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मसूरी भ्रमण-1

21 सितम्बर 2008, दिन था रविवार। छुट्टी भी थी। सुबह आठ बजे तक मैं और सचिन दोनों सोने का कम्पटीशन कर रहे थे। अखबार वाला अखबार डाल के कभी का जा चुका था। जैसा कि हर बार होता है, सोने का कम्पटीशन मैं ही जीता। देखा कि सचिन अख़बार पढ़ रहा है। मैंने माँगा तो मना कर दिया। मुझ बेचारे की तो आदत भी ऐसी बिगड़ गई है कि बिना अख़बार पढ़े टट्टी-पेशाब नीचे नहीं उतरता।
क्या करुँ? और कोई दिन होता तो सचिन दो मिनट में ही सारा का सारा अख़बार चाट देता है। कभी कभी तो चाटता भी नहीं। और आज? मुझे देख देख कर तरसा तरसा कर पढ़ रहा था। इस समय मेरे धैर्य की इंटर की फिजिक्स की परीक्षा चल रही थी।

इस संकट काल में मेरे याद आया अपना मोबाइल-नोकिया 1112 । इसे दो साल पहले दिवाली पर लिया था। तीन बार इसकी आत्मा (सिम) को बदल चुका हूँ। सारे बटनों के ऊपर की प्रिंटिंग मिट चुकी है। स्पीकर के पास वाला कोना तो बिल्कुल पारदर्शी हो गया है। फिलहाल इसमे पैसे वैसे भी पर्याप्त थे। विभूति को फोन मिलाया। नो आंसर। दूसरी बार- नो आंसर। तीसरी बार भी नो आंसर। कमाल हो गया। अगला तो मुझसे भी बड़ा "स्लीपर" निकला।
चलो कोई बात नहीं। परीक्षा ख़त्म। सचिन ने अखबार क्या छोड़ा, मुझे तो मुहं मांगी मुराद मिल गई। मैं कल की ख़बर पढने में इतना डूब गया कि मेरे पास क्या हो रहा है, मुझे कुछ नहीं पता। पता भी तब चला जब कान के नीचे रखे स्वचालित वार्तालाप यंत्र ने चीखना शुरू किया। विभूति मुझसे वार्तालाप करने का इच्छुक था।
"हेल्लो।"
"हेल्लो, गुड मोर्निंग।"
"मोर्निंग, क्यों मिस कॉल मार रहा था?"
"रे भाई, मिस कॉल नी मार रहा था। मैं तो पूरी कॉल ही कर रहा था। के बात? सो रहा था?"
"हाँ यार, बड़े मजे की नींद आ रही थी।"
"मैं न्यू कहूं था अक कहीं घुम्मन चलें?"
"कहाँ?"
"कहीं भी।"
"ठीक है, मैं विजय से बात कर लूँ। वे भी चलने को कह रहे थे।"
"ठीक है, थोडी देर में बता देना ।"
करीब आधे घंटे तक मैं बाट देखता रहा। कि उसका फोन आए। फ़िर मैंने सोचा कि अब फोन नहीं आएगा। चलो कोई बात नहीं, " पूजा" कर लेते हैं। मैंने सचिन से कहा कि यार सब्जी बना ले। रोटी मैं बना दूँगा। बोला कि आलू नहीं हैं। तो दाल बना ले। छोंकने के लिए प्याज नहीं है। और उल्टे मुझ आलस के कोल्हू से ही कहने लगा कि जा तू प्याज ले आ, थोड़े से टमाटर भी ले आना। आर्डर सुनते ही मेरी ऊपर की साँस ऊपर, और नीचे की नीचे।
लेकिन मैं भी कम थोड़े ही हूँ। एक तीर छोड़ा-" अरे यार वो जो मेरी पैंट टंग रही है न, उस काली वाली के बराबर में, उसमे से बीस रूपये ले जा, दस की प्याज ले आना, पाँच के टमाटर और पाँच तू अपने पास रखना।" लेकिन सचिन ने मना कर दिया कि नहीं तू ही जा। सुनते ही मेरे तो तोते उड़ गए। तीर निशाने पर नहीं लगा। तभी दूसरा तीर हाजिर। "ठीक है अभी जा रहा हूँ थोडी देर में।" मेरा विचार था कि ऐसे ही पड़ा रहूँगा। और बार बार यही कहता रहूँगा। कभी न कभी तो ससुरे को शर्म आएगी।
साढे नौ से साढे दस बज गए। दोनों आलसी जीवों में जबरदस्त कम्पटीशन चल रहा था। कौन बड़ा आलसी है। मैं पड़ा पड़ा सोच भी रहा था कि तू ही हार मान ले। लेकिन तभी वार्तालाप यंत्र पर विभूति ने उपस्थिति दर्ज की।
