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Showing posts from 2008

मसूरी भ्रमण-2

इस यात्रा वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें । मैं सोचने लगा कि चलो देहरादून पहुंचकर कहीं आगे की गाड़ी पकड़ते हैं। हमारे पास पहला विकल्प था मसूरी जाने का लेकिन दोनों की जेबें खाली। फ़िर सोचा कि वहां चलेंगे, भला कहाँ? अरे यार वहां, क्या नाम है.....सहस्त्रधारा। या फ़िर चलेंगे डाकपत्थर। मसूरी तो जाने का सवाल ही नहीं था। तभी विभूति ने पूछा कि अब कौन सा स्टेशन आएगा? मैंने कहा- डोईवाला। तभी अचानक दिमाग में विस्फोट सा हुआ। "अरे हाँ, लच्छीवाला भी तो यहीं पर है। अब देहरादून नहीं चलते। लच्छीवाला चलते हैं।" विभूति महोदय कभी इधर आए तो थे नहीं, मैं जिधर का भी नाम ले दूँ, मेरी हाँ में हाँ। खैर, तय हो गया कि लच्छीवाला ही चलते हैं। वैसे गाड़ी का स्टोपेज तो था नहीं, फ़िर भी हमने उतरने का पूरा मूड बना लिया। हमें यकीन था कि यहाँ पर गाड़ी की स्पीड थोडी कम तो होगी ही। बस उतर जायेंगे। लेकिन स्टेशन आते आते स्पीड और बढ़ गई। बेचारे दोनों मन मसोसकर रह गए। आगे लच्छीवाला पुल पर भी नहीं उतर सके।

मसूरी भ्रमण-1

21 सितम्बर 2008, दिन था रविवार। छुट्टी भी थी। सुबह आठ बजे तक मैं और सचिन दोनों सोने का कम्पटीशन कर रहे थे। अखबार वाला अखबार डाल के कभी का जा चुका था। जैसा कि हर बार होता है, सोने का कम्पटीशन मैं ही जीता। देखा कि सचिन अख़बार पढ़ रहा है। मैंने माँगा तो मना कर दिया। मुझ बेचारे की तो आदत भी ऐसी बिगड़ गई है कि बिना अख़बार पढ़े टट्टी-पेशाब नीचे नहीं उतरता। क्या करुँ? और कोई दिन होता तो सचिन दो मिनट में ही सारा का सारा अख़बार चाट देता है। कभी कभी तो चाटता भी नहीं। और आज? मुझे देख देख कर तरसा तरसा कर पढ़ रहा था। इस समय मेरे धैर्य की इंटर की फिजिक्स की परीक्षा चल रही थी।

रुड़की में चली थी भारत की पहली रेल

अगर आपसे पूछा जाए कि भारत में पहली बार रेल कहाँ चली थी, तो निःसंदेह आपका जवाब ग़लत होगा। शायद आप कहें "मुंबई से ठाणे" और फ़िर इतिहास भी बताने लगें कि सोलह अप्रैल 1853 को 34 किलोमीटर की दूरी तय की थी। लेकिन ये जवाब तो सरासर ग़लत है। सही जवाब है कि भारत की पहली रेल रुड़की में चली थी। यह रेल मालगाडी थी। शुरू में तो यह मानव शक्ति से खींची जाती थी, लेकिन बाद में भाप का इस्तेमाल होने लगा था। इसके विपरीत मुंबई-ठाणे वाली रेल सवारी गाड़ी थी। 1850 में अंग्रेजों ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अकाल और सूखे से बचाने के लिए एक नहर परियोजना की शुरूआत की। इसे आजकल गंगनहर के नाम से जाना जाता है। यह नहर हरिद्वार से निकलकर रुड़की, मुज़फ्फ़रनगर, मेरठ, गाजियाबाद, बुलंदशहर होते हुए कानपुर तक चली जाती है।

चीला के जंगलों में

इस इतवार को हमने मूड बनाया चीला में घूमने का। राजाजी राष्ट्रीय पार्क में तीन मुख्य रेंज हैं-चीला, मोतीचूर और एक का नाम याद नहीं। सुबह ही हल्का नाश्ता करके मैं, डोनू और सचिन तीनों चल पड़े। हरिद्वार बस स्टैंड से पैदल हर की पैडी पहुंचे।

मेरठ - हस्तिनापुर से 1857 तक

मेरठ की स्थापना किसने की, कब की? काफी दिनों से ज्ञात करने की कोशिश में था। लेकिन एक बात तो तय है कि मेरठ रावण की ससुराल रहा है। रावण के ससुर का नाम था- मयराष्ट्र। यही नाम बाद में बिगड़ कर मेरठ हो गया। रावण भी मेरठ से लगभग सत्तर किलोमीटर दूर बिसरख गाँव का रहने वाला था। यह आजकल नोयडा के पास है। गाजियाबाद के पुराने बस अड्डे से नियमित बस सर्विस है। इस गाँव में आज भी दशहरा नहीं मनाया जाता। यह एक नीचे से टीले पर बसा हुआ है। अगर उस टीले की खुदाई करते हैं तो रामायण कालीन शस्त्र निकलते हैं। अब आते हैं असली बात पर यानी हस्तिनापुर। मैंने कईयों से यह सुना है कि हस्तिनापुर गंगा यमुना के बीच के दोआब को कहते हैं। लेकिन बहुत कम लोगों को यह मालूम है कि हस्तिनापुर मेरठ जिले में है। यह मवाना तहसील के अंतर्गत आता है।

राजाजी राष्ट्रीय पार्क में मोर्निंग वाक

बात करीब दो साल पुरानी है। उस समय मैं कॉलेज में पढता था। फाइनल इयर की परीक्षाएं होने को थी। इन परीक्षाओं के बाद मेरा मन आगे पढने का नहीं था, बल्कि नौकरी करने का था। मैंने सोचा कि परीक्षा ख़त्म होने के बाद BHEL हरिद्वार में एक साल की ट्रेनिंग करूंगा। इसके लिए पहले ही आवेदन करना जरूरी था। इसलिए एक दिन समय निकालकर मैं और कमल हरिद्वार पहुँच गए। अप्रैल का महीना था। सुबह सुबह चार बजे हम दोनों हरिद्वार रेलवे स्टेशन पर थे। हमें BHEL ग्यारह बजे के बाद जाना था। सात घंटे अभी भी बाकी थे। इतना टाइम कैसे गुजारें। तय हुआ कि चंडी देवी मन्दिर तक घूम कर आते हैं। यह हरिद्वार से छः किलोमीटर दूर पहाडी पर स्थित है। रास्ता भी पैदल का ही है। चल पड़े दोनों। गंगा का पुल पार करके हम बाइपास रोड पर पहुंचे। यह रोड आगे ऋषिकेश चली जाती है। इसी में से एक रास्ता दाहिने से कटकर ऊपर चंडी देवी मन्दिर तक जाता है। मैंने सोचा कि मन्दिर जायेंगे, वहां पर कम से कम ग्यारह ग्यारह रूपये का प्रसाद भी चढाना पड़ेगा। चलो आज इस रोड पर सीधे चलते है। कमल कहने लगा कि पता नहीं यह रोड कहाँ जाती है। आगे पूरा इलाका राजाजी राष्ट्रीय पार्

मुसाफिर जा पहुँचा कुमाऊँ में (भाग-2)

इस यात्रा वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें । पहाड़ पर गांवों में घर दूर दूर होते हैं। बीच में खेत होते है। अब रमेश मुझे गाँव के मन्दिर में ले गया। मन्दिर क्या एक पीपल के पेड़ के नीचे पूजा घर की तरह था। इस मन्दिर के पुजारी रमेश के पिताजी ही थे। मान्यता है कि हर रोज ताजे निकले दूध में से थोड़ा थोड़ा यहाँ पर चढाया जाता है। नहीं तो अगले दिन से पशु के थन से दूध की जगह खून निकलता है। अब रमेश कहने लगा कि चल तुझे एक गुफा दिखता हूँ। पूरा गाँव पार करके इस पहाडी की चोटी से ज़रा सा नीचे एक छोटी सी गुफा थी। हम उसे बाहर से ही देखने लगे। तभी अचानक मैं चौंक पड़ा। इसकी दीवारों पर सांप जैसी आकृतियाँ बनी हुई थी। पहली बार में तो मैं भी सोच बैठा था कि इसमे तो सांप हैं। लेकिन वो बिल्कुल प्राकृतिक थी।

मुसाफिर जा पहुँचा कुमाऊँ में (भाग-1)

दिनांक- दीवाली के बाद, 2007। मैं जैसे ही कंपनी में पहुँचा, पता चला कि आज रमेश नहीं आया था। उन दिनों मैं नोएडा में था। रमेश का भाई कैलाश भी इसी कंपनी में था। दीवाली के एक दिन बाद कैलाश तो आ गया था, लेकिन रमेश अभी तक नहीं आया था। दीवाली की छुट्टियों में गाँव गया हुआ था। मुझे पता था कि उनका गाँव नैनीताल के पास कहीं है। पक्का नहीं पता था कि कहाँ है, न ही गाँव का नाम मालूम था। जब कैलाश आ गया तो मैंने उससे रमेश के बारे में पूछा। उसने बताया कि वो अभी गाँव में ही है। दो तीन दिन में आ जाएगा। तभी मेरे दिमाग में आया कि उसके गाँव जाया जाए। दो तीन दिन बाद मैं और रमेश दोनों इकट्ठे वापस आ जायेंगे।

और पहुँच गए नैनीताल

चलो अब शुरू करते हैं मुसाफिरगिरी। घूमने का शौक तो बहुत है, लेकिन घर वाले कहीं नहीं जाने देते। जहाँ भी जाता हूँ, चोरी से जाता हूँ, अकेला जाता हूँ। वो एक गाना है ना- चल अकेला चल अकेला, तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला। कभी कभी दिमाग में आता है कि अगर कभी कोई मुसीबत आ गई तो। बन्दे के पास इसका भी जवाब है- जिंदगी एक सफर है सुहाना, यहाँ कल क्या हो किसने जाना। पिछले साल इन्ही दिनों मैं नोएडा की एक कंपनी में कार्यरत था। शिफ्टों की ड्यूटी, कभी सुबह पाँच बजे ही निकलना, कभी देर रात बारह एक बजे तक आना, कभी पूरी पूरी रात जागना। अपनी तो यही जिंदगी थी। इतवार को सुकून मिलता था। उसमे मैं पता नहीं कहाँ कहाँ निकल पड़ता था।

नीलकंठ महादेव और झिलमिल गुफा, ऋषिकेश

अभी कुछ ही दिन पहले धुन सवार हुई कि नीलकंठ चलें। मैंने ख़ुद ही दिन भी तय कर लिया कि इस इतवार को जाऊँगा। अपना तो एक ही ध्येय वाक्य है- चल अकेला चल अकेला। फिर भी टोकने वाले अंदाज में सभी दोस्तों को टोक डाला। कोई भी साथ चलने को तैयार नहीं हुआ। कोई बात नहीं, यह मुसाफिर जाट किसी की मर्जी का मोहताज नहीं है। नीलकंठ जाना थोड़ा दुर्गम भी है और सुगम भी। पैदल जायें तो दुर्गम और बेहद थकाऊ व खतरनाक। ऋषिकेश से चौदह किलोमीटर की अनवरत खड़ी चढाई। कोई अपने को कितना भी तीसमार खां समझता हो, पैदल जाने में तो फूँक निकल जाती है। दूसरा रास्ता जीप वाला है, जो करीब तीस किलोमीटर पड़ता है।

हरिद्वार में गंगा आरती

इस शनिवार को हमने पहले ही योजना बना ली थी कि कल हरिद्वार चलेंगे। वैसे तो मैं हरिद्वार में ही नौकरी करता हूँ। हरिद्वार से बारह किलोमीटर दूर बहादराबाद गाँव में रहता हूँ। कभी कभी सप्ताहांत में ही कहीं घूमने का मौका मिल पाता है। कमरे पर मैं और डोनू ही थे। इतवार को आठ बजे सोकर उठे। बड़े जोर की भूख भी लग रही थी। सोचा कि चलो परांठे बनाते हैं, आलू के। मैंने आलू उबलने रख दिए। डोनू पड़ोसी के यहाँ से कद्दूकस ले आया। बड़ी ही मुश्किल से परांठे बनाये। कोई ऑस्ट्रेलिया का नक्शा बना, कोई अमेरिका का। एक तो बिल्कुल इटली का नक्शा बना। दस बजे तक हम कई देशों को खा चुके थे। इतवार को सबसे बड़ी दिक्कत होती है - कपड़े धोने की। पूरे सप्ताह के गंदे कपड़े इतवार की बाट देखते रहते हैं। मेरे तीन जोड़ी थे, जबकि डोनू के भी करीब इतने ही थे। जितने चुस्त हम खाने में हैं, उतने ही सुस्त काम करने में। सुबह को आठ बजे तक पानी आता है, फिर दोपहर को आता है, भर लिया तो ठीक, वरना नल से खींचना पड़ता है। आठ बजे तो हम सोकर ही उठे थे। फिर भी हमने तीनों बाल्टी, सारे बड़े बर्तन जैसे कि कुकर, भगोना, पतीली वगैरा सब भरकर रख लिए। कौन खींचे