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बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग चार (हनोल से पुरोला)

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19 मई 2017
हनोल से निकलते ही चीड़ का जंगल आरंभ हो गया और बगल में टोंस नदी। आनंदमय कर देने वाला वातावरण।
पाँच-छह किलोमीटर आगे एक स्थान है - चीड़ समाधि।
पता नहीं यह एशिया का सबसे ऊँचा पेड़ था या दुनिया का, लेकिन बहुत ऊँचा था। 60 मीटर से भी ज्यादा ऊँचा। 2007 में तूफ़ान के कारण यह टूटकर गिर पड़ा। इसकी आयु लगभग 220 वर्ष थी। पर्यावरण और वन मंत्रालय ने इसे ‘महावृक्ष’ घोषित किया हुआ था। अब जब यह टूट गया तो इसकी समाधि बना दी गयी। इसे जमीन में तो नहीं दफ़नाया, लेकिन इसे काटकर इसके सभी टुकड़ों को यहाँ संग्रहीत करके और सुरक्षित करके रखा हुआ है।
चीड़ की एक कमी होती है कि यह किसी दूसरी वनस्पति को नहीं पनपने देता, लेकिन इसकी यही कमी इसकी खूबी भी होती है। सीधे खड़े ऊँचे-ऊँचे चीड़ के पेड़ एक अलग ही दृश्य उपस्थित करते हैं। हम ऐसे ही जंगल में थे।
आनंदमग्न।




लेकिन गर्मी बहुत थी। मई में 1200 मीटर की ऊँचाई पर गर्मी होगी ही। रणविजय ने पूछा - “क्या यहाँ कोई ऐसी जगह नहीं है, जो बिल्कुल ऐसी ही हो, लेकिन ठंड़ी हो?”
मैंने दबी-दबी हँसी में उत्तर दिया - “है।”
रणविजय - “तो यहाँ गर्मी में क्यों घुमा रहे हो हमें? उस ठंड़ी जगह पर क्यों नहीं ले चलते?”
मैं - “ले तो जा रहा हूँ।”
...
मोरी से एक-दो किलोमीटर पहले टोंस पर एक झूला पुल है। मैं तो इसे नज़रअंदाज़ करता हुआ निकल जाता, लेकिन रणविजय की निगाह पड़ गयी। रुक गये। लिखा था -
“वन विभाग द्वारा वर्ष 1899 में बनाया गया यह अत्यंत प्राचीन झूला पुल है। इस पुल पर एक साथ 1.5 कुंतल से अधिक वजन ले जाना या एक साथ दो व्यक्तियों का गुज़रना वर्जित है। वर्तमान समय में झूला पुल की स्थिति ख़राब होने के कारण पशुओं के लिये पूर्णतया वर्जित है। यदि कोई व्यक्ति इस पुल से पशुओं को ले जाता है, तो स्वयं व्यक्तिगत उत्तरदायी होगा। विभाग किसी भी प्रकार उत्तरदायी नहीं होगा।”
और ठीक इसी समय एक व्यक्ति अपने दो खच्चरों के साथ इसे पार कर गया।
यह पुल लकड़ी का बना है, जो लोहे के तारों पर टिका है। तार भी जीर्ण-शीर्ण और लकड़ी भी जीर्ण-शीर्ण। उस तरफ़ एक गाँव बसा है। बाकी जंगल है। अगर यह पुल टूट जाता है तो ग्रामीणों को डेढ़ किलोमीटर दूर जाना पड़ा करेगा टोंस पार करने और गाड़ी वगैरा पकड़ने के लिये।
लेकिन हमारे लिये तो यह फोटो खींचने की चीज थी। पुल पर चहलकदमी करना, तरह-तरह के मुँह बनाकर फोटो खींचना... बस, यही काम किया हमने यहाँ।
...
“चलो, तुम्हें ज़िंदगी का एक नया तज़ुर्बा दिखाता हूँ।”
दोनों एक साथ चिल्ला उठे - “नया तज़ुर्बा? कैसा तज़ुर्बा? बताओ, जल्दी बताओ। हम लेंगे इस तज़ुर्बे को। छोड़ेंगे नहीं।”
“मोरी में बैठकर चाय पी है कभी?”
“यह कैसा तज़ुर्बा है? भला मोरी में भी कोई बैठता है?”
“आज तुम्हें मोरी में चाय पिलाता हूँ। साथ में आमलेट खाओगे? या चावल खाओगे?”
मुँह बनाकर पूछा - “मोरी में?”
“हाँ, अगला गाँव इसीलिये प्रसिद्ध है।”
...
इस गाँव का नाम मोरी है। यहाँ से एक सड़क पुरोला जाती है, एक तालुका जाती है हर की दून की तरफ़ और तीसरी त्यूणी। बाकी दोनों मोरी में चाय पीने के रहस्य को समझ चुके थे।
यहाँ हिमाचल परिवहन की नेतवाड़-रोहडू बस मिली। इसके पीछे ही हिमाचल की ही हरिद्वार-रोहडू बस आ गयी। मैंने चायवाले से पूछा - “क्या हिमाचल की कोई और भी बस आती है इधर?”
“नहीं। ये दो बसें ही हैं।”
“कोई बस क्या बड़कोट या उत्तरकाशी भी जाती है हिमाचल की?”
“नहीं।”
“जानी चाहिये थी। हिमाचल की बसें उधर लेह तक जाती हैं। इधर कम से कम उत्तरकाशी तक तो जानी ही चाहिये थी। और उत्तराखंड़ की भी कोई बस मनाली या किन्नौर तक जानी चाहिये थी। अच्छी लगती हैं एक राज्य की बस दूसरे राज्य के सुदूर इलाके में।”
...
मोरी से पुरोला लगभग 30 किलोमीटर है। मोरी टोंस घाटी में है और पुरोला यमुना घाटी में। इनके ठीक बीच में एक जोत है, जो इन दोनों को जोड़ती है। नाम है जरमोला। मोरी से जरमोला तक चढ़ाई है और जरमोला से पुरोला तक उतराई। जरमोला लगभग 2000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। पूरा रास्ता चीड़ के जंगल का है, इसलिये यह दुनिया के सबसे खूबसूरत रास्तों में शुमार किये जाने लायक है। और सड़क के तो कहने ही क्या! आनंद ही आनंद!
गूजर लोग अपनी भैंसों को चराते-चराते इधर आ जाते हैं। सर्दियों में ये सहारनपुर में शिवालिक की पहाड़ियों में रहते हैं और गर्मी आते ही हिमालय चढ़ना शुरू कर देते हैं। अभी ये और भी आगे जायेंगे। सभी मुसलमान थे। सड़क से दूर थे, इसलिये हम नहीं मिल सके।
भैंसें भी खुश रहती होंगी यहाँ चीड़ के जंगल में। दो लीटर फ़ालतू ही दूध देती होंगी। कहती होंगी - नहलाने की भी ज़रूरत नहीं।
...
जरमोला।
एक दुकान है और एक पुलिस चौकी। थोड़ा नीचे फोरेस्ट रेस्ट हाउस है। मैं अधिकतम ऊँचाई पर ऐसी जगह की तलाश में था, जहाँ हम कुछ देर लोट मार सकें। रणविजय ने इच्छा ज़ाहिर की थी - “जंगल में कुछ देर लोटेंगे।”
हमारी यह इच्छा पूरी की कमलेश्वर महादेव की ओर जाते रास्ते ने। यह कच्चा रास्ता है और मेरी जानकारी के अनुसार मंदिर यहाँ से तीन किलोमीटर दूर है। रास्ते में कोई आवाजाही नहीं होती, इसलिये चीड़ के सूखे पत्तों की मोटी कालीन बिछी थी। ध्यान रखना, चीड़ के पत्ते बहुत फिसलन भरे होते हैं। अगर आपने इन पर ब्रेक मार दिये तो आपका फिसलना निश्चित है। रणविजय को इस बात से अवगत करा दिया। वो कहीं ब्रेक मारेगा, तो नरेंद्र को भी साथ ले पड़ेगा।
और यहीं इसी रास्ते पर आधा किलोमीटर चलने के बाद हम रुक गये। कालीन पर पसर गये। सन्नाटा कानों में ऐसे बज रहा था, जैसे...। जैसे कुछ नहीं। कमलेश्वर मंदिर ऐसे ही सन्नाटे में स्थित होगा। कुछ देर बाद हम वहाँ होंगे।
तभी ऊपर से एक आदमी आया। बैठ गया। नीचे राऊण के रहने वाले हैं और नेतवाड़ की तरफ़ धोला में अध्यापक हैं। सप्ताह में एक बार अपने गाँव आते हैं। यहाँ जरमोला तक गाड़ी से आते हैं, उसके बाद पैदल। कहते हैं - “राऊण तक भी सड़क बनी है, लेकिन वो पुरोला से है। जब तक गाड़ी से जरमोला से पुरोला भी नहीं पहुँचते, उससे पहले ही हम राऊण पहुँच जाते हैं। समय भी बचता है और पैसे भी।”
इन्होंने बताया कि यह कच्चा रास्ता असल में वन विभाग का है। यह आगे जंगल में घूमता-घामता आख़िर में राऊण में पुरोला वाली सड़क में मिलता है।
यह तो हमें ऐसी जानकारी मिल गयी जो और कहीं नहीं मिल सकती थी। यह तो ‘जंगल वाक’ के लिये सर्वोत्तम जगह है। सुबह जरमोला से कुछ खाना खाकर और लेकर चलो। कैमरा लटकाये रखो। और घूमते-घामते कमलेश्वर महादेव के दर्शन करके राऊण जा पहुँचो। वहाँ से पुरोला की गाड़ी मिल ही जायेगी। और यह पूरा जंगल चीड़ का है। या तो मानसून में आना, या उसके बाद, या सर्दियों में। गर्मियों में भी ठीक है, लेकिन हरियाली न्यूनतम होती है। गर्मियों में चीड़ के जंगल में आग भी लग जाया करती है।
हम चारों आधे-पौने घंटे तक बैठे बातें बनाते रहे। इन्होंने बताया कि कमलेश्वर महादेव के लिये थोड़ा-सा पैदल भी चलना पड़ता है। थोड़ा-सा कितना? आधा किलोमीटर। और मंदिर में आपके रुकने-खाने का भी इंतज़ाम हो जायेगा। यह सुनते ही हमारी लार टपक पड़ी। तीनों ने एक सुर में कहा - “वहीं रुकते हैं आज।”
तभी ठीक सिर के ऊपर भयानक बिजली गरजी। निगाह गयी तो चारों ओर काले बादल। मतलब बारिश होगी। मास्टरजी को अभी काफ़ी दूर जाना था। लेकिन जाते-जाते एक सलाह और देते गये - “आप आज जरमोला ही रुक लो। चाय की उसी दुकान पर।”
बूँदाबाँदी शुरू हो गयीं। जल्द ही यह मूसलाधार में बदल जायेगी। कमलेश्वर महादेव रह गया। बाइकें स्टार्ट कीं और लपककर चाय की दुकान पर जा पहुँचे। अच्छी तरह संभले भी नहीं थे कि मूसलाधार बारिश पड़ने लगी।
...



“नहीं जी, हमारे यहाँ तो रुकने का कुछ भी इंतज़ाम नहीं हो पायेगा। आपको या तो मोरी जाना पड़ेगा या पुरोला।”
यह ख़बर हमारे लिये थोड़ी-सी निराशाजनक थी। क्योंकि हम यहाँ जोत पर रुकना चाहते थे और बाकी पूरा दिन चीड़ के जंगल में बिता देना चाहते थे।
“चलिये, कोई बात नहीं। तीन चाय बना दो - तेज मीठे की और पकौड़ियाँ भी दे दो।”
चीड़ के जंगल वाली एक जोत हो, बारिश हो, चाय का प्याला हो, गर्मागरम पकौड़ियाँ हों, मोबाइल में नेटवर्क न हो, कैमरे चार्ज हों, मिट्टी और पत्थरों का चूल्हा हो, लकड़ी की आग हो, दूसरी चाय हो, पकौड़ियों की दूसरी प्लेट हो... कल्पनातीत। ऐसे स्थानों पर तो आगे का कार्यक्रम भूलकर घंटों बिता देने चाहिये।
लेकिन ऐसे में अक्सर एक दुर्घटना घट जाया करती है। जब आप पकौड़ियाँ खा रहे होते हैं तो आख़िरी टुकड़े में मिर्च मिलती है, उसका पता नहीं चलता और दुर्घटना घट जाती है। ऐसा आख़िरी टुकड़े में अवश्य होता है। लेकिन आज मैं बाल-बाल बच गया। छुपी हुई मिर्च मिल गयी और दुर्घटना टल गयी।
नोयडा का एक परिवार एक टैक्सी में घूम रहा था। टैक्सी से सिर निकालकर वे नरेंद्र से बात करने लगे। रणविजय भी शामिल हो गया। दोनों ने मुझे बुला लिया - “ये लोग घूमने निकले हैं। पूछ रहे हैं कि आगे कहाँ जायें और कहाँ ठहरें।”
यह प्रश्न मेरे लिये सदा ही मुश्किल रहा है। हमें तो जरमोला ही मनाली-रोहतांग से खूबसूरत लग रहा है। लेकिन सबको थोड़े ही ऐसा लगेगा? वे पुरोला की तरफ़ से आये थे।
“यमुनोत्री क्यों नहीं चले जाते?”
“नहीं, हम पैदल नहीं चल सकते।”
“आगे कोई ऐसा खास स्थान तो नहीं है, लेकिन आप आराम से जाना। हनोल का मंदिर देख लेना और रात त्यूणी में रुक लेना। कल शिमला चले जाना।”
“हाँ, हमें शिमला ही जाना है, लेकिन समझ नहीं आ रहा कि इधर से कैसे-कैसे जाएँ।”
“त्यूणी से सीधा रास्ता है शिमला का। कुछ ही घंटों में पहुँच जाओगे।”
हम तो जरमोला पर ही फ़िदा थे। बस चलता तो उन्हें ज़बरदस्ती कार से उतारकर चाय-पकौड़ियाँ खिलाते। लेकिन वे कार से बाहर तक नहीं निकले। शीशा इतना ही खोला कि आवाज़ इधर से उधर आ-जा सके। ऐसा प्रतीत हुआ कि यदि वे यहाँ कुछ देर रुकते तो उन्हें जरमोला के वातावरण से ही एलर्जी हो जाती और चाय से शुगर और सुबह की बनी पकौड़ियों से कैंसर भी हो जाता।
...
पुरोला का रास्ता भी शानदार है। अंधेरा कर दिया हमने यहाँ पहुँचते-पहुँचते। 300 का कमरा एक बार कहते ही 250 का मिल गया। यहाँ नेटवर्क भी था और नेट भी। खाने की सुध भूल गये। वो तो अच्छा हुआ कि मूसलाधार बारिश होने लगी और नज़दीकी ढाबे वाला बंद करके जा न सका, अन्यथा रात साढ़े नौ बजे पुरोला में कहाँ भोजन मिलता? यहाँ नेपाली दालभात मिला, जो मुझे सर्वाधिक नापसंद है।

हनोल के पास टोंस नदी



हनोल-मोरी पथ


चीड़ महावृक्ष की समाधि







1899 में बना पुल







(फोटोग्राफर: श्री रणविजय सिंह जी)



मोरी में हिमाचल परिवहन की हरिद्वार-रोहडू बस

मोरी-पुरोला मार्ग

गूजर लोग अपनी भैंसों और बकरियों के साथ जंगल में






बायें से: जाटराम, राऊण निवासी मास्टरजी, रणविजय और नरेंद्र

जरमोलाखाल पर चायवाले का लड़का

जरमोलाखाल




जरमोला से पुरोला की सड़क









अगला भाग: बाइक यात्रा: पुरोला से खरसाली


इस यात्रा के सभी भाग:
1. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी
2. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग दो
3. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग तीन (त्यूणी और हनोल)
4. बाइक यात्रा: कुमारहट्टी से जानकीचट्टी - भाग चार (हनोल से पुरोला)
5. बाइक यात्रा: पुरोला से खरसाली
6. बाइक यात्रा: खरसाली से दिल्ली
7. ‘कुमारहट्टी से जानकीचट्टी’ यात्रा की वीडियो



Comments

  1. राम राम जी, वाकई उत्तराखंड, व हिमाचल में दूर दराज के क्षेत्रो में एक से एक खुबसूरत स्थान हैं, जो की भीड़ भाड़ से दूर, प्रकृति की गोद में हैं.फोटोग्राफी शानदार हैं, धन्यवाद नयी नयी जगह की सैर कराने के लिए.

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  2. कम भीड-भाड वाली जगह अच्छी होती हैं

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  3. आखिरी से दूसरी फोटो अच्छी बन पड़ी है। बीच में आप नंबर भी फोटो में डालने लगे थे। उसका क्या हुआ ? वैसे ये नेपाली दाल भात क्या चीज है ? उसकी फोटो भी होती तो सही था। दाल भात मेरा पसंदीदा है। क्या पता नेपाली मुझे पसंद आये।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद विकास जी,
      फोटो पर नंबर डालना एक प्रयोग था... मुझे यह अच्छा नहीं लगा तो बंद कर दिया...
      नेपाली दाल-भात होता तो दाल-चावल ही है, लेकिन मुझे यह अच्छा नहीं लगता... पता नहीं क्यों...

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  4. बेफिक्री घुमक्कडी ही घुमक्कडी का असली मजा.....

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  5. "चीड़ के जंगल वाली एक जोत हो, बारिश हो, चाय का प्याला हो, गर्मागरम पकौड़ियाँ हों, मोबाइल में नेटवर्क न हो, कैमरे चार्ज हों, मिट्टी और पत्थरों का चूल्हा हो, लकड़ी की आग हो, दूसरी चाय हो, पकौड़ियों की दूसरी प्लेट हो... कल्पनातीत। ऐसे स्थानों पर तो आगे का कार्यक्रम भूलकर घंटों बिता देने चाहिये।" ...वाकई आपकी इन चंद लाइनों में जीवन की जरूरतें छिपी हुई है।
    हनोल के पास टोंस नदी का फोटो (1) और हनोल-मोरी पथ का फोटो (4) बहुत ही शानदार है।

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  6. श्री रणविजय सिंह जी

    श्री भी, और जी भी???

    क्या इरादे है गुरुदेव ???

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    1. क्या वो बलि के बकरे वाली फीलिंग आ रही है ना ?

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  7. मैं जरमोला वाले रेस्ट हाउस में रुका था एक रात। बड़ा दिलचस्प किस्सा है वो। पर इतना मजा आया कि पूछिये मत। वो भी बारिश का वक़्त था। जुलाई।

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    1. तो किस्सा सुनाने में कोताही क्यों?

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  8. मैं आपके जैसा तो नही लिख पाता न। आपको मेल करूँगा। फिर आप सुधार के लिख दीजियेगा।🤡

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  9. वाह वाकई नीरज भाई, अद्भुत यात्रा

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  10. पढ़ कर ऐसे लगा, जैसे मैं स्वयं वहाँ पहुंच गया होऊं👌👌🙏🙏

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