"अरे यार मुसाफिर, विजय ने तो चलने से मना कर दिया। अब तू बता। कहाँ चलें?"
"तू कहीं से साइकिल का जुगाड़ कर ले। मेरे पास तो हैगी। चीला के जंगलों में चलेंगे।"
"नहीं यार, ऐसा करते हैं कि ट्रेन से देहरादून चलते हैं। थोड़ा घूम-घाम कर ट्रेन से ही आ जायेंगे।"
"नू भी ठीक है। राजाजी नेशनल पार्क के जंगल में ट्रेन से तो पूरा मजा आएगा। "
"ट्रेन हरिद्वार स्टेशन पर कब मिलेगी?"
"ग्यारह बजे। तू ग्यारह बजे तक स्टेशन पर पहुँच। मैं भी आ रहा हूँ।"
"ठीक है।"
फोन कटते ही मेरा सारा आलस स्वर्ग सिधार गया। टाइम देखा- दस चालीस। मतलब मात्र बीस मिनट में हरिद्वार स्टेशन पर पहुंचना था। लेकिन काम भी तो बहुत थे। फ्रेश होना, मंजन करना, नहाना, कल के लिए कपड़े धोना, खाना बनाना और फ़िर खाना। सचिन से कह दिया कि तू अपने लिए खिचडी बना ले। और खा ले। टट्टी तो क्या, पेशाब भी ट्रेन में ही करूंगा। मंजन व कपड़े धोना कैंसल। लेकिन नहाना जरूरी था। नल पर गया, देखा कि बाल्टी पानी से आधी भरी है। उसमे भी भूसे के दुनिया भर के तिनके। कल भैंस ने पिया होगा।
आव देखा ना तव। बाल्टी को सिर से एक इंच ऊपर ले जाकर पूरे एक सौ अस्सी डिग्री घुमा दिया। बस, नहा लिया। पूरे शरीर को पोंछकर जब तौलिया झाडा तो खूब सारे भूसे के तिनके झडे। कुछ कंघा करते समय झडे। बचे खुचों के ऊपर कपड़े पहन लिए। अब तिनकों की क्या मजाल जो दिखाई दे?
मै सप्ताह भर के कपड़े इतवार को ही धोता हूँ। इसलिए आज तो कपडों में अलग ही लुक दिखाई दे रहा था। जगह जगह खासतौर से कालर पर मटमैले रंग वाली मोटी मोटी लकीरों ने शर्ट पर छः चाँद लगा दिए थे। यही हाल पैंट का था। उनकी जेबों के प्रवेश द्वार शर्ट के कालर के रंग के हो रहे थे।
जल्दबाजी में एक पैर में अपनी और दूसरे में पता नहीं किसकी चप्पल पहनकर मैं चल पड़ा। थोडी दूर जाने पर महसूस हुआ कि शरीर का बैलेंस बिगड़-सा गया है। तब देखा कि मैं चप्पल पहनकर ही आ गया हूँ। वो भी अलग अलग ब्रांड की। अरे यार, मैं तो बिना जूतें पहने कमरे से बाहर भी नहीं निकलता। वापस आकर कायदे से जूते पहने और तब मैंने प्रस्थान किया।
जब मैं बहादराबाद से बस में बैठा तो सवा ग्यारह बज चुके थे। हरिद्वार पहुँचने में पन्द्रह-बीस मिनट लग ही जाते हैं। और ट्रेन का हरिद्वार से छूटने का टाइम था ग्यारह बजे। तभी मेरे सुस्त दिमाग में एक आईडिया आया। विभूति को फोन मिलाया। पहले तो सीधा यही पूछा कि ट्रेन कितनी लेट है, उसने बताया कि लेट नहीं है। स्टेशन पर पहुँचने ही वाली है। जवाब सुनते ही मेरी हवा ख़राब। लेकिन मैंने हौंसला बनाये रखा। उसको बोल दिया कि देहरादून के दो टिकट ले ले।
बस के बस अड्डे में घुसने से पहले ही मैं कूद गया। हरिद्वार का बस अड्डा व रेलवे स्टेशन आमने सामने ही हैं। तभी विभूति का फोन आया।
"क्या हुआ?"
"कहाँ है तू? जल्दी आ जा। ट्रेन चलने ही वाली है। सिग्नल हरा हो गया है।"
मैंने दौड़ने में पूरी जान लगा दी। प्रवेश द्वार पर पहुँचा तो देखा कि विभूति जबरदस्त अंदाज में हाथ हिलाकर मुझे बुला रहा है। ट्रेन भी धीरे धीरे चल रही थी। लेकिन मैं वहीँ पर एक खाली बेंच पर बैठ गया। विभूति मेरे पास आया। "अरे क्या हुआ? चल यार, ट्रेन निकल जायेगी।"
"कोई बात नहीं, दूसरी ट्रेन से चलेंगे।"
"अरे, यही तो देहरादून जा रही है। दूसरी पता नहीं कितनी देर में आएगी।"
"अरे बावली पूंछ। यह शताब्दी एक्सप्रेस है।" सुनते ही उसकी आँखें खुल गई। शताब्दी एक्सप्रेस तो बड़े लोगों की गाड़ी है। हम कहाँ? तभी अचानक--
"यात्रीगण कृपया ध्यान दें। गाड़ी नंबर चार एक छः तीन, मुरादाबाद के रास्ते इलाहाबाद से चलकर देहरादून को जाने वाली लिंक एक्सप्रेस थोडी ही देर में प्लेटफार्म नंबर दो पर आ रही है।" मैंने कहा-" यह है वो गाड़ी, जो ग्यारह बजे आनी थी। तू वैसे शताब्दी के मारे पागल हो रहा था।"
मैंने उसे सारी आत्मकथा सुनाई कि मैं बिना कुछ पेट में डाले ही चला आया हूँ। वो मेरा इशारा समझ गया। तब हम IRCTC की कैंटीन में पहुंचे। मुझसे पूछने लगा कि बता क्या खायेगा? मैंने कहा कि यार ले ले जो लेना हो। उसने आर्डर दिया दक्षिण भारतीय खाने का। मुझे तो इसका नाम भी नहीं पता, क्या था। शायद इडली या डोसा, छोडो यार पता नहीं क्या था। वेटर ले आया प्लेट में रखके। मैंने पहले तो इसे देखा-स्पंज की तरह, ऊपर से लाल-पीला पानी भी डाल रखा था। विभूति ने चम्मच से तोडा व खाने लगा। उसकी देखा-देखी मैं भी शुरू हो गया।
वो बोला कि ये तो ठंडे हैं। वेटर से कहा था गरम लाने को, पकड़ा दिए ठंडे। मैं मन ही मन में सोच रहा था कि अगर गरम भी होते कौन सा अलग से स्वाद आ जाता। मुझे ना तो देखने में ही अच्छे लग रहे थे, ना ही खाने में। मैं चम्मच से जरा सा तोड़ता, मन ही मन गिनता- एक...दो...और तीन, और एकदम चम्मच मुँह में। विभूति तो प्लेट भी चाट गया। जबकि मेरे सामने अभी भी आधा पहाड़ और रखा था। तभी मैंने कहा-"अरे यार, ये भी कुछ है? सारे ठंडे पड़े हैं। मैं तो कभी ठंडे खाता ही नहीं हूँ। हमारे मेरठ में तो ऐसे बनते हैं कि.... ।" और उठकर चल दिए। आधे को वही छोड़ दिया। पिंड छूटा।
अब हम सीधे पहुंचे प्लेटफार्म नंबर दो पर। ट्रेन आकर रुकी। बाप रे, क्या भीड़? सारी की सारी यहीं पर उतर गई। आगे देहरादून के लिए तो दो चार, दस बीस सवारियां ही बैठी रह गई। आधे घंटे बाद ट्रेन चली तो हम दोनों खिड़की पर बैठ गए। आ हा हा!! क्या सुकून मिलता है खिड़की पर बैठने से? जब ट्रेन सुरंगों में से गुजरी तो पैर ऊपर कर लिए। जितना आगे चलते रहे, पहाड़ भी उतना ही पास आते गए।
रायवाला से थोड़ा पहले एक टीटी महोदय आए। मेरे कंधे पर हाथ मारा और अकड़कर बोले-" टिकट दिखाओ।" मैंने पीछे मुड़कर देखा कि टीटी महोदय एकदम सादी सिविल ड्रेस में। दाढ़ी वाढी भी बढ़ी हुई। उन्होंने शायद सोचा होगा कि खिड़की पर बैठे हैं, टिकट-विकट होगा नहीं। एक बात और, टिकट खरीदा तो था विभूति ने, लेकिन उस समय था वो मेरे पास। मैंने खड़े होते हुए विभूति के कान में चुप रहने को कह दिया था। मुझे शक था कि यह टीटी नकली है।
मैंने पूछा कि यह ट्रेन रायवाला रुकेगी? बोला कि पहले टिकट दिखाओ। मैंने कहा कि बस रायवाला तक ही तो जाना है। हम हरिद्वार से चढ़े हैं।
"कहीं से भी चढ़े हो। मुझे क्या? टिकट दिखा।"
"टिकट तो नहीं है।"
"क्यों नहीं हैं? खरीदा क्यों नहीं?"
"लाइन बहुत लम्बी थी। तभी इतने में ट्रेन आ गई।"
"अच्छा तो निकालो पाँच सौ चालीस रूपये।"
"पाँच सौ चालीस? किस बात के?"
"ढाई-ढाई सौ रूपये जुरमाना। बीस-बीस रूपये किराया।"
"हमारे पास तो दस रूपये ही हैं। हम कहाँ से दें?"
"चल मेरे साथ। तुझे पुलिस को सौंपता हूँ। जेल जाएगा, तब पता चलेगा।"
"अरे भाई साहब, देख लो सौ-पचास में काम चल जाए तो।"
"तू ऐसे नहीं मानेगा।"
कहते हुए मेरी गिरेबान पकड़ ली और मुझे डिब्बे में अन्दर ले जाने लगा। विभूति मेरे पीछे पीछे। सभी सवारियां हमें ही देख रही थी। तभी मैं रुक गया। टीटी भी रुक गया। मैंने कहा-"अरे भाई साहब, हमारे पास पाँच सौ चालीस रूपये तो हैं नहीं। सही बताओ, कितने लोगे?"
"अच्छा तो कितने हैं तुम्हारे पास?"
इस बार उनका मूड कुछ ठीक था। मुझे भी इसी समय का इन्तजार था। अभी तो गिरेबान पकड़ने का बदला भी लेना था।
"मेरे पास तो पचास रूपये हैं। और विभूति तेरे पास कितने हैं?"
"चालीस रूपये।" उसने भी झूठ बोला।
तभी रायवाला स्टेशन आ गया। मुझे पता था कि ट्रेन यहाँ पर नहीं रूकती। फ़िर भी मैंने कहा-"चल उतर। स्टेशन आ गया।" मैं जैसे ही वापस मुडा, टीटी ने मुझे पीछे से कालर से पकड़ा और दूसरी तरफ़ को धक्का दे दिया। "उधर चल, तुझे पुलिस को सौंपना ही पड़ेगा।" इसके बाद टीटी अपनी हदें पार करने लगा। मुझे लगा कि मुझे भी अब हदें पार करनी चाहिए।
तभी मैंने अचानक उसे दोनों कन्धों से पकड़ा और पूरे झटके से सीट पर धर दिया। उसे कुछ बोलने का मौका दिए बिना मैंने अपना एक पैर सीट पर रखा, कोहनी घुटने पर रखी और सीधे सवाल किया-
"तू टीटी है?"
"हाँ, टीटी हूँ।"
"अपना आईकार्ड दिखा।"
वो पूरी अकड़ से बोला-"जुरमाना देना है या मैं अपना काम करुँ?"
"आईकार्ड दिखता है या मैं अपना काम करूँ? नकली टीटी बना फिरता है। आईकार्ड वाईकार्ड है नहीं कुछ पास में।"
तभी विभूति बोला-"ये रसीद बुक रखने से कोई टीटी नहीं बन जाता। तेरे पास ना तो ड्रेस है, ना आईकार्ड है, तू टीटी कैसे हो गया?"
वो चुप रहा। मैंने एक और सवाल किया। "बता ये ट्रेन डोईवाला रुकेगी या नहीं?"
"रुकेगी। तुम डोईवाला उतर जाना।"
तभी मैंने टिकट निकाला और बोला-" ये देख। ये है हमारा टिकट। हमें जाना है देहरादून। दूसरी बात कि यह ट्रेन डोईवाला नहीं रुकती।"
विभूति बोला-" एक काम करते हैं। देहरादून पहुंचकर हम अगर तुझे पुलिस को सौंप दें, तो कैसा रहेगा? सीधा ठगी, धोखाधडी और धमकी का केस चलेगा। सालों साल जेल में पड़ा रहेगा।"
अगले की वायु प्रदूषित मतलब हवा ख़राब। उठकर चलने लगा तो मैंने धकेलकर फ़िर वहीँ बैठा दिया। वो बोला-" अरे भाई साहब, जाने दो। चाहे सौ-पचास ले लो।"
इतने में तमाशा देख रही सवारियां भी कहने लगी कि साले को छोड़ना मत। देहरादून पहुंचकर पुलिस को सौंपेंगे। तभी एक "शक्तिशाली" सा दिखने वाला लड़का उठा और उसने उसके मुहं पर घूँसा मारा। डिब्बे में आवाजें उठने लगी। "साले को ट्रेन से नीचे फेंक दो।" "और मारो।"
अब मैं वहां से खिसक लिया। जुबान तो खूब चला लेता हूँ, लेकिन जब कहीं हाथ चलने का नंबर आता है तो फिस्स। उधर वो बेचारा फर्श पर पड़ा हुआ "अरे भाई, छोड़ दो। फ़िर कभी ऐसा नहीं करूंगा।"
तभी आवाज आई "साले के कपड़े फाड़ दो।" और उस "धाकड़ छोरे" ने उसकी शर्ट फाड़ दी। आफत बंद होते ही टीटी महोदय वहाँ से चले गए।
ऐसा होता है जाट से पंगा लेने का नतीजा। अब हमारा मूड बिल्कुल साफ़ हो गया। फ़िर वहीँ खिड़की पर जा बैठे। 
अगला भाग: मसूरी भ्रमण-2

