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Showing posts from April, 2015

उत्तरकाशी से दिल्ली वाया मसूरी

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 3 अप्रैल 2015 हम उत्तरकाशी से तीन किलोमीटर आगे गंगोत्री की तरफ थे। सुबह आठ बजे सोकर उठे। गीजर था ही, नहा लिये। आज दिल्ली पहुंचना है, जो यहां से 400 किलोमीटर से भी ज्यादा है। सामान पैक कर लिया। जब कमरे से निकलने ही वाले थे तो मन में आया कि एक बार बालकनी में खडे होकर बाहर का नजारा देखते हैं। बालकनी का दरवाजा खोला तो होश उड गये। बारिश हो रही थी। हवा नहीं चल रही थी और बिल्कुल सीधी बारिश हो रही थी। अगर पहाडों पर सुबह सवेरे बारिश होती मिले तो समझना कि हाल-फिलहाल रुकने वाली नहीं है। और उधर हम भी नहीं रुक सकते थे। रेनकोट पहने और नौ बजे तक बारिश में ही चल दिये। मैंने पहले भी बताया था कि जब हम धरासू बैंड से उत्तरकाशी आये थे तो वो रास्ता कहीं कहीं बडा खराब था। अब बारिश की वजह से उस पर फिसलन हो गई थी या फिर गड्ढों में पानी भर गया था। बडी मुश्किल हुई इस पर चलने में। फिर भी डेढ घण्टे में धरासू बैंड पहुंच गये। यहां के आलू के परांठे हमें बहुत पसन्द आये थे। इस बार दोनों ने दो-दो परांठे मारे।

डोडीताल यात्रा- मांझी से उत्तरकाशी

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । पूरी रात मुझे नींद नहीं आई। इसके कई कारण थे। पहला तो कारण था वो सस्ते वाला स्लीपिंग बैग जो मैं कुछ दिन पहले पठानकोट से लाया था। पठानकोट जब हम गये थे, तो स्टेशन के बाहर बाजार में गर्म कपडों की बहुत सारी दुकानें हैं। उनमें स्लीपिंग बैग बाहर ही रखे थे। मैंने देखना शुरू किया तो एक स्लीपिंग बैग पसन्द आ गया। इसका साइज बहुत छोटा था, बहुत हल्का था और 1200 रुपये का था। इसमें पंख भरे थे। ले लिया। इसका परीक्षण करने को इसे मैंने ही इस्तेमाल किया। लेकिन यह मेरी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा। गौरतलब है कि मुझे सर्दी कम लगती है। फिर भी मैं ठण्ड से कांपता रहा। पैर बर्फ से हुए रहे। दूसरा कारण था कि मेरे नीचे मैट्रेस नहीं थी। हमारे पास एक ही मैट्रेस थी और वो निशा को दे रखी थी। मुझे नीचे से भी बहुत ठण्ड लगी। पहले तो लगा था कि शरीर की गर्मी से जमीन का वो टुकडा भी गर्म हो जायेगा और ठण्ड नहीं लगेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कुल मिलाकर नींद नहीं आई।

डोडीताल यात्रा- अगोडा से मांझी

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 1 अप्रैल 2015 अगोडा की समुद्र तल से ऊंचाई 2100 मीटर है जबकि डोडीताल 3200 मीटर पर। दूरी लगभग 12 किलोमीटर है। आजकल डोडीताल तक आवाजाही तो है लेकिन उतनी नहीं है। अगोडा में होटल वाले ने पहले ही बता दिया था कि मांझी के बाद बहुत ज्यादा बर्फ है, रास्ता मुश्किल है। फिर खाने का भी भरोसा नहीं था। इसलिये यहीं से आलू के चार परांठे भी पैक करा लिये। पेटभर खा तो लिये ही थे। पौने नौ बजे यहां से चल पडे। गांव से निकलते ही एक पगडण्डी दाहिने नीचे की तरफ उतर जाती है। यह आगे नदी पार करके उस तरफ ऊपर चढती है। उधर गुज्जरों के कुछ ठिकाने दिख रहे थे, यह उन्हीं ठिकानों पर जाती होगी। अगर उधर ऊपर चढते जायें तो आखिरकार दयारा बुग्याल पर पहुंच जायेंगे। दयारा पर आजकल खूब बर्फ थी।

डोडीताल यात्रा- उत्तरकाशी से अगोडा

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 31 मार्च 2015 दोपहर बाद दो बजे हम उत्तरकाशी से पांच किलोमीटर आगे गंगोरी में थे। यहां असी गंगा पर पुल बना हुआ है। यहीं से डोडीताल का रास्ता अलग हो जाता है। दस किलोमीटर आगे संगमचट्टी तक तो सडक बनी है, उसके बाद 23 किलोमीटर पैदल चलना पडता है, तब हम डोडीताल पहुंच सकते हैं। गंगोरी में एक जीप वाले से संगमचट्टी के रास्ते की बाबत पूछा तो उसने बताया कि यह रास्ता बहुत खराब है। बाइक जानी भी मुश्किल है, आप बाइक यहीं खडी कर दो और संगमचट्टी के लिये टैक्सी कर लो। हम अभी थोडी ही देर पहले धरासू बैंड से उत्तरकाशी आये थे। वहां भी कई जगह बडी खराब सडक थी। हम दोनों ने एक दूसरे को देखा और कहा- उससे भी ज्यादा खराब सडक मिलेगी क्या? और बाइक पर ही चल पडे।

डोडीताल यात्रा- दिल्ली से उत्तरकाशी

डोडीताल का तो आपने नाम सुना ही होगा। नहीं सुना होगा तो कोई बात नहीं। आप स्वयं ही गूगल पर सर्च करेंगे कि डोडीताल क्या है। इस बार मैं नहीं बताऊंगा कि यह क्या है, कहां है, कैसे जाया जाता है। बस, चलता जाऊंगा और लौट आऊंगा। आपको अन्दाजा हो जायेगा। दिल्ली से दोनों मियां-बीवी निकल पडे सुबह छह बजे। बाइक पर सामान बांधा और चल दिये। सामान भी बहुत ज्यादा हो गया। आखिर ट्रेकिंग थी और अभी ट्रेकिंग का मौसम शुरू नहीं हुआ था इसलिये टैंट भी ले लिया, स्लीपिंग बैग भी ले लिया, ढेर सारे गर्म कपडे ले लिये और कुछ नमकीन बिस्कुट भी। दो रकसैक थे- एक मेरे लिये, एक निशा के लिये।

अमृतसर- स्वर्ण मन्दिर और जलियाँवाला बाग

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । मैं पहले अमृतसर तो आ चुका था लेकिन घूमा पहली बार। स्टेशन से ऑटो लिया और सीधे पहुंचे स्वर्ण मन्दिर। अब ये किया, वो किया; ऐसा नहीं लिखूंगा। स्वर्ण मन्दिर अच्छा लगा। यहां से बाहर निकलकर सामने ही जलियांवाला बाग है, वहां पहुंचे। यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि जलियांवाला बाग का यह नाम इसलिये पडा क्योंकि यह किसी जिले सिंह या पंजाबी लहजे में कहें तो जल्ले सिंह का बाग था। इसी से इसे जल्लेयां वाला बाग कहते थे जो धीरे धीरे जलियांवाला बाग हो गया। बाद में जब वो नरसंहार हुआ तो देशभक्तों ने स्मारक बनाने के लिये इसे खरीद लिया और इसे स्मारक बना दिया।

डलहौजी के नजारे

डलहौजी का क्या यात्रा वृत्तान्त लिखूं? इतना प्रसिद्ध पर्यटक स्थान... मैं यहां पहली बार गया। आप सभी जा चुके होंगे। ऐसे स्थानों पर पहली बात कि मेरा जाने का ही मन नहीं करता और दूसरी बात कि वापस आकर यात्रा वृत्तान्त लिखने का भी मन नहीं करता। लेकिन कुछ तो लिखना पडेगा। विवाह हुआ, हम दो हो गये। तो क्या हुआ? घुमक्कडी मेरा पहला प्रेम है, शौक है, इसे नहीं छोडा जा सकता। घरवाली को यह सब समझाने की आवश्यकता ही नहीं पडी। उसने पहले ही कह दिया था कि जहां तू, वहां मैं। वह मेरे लेख भी पढती है, इसका अर्थ है कि घूमने की इच्छा उसकी भी होती है। अब मुझे देखना था कि इसकी सीमा कहां तक है? किस तरह की यात्रा में यह बोर होगी। मुझे रेलयात्राएं भी करनी हैं, बस यात्राएं भी करनी हैं, ट्रेकिंग भी करनी है और ऊल-जलूल स्थानों पर भी जाना है। भूखा भी रहना है, कई कई दिन का एक ही दिन में भी खाना है, जगना भी है, खूब सोना भी है। साफ सुथरे कपडे पहनने हैं तो एक ही जोडी कपडों में दस दिन भी निकालने हैं। उसकी सीमा कहां तक है, यही मुझे देखना था। फिर कुछ उसे परिवर्तित होना है, कुछ मुझे।