नहीं। और हां, एक बात बडी हास्यास्पद लगती है जब कोई फोटोग्राफर जिद करता है कि गढवाली ड्रेस में फोटो खिंचवा लो। पता नहीं क्या-क्या पहनाकर ‘शिकार’ को ऊपर से नीचे तक लाद दिया जाता है और दो घडे देकर ‘पनघट’ के किनारे बैठा दिया जाता है। एक घडा हाथ में और दूसरा सिर पर। कसम खाकर कह रहा हूं कि मैं गढवाल में काफी घूमा हूं, और ज्यादातर घुमक्कडी देहात में ही की है, लेकिन कभी भी ऐसी ड्रेस नहीं देखी। यहां तक कि कुमाऊं और हिमाचल में भी नहीं। और हां, एक घडा सिर पर रखकर दूसरा हाथ में लेकर तो पहाड पर चल ही नहीं सकते। अगर घडे की जगह घास या लकडी का गट्ठर होता तो कुछ बात बनती।

सहस्त्रधारा और शिव मन्दिर

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । मसूरी यात्रा पर जाने से पहले बहुत दूर-दूर जाने का प्रोग्राम बना लिया था। असल में चार दिन की छुट्टी मिल गई थी। और अपना एक साथी बहादुर सिंह मीणा बहुत दिन से सिर हो रहा था कि साहब, इस बार जब भी जाओगे तो मुझे भी ले चलना। उसे हिमालय का कोई अनुभव नहीं है, तो ऐसे महानुभावों को मैं पहली यात्रा हिमालय की ही कराना पसन्द करता हूं। मैंने उससे बताया कि 8 से 11 नवम्बर की छुट्टी ले ले, हिमालय पर चलेंगे। उसे इतना भी आइडिया नहीं था कि हिमालय है किस जगह पर। हां, बस है कहीं भारत में ही। उसने यह भी सुन रखा था कि हिमालय पर बरफ होती है और नवम्बर का महीना वैसे भी ठण्डा होने लगता है तो वहां और भी ज्यादा ठण्ड होगी। इस एक बार से वो भयभीत था। उधर मेरे दिमाग में कई जगहें आ रही थीं। खासकर चार जगहें- मनाली, सांगला घाटी, हर की दून और डोडीताल। आखिर में सारा हिसाब किताब लगाया तो मनाली और हर की दून ने बाजी मारी। मुझसे अक्सर मनाली के बारे में पूछा जाता है और मैं अभी तक वहां गया नहीं हूं तो उसके बारे में बताने में बडी दिक्कत होती है। और रही हर की दून क

शाकुम्भरी देवी शक्तिपीठ

शाकुम्भरी देवी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। रोजाना हजारों श्रद्धालु यहां देवी के दर्शन के लिये पहुंचते हैं। शाकुम्भरी को दुर्गा का रूप माना जाता है। यह हमारी मसूरी यात्रा का पहला पडाव था। दिल्ली से चलकर सीधे रुडकी, छुटमलपुर, कलसिया, बेहट और शाकुम्भरी। देवी के मन्दिर से करीब एक किलोमीटर पहले बाबा भूरा देव जी का मन्दिर है। देवी के दर्शन से पहले बाबा के दर्शन करने होते हैं। कुछ लोग इसे भैरों देव जी भी कहते हैं। मान्यता है कि यह देवी का रक्षक है। भूरा देव जी के बाद एक किलोमीटर का रास्ता नदी के बीच से होकर जाता है। हालांकि नवम्बर के शुष्क महीने में नदी एक महीन सी धार के साथ बह रही थी लेकिन बरसात में नदी का वेग काफी बढ जाता होगा। शाकुम्भरी मन्दिर भी नदी के अन्दर ही बना है। दोनों तरफ छोटे छोटे पहाड हैं। यह एक किलोमीटर नदी के पत्थरों को सेट करके गाडियों के चलने लायक रास्ता बना हुआ है। मानसून में जब नदी पूरे उफान पर बहती होगी तो श्रद्धालुओं को पैदल ही नदी के अन्दर से निकलकर जाना पडता होगा। लेकिन ये शिवालिक की पहाडियां हैं। जब तक बारिश होती रहेगी, तब तक नदी भी

पिण्डारी यात्रा का कुल खर्चा- 2624 रुपये, 8 दिन

1 अक्टूबर से 8 अक्टूबर तक हम पिण्डारी ग्लेशियर की यात्रा पर थे। कुल मिलाकर 8 दिन बनते हैं और खर्च आया 2624 रुपये। शुरू से लेकर आखिर तक हमने क्या-क्या खर्चा किया, इसे पूरे विस्तार से आगे बताया गया है। यह खर्च बाद में जाने वाले घुमक्कडों के बहुत काम आयेगा। 1 अक्टूबर 2011 दिल्ली से जाट महाराज के साथ अतुल भी था। हमारा तीसरा साथी नीरज सिंह यानी हल्दीराम हमें हल्द्वानी में मिलेगा।

पिण्डारी ग्लेशियर- सम्पूर्ण यात्रा

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । पिण्डारी ग्लेशियर उत्तराखण्ड के कुमाऊं मण्डल में बागेश्वर जिले में स्थित है। यहां जाने के लिये सबसे पहले हल्द्वानी पहुंचना होता है। हल्द्वानी से अल्मोडा (96 किलोमीटर), अल्मोडा से बागेश्वर (80 किलोमीटर) और बागेश्वर से सौंग (40 किलोमीटर) पहुंचना होता है। सौंग से पैदल यात्रा शुरू होती है जो निम्न प्रकार है: 1. सौंग से लोहारखेत (3 किलोमीटर): लोहारखेत तक सडक भी बनी है। एक पैदल रास्ता सौंग से लोहारखेत जाता है। जहां सौंग समुद्र तल से करीब 1400 मीटर पर है वही लोहारखेत लगभग 1848 मीटर पर है। 2. लोहारखेत से धाकुडी (8 किलोमीटर): यह सम्पूर्ण यात्रा का कठिनतम भाग है। शुरूआती 7 किलोमीटर सीधी चढाई भरे हैं। 7 किलोमीटर के बाद धाकुडी टॉप आता है जिसकी ऊंचाई 2900 मीटर है। इसके बाद नीचे उतरकर 2680 मीटर की ऊंचाई पर धाकुडी है।

पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- छठा दिन (खाती-सूपी-बागेश्वर-अल्मोडा)

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 6 अक्टूबर 2011, आज हमें खाती से वापस चल देना था। जो कार्यक्रम दिल्ली से चलते समय बनाया था, हम ठीक उसी के अनुसार चल रहे थे। आज हमें खाती में ही होना चाहिये था और हम खाती में थे। यहां से वापस जाने के लिये परम्परागत रास्ता तो धाकुडी, लोहारखेत से होकर जाता है। एक रास्ता पिण्डर नदी के साथ साथ भी जाता है। नदी के साथ साथ चलते जाओ, कम से कम सौ किलोमीटर चलने के बाद हम गढवाल की सीमा पर बसे ग्वालदम कस्बे में पहुंच जायेंगे। एक तीसरा रास्ता भी है जो सूपी होकर जाता है। सूपी से सौंग जाना पडेगा, जहां से बागेश्वर की गाडियां मिल जाती हैं।

कफनी ग्लेशियर यात्रा

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 5 अक्टूबर 2011 का दिन था वो। मैं और अतुल द्वाली में थे जबकि हमारे एक और साथी नीरज सिंह यानी हल्दीराम हमसे बारह किलोमीटर दूर पिण्डारी ग्लेशियर के पास थे। समुद्र तल से 3700 मीटर की ऊंचाई पर बिना स्लीपिंग बैग के उन्होंने पता नहीं कैसे रात काटी होगी। दिल्ली से चलते समय हमने जो कार्यक्रम बनाया था, उसके अनुसार आज हमें कफनी ग्लेशियर देखना था जबकि हकीकत यह है कि पिछले तीन दिनों से हम लगातार पैदल चल रहे थे, वापस जाने के लिये एक दिन पूरा पैदल और चलना पडेगा तो अपनी हिम्मत कुछ खत्म सी होने लगी थी। जाट महाराज और अतुल महाराज दोनों एक से ही थे। इस हफ्ते भर की यात्रा में एक खास बात यह रही कि मैं हमेशा सबसे पहले उठा तो आज भी जब उठा तो सब सोये पडे थे। मेरे बाद ‘होटल’ वाला उठा, फिर अतुल। रात सोते समय तय हुआ था कि कफनी कैंसिल कर देते हैं और वापस चलते हैं। लेकिन उठते ही घुमक्कडी जिन्दाबाद हो गई। घोषणा हुई कि कफनी चलेंगे। हालांकि अतुल को इस घोषणा से कुछ निराशा भी हुई। खाने के लिये बिस्कुट-नमकीन के कई पैकेट भी साथ ले लिये। अगर कफनी ना जाते

पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- चौथा दिन (द्वाली-पिण्डारी-द्वाली)

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 4 अक्टूबर 2011 की सुबह करीब छह बजे मेरी आंख खुल गई। देखा कि ‘होटल’ मालिक समेत सब सोये पडे हैं। होटल में अतुल और हल्दीराम भी थे। तय कार्यक्रम के अनुसार आज हमें 29 किलोमीटर चलना था- द्वाली से पिण्डारी 12 किलोमीटर, पिण्डारी से द्वाली वापस 12 किलोमीटर और द्वाली से खटिया 5 किलोमीटर। खटिया कफनी ग्लेशियर के रास्ते में पडता है। दिन भर में 29 किलोमीटर चलना आसान तो नहीं है लेकिन सोचा गया कि हम इतना चल सकते हैं। मुझे अपनी स्पीड पर तो भरोसा है, अतुल चलने में मेरा भी गुरू साबित हो रहा था, और रही बात हल्दीराम की तो उसके साथ एक पॉर्टर प्रताप सिंह था जिसकी वजह से हल्दीराम बिना किसी बोझ के चल रहा था और स्पीड भी ठीकठाक थी। कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि हम आज खटिया नहीं जा पायेंगे।

पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- तीसरा दिन (धाकुडी से द्वाली)

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 3 अक्टूबर 2011 की सुबह करीब सात बजे कुछ हलचल सी सुनकर अपनी आंख खुली। याद आया कि मैं धाकुडी में पडा हूं। अरे हां, अतुल और हल्दीराम भी तो यही थे, वे कहां चले गये। इस यात्रा पर चलने से पहले मैंने दिल्ली से ही एक स्लीपिंग बैग खरीद लिया था तो मैं बैग में ही घुसा पडा था। वैसे तो पिण्डारी यात्रा में स्लीपिंग बैग की कोई जरुरत नहीं होती लेकिन कभी-कभी कहीं-कहीं कम्बल लेने के खर्चे से बच जाते हैं। जो लोग स्लीपिंग बैग के बारे में नहीं जानते उनके लिये बता दूं कि यह एक बहुत नरम, मजबूत, गरम बोरा होता है जिसमें एक अच्छा खासा इंसान घुसकर सो सकता है। इसमें घुसकर चेन बन्द करनी होती है और फिर देखो, ठण्ड कैसे दूर भागती है। मेरा बैग माइनस पांच डिग्री तक की ठण्ड को झेलने वाला था। अजीब बात ये हुई कि रात जब मैं सोया था तो अच्छी तरह अन्दर घुसकर सोया था लेकिन अब बैग से बाहर पडा हूं और मैंने बैग को रजाई की तरह ओढ रखा है।

पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- दूसरा दिन (बागेश्वर से धाकुडी)

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 2 अक्टूबर 2011 की सुबह हम बागेश्वर में थे। बागेश्वर उत्तराखण्ड के कुमाऊं इलाके में अल्मोडा से लगभग 70 किलोमीटर आगे है। आज हमें पहले तो गाडी से सौंग तक जाना था, फिर 11 किलोमीटर की पैदल यात्रा करके धाकुडी में रात्रि विश्राम करना था। हमारा कल का पूरा दिन ट्रेन, बस और कार के सफर में बीता था, इसलिये थकान के कारण भरपूर नींद आई। आज सुबह उठते ही एक चमत्कार देखने को मिला। जब तक अतुल और हल्दीराम की आंख खुली, तब तक जाट महाराज नहा चुके थे। हालांकि वे दोनों यह बात मानने को बिल्कुल भी तैयार नहीं थे। ढेर सारे सबूत देने पर भी जब उन्हें मेरे नहाने का यकीन नहीं हुआ तो मुझे कहना पडा कि ठीक है, मत मानों, लेकिन मुझे पता है कि मैं नहा लिया हूं।

पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- पहला दिन (दिल्ली से बागेश्वर)

जरूरी सूचना: इस यात्रा वृत्तान्त को पढने से पहले यह जान लें कि हम पिण्डारी और कफनी दोनों ग्लेशियरों तक गये लेकिन खराब मौसम के कारण ना पिण्डारी और ना कफनी, किसी को नहीं देख पाये। हम नहीं देख पाये तो आपको कैसे दिखा सकते हैं? इतना जानने के बाद भी अगर आप इसे पढते हैं तो बाद में यह मत कहना कि दो घण्टे बर्बाद हो गये और ग्लेशियर नहीं दिखा। 1 अक्टूबर 2011, वो शुभ दिन था जब पिण्डारी ग्लेशियर के लिये प्रस्थान किया। इसके बारे में अपने ब्लॉग पर सूचना काफी पहले ही दे दी थी, जिसका नतीजा यह हुआ कि जाने वालों में सोनीपत के अतुल और बाराबंकी के नीरज सिंह भी तैयार हो गये। वैसे तो मथुरा के ‘फकीरा’ भी तैयार थे लेकिन जैसे ही उन्हें पता चला कि कार्यक्रम एक-दो दिन का नहीं बल्कि आठ दिन का है तो उन्होंने मना कर दिया। अतुल को 30 सितम्बर की रात को मेरे पास ही आना था और बाराबंकी वाले नीरज को बाघ एक्सप्रेस (13019) से हल्द्वानी पहुंचना था।

पुरी से बिलासपुर पैसेंजर रेल यात्रा

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 23 अगस्त 2011 की रात को करीब नौ बजे मैं पुरी रेलवे स्टेशन पहुंच गया। मुझे जितनी घुमक्कडी करनी थी, कर ली। अब नम्बर था रेल एडवेंचर का। इसके लिये पुरी से बिलासपुर तक 620 किलोमीटर का मार्ग चुना गया जिसपर डेढ दिन में यह सफर करना था। रात्रि विश्राम झारसुगुडा में करना सुनिश्चित हुआ। पुरी स्टेशन के सामने ही शयन सुविधा है, बडा सा हॉल है, कोई कुर्सी बेंच नहीं हैं, ऊपर पंखे चलते रहते हैं। यह सुविधा मुझ जैसों के बहुत काम की है, रात सवा तीन बजे तक इसी का जमकर फायदा उठाया गया। साढे तीन बजे पुरी से राउरकेला पैसेंजर (58132) चलती है। चूंकि इस समय अंधेरा होता है इसलिये मैंने खोरधा रोड-पुरी लाइन पर आज सुबह ही 58407 से यात्रा की थी और अपने काम की जानकारी (नाम, ऊंचाई, फोटो) ले ली थी।

पुरी यात्रा- जगन्नाथ मन्दिर और समुद्र तट

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 23 अगस्त 2011 को दोपहर तक कोणार्क से मैं वापस पुरी आ गया। टम्पू वाले ने सीधा जगन्नाथ मन्दिर के सामने ही जा पटका। नीचे उतरते ही पण्डों ने घेर लिया कि आ गया शिकार। मैं खुद कभी पूजा-पाठ करता नहीं हूं, पण्डों की क्या मजाल कि यहां भी मुझसे करवा दें। पता चला कि अन्दर मन्दिर में जूते-चप्पल, मोबाइल, कैमरा नहीं ले जा सकते। चप्पल निकालकर मैंने मन्दिर के सामने ही जूताघर में रख दिये। जेब में मोबाइल और कैमरा, पीछे कमर पर बैग लादकर मैं मन्दिर में घुसने लगा। ‘सुरक्षाकर्मियों’ ने सीधे जेब पर हाथ मारा और कहा कि इसे अन्दर नहीं ले जा सकते। वापस जाओ। वापस गया और कैमरा, मोबाइल भी वही जूताघर में रख आया। अब धर्म के इन ठेकेदारों का कायदा-कानून देखिये कि किसी भी कथित सुरक्षाकर्मी ने मेरा भारी-भरकम बैग चेक तक नहीं किया, चेक करना तो दूर कन्धे से उतारने तक को नहीं कहा। मैं आश्चर्यचकित रह गया कि जिस सुरक्षा के नाम पर परम सुरक्षित मोबाइल, कैमरे को अन्दर नहीं ले जाने देते, वही घोर असुरक्षित बैग को कुछ नहीं कह रहे हैं। बस, एक इसी घटना के कारण भारत

कोणार्क का सूर्य मन्दिर

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 23 अगस्त 2011 को सुबह नौ बजे मैं पुरी स्टेशन पर पहुंचा। पुरी देखने से ज्यादा दिलचस्पी मुझे कोणार्क का सूर्य मन्दिर देखने में थी इसलिये तुरन्त रिक्शा करके बस अड्डे पहुंचा। यहां से कोणार्क के लिये छोटी छोटी बसें हर आधे घण्टे में चलती हैं। करीब 30-35 किलोमीटर की दूरी है। इसी यात्रा में मैंने पहली बार समुद्र देखा। सूर्य मन्दिर मुख्य रोड से हटकर करीब एक किलोमीटर दूर है। पैदल रास्ता है, दोनों तरफ दुकानें हैं जिनमें मुख्यतः हाथ से बनी वस्तुएं बेची जाती हैं। मन्दिर प्रांगण में घुसने से पहले टिकट लेना पडता है जो शायद दस रुपये का था। पहली बार सामने से मन्दिर देखा तो कसम से मैं तो एक मिनट तक मन्त्रमुग्ध सा खडा रहा।

हावडा- खडगपुर रेल यात्रा

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 22 अगस्त 2011, दिन था सोमवार। हावडा से दोपहर बाद दो बजकर आठ मिनट पर खडगपुर लोकल रवाना होती है। मैं हावडा आया था तो बस अपने दिल्ली के कुछ दोस्तों को आश्चर्यचकित करने, अब वे चले गये तो अपना भी चलना हो गया। कोलकाता में जो देखना था, जहां घूमना था, देख लिया। बाकी बचा खुचा फिर कभी देखा जायेगा। अब शुरू होता है अपना वही शौक रेल एडवेंचर। दोपहर का टाइम था, इसलिये लोकल में इतनी भीड नहीं थी, लेकिन फिर भी मेरी उम्मीद के मुताबिक ही थी। बैठना तो था नहीं, खिडकी पर खडे होना था, खडे हो गये। मुझे फोटू खींचते देख बंगाली समझ भी जाते थे कि महाराज घूमने आया है। मैं बंगालियों को भारत की सबसे बडी घुमक्कड जाति मानता हूं। यही कारण था कि उन्होंने भी अपने घुमक्कड भाई को ज्यादा कुछ नहीं कहा। हां, एक ने हिन्दी में पूछा था कि कैमरा कितने का लिया था। पांच चार स्टेशन निकलने के बाद तो खुद ही जगह मिल जाती थी कि ले, खींच ले फोटू। फिर भी इस रूट पर फोटू खींचने में मजा नहीं आया। कारण था स्टेशनों की ‘नाम प्लेट’ का गलत दिशा में होना। नाम प्लेट का मुंह रेल

कोलकाता यात्रा- कालीघाट मन्दिर, मेट्रो और ट्राम

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 22 अगस्त को सुबह सवेरे साढे छह बजे जैसे ही नई दिल्ली-हावडा एक्सप्रेस (12324) हावडा स्टेशन पर पहुंची और जाट महाराज ने कदम जमीन पर रखे तो पश्चिमी बंगाल भारत का ऐसा महसूस करने वाला 14वां राज्य बन गया (दिल्ली और चण्डीगढ को मिलाकर)। लगभग चौबीस घण्टे हो गये थे मुझे इस ट्रेन में सफर करते-करते। और कम से कम छत्तीस घण्टे हो गये थे नहाये हुए। आजकल पता नहीं क्या हो रहा है कि जल्दी-जल्दी नहाने की तलब लगने लगती है, दो दिन भी नहीं गुजारे जाते बिना नहाये हुए। फटाफट नहाने का जुगाड ढूंढा गया। स्टेशन के एक कोने में नहाने का बंगाली स्टाइल मिल भी गया। और नहाने वालों की भीड भी जबरदस्त। पता नहीं बंगाली जब घर से निकलते हैं तो नहाकर नहीं निकलते क्या? और अगलों की ‘घ्राण शक्ति’ भी इतनी विकसित कि मुझे खडे देखकर बाथरूम का इंचार्ज बंगाली हिन्दी में बोला कि नहाना है क्या। मेरे हां करने पर बोला कि आओ तो इधर, वहां क्यों खडे हो? लाइन में लग जाओ, बैग यही छोड दो, अन्दर टांगने का कोई इंतजाम नहीं है। मैंने बैग वही रखा और चार्जर निकालकर मोबाइल चार्जिंग प

कलकत्ता यात्रा- दिल्ली से हावडा

पिछले महीने कुछ ऐसा योग बना कि अपन को बिना छुट्टी लगाये ही चार दिन की छुट्टी मिल गई। इतनी छुट्टी और बरसात का महीना- घूमना तय था। हां, बरसात में अपना लक्ष्य गैर-हिमालयी इलाके होते हैं। दो साल पहले मध्य प्रदेश गया था जबकि पिछले साल उदयपुर । फिर दूसरी बात ये कि इन चार दिनों में कम से कम दो दिन रेल एडवेंचर में लगाने थे और बाकी दो दिन उसी ‘एडवेंचर’ वाले इलाके में कहीं घूमने में। तुरन्त ही अपने आप तय भी कर लिया कि कोंकण इलाके में रेल आवारागर्दी करते हैं। कोंकण रेलवे यानी मुम्बई के पास रोहा से लेकर दूर मडगांव और उससे भी आगे मंगलौर तक। बाकी बचा-खुचा समय मुम्बई में बिताना तय हुआ। सारा प्रोग्राम बना लिया कि कब यहां से निकलकर कल्याण, दीवा, रोहा, मडगांव और मंगलौर जाना है। इसी तरह वापसी का कार्यक्रम भी बन गया। दर्शन कौर धनोए जी से बात हो गई उनके घर पर अतिथि बनकर जाने की। अभी तक समुद्र नहीं देखा था, इसलिये यह भी तय कर लिया कि दर्शन जी के ऊपर मुझे समुद्र दिखाने की जिम्मेदारी होगी।

इलाहाबाद- कानपुर- फर्रूखाबाद रेल यात्रा

इस साल रेल एडवेंचर के क्रम में मैंने अपना मकसद बनाया था कि नैरो गेज और मीटर गेज ट्रेनों में घूमना है। सतपुडा नैरो गेज , धौलपुर नैरो गेज के बाद ऐशबाग-बरेली मीटर गेज और लोहारू-सीकर मीटर गेज पर सफर कर लिया। हालांकि अभी भी काफी सारी ‘छोटी’ लाइनें बची हुई हैं। लेकिन फिर भी बडी चीजें बडी होती हैं। इस बार चक्कर लग गया इलाहाबाद से कानपुर होते हुए फर्रूखाबाद तक पैसेंजर ट्रेन से। इस ट्रेन से इस रूट पर जाना काफी टाइम से मेरी हिटलिस्ट में था। जरा एक बार नजर घुमा लेते हैं जहां मैंने पैसेंजर ट्रेन से सफर कर रखा है। अच्छा-खासा नेटवर्क बना रखा है। जहां भी जाता हूं तो नक्शे में इसे अपडेट भी कर देता हूं। इसी नेटवर्क को मैं ‘जाट का रेल नेटवर्क’ कहता हूं। मेरी कोशिश रहती है कि जहां भी जाता हूं तो वो लाइन पहले से बने नेटवर्क से जुड जाये। इसमें एक अपवाद भी है- पठानकोट-जम्मू तवी क्योंकि पठानकोट अभी तक ‘जाट के रेल नेटवर्क’ से नहीं जुड पाया है। हालांकि जालंधर और अमृतसर दोनों अपने नापे हुए हैं लेकिन इन दोनों जगहों से पठानकोट वाली लाइन पर अभी तक जाना नहीं हुआ।

लोहारू-सीकर मीटर गेज रेल यात्रा

रेल यात्राओं के क्रम में एक दिन कार्यक्रम बना लोहारू-सीकर मीटर गेज लाइन का। वैसे तो जयपुर से सीकर जंक्शन तक मीटर गेज जाती है। सीकर से आगे दो दिशाओं में विभक्त हो जाती हैं- एक चली जाती है चुरू और दूसरी जाती है लोहारू। चुरू और लोहारू दोनों अब बडी लाइन से सीधे दिल्ली से जुड गये हैं। रेवाडी-सादुलपुर लाइन पर लोहारू है और सादुलपुर-रतनगढ लाइन पर चुरू। उस दिन मैं नाइट ड्यूटी करके सुबह सराय रोहिल्ला स्टेशन पर जा पहुंचा। यहां से दिल्ली सराय-सादुलपुर एक्सप्रेस ( 14705) चलती है जो बारह बजे लोहारू पहुंचा देती है। इस रूट पर चलने वाली सभी गाडियां अभी लगभग खाली ही दौडती हैं। इसलिये जनरल डिब्बे में आराम से लेटने वाली बर्थ मिल गई। बारह बजे का अलार्म लगाया और टाइम पर लोहारू पहुंच गया। यहां से मीटर गेज की गाडी जयपुर स्पेशल पैसेंजर ( 02094) बारह चालीस पर चलती है। इस इलाके में तीन-चार साल पहले मीटर गेज लाइनों का जाल बिछा था- दिल्ली-रेवाडी-सादुलपुर-रतनगढ-बीकानेर, रेवाडी-रींगस-फुलेरा, लोहारू-सीकर-जयपुर, सादुलपुर-हिसार, सादुलपुर-हनुमानगढ-श्रीगंगानगर-सूरतगढ, चुरू-सीकर, रतनगढ-सरदारशहर, रतनगढ-डेगाना; ये स

श्रीखण्ड यात्रा- तैयारी और सावधानी

श्रीखण्ड महादेव हिमाचल प्रदेश में रामपुर बुशहर के पास एक 5200 मीटर ऊंची चोटी है। इतनी ऊंचाई तक चढना हर किसी के बस की बात नहीं होती। वे लोग तो बिल्कुल भी नहीं चढ सकते जिन्हें पहाड पर कदम रखते ही हवा की कमी महसूस होने लगती है। इसकी सालाना यात्रा जुलाई में होती है। हालांकि कुछ साहसी ट्रेकर साल के बाकी समय में भी जाते हैं लेकिन वे इसी रास्ते से वापस नहीं लौटते। भाभा पास करके स्पीति घाटी में चले जाते हैं। जब मैंने घर पर बताया कि मैं श्रीखण्ड की यात्रा पर जा रहा हूं तो पिताजी बोले कि मैं भी चलूंगा। वैसे तो मुझे बाइक से जाना था, पिताजी ने कहा कि मैं भी बाइक से जाऊंगा तुम्हारे साथ-साथ। मैंने उनके सामने एक शर्त रखी कि बाइक से तुम रहने दो, मैं भी तुम्हारे साथ बस से जा सकता हूं लेकिन पैदल रास्ते में जहां कहीं भी आपको सिर में दर्द या चक्कर आने लगेंगे, वहां से आगे नहीं जाने दूंगा। हालांकि गांव का आदमी आराम से पहाड की चढाई कर लेता है, फिर भी मैंने गम्भीरता से ये बातें कहीं, तो उन्होंने जाने से मना कर दिया। यह बात यहां सब पर लागू होती है। बहुत सारे लोग ऐसे होते हैं जो बिना चोटी पर पहुं

गुरुद्वारा श्री पांवटा साहिब (PAONTA SAHIB)

22 जुलाई 2011 की शाम को हम चारों- मैं, सन्दीप पंवार , नितिन और विपिन पांवटा साहिब (पौण्टा साहिब) में थे। पांवटा साहिब हिमाचल प्रदेश में सिरमौर (नाहन) जिले में यमुना के किनारे स्थित है। इतिहास गुरुद्वारा श्री पांवटा साहिब यमुना दरिया के तट पर यह वो पवित्र स्थान है जहां कलगीधर पातशाह गुरू गोविन्द सिंह जी ने नाहन रियासत में आने के बाद तुरन्त सारे क्षेत्र को देखकर नया नगर बसाने का फैसला किया और यही अपने ठहरने के लिये पहला कैम्प (14 अप्रैल 1685) लगाया। फिर इस रमणीक और अतीव सुन्दर कुदरती स्थान पर अपने लिये जिले जैसी एक इमारत बनाई। यही से ही पांवटा साहिब की नींव रखी और इसका नामकरण किया। गुरू महाराज के निवास स्थान के सामने की तरफ दीवान स्थान बनवाया, जहां रोजाना सुबह आसां-दी-वार का कीर्तन, कथा और गुरमत का विचार होता। गुरू महाराज खुद साढे चार साल संगतों को आध्यात्मिक ज्ञान बख्शीश करते रहे। इस स्थान पर गुरुद्वारे का नाम गुरुद्वारा हरिमन्दिर साहिब प्रचलित हो गया। यहां गुरू गोविन्द सिंह जी के ऐतिहासिक शस्त्र और अन्य निशानियां भी संभाली हुई थीं जो बाद में छिपा ली गईं पर कुछ निशानियां अभी तक मौ

कालसी में अशोक का शिलालेख

बहुत दिनों से सुन रखा था कि कालसी में अशोक का शिलालेख है। वही सम्राट अशोक जिसने कलिंग (उडीसा) को फतेह करने के बाद लडना छोड दिया था और बौद्ध धर्म की सेवा में लग गया था। उस समय बौद्ध धर्म भारत का राजकीय धर्म था। तो जी अशोक महाराज ने अपने धर्म, शिक्षाओं, नियम-कायदों का प्रचार किया। पूरे भारत में कई जगह शिलालेख बनवाये गये। कालसी भी लपेटे में आ गया। और हम पर श्रीखण्ड बाबा का आशीर्वाद था कि हम रामपुर से रोहडू, आराकोट, त्यूनी, चकराता होते हुए कालसी पहुंचे और शिलालेख देखा। यह योजना हमारे परम घुमक्कड मित्र श्री सन्दीप पंवार जी के खडूस दिमाग की उपज थी नहीं तो कौन होता है जो इस उल्टे और अनजान रास्ते से यहां तक पहुंचता। रामपुर बुशहर से, रोहडू से कालसी पहुंचकर हम तो किसी को यह कहने लायक भी नहीं बचे कि भाई, कालसी का रास्ता देहरादून, पौण्टा साहिब से जाता है। अगला यह सुनते ही तपाक से पूछेगा कि क्यों, तुम गये थे क्या इस रास्ते से।

चकराता में टाइगर फाल

अपनी श्रीखण्ड यात्रा पूरी करने के बाद हमारी योजना रामपुर से रोहडू, आराकोट, त्यूनी और चकराता होते हुए वापस आने की थी। आराकोट में हम हिमाचल छोडकर उत्तराखण्ड में घुस गये। और उस दिन त्यूनी के बाद हमारे साथ जो घटना घटी, उसे मैं पहले ही बता चुका हूं। खैर किसी तरह रास्ता ढूंढते ढूंढते सहिया पहुंचे। यह कस्बा चकराता और विकासनगर के बीच में है। अगले दिन सुबह ही सहिया से चल पडे। करीब बीस किलोमीटर के बाद चकराता है। वैसे तो हमें कल शाम को ही यहां आ जाना था, लेकिन रास्ता भटक जाने की वजह से यहां नहीं आ सके। चकराता में घुसते ही एक चौक है। यहां से तीन दिशाओं में सडकें निकलती हैं- एक तो वही जिससे हम आये थे विकासनगर वाली, दूसरी सीधे त्यूनी और तीसरी दाहिने मुडकर चकराता के बाजार से होती हुई मसूरी।

जलोडी जोत के पास है रघुपुर किला

जुलाई में जब हम श्रीखण्ड जा रहे थे तो इसी यात्रा में जलोडी जोत देखने का कार्यक्रम भी बनाया। शिमला से करीब 90 किलोमीटर आगे सैंज है। यहां से एक सडक कुल्लू जाती है जो जलोडी जोत (JALORI PASS) को पार करके ही जाती है। जलोडी जोत की ऊंचाई तकरीबन 3200 मीटर है। यहां से एक रास्ता चार किलोमीटर दूर सेरोलसर झील जाता है तो इसके ठीक विपरीत दिशा में दूसरा रास्ता रघुपुर किले की तरफ जाता है। रघुपुर किला- इसके बारे में इंटरनेट पर जानकारी बस इतनी ही मिली है जो मैंने ऊपर वाले पैरा में दी है। किसने बनाया, कब बनाया- कोई जानकारी नहीं है। लेकिन इस स्थान के कुल्लू जिले में होने के कारण ऐसा लगता है कि इसे कुल्लू के राजा ने या उसके अधीन किसी बडे अधिकारी ने ही बनवाया होगा। पहले जो भी रियासतें थीं, उन्हें एकीकृत भारत में जिले का दर्जा दे दिया गया है। जलोडी जोत से यह करीब तीन किलोमीटर दूर है। दुकान वाले से रास्ता पूछकर हम चारों- मैं, सन्दीप पंवार , नितिन जाट और विपिन गौड निकल पडे। मैं दिल्ली से ही चार स्पेशल लठ लेकर चला था लेकिन बाकी किसी को भी लठ की महिमा पल्ले नहीं पडी। जब सेरोलसर झील गये तो मेरे अलावा सभी

सेरोलसर झील और जलोडी जोत

बहुत दिन पहले मैं कुल्लू जिले का नक्शा देख रहा था और उसमें भी कुल्लू का वो इलाका जो पर्यटकों में बिल्कुल भी मशहूर नहीं है लेकिन घुमक्कडों में लोकप्रिय है- तीर्थन घाटी। आमतौर पर कुल्लू जिला जहां से शुरू होता है, वहीं पर तीर्थन घाटी खत्म हो जाती है। चलो, सीधी सी बात बताता हूं। जब हम कुल्लू जाते हैं तो हमारे पास लगभग एकमात्र रास्ता मण्डी होकर ही है। मण्डी से आगे पण्डोह, हणोगी माता, औट, भून्तर और कुल्लू। यह जो औट है ना, यह मण्डी और कुल्लू की सीमा पर है। यहां से एक रास्ता ब्यास नदी के साथ-साथ कुल्लू और आगे मनाली चला जाता है जबकि दूसरा रास्ता तीर्थन नदी के साथ बंजार, शाजा होते हुए जलोडी जोत पार करके आनी, लुहरी, सैंज जा पहुंचता है। सैंज, शिमला-रामपुर मार्ग पर है। इसी तीर्थन घाटी की हम बात कर रहे हैं। यहां कोई पर्यटक नहीं जाता, और यह जगह पर्यटकों के लायक है भी नहीं। ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क ( GHNP) का नाम तो सुना होगा, उसका रास्ता भी इसी घाटी के बंजार कस्बे से जाता है। इस नेशनल पार्क में किसी को हाथी पर या जीप में बैठाकर नहीं घुमाया जाता। इसमें घूमने के लिये मजबूत पैर चाहिये, मजबूत हौसल

पिंजौर गार्डन

श्रीखण्ड महादेव जाते समय जब हम पिंजौर पहुंचे तो भूख काफी तेज लग रही थी। पिंजौर चण्डीगढ से करीब बीस किलोमीटर आगे शिमला रोड पर है। लेकिन अगर दिल्ली की तरफ से जा रहे हैं तो चण्डीगढ जाने की कोई जरुरत नहीं बल्कि चण्डीगढ से पहले जीरकपुर से ही रास्ता दाहिने मुडकर पिंजौर चला जाता है। अच्छा हां, जब हमें खासकर मुझे भूख लग रही थी तो पिंजौर में एक जगह फल वालों को देखकर बाइक रुकवाई गई। केले ले लिये। केले खाते-खाते सू-सू का प्रेशर बना तो वही एक बडी सी दीवार के पास जाकर काम तमाम भी कर लिया। तभी ख्याल आया कि यार, यह दीवार तो हद से ज्यादा ऊंची और बडी लग रही है, मामला क्या है। पूछा तो पता चला कि यह गार्डन की दीवार है- पिंजौर गार्डन की। तुरन्त ही सर्वसम्मति से फैसला हो गया कि इसे भी देख डाला जाये। बीस रुपये की पर्ची कटी और हम गार्डन के अन्दर। इसे यादवेन्द्र गार्डन भी कहते हैं। इसका डिजाइन औरंगजेब के जमाने में नवाब फिदाल खां द्वारा किया गया था। यह हरियाणा राज्य के पंचकुला जिले में पडता है और कालका से जरा सा पहले है।

श्रीखण्ड से वापसी एक अनोखे स्टाइल में

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । उस सुबह हम रामपुर में थे। रामपुर बुशैहर- बुशैहर राज्य की नवीनतम राजधानी। पहले इसकी राजधानी सराहन थी जहां अक्सर बर्फीली आंधियां चला करती थीं क्योंकि सराहन एक खुली जगह पर स्थित है। इससे दुखी और परेशान होकर राजा साहब ने राजधानी बदलने का निर्णय लिया और रामपुर चले आये। रामपुर सतलुज के किनारे सराहन से बहुत नीचे एक संकरी घाटी में स्थित है। इतना नीचे कि बर्फ पडना तो दूर सेब तक नहीं होते। हम भी रात को सोये थे तो पंखा चलाना पड गया था। सन्दीप ने इस यात्रा की योजना बनाते समय पहले ही बता दिया था कि सीधे जायेंगे तो जरूर लेकिन सीधे आयेंगे नहीं बल्कि रोहडू, त्यूनी, चकराता होते हुए आयेंगे। रामपुर से करीब दस किलोमीटर शिमला की तरफ चलने पर नोगली नामक गांव आता है। यहां से रोहडू के लिये रास्ता जाता है। वैसे रोहडू का पारम्परिक और लोकप्रिय रास्ता शिमला से आगे ठियोग से जाता है। एक रास्ता नारकण्डा से भी जाता है। नोगली से एक नदी के साथ साथ रास्ता ऊपर चढता है, सडक बढिया है। करीब दस किलोमीटर के बाद तकलेच गांव आता है। हम रामपुर से बिना कुछ खाये पीय

श्रीखण्ड यात्रा- भीमद्वारी से रामपुर

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । दिनांक 21 जुलाई और दिन था गुरूवार। हम तीनों- मैं, सन्दीप और विपिन श्रीखण्ड यात्रा लगभग पूरी करके भीमद्वारी में एक टेण्ट में बैठे थे। लगभग इसलिये कि श्रीखण्ड दर्शन तो हो चुके थे बस यात्रा के आधार स्थल जांव पहुंचना था। जांव पहुंचते ही यह यात्रा पूरी हो जाती। हम सुबह पार्वती बाग से दो-दो परांठे खाकर चले थे, शरीर के साथ साथ दिमाग को भी झकझोर देने वाली चढाई और फिर उसी रास्ते से उतराई- सोलह किलोमीटर में हमने बारह घण्टे लगा दिये थे। इतने टाइम तक मात्र दो-दो परांठों में गुजारा करना कितना कठिन है- इसका अन्दाजा लगाना मुश्किल नहीं है। वो तो अच्छा था कि सुबह भीमद्वारी से चलते समय मैंने बिस्कुट के दो बडे पैकेट ले लिये थे और उससे भी अच्छा ये हुआ कि सन्दीप और विपिन मुझसे मीलों आगे चल रहे थे- बिस्कुटों का मालिक मैं ही था और मैंने मालिक धर्म पूरी तरह निभाया भी। सन्दीप एक ऊंट की तरह है जो रेगिस्तान में भी बिना खाये पीये कई दिनों तक रह सकता है। उसके साथ बेचारे विपिन की क्या हालत हुई होगी, सिर्फ वही जानता होगा।

श्रीखण्ड महादेव के दर्शन

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । तारीख थी 20 जुलाई 2011 और दिन था बुधवार। आज हमें श्रीखण्ड महादेव के दर्शन करके वापस लौटना था। पार्वती बाग में दो परांठे खाकर हम आगे चल पडे। इस यात्रा को चार मुख्य भागों में बांटा जा सकता है- जांव से बराटी नाले तक करीब पांच किलोमीटर तक बिल्कुल साधारण सीधा रास्ता जो खेतों और आखिर में घने जंगल से होकर नदी के साथ साथ जाता है, बराटी नाले से काली घाटी तक करीब आठ किलोमीटर की एकदम सीधी चढाई जो घने जंगल से होकर है आखिर के करीब डेढ किलोमीटर छोडकर, काली घाटी से पार्वती बाग तक करीब सोलह किलोमीटर जो कहीं चढाई कहीं उतराई वाला है और चारों ओर हरी मखमली घास से होकर जाता है, पार्वती बाग से श्रीखण्ड तक जो करीब छह किलोमीटर का है पूरा रास्ता चढाई वाला है और बडे बडे पत्थरों से भरा है।

श्रीखण्ड महादेव यात्रा- भीमद्वारी से पार्वती बाग

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 20 जुलाई 2011 दिन बुधवार। हम तीन जने श्रीखण्ड अभियान पर थे और उस दिन सुबह सुबह छह बजे के करीब भीमद्वारी से चल पडे। हमें बताया गया था कि यहां से श्रीखण्ड करीब 8 किलोमीटर है जिसका आना-जाना शाम तक बडे आराम से हो जायेगा। यहां से करीब दो किलोमीटर दूर पार्वती बाग है। आज की पोस्ट में ज्यादा ना चलते हुए पार्वती बाग तक ही जायेंगे। करीब आधा किलोमीटर आगे एक शानदार झरना है जिसे पार्वती झरना कहते हैं। यह कुदरती कलाकारी का एक ऐसा नमूना है जिस पर से नजर हटती ही नहीं हैं। वाकई इस इलाके में कुदरती कलाकारी जबरदस्त रूप से बिखरी पडी है। सन्दीप और विपिन मुझसे आगे निकल गये थे। वे मिले पार्वती बाग में- परांठे खा रहे थे। इधर मैं भी ठहरा परांठों का भूखा। जब तक मैं पार्वती बाग पहुंचा, दोनों अपने हिस्से के परांठे खत्म कर चुके थे। मेरे पहुंचते ही टैण्ट वाले से बोले कि ओये, हमारा बन्दा आ गया है, जो भी कुछ खाने को मांगे, दे देना, हम चलते हैं आगे, पैसे नीरज देगा। पूरी यात्रा में खजांची मैं ही रहा था। एक डायरी में खर्चा लिख लेता था।

श्रीखण्ड महादेव यात्रा- थाचडू से भीमद्वार

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 19 जुलाई 2011 दिन मंगलवार। हमारी श्रीखण्ड यात्रा जारी थी। मुझे थाचडू से पहले जबरदस्ती उठाया गया। ना खाने को दिया गया, ना पीने को। रात सोते समय मैंने टैण्ट वाले से पक्की बात कर ली थी कि सुबह को उठते ही चाय और परांठे चाहिये, तभी आंख खुलेगी। लेकिन सुबह जब सन्दीप ने उठाया और मैंने चायवाले से कहा कि भाई, चाय परांठे, तो बोला कि चूल्हा ठण्डा पडा है, घण्टे भर से पहले नहीं बनेंगे। साढे छह बजे हम यहां से चल दिये। नितिन के पैर में कोई सुधार नहीं हुआ था, इसलिये उसे यही छोड दिया गया। साथ ही यह भी कह दिया कि तू नीचे चला जा और परसों हमें जांव में ही मिलना। उसके चेहरे पर खुशी देखने लायक थी क्योंकि उसके लिये यात्रा करने से ज्यादा जरूरी गर्लफ्रेण्डों से बात करनी थी। हालांकि वो दो बच्चों का बाप भी है। साढे सात बजे थाचडू पहुंचे। थाचडू को हम खचेडू कहते थे। हमारा कल का लक्ष्य ‘खचेडू’ ही था लेकिन लाख जोर लगाने के बाद भी हम यहां तक नहीं पहुंच सके थे। यहां श्रीखण्ड सेवा समिति वालों का लंगर भी लगा था, हलवा-चाय और आलू की सब्जी के साथ पूरी मिल

श्रीखण्ड महादेव यात्रा- जांव से थाचडू

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । तारीख थी 18 जुलाई और दिन था सोमवार। यात्रा भी शिवजी की और दिन भी शिवजी का। हम चार जने- मैं, सन्दीप, नितिन और विपिन श्रीखण्ड महादेव की यात्रा पर थे और यात्रा के आधार स्थल जांव पहुंच गये थे। जांव से दोपहर बाद ठीक दो बजे हमने श्रीखण्ड के लिये प्रस्थान कर दिया। मेरे द्वारा की गई इस कठिनतम यात्रा से पहले कुछ बातें थीं जिनका जिक्र करना जरूरी है। हम दिल्ली से ही बाइक पर आये थे। कल यानी 17 तारीख को हमने पूरा दिन जलोडी जोत (JALORI PASS) पर बिताया। रामपुर बुशैहर से कुल्लू जाने वाली सडक जलोडी जोत को पार करके ही जाती है। इसकी ऊंचाई समुद्र तल से 3120 मीटर है। इससे पांच किलोमीटर दूर एक छोटी सी झील है- सेरोलसर झील। इसके दूसरी तरफ करीब तीन किलोमीटर दूर एक किला है- रघुपुर किला। दोनों जगहें पैदल नापी गईं। यहां जाने का हमारा मकसद था केवल एक्लीमेटाइजेशन यानी शरीर को पहाडों के अनुकूल बनाना। आखिर श्रीखण्ड की ऊंचाई 5200 मीटर से ज्यादा है। दिल्ली में रहने वाला जब अचानक इतनी ऊंचाई पर पहुंचेगा तो शरीर के आन्तरिक नाजुक हिस्सों पर असर पडना तय है

श्रीखण्ड यात्रा- नारकण्डा से जांव तक

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 17 जुलाई रविवार की सुबह थी जब मुझे नारकण्डा में उठाया गया। चाय पी, कुछ ‘जरूरी’ कामों से सेवानिवृत्त होकर नहाकर आगे के सफर के लिये तैयार हो गये। मेरे अलावा जाट देवता के नाम से लिखने वाले सन्दीप पंवार, नितिन जाट और विपिन पण्डित जी महाराज भी थे। हम दिल्ली से ही बाइक पर निकले थे और शाम होने तक शिमला से करीब 60-70 किलोमीटर आगे नारकण्डा तक पहुंच गये थे। हमारा कल का पूरा दिन बाइक पर ही बीत गया था इसलिये पूरा शरीर अकड गया था। श्रीखण्ड महादेव की यात्रा शुरू करने से पहले इस अकडन को खत्म करना जरूरी था इसीलिये जलोडी जोत (JALORI PASS) का कार्यक्रम भी रखा गया था। जलोडी का रास्ता नारकण्डा से 35 किलोमीटर आगे सैंज नामक गांव से अलग होता है। यही रास्ता जलोडी जोत को पार करके आगे कुल्लू चला जाता है। जलोडी जोत का यात्रा विवरण बाद में दिया जायेगा।

श्रीखण्ड महादेव यात्रा

16 जुलाई का दिन कुछ खास था। हमेशा की तरह नाइट ड्यूटी की और संदीप के साथ निकल लिया श्रीखण्ड अभियान पर। श्रीखण्ड महादेव हिमाचल प्रदेश में शिमला से करीब दो सौ किलोमीटर आगे 5200 मीटर से भी ज्यादा ऊंचाई पर है। 5200 मीटर कोई हंसी मजाक नहीं है, शिमला खुद करीब 2200 मीटर पर है। उधर शिमला से सौ किलोमीटर आगे रामपुर जोकि सतलुज किनारे बसा है 1000 मीटर पर भी नहीं है। श्रीखण्ड का रास्ता रामपुर बुशैहर से ही जाता है। रामपुर से निरमण्ड, बागीपुल और आखिर में जांव। जांव से पैदल यात्रा शुरू होती है, जांव 1900 मीटर की ऊंचाई पर बसा है। अब अंदाजा लगाया जा सकता है कि जांव से करीब 35 किलोमीटर दूर श्रीखण्ड महादेव तक कैसी चढाई रही होगी। लोगबाग अमरनाथ जाते हैं तो सालों तक अपनी बहादुरी की मिसाल देते रहते हैं कि अमरनाथ जा चुका हूं। क्योंकि कैलाश मानसरोवर के बाद इसी यात्रा को सबसे कठिन माना जाता है। लेकिन जब मैं श्रीखण्ड गया तो पता चला कि अमरनाथ यात्रा की कठिनाईयां इसके आगे कुछ भी नहीं हैं। अमरनाथ यात्रा में सबसे कठिन चढाई पिस्सूटॉप की मानी जाती है अगर सीधे शॉट कट से चढा जाये, खच्चरों के लिये बढिया ठीक-ठाक चौडा

सात कैलाश हैं हिमालय में

सावन का महीना शुरू हो गया है। जिस तरह फरवरी मार्च में फागुन का नशा होता है उसी तरह इस मौसम में सावन का नशा होता है। मैं अपनी बात कर रहूं, किसी और की नहीं। इसका कारण हैं शिवजी। शिवजी का महीना होता है यह। कांवड यात्रा से लेकर कैलाश मानसरोवर यात्रा तक इसी महीने में होती हैं। मैं भी हरिद्वार से मेरठ तक 150 किलोमीटर की दूरी पैदल तय करके पांच बार कांवड ला चुका हूं। पूरे साल किसी भगवान का नाम नहीं लेता हूं, किसी की पूजा नहीं करता हूं लेकिन पता नहीं सावन में क्या होता है कि मन अपने आप ही कहने लगता है कि चल भोले के द्वार।

जोधपुर- मुनाबाव रेल लाइन

बात पिछले साल अक्टूबर की है। अपनी रेल यात्राओं के सिलसिले को आगे बढाते हुए मैं जोधपुर पहुंच गया। वैसे मुझे जोधपुर में कोई काम था भी नहीं बस जैसलमेर और मुनाबाव तक की लाइनों पर पैसेंजर ट्रेन में घूमना था। जैसलमेर की कहानी फिर कभी सुनाई जायेगी, आज मुनाबाव चलते हैं। जहां तक मुझे जानकारी है, कुछ साल पहले तक पूरे राजस्थान में मीटर गेज लाइनों का जाल बिछा हुआ था। यहां तक कि राजस्थान के बिल्कुल बीचोंबीच से गुजरने वाली दिल्ली- जयपुर- अजमेर- अहमदाबाद लाइन भी मीटर गेज ही थी। जोधपुर भी पूरी तरह मीटर गेज स्टेशन ही था। आजादी से पहले एक मीटर गेज लाइन यहां से बाडमेर होते हुए हैदराबाद जाती थी। यह हैदराबाद आज पाकिस्तान में है। भारत में किन्हीं भी दो स्टेशनों के नाम एक जैसे नहीं रखे जाते। यही कारण है कि आज आंध्र प्रदेश में जो हैदराबाद है उसके स्टेशन का नाम हैदराबाद डेक्कन है। जबकि 'हैदराबाद' पाकिस्तान में चले गये हैदराबाद का है।

हैदराबाद से दिल्ली- एक रोमांटिक रेलयात्रा

बात तीन साल पुरानी है। तब तक मैं गुडगांव में लगी-लगाई नौकरी छोड चुका था, हरिद्वार की तरफ मुंह उठ चुका था लेकिन कुल मिलाकर बेरोजगार ही था। उन दिनों मेरा बस एक ही सपना था- सरकारी नौकरी वो भी केवल रेलवे में। उसी सिलसिले में हैदराबाद जाना हुआ। जाने की पूरी कहानी आप यहां क्लिक करके पढ सकते हैं। अब वहां से वापस आने का बखत हो गया है। तो चलो, ऐसा करते हैं कि वापस आ जाते हैं। 23 जून 2008 की बात है। सिकंदराबाद के स्टेशन से शाम पांच बजे के आसपास आंध्र प्रदेश सम्पर्क क्रान्ति चलती है दिल्ली के लिये। मेरा इसी गाडी में रिजर्वेशन था- कन्फर्म था। बर्थ नम्बर थी- 67 जो स्लीपर के डिब्बों में सबसे ऊपर वाली होती है। यह मेरी मनपसन्द बर्थ होती है। कारण यह कि सफर चाहे दिन का हो या रात का, हमेशा सोते रहने का विकल्प खुला रहता है। नीचे वाली बर्थों पर दिन में यह ऑप्शन खत्म हो जाता है।

लखनऊ से बरेली मीटरगेज ट्रेन यात्रा

मुझे नई-नई रेलवे लाइनों पर घूमने का शौक है। करता ये हूं कि किसी भी लाइन पर सुबह को चलने वाली पैसेंजर गाडी पकड लेता हूं और बैठा रहता हूं, बैठा रहता हूं। 300 किलोमीटर तो आराम से कवर हो ही जाता है। कम से कम 50 नये स्टेशन भी हाथ लगते हैं। इनकी ऊंचाई लिख लेता हूं और फोटो तो खींचता ही हूं। इस साल का मकसद है कि छोटी लाइनों यानी मीटर और नैरो गेज को रौंदना। भारतीय रेलवे का मकसद है कि जितनी भी छोटी लाइनें है, सभी को बडा बनाना है, सिर्फ पांच लाइनों को छोडकर- कालका-शिमला, कांगडा रेल, दार्जीलिंग रेल, ऊटी रेल और मथेरान वाली रेल। जिस दिन मैंने यह खबर पढी, तभी से प्रतिज्ञा कर ली कि इनके बडे बनने से पहले ही इन्हें देख लेना है, इनपर घूम लेना है। पिछले करीब दो महीनों से मैं मानसून की बाट देख रहा था। भयानक गर्मी में दिनभर ट्रेन में बैठे-बैठे लू और धूल कतई बर्दाश्त नहीं है। हमेशा की तरह दिक्कत आयी कि कौन सी लाइन रौंदनी है। दिमाग में दो लाइनें थीं- राजस्थान में जयपुर-सीकर-चुरू और सीकर-लोहारू तथा दूसरी यूपी में ऐशबाग-मैलानी-बरेली। ऐशबाग लखनऊ के बिल्कुल पास है, लखनऊ में ही है। कार्यक्रम बना कि किसी तरह श

करेरी यात्रा पर गप्पू और पाठकों के विचार

करेरी यात्रा मेरे यात्रा इतिहास की बहुत खास यात्रा रही। यह पहली ऐसी यात्रा थी जहां मैं धार्मिक स्थान पर न जाकर खालिस घुमक्कड स्थान पर गया। हर बार अपने साथियों से कुछ ना कुछ शिकायत रहती थी, लेकिन इस बार गप्पू की तरफ से कोई शिकायत नहीं है। बन्दे ने पूरी यात्रा में जमकर साथ दिया। गप्पू अपने घर से एक तरह से भागकर आया था। घरवाली को बताया था कि करेरी झील कैलाश मानसरोवर वाली झील के बाद दूसरी पवित्र झील है। पूरे यात्रा वृत्तान्त में मैंने गप्पू की पहचान छुपाये रखी। यह उन्हीं की इच्छा थी। वह एक ब्लॉगर भी है। उनका ब्लॉग भी है जिसका लिंक मुझे मालूम भी है लेकिन गप्पू के कहने पर मैंने कहीं उसका इस्तेमाल नहीं किया। यही कारण है कि गप्पू ने हर पोस्ट में गप्पू जी के नाम से अपने अनुभव भी कमेण्ट के रूप में लिखे हैं। मैंने उनसे कभी नहीं कहा कि भाई, पोस्ट छप गई है, आओ और कमेण्ट कर जाओ। आइये गप्पू समेत कुछ खास कमेण्टों पर निगाह डालते हैं:

करेरी यात्रा का कुल खर्च: 4 दिन, 1247 रुपये

इस वृत्तान्त को पूरा और शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । मैं और गप्पू करेरी झील के लिये दिल्ली से 23 मई की सुबह शाने पंजाब एक्सप्रेस से निकले थे। गप्पू राजस्थान से आया था। उसका राजस्थान से दिल्ली आने - जाने का खर्चा इस लिस्ट में शामिल नहीं है। इसमें जो भी खर्चा दिखाया गया है , हमारा वास्तव में उतना ही खर्चा हुआ। इससे ज्यादा एक रुपया भी खर्च नहीं किया। 23 मई 2011 नई दिल्ली से अम्बाला ( ट्रेन से )- 124 रुपये ट्रेन में चाय - 20 रुपये ट्रेन में भुनी दाल - 20 रुपये अम्बाला स्टेशन पर नहाना - 10 रुपये अम्बाला से चण्डीगढ ( बस से )- 80 रुपये सेक्टर 17 से सेक्टर 43 ( बस से )- 20 रुपये 43 बस अड्डे पर चाऊमीन और कोल्ड ड्रिंक - 110 रुपये

करेरी झील से वापसी

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । मई 2011 को सुबह लगभग दस बजे मैं और गप्पू करेरी झील से वापस चल पडे। हमें यहां आते समय पता चल गया था कि धर्मशाला के लिये आखिरी बस घेरा से शाम चार बजे मिलेगी। यहां से करेरी गांव 13 किलोमीटर दूर है। करेरी गांव से घेरा गांव लगभग साढे तीन किलोमीटर है। पूरी यात्रा पैदल ही है। हमें चार बजे से पहले ही घेरा पहुंच जाना था। वैसे तो हमारे पास नोली पहुंचने का भी विकल्प था जहां से सीधे शाहपुर के लिये बसें मिल सकती थीं और नोली करेरी के मुकाबले पास भी था। झील से कुछ नीचे उतरकर एक रास्ता करेरी चला जाता है और एक नोली। लेकिन हमारे पास स्लीपिंग बैग थे जिन्हें हम किराये पर लाये थे और वापस भी लौटाने थे। इसलिये करेरी और घेरा तक पैदल चलना हमारी मजबूरी थी। हम पिछले दो दिनों से जबरदस्त पैदल चलकर इतने थक गये थे कि आज बिल्कुल भी चलने का मन नहीं था।

करेरी झील की परिक्रमा

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 26 मई 2011 की सुबह सुबह मेरी आंख खुली। जमीन कुछ ऊबड-खाबड सी लगी। अच्छा हां, जब मैं सोता हूं तो तसल्ली से सोता हूं। यह भी नहीं पता चलता कि सोने के दौरान क्या हो रहा है। और जब उठता हूं तो धीरे-धीरे इस दुनिया में आता हूं। ऐसा ही उस दिन हुआ। धीरे-धीरे याद आने लगा कि मैं करेरी झील के किनारे हूं। तभी गप्पू की आवाज आयी- ओये, उठ जा। देख सूरज निकल गया है। साले, वापस भी जाना है। और जब स्लीपिंग बैग से मुंह बाहर निकाला तो वाकई सूरज निकला हुआ था। कल शाम को सात बजे जब हम यहां आये थे तो दूर दूर तक कोई आदमजात नहीं थी। झील के किनारे ही एक छोटा सा मन्दिर बना हुआ है। मन्दिर के बराबर में तीन टूटे हुए से कमरे हैं। उस समय आंधी-तूफान पूरे जोरों पर था। बारिश पड रही थी। ओले भी गिर रहे थे। जैसे ही हवा का तूफान आता तो लगता कि ले भाई, आज गये काम से। कमरों में केवल तीन तरफ ही दीवारें थीं। पीछे वाली दीवार में बडा सा छेद भी था। ऊपर टीन पडी थी। बराबर वाले कमरे की टीन उधड गई थी। जब भी हवा चलती और उससे खड-खड की आवाज आती तो लगता कि ऊपर पहाड से प

करेरी झील के जानलेवा दर्शन

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 25 मई 2011 की दोपहर थी। हम करेरी झील की तरफ जा रहे थे। रास्ते में एक जगह हमें केरल के किसी सेण्ट्रल स्कूल के बच्चे मिले। वे क्षेत्रीय पर्वतारोहण केन्द्र, धर्मशाला की तरफ से करेरी झील देखने जा रहे थे। उनकी कुल चार दिन की ट्रैकिंग थी। आज उन्हें झील से कम से कम पांच किलोमीटर पहले रुकना था, इसलिये वे मस्ती में चल रहे थे। हमें झील पर ही रुकना था, इसलिये हम भी उनके साथ धीरे-धीरे ही चल रहे थे। हमारा कोई नामलेवा तो था नहीं कि हमें नियत समय पर पहुंचकर वहां हाजिरी देनी थी। कभी भी पहुंचकर बस सो जाना था। स्लीपिंग बैग थे ही हमारे पास। केरल वालों में पचास बच्चे थे, कुछ टीचर थे, एक गाइड था। सभी फर्राटेदार हिन्दी बोल रहे थे। गप्पू ने सोचा कि ये दक्षिण भारतीय हैं, हिन्दी नहीं जानते होंगे, उनसे अंग्रेजी में बात करने लगा। मैंने कहा कि ओये अंग्रेज, हिन्दी में बोल, ये लोग हिन्दी जानते हैं। कहने लगा कि नहीं मैं तो अपनी अंग्रेजी टेस्ट कर रहा हूं। वैसे भी इन्हें हिन्दी में दिक्कत होती होगी। तभी केरल की एक टीचर ने कहा कि हम सभी हिन्दी बह

करेरी गांव से झील तक

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 25 मई 2011 की सुबह थी, जब मैं और गप्पू अपनी घुमक्कडी को नये आयाम देने करेरी गांव में सोकर उठे। आज हमें यहां से 13 किलोमीटर दूर ऊपर पहाडों में झील तक जाना था। हालांकि शलभ के अनुसार करेरी गांव से इसकी दूरी 10 किलोमीटर है। गांव वाले ज्यादा बताते हैं। यह झील दुनिया के किसी भी पर्यटन नक्शे में नहीं है। यह झील है केवल घुमक्कडों के नक्शे में। इस झील का ना तो कोई धार्मिक महत्व है, हालांकि झील के किनारे एक छोटा सा मन्दिर बना है। ना ही किसी आम पर्यटन स्थल की तरह है। जिनके पैरों में चलने की खाज होती रहती है, वे ही लोग इस झील को जानते हैं और वे ही यहां तक जाते भी हैं।

करेरी यात्रा- गतडी से करेरी गांव

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । नड्डी एक पहाडी की चोटी पर बसा है। इससे एक तरफ काफी नीचे उतरने पर गतडी गांव आता है। गतडी से और नीचे उतरने पर एक पहाडी नदी (खड्ड) आती है। हम 24 मई 2011 की शाम चार बजे उस नदी के किनारे थे और करेरी जाने वाले रास्ते को ढूंढ रहे थे। हमें ये भी नहीं पता था कि अभी करेरी कितना दूर है। कितना टाइम लगेगा। वहां कुछ रहने-खाने का भी हो जायेगा या नहीं। फिर भी हमने अपना लक्ष्य बनाया था कि छह बजे तक करेरी पहुंच जाना है। आखिरकार हमें खड्ड पार करके दूसरी तरफ एक हल्की सी पगडण्डी ऊपर जाती दिखाई दी। हम उसी पर हो लिये।

करेरी यात्रा- मैक्लोडगंज से नड्डी और गतडी

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 24 मई 2011 की दोपहर बाद मैं और गप्पू मैक्लोडगंज से नड्डी की ओर चल पडे। पक्की सडक बनी है। वैसे तो नड्डी तक बसें भी चलती हैं लेकिन अगली बस दो घण्टे बाद थी। इसलिये सोचा गया कि पैदल ही चलते हैं, जब तक बस आयेगी तब तक तो पहुंच भी जायेंगे। मैक्लोडगंज से नड्डी की दूरी छह किलोमीटर है। चार किलोमीटर के बाद डल झील आती है। यह एक कृत्रिम झील है जो आजकल सूखी हुई है। यह चारों ओर से ऊंचे-ऊंचे देवदार के पेडों से घिरी है। अगर इसमें पानी होता तो यह बडी ही मदमस्त लगती। डल झील से दो किलोमीटर आगे नड्डी गांव है। पक्की मोटर रोड नड्डी तक ही बनी है। यह गांव भी कांगडा जिले के पर्यटन नक्शे में है। यहां विदेशियों का आना-जाना लगा रहता है। हालांकि पूरे कांगडा से धौलाधार की बर्फीली चोटियां दिखती हैं, इसलिये नड्डी से भी दिखती हैं। यह गांव एक पहाड की चोटी पर बसा है। यही कारण है कि बर्फीली चोटियों को देखने के लिये यह बढिया जगह है।

भागसू नाग और भागसू झरना, मैक्लोडगंज

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । हमारी करेरी झील की असली यात्रा शुरू होती है धर्मशाला से। 23 मई की आधी रात तक मैं, गप्पू और केवल राम योजना बनाने में ही लगे रहे। केवल राम ने पहले ही हमारे साथ जाने से मना कर दिया था। अब आगे का सफर मुझे और गप्पू को ही तय करना था। गप्पू जयपुर का रहने वाला है। एक दो बार हिमालय देख रखा है लेकिन हनीमून तरीके से। गाडी से गये और खा-पीकर पैसे खर्च करके वापस आ गये। जब मैंने करेरी झील के बारे में ‘इश्तिहार’ दिया तो गप्पू जी ने भी चलने की हामी भर दी थी। सुबह कश्मीरी गेट पर जब मैंने गप्पू को पहली बार देखा तो सन्देह था कि यह बन्दा करेरी तक साथ निभा पायेगा। क्योंकि महाराज भारी शरीर के मालिक हैं।

चल पडे करेरी की ओर

क्या चीज है हिमालय भी!! जितनी बार जाओ, उतना ही बुलाता है। मुझे इसकी गुफाएं और झीलें बहुत आकर्षित करती हैं। पिछली तीन यात्राओं- मदमहेश्वर , अल्मोडा और केदारनाथ के दौरान मैं उत्तराखण्ड में था तो इस बार हिमाचल का नम्बर लगना तय था। इसी नम्बर में करेरी झील आ गई। करेरी झील कांगडा जिले में है। धौलाधार की बर्फीली पहाडियों पर समुद्र तल से 3000 मीटर की ऊंचाई पर। जाडों में जम भी जाती होगी। गर्मियों में झील के आसपास बर्फ भी रहती है। मैक्लोडगंज से इसका पैदल रास्ता जाता है। बस, इतना ही सुना था मैंने इसके बारे में। जब से सुना था, इसे देखने की बडी इच्छा थी। ब्लॉगिंग से पीएचडी कर रहे केवलराम भी धर्मशाला में ही रहते हैं। जब रोहतक ब्लॉगर सम्मेलन में उनसे मुक्कालात मतलब मुलाकात हुई तभी तय हो गया था कि करेरी झील तक केवल भी साथ देंगे। इस सफर में एक साथी और मिल गये- जयपुर के गप्पू जी। नाम तो इनका कुछ और ही होगा लेकिन सभी इन्हें गप्पू ही बुलाते हैं तो मैं भी गप्पू ही कहने लगा।

धौलपुर नैरो गेज

अभी पिछले दिनों की बात है कि आपना दिमाग फिर गया और मैं धौलपुर चला गया। कारण था कि धौलपुर से जो छोटी लाइन की गाडी चलती है, उसमें सफर करना है। कोई समझदार इंसान आपातकाल को छोडकर कभी गर्मियों में राजस्थान जाने की हिम्मत नहीं जुटा सकता। दिल्ली से आगरे की बस पकडी, सुबह तक आगरा। यहां से सुबह 06:20 पर झांसी पैसेंजर (51832) चलती है। यह घण्टे भर में धौलपुर पहुंचा देती है। मैंने इसी सेवा का सहारा लिया था। धौलपुर से 10:40 पर नैरो गेज यानी छोटी लाइन की गाडी तांतपुर के लिये निकलती है। इस समय तक यहां काफी गर्मी बढ गई थी। रही-सही कसर एटीएम ने पूरी कर दी। दिल्ली से चलते बखत मैंने ध्यान नहीं दिया कि जेब में लक्ष्मी जी है भी कि नहीं। नतीजा? धौलपुर तक सब खत्म। वापस आगरा जाने के भी लाले पड गये तो धौलपुर में एटीएम खोज शुरू हुई। स्टेशन वैसे ही छोटा सा है। यहां कोई एटीएम नहीं है। वैसे तो स्टेट बैंक के बारे में कहा जाता है कि जहां पांच आदमी भी मूतते हों वहां भी एटीएम मिल जाता है लेकिन स्टेशन पर कुछ नहीं।

केदारनाथ-तुंगनाथ का कुल खर्चा- 1600 रुपये

मेरी केदारनाथ यात्रा को पढने के लिये यहां क्लिक करें । मैं केदारनाथ के अलावा त्रियुगी नारायण और तुंगनाथ भी गया। दिल्ली से निकलने के बाद और घूम-घामकर वापस दिल्ली तक कुल कितना खर्चा हुआ, आज यह बताता हूं। मेरे साथ सिद्धान्त भी था। 19 अप्रैल 2011 मोहन नगर से हरिद्वार बस से = 244 रुपये हरिद्वार से श्रीनगर बस से = 240 रुपये ऋषिकेश में एक दर्जन केले = 40 रुपये देवप्रयाग में लंच = 35 रुपये श्रीनगर से रुद्रप्रयाग बस से = 60 रुपये रुद्रप्रयाग से गुप्तकाशी जीप से = 100 रुपये

तुंगनाथ से वापसी भी कम मजेदार नहीं

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 21 अप्रैल 2011 को दोपहर बाद तीन बजे मैं तुंगनाथ से नीचे उतरकर चोपता पहुंच गया। मुझे पता चल गया था कि चोपता से ऊखीमठ जाने वाली आखिरी बस तीन बजे के आसपास ही निकलती है। वैसे तो मेरा टारगेट ढाई बजे तक ही चोपता आ जाने का था लेकिन तुंगनाथ में हुई बर्फबारी के मजे लेने के चक्कर में मैं आधा घण्टा लेट हो गया। चोपता पहुंचकर पता चला कि ऊखीमठ वाली बस अभी नहीं गई है। साढे तीन बजे बस आई। ड्राइवर को नाश्ता करना था इसलिये पन्द्रह मिनट खडी रही। आखिरी बस होने की वजह से फुल भरी हुई थी इसलिये ताला तक खडे होकर जाना पडा। ताला वो जगह है जहां से देवरिया ताल के आधार स्थल सारी गांव के लिये सडक जाती है। सारी से देवरिया ताल तक ढाई किलोमीटर पैदल रास्ता है। यह बस गुप्तकाशी जा रही थी। मैंने टिकट ले लिया कुण्ड तक का। ऊखीमठ और गुप्तकाशी के बिल्कुल बीच में है कुण्ड। कुण्ड में एक तिराहा है जहां से ऊखीमठ, गुप्तकाशी और रुद्रप्रयाग के लिये सडक जाती है। मैं जल्दी से जल्दी रुद्रप्रयाग पहुंच जाना चाहता था। वैसे मेरे पास अभी कल का दिन भी था लेकिन तीन चार दि

चंद्रशिला और तुंगनाथ में बर्फबारी

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 22 अप्रैल 2011 को दोपहर होने से पहले मैं चोपता से तुंगनाथ पहुंच गया। तुंगनाथ पंचकेदारों में तीसरा केदार है। इसे दुनिया में सबसे अधिक ऊंचाई पर स्थित हिन्दू मन्दिर भी माना जाता है। इसकी समुद्र तल से ऊंचाई 3680 मीटर है। इंटरनेट का जमाना है- एक जगह मैंने इसकी ऊंचाई 3829 मीटर भी लिखी देखी है। तब तक तुंगनाथ के कपाट नहीं खुले थे। चारों धामों की तरह यहां भी कपाट सिस्टम है और तुंगनाथ की डोली मक्कूमठ नामक गांव के मन्दिर में रखी जाती है। जब ऊखीमठ से चोपता जाते हैं तो रास्ते में एक तिराहा पडता है। यहां से तीसरी सडक मक्कूमठ जाती है।

तुंगनाथ यात्रा

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 21 अप्रैल 2011 को जब हम त्रियुगी नारायण में बैठे चाय पी रहे थे तो चायवाले ने अकस्मात ही कहा कि वो देखो, वहां तुंगनाथ है। उसके ‘वो देखो’ इन दो शब्दों में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी लेकिन जैसे ही कानों में पडा कि ‘वहां तुंगनाथ है’ तो तुरन्त गर्दन उधर घूम गई। दूर- बहुत दूर नीली पहाडियां दिख रही थीं। उनके बाये हिस्से में कुछ बर्फ भी दिखाई दे रही थी। लेकिन चायवाले ने बताया कि बरफ के दाहिने वाली चोटी तुंगनाथ है। इसका मतलब था कि तुंगनाथ में बर्फ नहीं है। तुंगनाथ पूरी दुनिया में सबसे अधिक ऊंचाई पर स्थित हिन्दू मन्दिर है। इसकी समुद्र तल से ऊंचाई 3680 मीटर है। यह पंचकेदारों में तीसरा केदार है। हम कल पहले केदार यानी केदारनाथ में थे और वहां दस फीट तक बर्फ थी तो सोचा था कि तुंगनाथ इससे भी अधिक ऊंचाई पर है तो वहां भी खूब बर्फ होगी। शायद ना भी जा पायें। लेकिन अब देखने से लग रहा है कि तुंगनाथ में बर्फ नहीं है तो जा सकते हैं। बस, तभी इरादा बना लिया सुबह सात बजे गुप्तकाशी से गोपेश्वर जाने वाली बस पकडने का।

त्रियुगी नारायण मन्दिर- शिव पार्वती का विवाह मण्डप

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 21 अप्रैल की सुबह आठ बजे मैं सोकर उठा। पहले पहल तो यकीन ही नहीं हुआ कि मैं गौरीकुण्ड में हूं। बराबर में ही मंदाकिनी बह रही थी तो खूब आवाज कर रही थी। सोचता रहा कि क्या बाहर इतनी बारिश हो रही है। कल मैंने और सिद्धान्त ने 50 किलोमीटर जीप से गुप्तकाशी से गौरीकुण्ड आने के बाद 28 किलोमीटर गौरीकुण्ड से केदारनाथ और साथ ही साथ वापसी भी की। 28 किलोमीटर की ट्रेकिंग मैंने हिमालय में पहले कभी नहीं की थी। जितना थक सकते थे, थक गये थे। मुझे उम्मीद नहीं थी कि सिद्धान्त भी थक सकता है लेकिन वो भी चूर था। कल सोते समय एक बार मन में आया था कि सुबह पहली गाडी से घर को निकल पडेंगे। लेकिन जब आज सुबह आंख खुली तो घुमक्कडी कीडा भी जाग गया था। सोचा कि घर वापसी से हमारे अगले तीन दिन खराब हो जायेंगे क्योंकि हमें 24 तारीख को वापस आना था। मुंह धोते ही सीधा त्रियुगी नारायण दिमाग में आया। सिद्धान्त को बताया तो बन्दा मुझसे भी पहले तैयार हो गया। हालांकि कल केदारनाथ से वापस उतरते समय वो गिर पडा था और घुटने में हल्की चोट भी आई थी।

केदारनाथ में बर्फ और वापस गौरीकुण्ड

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 20 अप्रैल 2011 की सुबह गुप्तकाशी से चलकर दोपहर ढाई तीन बजे तक हम केदारनाथ पहुंच गये थे। हमें क्या पता था कि वहां इतनी बर्फ मिलेगी कि मन्दिर तक पहुंचने के भी लाले पड जायेंगे। हमारा कार्यक्रम वासुकी ताल जाने का भी था- या तो आज ही जाते या फिर कल सुबह। दसियों फीट बर्फ में वासुकी ताल जाना हमारे लिये बिल्कुल असम्भव बात थी। उधर सिद्धान्त का इरादा आज ही वासुकी ताल भी देखकर वापस गौरीकुण्ड पहुंच जाने का था। मैं उसके इस इरादे के खिलाफ था क्योंकि ऐसा करने से सबसे पहली बात कि हम भयंकर रूप से थक जाते, दूसरी बात हमारे पास एक दिन और बढ जाता। उस एक दिन में हम कहां जाते- यह भी सोचना पडता।

केदारनाथ में दस फीट बर्फ

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 20 अप्रैल 2011 को दोपहर तक हम रामबाडा पार कर चुके थे। रामबाडा गौरीकुण्ड-केदारनाथ पैदल मार्ग के बिल्कुल बीचोंबीच पडता है। आगे के सफर को पढने से पहले यह जान लें कि आज से 17 दिन बाद यानी 7 मई को केदारनाथ के कपाट खुलेंगे। कपाट खुलने के बाद यहां श्रद्धालुओं का आना-जाना बढ जाता है। नहीं तो हम जैसे इक्का-दुक्का सिरफिरे ही आते हैं। हमारा कपाट खुलने से पहले यहां आने का मकसद कोई श्रद्धा-भक्ति नहीं है। दोनों बंदे कम भीडभाड और कम खर्च करने वाले हैं और इन कार्यों के लिये इससे बढिया मौसम कोई नहीं। और अगर हम कपाट खुलने के बाद आते तो कुदरत के उस चमत्कार से बच जाते जो हमने आज देखा। पूरी दुनिया में उंगलियों पर गिनने लायक लोग ही होंगे जिन्होंने केदारनाथ में यह नजारा देखा होगा। अगर आपमें से किसी ने ऐसा नजारा देखा हो तो बताना जरूर।