1. मसूरी भ्रमण-1
2. मसूरी भ्रमण-2

Comments

  1. अभी तो स्टेशन पहुँचना बाकी है
    अगले भाग के इंतज़ार में..

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  2. अब फोन का शरीर बदल डालो भाई.....ओर इतनी सर्दी में चप्पल दाल कर नही निकलते भाई ...कुछ जूते पहन लेते है

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  3. Aap mussoorie zara jaldi phuchiyega. mujhe waha ke baare mai janane ki utawali ho rahi hai

    kuki Mussoorie meri NANIJI ka ghar hai yani mera nanihal.

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  4. विनीता जी, जरा अपनी नानीजी के घर का पता भी बता दो, अब कभी जायेंगे तो इधर उधर ना रूककर वहीँ पर रुक जायेंगे.

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  5. भाई मुसाफ़िर तैं तो घणा चंट हो रया दिखै ? विनिता जी की नानी जी का एड्रेस्स भी रुकने के लिये मांग रे हो ? :)

    बहुत मजा आरहा है आपकी लेखनी मे ! अगले भाग का इन्तजार करते हैं !

    रामराम !

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  6. Neeraj ji, Ab to waha pe koi nahi rahta hai. sab idher udher ho gaye. yahi karan hai ki mai kafi samay se waha nahi ja payi.
    jub apne mussoorie ka naam liya to bachpan ki bahut sari yaden khasker ki NANAJI ke yaad aa gayi.

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  7. विनीता जी, चिंता मत करो. अभी मेरा वहां जाने का कोई प्रोग्राम नहीं है. ठीक है. मैं आपके नानाजी के यहाँ नहीं जाऊँगा. NOW DON'T TAKE TENSION.
    मजाक कर रहा हूँ.

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  8. imaandaari se bata rahaa hoon...aisa "sense of humour" bahut kam dekha hai maine...ek paha hai abhi aur fan ho gaye aapke

    hasy-vyang mein meri bhi ek koshish yahaan padhe,aapke sujhaav ka intezaar karoonga:
    http://pyasasajal.blogspot.com/2008/12/blog-post_5104.html

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  9. भाई बहुत ही अच्‍छा वृतांत है रोजमर्रा की जिंदगी में अमूमन ऐसा ही होता है आपने बहुत सही लिखा है पढकर मा आ गया बस लिखते रहो आगे का बेसब्री से इंतजार कर रहा हूं

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  10. Very funny and interesting too!...thanks for nice creation!

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  11. It seems different countries, different cultures, we really can decide things in the same understanding of the difference!
    Personalized Signature:我喜欢淮安掼蛋,靖江青儿,南通长牌,姜堰23张,常州麻将这些地方言游戏

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  12. Yahi ghumkkadi asli hai, passion (lagav)for travelling

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब