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डायरी के पन्ने- 33

नोट: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं।

1. हमारा एक व्हाट्स एप ग्रुप है- `घुमक्कडी... दिल से'। इसमें वे लोग शामिल हैं जो घूमते हैं और फिर उसे ब्लॉग पर लिखते भी हैं। लेकिन इसमें कुछ ऐसे भी लोग हैं जो साल में एकाध यात्रा-पोस्ट डाल देते हैं। इनमें दर्शन कौर धनोए प्रमुख हैं। कुछ तो ऐसे भी लोग हैं जो न लिखते हैं और न ही कहीं घूमने जाते हैं। ये लोग बेवजह आकर बेकार की बातें करते थे। मुझे इन लोगों से आपत्ति थी और एक बार ग्रुप छोड भी दिया था लेकिन एडमिन साहब अपने बेहद नजदीकी हैं, इसलिये पुनः शामिल हो गया।
एक दिन प्रदीप चौहान ने अपने ब्लॉग का लिंक शेयर किया- safarhaisuhana.blogspot.in। उधर रीतेश गुप्ता जी के ब्लॉग का यूआरएल है- safarhainsuhana.blogspot.in। जाहिर है कि दोनों में एक N का फर्क है। रीतेश गुप्ता भी इस ग्रुप में शामिल हैं। प्रदीप ने हम सबसे अपना ब्लॉग पढने और टिप्पणी करने की गुजारिश की थी। मेरा दूसरों के यात्रा-वृत्तान्त पर टिप्पणी करने का कडवा अनुभव रहा है, इसलिये आजकल मैं न कोई यात्रा ब्लॉग पढता हूं और न ही टिप्पणी करता हूं; एकाध को छोडकर। मैं जब कोई यात्रा-वृत्तान्त पढता हूं तो उसमें कमियां निकालने की कोशिश करता हूं। अक्सर कमियां मिल भी जाती हैं। सामने कमी होते हुए मुझसे वाहवाही नहीं होती। मैं उस कमी को उघाड देता हूं। यही गडबड हो जाती है। लेखक आरोप लगा देता है कि तू ज्यादा स्याणा बन रहा है। कई बार ऐसा हो चुका है, तो अब पढना बन्द कर रखा है।
अब जब प्रदीप ने गुजारिश की तो मैंने पूछा कि भाई, अगर कोई कमी मिली, तब क्या करना है? या केवल वाहवाही ही करनी है? प्रदीप ने कहा कि अगर कोई कमी मिले तो अवश्य बताना। कमियों के निराकरण से ही ब्लॉग सुदृढ बनता है। मैंने कहा- तो फिर अपने ब्लॉग का यूआरएल बदल लीजिये। अभी आपको ज्यादा समय नहीं हुआ है लिखते हुए तो यूआरएल बदलने से ज्यादा नुकसान भी नहीं होगा। क्योंकि आपसे पूरी तरह मिलता-जुलता यूआरएल रीतेश गुप्ता का है। रीतेश को लिखते हुए चार साल हो चुके हैं, आपको छह महीने हुए हैं। रीतेश की रैंक आपसे अच्छी है। कोई अगर आपके ब्लॉग को सर्च करेगा तो वो निश्चित ही रीतेश के यहां पहुंचेगा। इससे आपको नुकसान है। आज (26 जुलाई 2015) को अगर प्रदीप के ब्लॉग के यूआरएल (safarhaisuhana.blogspot.in) को गूगल पर सर्च किया जाये तो गूगल बाबा रीतेश के ब्लॉग (safarhainsuhana.blogspot.in) पर पहुंचा रहे हैं। निश्चित ही इससे प्रदीप को नुकसान है। कभी अगर आपकी रैंक अच्छी हो गई तो रीतेश को नुकसान पहुंचना शुरू हो जायेगा। कोई रीतेश के ब्लॉग को सर्च करेगा तो प्रदीप के यहां पहुंच जायेगा।
जानकारी के अभाव में मैंने कहा कि अगर रीतेश चाहे तो इस मामले में कानूनी कार्यवाही भी कर सकता है। रीतेश का ‘सफर हैं सुहाना’ ज्यादा पुराना है, इसलिये इस नाम पर उनका हक बनता है। फिर इस बात पर बहुत तर्क-वितर्क हुए। वेबसाइट-तकनीकी के जानकार मनु त्यागी ने अपने तर्क दिये और कम्प्यूटर-इंटरनेट के जबरदस्त ज्ञाता प्रकाश यादव भी आये और तब मुझे पता चला कि इस तरह के मामलों में कानूनी कार्यवाही नहीं होती। इस पर प्रदीप ने कहा- नीरज की तो बोलती बन्द हो गई है। यह बात मुझे अच्छी नहीं लगी। कुछ ठीक ही कहा होगा मैंने। कल अगर कोई नीरज जाट के नाम से ‘मुसाफिर हूं यारों’ ब्लॉग बना ले... और बना सकता है, इसमें कोई अडचन नहीं है... तो अगर कोई दूसरा ‘नीरज जाट’ सर्च करेगा तो गूगल उसे मेरे यहां ही पहुंचायेगा। यह सिलसिला तब तक चलता रहेगा, जब तक उसकी रैंक मुझसे अच्छी नहीं हो जाती। जब उसकी रैंक अच्छी हो जायेगी, तब अगर कोई मुझे सर्च करेगा तो वो सर्च इंजनों द्वारा उसके यहां भेज दिया जायेगा। एक सा नाम होने से एक पक्ष का नुकसान अवश्य होता है। इससे अच्छा है कि पहले ही कोई अलग सा नाम रखा जाये। यही बात प्रदीप को बताई तो उन्होंने कहा- नीरज की बोलती बन्द हो गई।
पिछले दिनों एक मित्र ने मुझसे कहा था कि एक पैरा लिखो और उससे सम्बन्धित फोटो उसके नीचे ही लगा दो। मुझे यह तरीका पसन्द नहीं है। लेकिन प्रदीप ने भी वही तरीका अपनाया है, जो मैंने; तो मुझे अच्छा भी लगा कि मेरा तरीका गलत नहीं है। थोडा सा पढा भी है, अच्छा वर्णन कर रखा है। सभी टिप्पणियां उन्हीं लोगों की हैं जो हमारे उस व्हाट्सएप ग्रुप में हैं। शुरू-शुरू में होता है ऐसा। ट्रैफिक नहीं बढता, टिप्पणियां नहीं आतीं; तो हमें लोगों को खींच-खींचकर लाना पडता है कि आओ और हमारे यहां टिप्पणी करो।
जब मैंने 2008 में ब्लॉग लिखना शुरू किया था, तब सोशल मीडिया का उतना क्षेत्र नहीं था। हमें दूसरे ब्लॉगों पर जा-जाकर टिप्पणियां करनी होती थीं। कोई कविता अच्छी न लग रही हो, किसी कहानी में कुछ भी दम न हो; फिर भी हमें वहां जाकर वाहवाही जरूर करनी होती थी। हम दस जगह टिप्पणियां करते थे, तब कहीं जाकर हमें भी बदले में एकाध वाहवाही मिल जाती थी। आहा! कितने खुश होते थे हम! कभी कभी तो हमें मेल भी करनी पड जाती थी कि हमने तुम्हारे यहां टिप्पणी की है, तुम भी हमारे यहां करो। अब तो सोशल मीडिया है। दोस्तों की संख्या बढाओ और फेसबुक पर चिपका दो। इसके अलावा कुछ नहीं करना।
लेकिन ये होते हैं हमारे यार-दोस्त। हम कुछ भी लिख देंगे, ये लोग तो आयेंगे ही और वाहवाही भी करेंगे। असली कमाई होती है कि सर्च इंजनों से आपके यहां कितने लोग आ रहे हैं। इनमें ज्यादातर वे लोग होते हैं जिन्हें आपके बारे में नहीं पता। ये लोग दोबारा भी आयें, इसके लिये आपका मैटीरियल काम आता है। मैटीरियल जानदार होगा, तो पहली बार आने वाला दोबारा भी आयेगा और फिर आपका नियमित पाठक बन जायेगा।

2. हिमांशु चौहान छत्तीसगढ के रहने वाले हैं। मेरे लद्दाख जाने से पहले उन्होंने भी बाइक से लद्दाख जाने की योजना बना रखी थी। उन्होंने मनाली सम्पर्क किया किसी ट्रैवल एजेंसी से। एजेंसी ने बताया कि वे बुलेट से यात्रा करायेंगे, साथ में सपोर्टिंग गाडी भी रहेगी, मैकेनिक और गाइड रहेगा ताकि कोई समस्या न आये। पैसे लगेंगे मात्र 60000 रुपये। चौहान साहब ने यह कार्यक्रम मुझे भी बताया और कहा कि निर्जन रास्तों पर गाइड और मैकेनिक बहुत काम के होते हैं। मैंने कहा कि मनाली-लेह रोड चौबीस घण्टे चलती है, कभी भी निर्जन नहीं होती।
खैर, मैं यात्रा करके वापस लौट आया। चौहान साहब ने खर्च पूछा। मैंने कहा- हम दोनों का पेट्रोल समेत सारा खर्चा लगभग 15000 रुपये हुआ। चौहान साहब 60000 को ठीक मान रहे थे लेकिन हमारे 15000 ने बता दिया कि साठ हजार बहुत ज्यादा है। उसके बाद हममें खूब बातें हुईं और एक दिन चौहान साहब दिल्ली आ गये अपनी बुलेट को ट्रेन में रखकर। अकेले ही लद्दाख की यात्रा करेंगे। उन्हें बुलेट में कुछ मॉडिफिकेशन कराना था, मैंने करोल बाग का रास्ता बता दिया। वैसे तो वे टैंट स्लीपिंग बैग भी ले जाना चाहते थे लेकिन मैंने सुझाव दिया कि अगर आप अपने टैंट में रहना चाहते हो तो ले जाओ, लेकिन उधर इन चीजों की कोई आवश्यकता नहीं है। खाना-पीना, रुकना-ठहरना सब मिल जाता है। खैर, वे बिना टैंट के निकल गये।
शुरू में योजना थी उनकी श्रीनगर के रास्ते जाने की। इधर वे दिल्ली से निकले और उधर सोनमर्ग के पास बादल फट गया, सडक बन्द हो गई। इसलिये उन्हें मनाकी के रास्ते जाना पडा। जाने के पहले मैंने एक सुझाव और दिया था कि कहीं और जाओ या न जाओ, लेकिन पेंगोंग झील अवश्य देखना।
कुछ दिन बाद उनका फोन आया- वे लेह में थे- कहा- ‘नीरज, पेंगोंग तो एकदम बकवास जगह है। वहां तो कुछ भी देखने लायक नहीं है। रास्ता भी एकदम बोरिंग है। उससे अच्छी तो मनाली-लेह सडक है। किसी ने अगर मनाली-लेह रोड देख ली, फिर लद्दाख में कुछ भी देखने लायक नहीं बचता। आपने ही कहा था कि पेंगोंग जरूर जाना, लेकिन वो जाने लायक जगह नहीं है।’
मैंने पूछा- ‘असली बात क्या है, वो बताओ।’ बोले- ‘भाई, बच्चों की याद आ रही है। मैं कल श्रीनगर पहुंच जाऊंगा, बाइक कोरियर से बुक करके फ्लाइट से रायपुर जाऊंगा।’
एक बार फिर मैं लद्दाख के प्रति नतमस्तक हो गया। बहुत सारे लोग लद्दाख जाते हैं। कुछ साहस का प्रदर्शन करने जाते हैं, कुछ वहां के सौन्दर्य का रसपान करने जाते हैं और बहुत से खाली हाथ लौट आते हैं। बहुत से लोग बंजर, सूखे, हरियाली-विहीन पहाडों, तूफानी शुष्क हवाओं को देखकर ही लौट आते हैं। उनके लिये निश्चित ही लद्दाख दुःस्वप्न है।
आप लद्दाख अकेले जा रहे हैं या ग्रुप में- आपमें दो चीजों का समावेश अवश्य होना चाहिये या फिर कम से कम एक विशेषता तो जरूर ही होनी चाहिये। पहली है, साहस। निर्जन इलाकों में अकेले घूमने का साहस। अक्सर ग्रुप में होने के बावजूद भी बहुत से लोग लद्दाख की निर्जनता को देखकर डर जाते हैं। दुर्गम और खराब रास्तों पर चलने का साहस। दूसरी विशेषता है, सौन्दर्यप्रेमी। आपमें ये विशेषताएं नहीं होंगी तो आपको लद्दाख के सूखे पहाड ही दिखेंगे और आपको खाली हाथ लौटना पडेगा।

3. अभी दो-तीन दिन पहले एक मित्र ने कहा कि तुम अकेले ही घूमा करो। तुम पत्नी के साथ घूम रहे हो, उसमें वो बात नहीं है जो अकेले घूमने में होती है। यह बात उन्होंने ऐसे समय में कही है जब लद्दाख यात्रा का प्रकाशन चल रहा है और यात्री कुछ बेहद दुर्गम स्थानों की यात्रा कर रहे हैं।
जब भी कोई परिवार या पति-पत्नी यात्रा पर जाते हैं तो स्वतः ही धारणा बन जाती है कि सारी जिम्मेदारियां पुरुष की हैं। अच्छे सुरक्षित होटल में रुकना, अच्छा सुरक्षित खाना खाना, अच्छे सुरक्षित स्थानों पर घूमना; यानी सबसे पहले ‘सुरक्षित’ शब्द आता है, फिर दूसरी कोई बात होती है। सुरक्षा के मानक पुरुष तय करता है और बाकी सदस्यों को उन्हीं मानकों के अन्दर रहना होता है।
हमारे मामले में ऐसा नहीं है। निशा की सुरक्षा मैं तय नहीं करता, बल्कि वो खुद ही तय करती है। हम पति-पत्नी नहीं बल्कि मित्र के तौर पर साथ घूमते हैं। अपनी-अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारियां दोनों स्वयं तय करते हैं। इसीलिये किसी निर्जन स्थान पर रुकने या अजनबी के साथ चलने में हमें कोई दिक्कत नहीं होती।
बहुत से लोग साहसिक यात्राएं करना चाहते हैं लेकिन फैमिली के साथ होने की वजह से नहीं करते। बहुत से लोग साहसिक यात्राओं से डरते हैं और अपना डर छुपाने के लिये कहते हैं कि फैमिली साथ है। बहुत सी महिलाएं साहसिक यात्राएं करना चाहती हैं लेकिन उन्हें अपने डरपोक संरक्षक की बात माननी पडती है। कुल मिलाकर यह धारणा गलत है कि फैमिली साथ होने से वे कोई भी साहसिक यात्रा नहीं कर सकते। वे ही लोग फिर डींग हांकते हैं कि अगर फैमिली न हो तो वे पर्वत को भी उखाडकर फेंक देंगे। मुझे भी बहुत से लोग सलाह देते हैं कि अब तू अकेला नहीं है, तेरी फैमिली है। अब तू ऐसी यात्राएं मत करा कर। अपनी नहीं, कम से कम निशा की तो सोच।
ऐसा नहीं है। निशा अपनी सुरक्षा खुद करने में सक्षम है। गिरेगी तो उठने में सक्षम है। शायद आपकी पत्नी भी ऐसी हो, लेकिन आपने अभी तक उसे पहचाना नहीं।

4. पिछले दिनों पैसेंजर ट्रेन यात्रा की योजना बनाई। चार दिन अपने हाथ में थे और तय किया कि गुजरात जाऊंगा। मुझे रेलवे स्टेशनों के बोर्ड के फोटो संग्रह करने का शौक है। अभी तक 2300 से भी ज्यादा स्टेशनों के फोटो मेरे पास संग्रहीत हो चुके हैं। जब कार्यक्रम बन गया तो उसमें आबू रोड-अहमदाबाद, महेसाना-वीरमगाम-राजकोट, सुरेन्द्रनगर-भावनगर-पालिताना और ढोला-महुवा मार्ग पर पैसेंजर ट्रेनों से यात्रा करनी थी और सभी स्टेशनों के फोटो खींचने थे। लेकिन उसी दौरान महुवा मार्ग पर बाढ आ गई और रेलवे लाइन क्षतिग्रस्त हो गई। इसलिये चलने से दो दिन पहले सुरेन्द्रनगर-भावनगर-महुवा मार्ग की यात्रा को रद्द करके राजकोट-सोमनाथ, कानालुस-पोरबन्दर और वंसजालिया-जेतलसर मार्ग को चुन लिया। उसी के अनुसार आरक्षण भी करा लिये। इसकी सूचना फेसबुक पर डाल दी। राजकोट-ओखा मार्ग पर मैंने पहले यात्रा कर रखी है, इसलिये इस बार उस मार्ग पर पैसेंजर यात्रा नहीं करूंगा।
लेकिन जो डर था, वही हुआ। जामनगर से मित्र उमेश जोशी का फोन आया कि अगर गुजरात आओगे तो एक दिन उनके यहां अवश्य रुकना है। मैंने उन्हें समझाया कि जामनगर से होकर गुजरूंगा अवश्य लेकिन रुक नहीं सकता। वे नाराज हो गये और कहने लगे कि फिर तो गुजरात ही मत आओ। जब भी मैं पैसेंजर ट्रेन यात्राएं करता हूं तो बहुत सारे प्रतिबन्धों का पालन करना पडता है। पहला प्रतिबन्ध है कि केवल पैसेंजर ट्रेन से ही यात्रा करना। कुछ फास्ट पैसेंजर ट्रेनें होती हैं, वे प्रत्येक स्टेशन पर नहीं रुकतीं। उनमें यात्रा नहीं करता। दूसरा प्रतिबन्ध है कि केवल दिन में ही यात्रा करनी है ताकि कोई भी स्टेशन न छूटे। हां, अगर पहले से उस मार्ग पर यात्रा कर रखी है तो इधर से उधर जाने के लिये रात में यात्रा कर लेता हूं। जैसे कि महेसाना से राजकोट दिन में पैसेंजर से यात्रा की, सभी फोटो ले लिये; अगले दिन अहमदाबाद से आबूरोड मार्ग पर यात्रा करनी है तो राजकोट से अहमदाबाद रात में ही आना पडेगा। तीसरा प्रतिबन्ध होता है ट्रेनों के समय का। हालांकि पश्चिम रेलवे की ट्रेनें समय पर ही चलती हैं लेकिन फिर भी मैं दूसरी ट्रेन पकडने के लिये कम से कम दो घण्टे का गैप रखने की कोशिश करता हूं। अब अगर मैं जामनगर में उस ट्रेन को छोड देता तो फिर आगे का सारा कार्यक्रम बिगडता या फिर मुझे पहले ही कार्यक्रम बनाते समय जामनगर में एक दिन रुकने का ध्यान रखना पडता। लेकिन उमेश भाई से इतनी नजदीकी है कि अगली बार कभी गुजरात जाना होगा, तब भी एक दिन जामनगर में रुकना पडेगा। एक नौकरीपेशा इंसान के लिये एक दिन की छुट्टी पाना भी बडी बात होती है। उस एक दिन की छुट्टी में भी कार्यक्रम इस तरह बनाया जाता है कि सूर्योदय से सूर्यास्त तक यानी दिन के उजाले में कैसे अधिकतम फोटो खींचे जायें। ऐसे मामले में एक-एक मिनट कीमती हो जाता है।
पूरे भारत में मेरे मित्र हैं जो चाहते हैं कि मैं उनके यहां जाऊं। जितनी भी यात्राएं करूं, कुछ समय उनके यहां अवश्य रुकूं। मित्रों का प्रेम अपनी जगह है लेकिन एक-एक मिनट का प्रबन्धन भी अपनी जगह है। अगर चार दिन की यात्रा में एक दिन भी एक स्थान पर रुका रहूं तो इसका क्या असर होगा, आप स्वयं अन्दाजा लगा लीजिये। अगर रात में किसी शहर में रुकना है तो उस शहर के मित्रों के यहां चले जाना तो ठीक है लेकिन दिन में यह हमेशा सम्भव नहीं होता। मित्रों को भी ऐसा सोचना चाहिये। जो भी यात्राएं हैं, उनमें बाधा बनने की बजाय आप थोडी देर साथ दे सकते हैं।
यह जिक्र मैंने फेसबुक पर कर दिया। सभी मित्रों ने मुझे लताडा कि वो तुझे इतना मानता है और तू अपनी अकड में है। दो घण्टे के लिये उनके यहां चला जायेगा, तो क्या बिगड जायेगा? वास्तव में मैं इस बात से इतना अपसेट हुआ कि अगले दिन आश्रम एक्सप्रेस छोड दी। आश्रम एक्सप्रेस छूटी नहीं थी, बल्कि छोडी थी। अब तक मैंने फैसला कर लिया था कि अपनी आगामी यात्राओं की सूचना फेसबुक पर नहीं दिया करूंगा। न सूचना दूंगा, न मित्र बाधा बनेंगे। हालांकि पहले सूचना प्रसारित कर देने से मुझे भी बडे फायदे हैं। जैसे कि लद्दाख जाते समय अर्णव मगौत्रा जम्मू में मिले। उन्होंने हमारे कार्यक्रम में कोई बाधा खडी नहीं की। हमने राजौरी की तरफ जाने को कहा तो बोले कि अखनूर तक मैं भी साथ चलूंगा। फिर हम पटनी टॉप की तरफ चल दिये, तब भी कुछ दूर तक साथ रहे। दो साल पहले वाराणसी से लखनऊ तक पैसेंजर में यात्रा की तो दो मित्र अलग अलग स्थानों से अपना काम छोडकर कुछ दूर मेरे साथ चले। उन्होंने घर आने का निमन्त्रण दिया लेकिन मित्रता की आड में जबरदस्ती बिल्कुल नहीं की कि ट्रेन छोडो और घर चलो।
अक्सर मित्र साथ चलते हैं लेकिन अगर बाधा खडी भी करने लगेंगे तो अच्छा है कि सूचना प्रसारित की ही न जाये। बाद में पता चलेगा, चलता रहे। तो ट्रेन छोड दी और कह दिया कि ट्रेन छूट गई।

5. अब बात करते हैं जीपीएस के बारे में। कई बार पहले भी इसके बारे में बता चुका हूं, आज फिर बता देता हूं। मैं जब दुर्गम स्थानों का जीपीएस डाटा पेश करता हूं तो अक्सर मित्र पूछते हैं कि जब वहां मोबाइल में नेटवर्क नहीं आ रहा था तो जीपीएस से कैसे डाटा लिया?
तो पहली बात याद रखिये कि जीपीएस और नेटवर्क का कोई सम्बन्ध नहीं है। जीपीएस यानी ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम। यह एक अलग डिवाइस होती है या कहिये कि अलग हार्डवेयर होता है जो मोबाइल और कुछ कैमरों में फिट होता है। कुछ अलग से जीपीएस डिवाइस भी आती हैं। अच्छी डिवाइस सात-आठ हजार तक की आती है। मोबाइलों में तो कामचलाऊ होता है। यह धरती के चारों तरफ अन्तरिक्ष में घूम रहे सैटेलाइटों से सम्पर्क स्थापित करता है, फिर कुछ कैलकुलेशन करता है और उसके बाद डाटा बता देता है। जीपीएस केवल और केवल एक ही चीज बताता है और वो है डिवाइस की इस धरती पर स्थिति। अगर डिवाइस आपके पास है तो आपकी स्थिति बता देगा कि इतने अक्षांश पर, इतने देशान्तर पर और इतनी ऊंचाई पर आप खडे हो। इसके अलावा जीपीएस कुछ नहीं बताता।
इस डाटा के आधार पर दूसरे बहुत से काम किये जाते हैं। पहला काम होता है इस डाटा को किसी नक्शे पर दिखाना। यह काम मोबाइल करता है। मोबाइल में नक्शा लोड करने के दो तरीके हैं। एक तो यह कि इंटरनेट चालू रखो। जब भी हमें जरुरत पडेगी, हम गूगल मैप खोलेंगे और साथ के साथ नक्शा डाउनलोड करते रहेंगे। जहां कहीं नेटवर्क नहीं होगा, वहां गूगल मैप डाउनलोड नहीं होगा। दूसरा तरीका है कि घर बैठकर एक बार पूरा नक्शा मोबाइल के मेमोरी कार्ड में सेव कर लो। फिर आप कहीं नेटवर्क के बाहर जायेंगे तो वो प्री-लोड नक्शा आपके काम आयेगा। नक्शा मोबाइल में लोड हो गया तो जीपीएस डाटा की सहायता से आपका मोबाइल आपकी लोकेशन को उस नक्शे पर दिखा देता है।
याद रखिये- किसी स्थान पर आपके मोबाइल में नेटवर्क नहीं आ रहा हो या मोबाइल में पहले से नक्शा लोड न हो, तब भी जीपीएस अपना काम करता रहेगा। चूंकि जीपीएस अन्तरिक्ष में घूम रहे सैटेलाइटों से डाटा लेता है, इसलिये जब आप किसी इमारत में हों, ऊंची इमारतों के बीच हों या संकरे पहाडों के बीच हों, तो हो सकता है कि सैटेलाइटों से सम्पर्क न हो और डाटा न मिले। खुले में होंगे तो हमेशा जीपीएस काम करेगा। हां, एण्ड्रॉयड फोनों में ‘एयरप्लेन मोड’ में जीपीएस काम नहीं करता। मोबाइल को एयरप्लेन मोड में डाल देने का अर्थ है कि अब मोबाइल किसी भी प्रकार के सिग्नल नहीं भेज सकता।
कुछ कैमरों में भी जीपीएस होता है। मेरे कैमरे में यह सुविधा है। इसे ऑन करके फोटो खींचेंगे तो जीपीएस द्वारा लिया गया हमारी स्थिति का डाटा भी फोटो के साथ लोड हो जायेगा। बाद में हम उन फोटुओं को गूगल मैप पर भी देख सकते हैं कि हमने यह फोटो इस स्थान पर लिया था। मुझे इसकी आवश्यकता नहीं पडती, जीपीएस बैटरी बहुत खाता है, इसलिये मैं इस विकल्प को हमेशा बन्द ही रखता हूं।
पोजीशनिंग की एक और तकनीक है- नेटवर्क आधारित पोजीशनिंग। जिन मोबाइलों में जीपीएस नहीं होता, उनके लिये यह तकनीक काम की है। आपको पता होगा कि शहरों में आपका मोबाइल एक साथ कई-कई टावरों के सम्पर्क में रहता है। अब मोबाइल कैलकुलेशन करता है कि वो फलां टावर से इतनी दूरी पर इतने एंगल पर है, फलां टावर से इतनी दूरी पर है। इससे वो धरती पर अपनी स्थिति जान सकता है और उसे नक्शे पर दिखा सकता है। नेटवर्क नहीं होगा तो आपकी स्थिति नहीं बताई जा सकती। इसमें अक्सर एक किलोमीटर से तीन-चार किलोमीटर तक की एक्यूरेसी का डाटा मिलता है। आपके नक्शे में एक वृत्त बन जायेगा कि आप इसके केन्द्र से तीन-चार किलोमीटर दूर तक कहीं भी हो सकते हैं। जबकि सैटेलाइट आधारित पोजीशनिंग में एक मीटर तक की एक्यूरेसी की पोजीशन भी बताई जा सकती है।
मैं जीपीएस का प्रयोग कहां-कहां करता हूं? मैंने कभी भी प्री-लोड नक्शे का प्रयोग नहीं किया है। पूरे भारत में एयरटेल का अच्छा नेटवर्क मिलता है, मेरा काम बखूबी हो जाता है। गूगल मैप खोलता हूं, वो अपने आप जीपीएस से सांठ-गांठ करके डाटा ले लेता है और मेरी स्थिति दिखा देता है। मुझे सबसे ज्यादा इसकी आवश्यकता शहरों में पडती है जब मैं रास्ता भटक जाता हूं। दुर्गम स्थानों पर मुझे रास्ता ढूंढने की आवश्यकता नहीं पडती। ट्रैकिंग करता हूं, तो ट्रैक बना होता है, बस उसी पर चलना होता है। फिर गूगल मैप पर ट्रैकिंग रूट नहीं है। प्री-लोड मैप में भी ज्यादातर सडकों का ही नक्शा होता है, पगडण्डियों का नहीं। अक्सर ऐसी स्थिति में मैं जीपीएस का प्रयोग ऊंचाई नापने में करता हूं। नक्शा हो या न हो, नेटवर्क हो या न हो; जीपीएस हमेशा काम करता है। इसलिये जीपीएस बता देता है कि मैं इतने अक्षांश पर हूं, इतने देशान्तर पर हूं और इतनी ऊंचाई पर खडा हूं।
आजकल सभी के पास एण्ड्रॉयड फोन हैं। इन फोनों में जीपीएस भी होता है। आप इसके बहुत फायदे उठा सकते हैं। प्ले स्टोर पर बहुत सारे एप्लीकेशन मिल जायेंगे, जो जीपीएस के आधार पर काम करते हैं। मान लो मैंने एक एप्लीकेशन डाउनलोड कर रखा है, वही एप्लीकेशन मेरा मित्र भी लोड कर लेगा तो हम आपस में जुडकर अपनी लाइव लोकेशन शेयर कर सकते हैं। मैं जान सकता हूं कि मेरा मित्र इस समय कहां है, किस सडक पर चल रहा है, कितनी रफ्तार से चल रहा है आदि। अपनी घरवाली को मोबाइल देकर मैं निश्चिन्त हो सकता हूं। घरवाली भले ही झूठ बोले लेकिन जीपीएस कभी झूठ नहीं बोलेगा। वो चांदनी चौक की कहकर अगर सरोजनी नगर मार्किट में चली जायेगी तो मैं बिना पूछे सब जान सकता हूं। घर बैठे ही यह भी देख सकता हूं कि वो किस दुकान पर शॉपिंग कर रही है और उसे महंगी दुकान पर शॉपिंग करते रंगे हाथों भी पकड सकता हूं। मोबाइल चोरी हो जाये तो कम्प्यूटर पर उसकी लाइव लोकेशन देख सकता हूं और चोर को आसानी से पकड सकता हूं। जब तक मोबाइल की बैटरी रहेगी, जीपीएस आपको डाटा देता रहेगा। कार में पांच छह हजार का एक मोबाइल छुपा दीजिये, उसका सम्बन्ध कार की बैटरी से कर दीजिये ताकि मोबाइल हमेशा चार्ज रहे। फिर आपके बच्चे, आपके मित्र आपकी कार को कहां ले जा रहे हैं, आप घर बैठे अपने मोबाइल में उसकी लाइव लोकेशन देख सकते हैं। कार चोरी हो जाये, तब तो यह बेहद काम आयेगा। हां. याद रहे कि लोकेशन शेयरिंग नेटवर्क आधारित होती है। एक मोबाइल में अगर नेटवर्क नहीं होगा तो शेयरिंग नहीं हो सकती।

6. अक्सर मित्र पूछते हैं कि उनका मन यात्रा-वृत्तान्त लिखने को करता है लेकिन लिख नहीं पाते। क्या करें? पहली बात तो ये है कि इसमें निराश होने की बात नहीं है। हर आदमी की अपनी-अपनी योग्यता होती है। कोई लिखने में माहिर होता है तो कोई दूसरे कामों में। हां, लगातार अभ्यास से नई-नई योग्यताएं विकसित की जा सकती हैं। अगर मैं लिखने में माहिर हूं तो यह जरूरी नहीं है कि गाने में भी माहिर हूंगा। तो सबसे पहले अपनी रुचि देखिये कि आप किस क्षेत्र में ज्यादा अग्रणी हैं, फिर उसे विकसित कीजिये। अगर आप लिखना ही चाहते हैं तो अपनी शैली में लिखिये। प्रेमचन्द ने शानदार लिखा। उनकी अपनी शैली थी। अगर आप उनके जैसा लिखने की कोशिश करेंगे तो यकीन मानिये, बेहद खराब लिखेंगे। अपनी शैली वही है कि जो मन में आये, बिना किसी लाग-लपेट के लिख डालो। शब्दों के चयन के चक्कर में मत पडिये। कल्पना कीजिये कि आपके सामने आपका मित्र बैठा है, आप उससे बतिया रहे हैं। तो जिन शब्दों का चयन आप आपसी बातचीत में करते, उन्हीं शब्दों को लिख डालिये। गालियों का चयन करते, तो गालियां ही लिख डालो। किसी को उल्लू का पट्ठा, गू-गोबर कहते तो वही लिख डालो। एक बार अपने मन-मुताबिक लिखना आ जायेगा, फिर तो ऐसा प्रवाह बना करेगा कि आप रोके से भी नहीं रुकोगे।
ये तो हुई लिखने की बात, शब्दों के चयन की बात। लेकिन यात्रा-वृत्तान्त लिखने में और भी कुछ बातों का ध्यान रखना होता है मसलन भूगोल और इतिहास आदि। जैसे कि धौलाधार भी हिमालय में है और शिवालिक भी हिमालय में है। अब अगर मैं कहूं कि हरिद्वार में मंशा देवी मन्दिर धौलाधार पहाडियों में बना हुआ है तो यह गलत होगा। आपको किसी खास पहाडी श्रंखला का नाम नहीं पता तो 2400 किलोमीटर में हिमालय फैला हुआ है, आप बेधडक हिमालय शब्द प्रयोग करो जैसे कि मंशा देवी हिमालय की पहाडियों में बना हुआ है। आपको मारवाड और मेवाड का भेद नहीं पता तो आप बेधडक राजस्थान शब्द प्रयोग करो। आपको औरंगजेब का नाम नहीं ध्यान तो आप अकबर और शिवाजी का युद्ध नहीं करा सकते, इसके बजाय शिवाजी और मुगलों की लडाई करवा सकते हो। अगर विन्ध्याचल एक्सप्रेस भोपाल से कटनी, जबलपुर होते हुए इटारसी जाती है, तब भी आप नहीं कह सकते कि भोपाल और इटारसी के बीच में कटनी और जबलपुर आते हैं। तथ्यों का ध्यान रखेंगे, आपका लेखन जानदार होता चला जायेगा।
तथ्यों का ध्यान कैसे रखें? यह भी अभ्यास की बात है। यात्रा से आने बाद हगने-पादने की खबर लिखने की बजाय कुछ अलग सा लिखने की कोशिश कीजिये। कोई पाठक अगर किसी गलती की तरफ इशारा कर रहा है तो सफाई देने के बजाय उस गलती को ढूंढ निकालिये। आपको अगर पक्का पता है कि मंशा देवी धौलाधार में स्थित है और कोई पाठक इशारा करता है कि यह आपने गलत लिखा है तो आपके पास मौका है धौलाधार और शिवालिक को खोद निकालने का। ढूंढ निकालिये कि धौलाधार कहां है, कहां से शुरू होती है, कहां खत्म होती है? शिवालिक कहां है? क्या कहीं शिवालिक और धौलाधार मिलती भी हैं? अगर किसी ने कह दिया कि धौलाधार हिमाचल में है तो याद रखिये, आप फिर गलती करेंगे। आप अगली बार शिमला जायेंगे, तो शिमला को धौलाधार की पहाडियों पर बैठा देंगे। किन्नौर जायेंगे, तो बतायेंगे कि किन्नौर धौलाधार में स्थित है। पीर पंजाल का नाम आते ही कश्मीर ध्यान में आता है लेकिन रोहतांग भी पीर पंजाल में ही स्थित है। इन सब बातों का आपको लगातार अध्ययन करते रहना पडेगा। जितना अध्ययन करेंगे, रोज नई नई बातें पता चलती जायेंगी। इन नई बातों को जब आप अपने लेखन में शामिल करेंगे, तब पाठक भी चकित हो जायेंगे।
कुछ मित्र पूछते हैं कि अच्छे फोटो कैसे खींचें? मैंने पिछले दिनों फोटोग्राफी पर पोस्ट लिखनी शुरू की थी। हां, याद रखिये कि फोटोग्राफी हो या लेखन; कमियां उजागर होने से ही सुधरते हैं। मैंने मित्रों द्वारा भेजे गये फोटुओं की कमियां उजागर करनी शुरू कर दी थीं। अब मुझे नहीं पता कि कमी उजागर करने के लिये किन शब्दों का प्रयोग करना चाहिये। मैं कल्पना करता कि वो मित्र मेरे सामने बैठा है और मैं उसे बता रहा हूं कि इसमें यह होना चाहिये था और यह नहीं होना चाहिये था। इसका बहुत से मित्रों ने बुरा माना कि मैं उनके सर्वोत्तम फोटो की कमियां बता रहा हूं। कुछ ने तो मुझसे व्यक्तिगत रूप से भी कहा, उन्हें मैं अपने तरीके से सन्तुष्ट कर देता था कि कमियां उजागर करना ही इसका लक्ष्य है। लेकिन एक बार एक मित्र ने ‘रंगों का दंगा’ नामक्र फेसबुक फोटोग्राफी पेज पर जाकर लिखा कि नीरज के यहां जाकर अपनी बेइज्जती करवाने से अच्छा है कि आपके यहां अपने फोटो डाले जायें। तभी से मैंने यह काम बन्द कर दिया।
अभी पिछले दिनों डॉ. सुभाष शल्य जी ने पूछा कि उनके फोटुओं में धुंध आती है जबकि मेरे फोटुओं में नहीं आती। मैंने बताया कि इसका कारण अल्ट्रावायलेट या दूसरी किरणें होती हैं। बडे कैमरों के लिये तो फिल्टर भी आता है जो इस तरह की किरणों को सोख लेता है और फोटो साफ-सुथरे आते हैं। कुछ धुंध फोटोशॉप से भी दूर की जा सकती है। मैं फोटोशॉप का इस्तेमाल करता हूं। कुछ वास्तव में वातावरण में धुंध व धूल होती भी है, जो पूरी तरह दूर नहीं की जा सकती। इसके अलावा फोटोग्राफी में दूसरी चीज होती है विषयवस्तु जो फोटो को जीवन्त बनाती है। इसमें जीवित प्राणी आते हैं और सबसे ज्यादा बैकग्राउण्ड आती है। आपको अपने से किसी छोटे सब्जेक्ट की फोटो खींचनी है तो कैमरा अपनी सीध में नहीं बल्कि उसकी सीध में रखिये ताकि बैकग्राउण्ड भी आये। भले ही आपको इसके लिये जमीन पर लेटना ही क्यों न पडे। किसी जानवर की फोटो लेनी है तो उसकी आंख के लेवल में कैमरा रखिये। तीसरी बात, किसी दूसरे का खींचा गया फोटो आपको अच्छा लगता है, तो आपको स्वयं मंथन करना पडेगा कि इसमें ऐसी क्या बात है जो अच्छी लग रही है और ऐसा फोटो पिछली बार आपने भी खींचा था, वो उतना प्रभावशाली नहीं आया था। क्यों? यह सब आपको स्वयं ही देखना पडेगा। दूसरे का जो फोटो आपको अच्छा लग रहा है, केवल वो एक फोटो ही आपका गुरू बन सकता है। केवल वो एक फोटो ही आपको बहुत सारी प्रेरणा दे सकता है। फिर भी अगर समझ में न आये तो फोटोग्राफर या किसी जानकार से बेझिझक पूछिये कि ऐसा फोटो हमने भी खींचा था, वो अच्छा नहीं आया लेकिन यह फोटो क्यों अच्छा है? इसमें सूर्यास्त इतना शानदार दिख रहा है, क्यों? हमने लाख कोशिश कर ली, उसी लोकेशन पर जाकर पचास फोटो लिये, लेकिन इसके जैसा प्रभाव नहीं दिखा पाये, क्यों? तब आपको जवाब मिलेगा जो निश्चित ही आपके काम का होगा।
फोटुओं का ढेर लगाने की बजाय ‘एक फोटो’ पर फोकस कीजिये। मैं सप्ताह भर की, दस दिन की यात्रा से लौटता हूं तो वो ‘एक फोटो’ कभी नहीं मिलता। हर फोटो में हमेशा कुछ न कुछ कमी दिखती है। लगता है कि यह इससे भी अच्छा हो सकता है। जैसे कि पिछली पोस्ट में एक फोटो छपा था जो बिल्कुल पेण्टिंग की तरह लग रहा था। यह निःसन्देह शानदार फोटो है। बहुत से मित्रों ने भी इसे सराहा है लेकिन मुझे पता है कि इसमें क्या कमी है। पहली कमी है कि इसे मैंने बिना ट्राईपॉड के लिया था। पांच मिनट भी नहीं लगते ट्राइपॉड लगाने में और इससे भी अच्छा फोटो आता। शाम का समय था, सूरज मेरे पीछे था और सामने वाले पहाड पर धूप पड रही थी। उसके और हमारे बीच में जो पहाड थे, वहां छांव थी। ऊपर मौसम खराब था। बडा ही अजीब सा वातावरण था। यानी हमारे सामने के दृश्य में एक थोडे से हिस्से पर धूप पड रही थी और वो अन्य सभी से ज्यादा चमक रहा था। अगर हम इसकी चमक को कुछ कम करके इसके रंगों को उभारने की कोशिश करते तो छांव वाला हिस्सा काला हो जाता। हर कैमरे की एक लिमिटेशन होती है, हमारे कैमरे की भी लिमिटेशन थी। मैंने अपनी तरफ से कई फोटो लिये कि आसपास के पहाड गहरे भी न पडें और धूप वाले हिस्से के रंग भी अच्छे दिखें लेकिन सन्तुष्टि नहीं मिली। अगर हम पन्द्र-बीस मिनट धूप कम होने का इंतजार करते तो ऊपर मंडरा रहे बादल उस हिस्से पर भी छांव कर देते और वह अन्य सभी पहाडों के जैसा ही दिखता। आदर्श स्थिति तब होती जब सूरज डूबने लगता, आसमान में लालिमा छा जाती और वो लालिमा उस पहाड पर पडती।

7. एक मित्र हैं विश्वास सिंधु। साइकिलिस्ट हैं। एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा कि दारचा से पदुम तक साइकिलिंग के कितने चांस हैं। मैंने कहा कि साइकिल चलाई जा सकती है लेकिन साइकिलिस्ट एक तो सिर फुडवाने को तैयार रहना चाहिये, फिर उसे पतली सी पहाडी पगडण्डी पर साइकिल चलाने का अनुभव भी होना चाहिये। उन्होंने कहा कि अनुभव है। मैंने कहा चले जाओ।
कुछ दिन पहले उन्होंने मुझसे फिर सम्पर्क किया। बोले कि एक साइकिल रेस का आयोजन कर रहे हैं- हिमाचल में बीड से बिलिंग, फिर राजगुंधा और आगे बरोट तक। गौरतलब है कि बीड से बिलिंग तक सडक बनी है और राजगुंधा से बरोट तक भी सडक बनी है लेकिन बिलिंग से राजगुंधा तक सडक नहीं है। एक पगडण्डी ही है और रास्ता उतराई का है, घोर जंगल है। यह धौलाधार का वो इलाका है, जहां सबसे घना जंगल है। भालू और तेंदुए खूब होते हैं यहां। बिलिंग पैरा ग्लाइडिंग के लिये विश्व प्रसिद्ध है। बिलिंग से उस तरफ का इलाका भंगाल कहा जाता है। पहले छोटा भंगाल है, फिर थमसर जोत पार करके बडा भंगाल है।
मैंने इसकी सूचना फेसबुक पर डाल दी- “साइकिलिस्टों... तैयार हो जाओ... एक साइकिल रेस का आयोजन हो रहा है हिमाचल में... दिसम्बर में... इनाम हैं प्रथम आने वाले को 51000 रुपये, दूसरे को 31000 रुपये और तीसरे को 21000 रुपये... बाकी सभी को टी-शर्ट...।” यात्रा 5 से 7 दिसम्बर तक होगी। असल में साइकिलिंग तो 6 दिसम्बर को होगी लेकिन पहला दिन परिचय और आखिरी दिन विदाई का होगा।
मैं इस यात्रा में भाग तो नहीं लूंगा लेकिन वहां जाऊंगा जरूर। मेरे कुछ मित्रों ने इसमें जाने की इच्छा जताई है। प्रवेश शुल्क 6500 रुपये है। मैं उन सभी मित्रों को बताना चाहता हूं कि केवल इस वजह से इसमें भाग न लें कि नीरज जायेगा। पतली-पथरीली-पहाडी पगडण्डी पर साइकिल चलाना आसान नहीं है। जो साइकिलिस्ट हैं, अनुभवी हैं, केवल वे ही इसमें भाग लें। विश्वास सिन्धु पहले भी इस तरह के कार्यक्रमों का आयोजन कर चुके हैं, इसलिये उम्मीद की जानी चाहिये कि सभी व्यवस्थाएं ठीक ही होंगी। साथ ही एक शर्त और भी है कि आपका सुरक्षा बीमा भी होना चाहिये। बिलिंग से राजगुंधा तक का सारा इलाका घोर जंगल है। अगर कोई दुर्घटना भी होती है तो प्राथमिक उपचार तो किया जा सकता है लेकिन गम्भीर दुर्घटना में यहां से बाहर निकालना बडा मुश्किल काम होगा।
आपमें से बहुत से साइकिलिस्ट भी होंगे, आपके मित्र साइकिलिस्ट होंगे। इसकी सूचना उन तक पहुंचाईये और अधिक से अधिक संख्या में पहुंचकर रेस को सफल बनाईये। मैं भी वहां रहूंगा। साइकिल तो नहीं चलाऊंगा लेकिन बिलिंग और राजगुंधा के बीच में ट्रैकिंग तो की जा सकती है। बीड से बरोट की कुल दूरी लगभग 55 किलोमीटर है। अपनी साइकिल अपने साथ लानी पडेगी। बीड पहुंचने के लिये दो विकल्प हैं- या तो ट्रेन या फिर बस। ट्रेन से आना चाहते हैं तो पठानकोट सर्वोत्तम रहेगा। या फिर अम्बाला, चण्डीगढ भी ठीक हैं। पठानकोट, अम्बाला और चण्डीगढ से कांगडा और आगे बैजनाथ के लिये बसें मिलती हैं। बैजनाथ से बीड की भी बसें चलती हैं। वैसे पठानकोट से नैरो गेज की कांगडा रेल भी चलती है जो आपको बैजनाथ पहुंचा देगी। अगर जोगिन्दर नगर की ट्रेन पकडी तो बीड के लिये नजदीकी स्टेशन ऐहजू है। बैजनाथ से ऐहजू और आगे बीड तक मैदानी रास्ता है, आप साइकिल चलाकर भी घण्टे भर में पहुंच जाओगे। दिल्ली से सीधे बैजनाथ के लिये हरियाणा रोडवेज और हिमाचल रोडवेज की खूब बसें चलती हैं जो शाम को दिल्ली कश्मीरी गेट आईएसबीटी से चलकर सुबह तक बैजनाथ पहुंचा देती हैं।
इस बारे में अधिक जानकारी और रजिस्ट्रेशन के लिये इस लिंक पर क्लिक करें।



Comments

  1. हा हा हा। ईस बार तो भाई खूब अच्छे डायरी के पन्ने लिखे हैं । झूठी वाह वाह नहीं कर रहा वाकई रोचक अनुभव और जानकारी लिखी है ।

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  2. 60000/- की यात्रा केवल 15000/- रूपये में, आपने तो एक यात्रा में ही 100 C.C. बाइक के पैसे बचा लिए।

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  3. पिछले 15 दिनों में आपकी शुरू से आखिर तक रेल यात्राओं को छोड़ सारी पोस्टें पढ़ी!
    श्रीखंड महादेव ने रोमांचित किया
    साइकिल लद्दाख यात्रा शानदार थी
    पर्सनल डायरी है तो पर्सनल पर आपके अनुभव और रोजनामचे शानदार रहे
    लद्दाख बाइक यात्रा अपना पूरा काम कर रही है(सर में कहीं से अव्वाज आ रही है "चलो चलो,कुछ करो"

    रेल यात्राएं शीघ्र पढूंगा

    सभी पोस्टें पुनः दोबारा पढूंगा

    शुरुआत कराइये मेरी भी

    इसी हफ्ते नैनीताल का प्रोग्राम है
    आस पास कुछ आसान व् छोटे ट्रैक हों तो गाइड करना कोशिश करूँगा
    पर्यटन खूब करे
    घुमक्कड़ होना चाहता हूँ!

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    1. भईया जी, घुमक्कड होना चाहते हैं तो नैनीताल से शुरूआत करना अच्छा है। लेकिन आगे बढना है तो दोबारा नैनीताल मत जाना।

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  4. मित्रों ने नैनीताल यात्रा कार द्वारा पर्यटन करने की बनाई है और मैं घुमक्कड़ होना चाहता हूँ
    रवि का शाम पहुंचूंगा और मंगल दोपहर वापसी

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    1. कार द्वारा भी आप घुमक्कडी कर सकते हैं लेकिन दोबारा नैनीताल मत जाना। क्यों? समझ गये या बताऊं?

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    2. ना जी
      आपने बता ही दिया है
      इस यात्रा का मकसद घुमक्कड़ी का एक जरुरी गुण पैदा करना रखा है-अल्प व्ययता।
      घुमक्कड़ी करनी है तो घुमक्कड़ से ही सीखेंगे।
      उम्मीद है खरा उतरूं।

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  5. एक बार आप खुद अपनी ये पोस्ट पूरी तरह से पढ़िए. सिर में दर्द हो गया. क्या ये सब लिखना जरुरी था इस स्तर पर.

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    1. एक बार नहीं चार बार ये डायरी मैंने पढी है, बिल्कुल भी सिरदर्द नहीं हुआ।
      आपके सिर में दर्द हुआ तो आपको यह पूरी नहीं पढनी चाहिये थी।
      किस स्तर पर??? ऐसा क्या लिख दिया जो आपत्तिजनक है???
      बताइये जरूर।

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    2. आपत्तिजनक नहीं भाई साहब, आप खुद अपने लेखन शैली से तुलना कीजिये.

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  6. सर आपकी डायरी के पन्ने कमाल के है
    बहुत ही प्रेरणादायी

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  7. डायरी के पन्नों में इस बार आपने खूब ' MAN KI BAAT' कही और अन्य कइ महत्वपूर्ण विषयों के साथ-साथ
    'DIGITAL INDIA' के कइ पहलुओं को भी छुआ.

    नीरज जी,
    मैं बनिया जाति का हूँ, सो स्वभाव वश कजूंस भी हूँ..लेकिन आपके ये ग्यानवर्द्धक, रोचक, मित्र-मंडली के लिए प्रेम भरी उलाहनापूरक डायरी के पन्नों को पढकर मैं अपनी प्रकृति के विपरीत मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा करने के लिए विवश हूँ…

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  8. This comment has been removed by the author.

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  9. Neeraj bhai conection aap prepaid use karte hai ya postpaid

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    1. दोनों। गूगल मैप के लिये ज्यादातर पोस्टपेड टू-जी, और अन्य इंटरनेट सम्बन्धी कामों के लिये प्रीपेड थ्री-जी।

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  10. शायद आपकी पत्नी भी ऐसी हो, लेकिन आपने अभी तक उसे पहचाना नहीं।

    -----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
    बात में ............. कुछ तो दम है ...

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  11. नीरज , .... मुछे पिछले साल डायबेटिज है ... यह पता चला ... अमरनाथ यात्रा के लिये जो मेडिकल टेस्ट कियी थी .. उससे पता चला ... उसके बावजूद मैने अमरनाथ यात्रा -- लेह लडाख जाकर आया ... दुर्भाग्यवश जाने. २०१५ में "अन्जोप्लास्टी" करनी पडी .... तो इस साल की अमरनाथ यात्रा न कर सका ... तुमने लडाख के बारे जो डायरी में जो लिखा है ... वाकई सुंदर जगह है ... मुछे यह जानकारी चाहिए ... में लेह - लडाख जा सकता हू .. क्या ...?????????????

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    1. सर जी, ये जो डाक्टरी मामला है, इनका मुझे कुछ भी आईडिया नहीं है। इसलिये नहीं कह सकता कि एंजियोप्लास्टी के बाद आप लद्दाख जा सकते हैं या नहीं। पता करके बताता हूं।

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    2. ये लो सर जी, जवाब आ गया है। डॉ. सुभाष शल्य जी ने उत्तर कहा है:
      He should go for stress treadmill test & stress echocardiography tests .If o.k. Then he may go to Ladakh . Diabetes should be within normal limits .
      Body weight should be normal. He should keep all medicines for angina prevention.Blood pressure should be normal.
      If not then he should not go to high altitude more than 10000 feets.
      Low oxygen may be dangerous at higher than ten thousands feets .

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  12. ध न्य वाद ! ... नीरज जी आणि डॉ. सुभाष शल्य जी...........

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  13. मैँ साल में एक यात्रा करू या दो करू तुझे इससे क्या ? मेरी अपनी मजबूरी और जुम्मेदारियां है । यात्रा ब्लॉग लिखना क्या जुर्म है। हमेशा मैंने बड़ी होकर भी तेरी इज्जत की है । और घुमक्कडी पर मैँ स्वयं नहीं आई मुझे कोई लाया है जो मेरी इज्जत करता है। इतना घमण्ड भी ठीक नहीं ।

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    1. बेवजह गुस्सा मत कीजिये। पहली लाइन ध्यान से पढिये, बस- “इसमें कुछ ऐसे भी लोग हैं जो साल में एकाध यात्रा-पोस्ट डाल देते हैं। इनमें दर्शन कौर धनोए प्रमुख हैं।”
      अब ये बताइये कि इसमें मैंने क्या गलत कह दिया।आप ज्यादातर कहानी-कविताएं लिखती हैं, कभी-कभार यात्रा-वृत्तान्त भी लिख देती हैं, इसमें गलत क्या लिखा है मैंने? क्यों आपा खोया आपने?

      Delete
    2. पिछले तीन साल में आपने केवल 8 यात्रा-वृत्तान्त ही लिखे हैं। इसमें क्या गलत कह दिया मैंने? बताइये जरूर। आपकी मजबूरियां और जिम्मेदारियां रही हैं, आप ज्यादा नहीं घूम सकतीं, इसलिये ज्यादा लिख भी नहीं सकतीं। यही तो मैंने कहा है। इसमें गुस्सा क्यों??? बुवा जी, बताओ जरूर॥॥

      Delete
  14. मुझे लगा तूने कहा की इस ग्रुप पर में भी हूँ और में सिर्फ साल में एक ही यात्रा करती हूँ। तो मैंने कहा की सिर्फ एक ही यात्रा करने वाला यात्रा ब्लॉग नहीं लिख सकता क्या ? यही बात मुझे अच्छी नहीं लगी ।

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  15. मन की बात । काम की बात । हम सबके राज की बात । अपने भाई नीरज जी के साथ ।

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  16. वाह भाई वाह। एक क्लासिक फिल्म की बढ़िया कहानी लिख डाली जो कई स्टोरी को एक साथ लिए हुए चलती है और अंत मे समझ आता है की कहानी क्या है और यह फिल्म सुपर हिट क्यो हुई । फिलहाल व्हाट्स एप ग्रुप है- `घुमक्कडी... दिल से,बाइक से लद्दाख जाने की योजना,फैमिली के साथ साहसिक यात्रा। पैसेंजर ट्रेन यात्रा की योजना। जीपीएस के बारे में। यात्रा-वृत्तान्त लिखने हर आदमी की अपनी-अपनी योग्यता । साइकिलिस्ट। अच्छे फोटो कैसे खींचें?जैसे विषयो पर बेबाक लिखे है । इतनी बढ़िया जानकारी देने के लिए धन्यबाद ।

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  17. अच्छा लगा घुमक्कड की डायरी पढ कर। मैं भी अपनी यात्राओं के बारे में अपने ब्लॉग पर लिखती हूँ पर इधर कुछ दिनों से घूमना नही हो पाया। कोशिश कीजिये की बात भी बेबाक हो और किसी का दिल भी ना दुखे।

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  18. Bhai Hame bhi whatsapp group main samil kar lo

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  19. aapki saari post meine takreeban padi hui hain kamaal k aadmi ho bhai

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  20. बहुत सुंदर एवं ज्ञानवर्धक..

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब