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चन्द्रखनी ट्रेक- पहली रात

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अच्छी खासी चढाई थी। जितना आसान मैंने सोच रखा था, यह उतनी आसान थी नहीं। फिर थोडी-थोडी देर बाद कोई न कोई आता-जाता मिल जाता। पगडण्डी भी पर्याप्त चौडी थी। चारों तरफ घोर जंगल तो था ही। निःसन्देह यह भालुओं का जंगल था। लेकिन हम चार थे, इसलिये मुझे डर बिल्कुल नहीं लग रहा था। जंगल में वास्तविक से ज्यादा मानसिक डर होता है।
आधे-पौने घण्टे चलने के बाद घास का एक छोटा सा मैदान मिला। चारों अपने बैग फेंककर इसमें पसर गये। सभी पसीने से लथपथ थे। मैं भी बहुत थका हुआ था। मन था कि यहीं पर टैंट लगाकर आज रुक जायें। लेकिन आज की हमारी योजना चन्द्रखनी के ज्यादा से ज्यादा नजदीक जाकर रुकने की थी ताकि कल हम दोपहर बादल होने से पहले-पहले ऊपर पहुंच जायें व चारों तरफ के नजारों का आनन्द ले सकें। अभी हम 2230 मीटर पर थे। अभी दिन भी था तो जी कडा करके आगे बढना ही पडेगा।

दो घण्टे बाद यानी सवा पांच बजे तक जी पूरा निकल चुका था। एक कदम भी आगे बढाने का मन नहीं था। रास्ते में ही बैठ गये। ऐसा नहीं था कि रास्ता कठिन है या चढाई भयंकर है। लेकिन पता नहीं क्या बात थी कि चला ही नहीं जा रहा था। भूख लगने लगी। सभी ने एक एक परांठे खाये, कुछ बिस्कुट खाये और पानी पी लिया। हां, याद आया। पानी समाप्त हो चुका था। अशोक के पास कोल्ड ड्रिंक की एक बोतल थी जिसमें अब तक चार घूंट ही बची थी। सभी को प्यास लगी थी, अशोक से मांगी तो उसने मना कर दिया। यहां मुझे पता चला कि उसने कोल्ड ड्रिंक क्यों ली थी और क्यों अब हमें नहीं देना चाह रहा था। असल में उसके पास बीयर की एक बोतल थी। वह दिल्ली से ही बीयर लेकर आया था लेकिन बस में बैग चोरी हो जाने के कारण वह बोतल भी चली गई। बाद में उसने कुल्लू में दूसरी बोतल ली। मुझे कुछ भी पता नहीं चला कि ऐसा उसने कब किया। अब जब वह बीयर व कोल्ड ड्रिंक मिलाकर पीने लगा तो मुझे गुस्सा तो बहुत आया लेकिन कर भी क्या सकता था? मधुर व सुरेन्द्र व मैं तीनों नशेडी नहीं हैं।
जब खा-पीकर यहां से चलने को हुए तो नीचे से एक गुज्जर आया। उसका डेरा आगे कुछ दूर था। उसने हमें धिक्कारा कि तुम पहले कभी यहां नहीं आये, बिना गाइड के आ गये, तुम जैसा महामूर्ख दुनिया में कोई नहीं है। खुद तो अनपढ था लेकिन हमसे पूछने लगा कि बिना नक्शा लिये तुम इस इलाके को कैसे पार करोगे? काफी दूर तक वह हमारे साथ चला और हमें धिक्कारता ही रहा। मुझे उस पर बहुत गुस्सा आ रहा था लेकिन कुछ सोचकर शान्त रहा। आखिर हम आज नहीं तो कल उसके डेरे के पास से गुजरेंगे, तब हमें वहां कुछ खाने-पीने को मिलेगा। वह हमें जी-भरकर जली-कटी सुनाता रहा लेकिन हम भी उसकी हां में हां मिलाते रहे। यहां आने के लिये पछतावा भी जाहिर किया और वादा भी किया कि भविष्य में आयेंगे तो बिना गाइड के नहीं आयेंगे। इसका हमें अगले दिन फायदा मिला। बताऊंगा सबकुछ।
बीयर पीकर अशोक घोडा बन गया। अभी तक वह हांफता हुआ सबसे पीछे चलता था लेकिन अब उस गुज्जर के साथ साथ चलने लगा और हमसे बहुत आगे निकल गया। हम तीनों हैरानी से एक-दूसरे का मुंह देखते रहे। हमसे कदम नहीं बढाये जा रहे थे और वह भागा जा रहा था। बाद में जब मिले तो हम तीनों ने उससे सबसे पहले यही पूछा- बीयर और भी बची है क्या?
खाना खाने के बाद आधे घण्टे चले कि एक बडा सा मैदान मिला। ऊंचाई 2525 मीटर थी। इसमें कहीं कहीं समतल भाग भी था और एक तम्बू भी लगा हुआ था। वह किसी गुज्जर का था और अभी वहां नहीं था। हमने इस जगह को देखते ही यहीं घुटने गाड दिये। आज यहीं रुकेंगे। गुज्जर ने बहुत समझाया कि यहां से बस आधा घण्टा और लगेगा और आप इससे अच्छी जगह पर पहुंच जाओगे। हमारा डेरा भी वहीं है। वहां पानी भी है। पानी हमारे पास समाप्त हो चुका था और हमें इसकी सख्त आवश्यकता थी। हमें आधे घण्टे और चलने में उतनी परेशानी नहीं थी लेकिन इन लोगों का समय और दूरी मापने का पैमाना बिल्कुल इनकी मर्जी पर आधारित होता है। इसने अगर आधा घण्टा कहा है तो वह एक घण्टा भी हो सकता है और दो-ढाई घण्टे भी। हमारा गला सूखा जा रहा था, यहां इस मैदान में पानी नहीं था इसलिये मजबूरन यहां से चलना पडा। उसने आधा घण्टा कहा है तो मैं कम से कम एक घण्टा मानकर चल रहा था। हालांकि उस समय मधुर ने बडी समझदारी दिखाई। उसके बैग में एक लीटर पानी था। स्वयं प्यासा होने के बावजूद भी उसने पानी नहीं निकाला। बाद में जब हम टैंट लगा चुके, तब उसने निकाला और सभी ने उसे पीया व अगले दिन के लिये भी रखा। यह मधुर की दूरदर्शिता ही थी।
मात्र बीस मिनट लगे और हम दूसरे मैदान में पहुंच चुके थे। गुज्जर ने बिल्कुल ठीक बताया था। ऐसा अक्सर नहीं होता। सामने उनके मवेशी चर रहे थे और बच्चों व महिलाओं की भी आवाजें आ रही थीं। असल में उनका डेरा इस मैदान से जरा सा ऊपर घने पेडों के बीच था। उसने हमें डेरे तक चलने को भी कहा लेकिन हम यहीं पर जम गये। आज रात यहीं रुकना था, इसलिये जल्दी ही ठीक जगह देखकर टैंट लगा लिये। सात बज चुके थे। पश्चिमाभिमुख होने के कारण अभी तक यहां उजाला था जो अब धीरे धीरे अन्धेरे में बदलता जायेगा।
यहां पानी तो था लेकिन साफ नहीं था। कुछ ऊपर जो गुज्जर डेरा था, पानी वहीं से होता हुआ आ रहा था। मवेशियों का गोबर घुल-घुलकर इसमें खूब आ रहा था। अच्छा हुआ कि मधुर के पास पानी था।
अगर मैं अकेला होता तो गुज्जरों के पास पहुंच जाता और वहीं रुकता या उनके पास टैंट लगाता। यहां चारों तरफ भयंकर जंगल था और भालू बहुत थे। हालांकि भालू यथासम्भव मनुष्य से दूर ही रहते हैं लेकिन अगर कभी आमना-सामना हो जाये तो खून-खराबा होते देर नहीं लगती। हमेशा मनुष्य का ही खून बहता है। लेकिन आज हम चार थे। ऐसा नहीं था कि हम चार मिलकर एक भालू का सामना कर लेंगे। अगर कोई भालू भूला-भटका इधर आ भी रहा हो तो आवाज सुनकर वह बीच रास्ते में ही इधर-उधर हो लेगा। चार मनुष्य आपस में कितनी भी कम बातें करें लेकिन बातचीत तो होती ही है, आवाज तो होती ही है।
सूखी लकडियां बीनकर आग जला ली। यह जगह समुद्र तल से 2675 मीटर की ऊंचाई पर थी, फिर मौसम भी खराब था इसलिये काफी सर्दी थी। अन्धेरे में मैदान के एक किनारे पर जंगल के पास आग जलाकर चारों बैठे थे। आनन्द तो आ ही रहा था लेकिन डर भी लग रहा था। बातों-बातों में भूतों व जंगली जानवरों के किस्से शुरू हो गये तो मैंने उन किस्सों को बन्द करवाया। मुझे जंगल में बहुत डर लगता है खासकर रात को। हर एक चीज भुतहा दिखने लगती है। सन्नाटा भी डराने लगता है। पत्ता टूटकर गिरता है तो लगता है कि कोई कदम बढाकर इधर आ रहा है। हालांकि बाकियों के मौजूद होने से डर कुछ कम लग रहा था लेकिन फिर भी डर तो लग ही रहा था। ऐसे में भूतों के किस्से डर को कई गुना बढा देते हैं।

थकान से पस्त




यह पेडों पर पता नहीं क्या लगा था। बिल्कुल मशरूम से लग रहे हैं।

इसी मैदान में हमने घुटने गाड दिये थे।


इसमें कुछ तम्बू भी लगे थे, जो सभी खाली थे।

बीयर पीने के बाद अशोक घोडा बन गया। इस चित्र में सबसे पीछे सुरेन्द्र खडा है, उससे आगे हाथ में डण्डा लेकर मधुर और अशोक सबसे आगे भागा जा रहा है।


इसी मैदान में हम टैण्ट लगायेंगे।




आग जला ली।





अगला भाग: चन्द्रखनी दर्रे के और नजदीक

चन्द्रखनी ट्रेक
1. चन्द्रखनी दर्रे की ओर- दिल्ली से नग्गर
2. रोरिक आर्ट गैलरी, नग्गर
3. चन्द्रखनी ट्रेक- रूमसू गांव
4. चन्द्रखनी ट्रेक- पहली रात
5. चन्द्रखनी दर्रे के और नजदीक
6. चन्द्रखनी दर्रा- बेपनाह खूबसूरती
7. मलाणा- नशेडियों का गांव




Comments

  1. तस्वीरों का स्तर काफी अच्छा | आप इतनी जल्दी तो न थकते थे नीरज भाई, संभवतः group में जाने का असर है |

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    1. नहीं राहुल जी, ऐसी बात नहीं है। आप कोई भी यात्रा वृत्तान्त पढ लो, मैं बहुत जल्दी थक जाता हूं।

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    2. लोकल लोग शायद इसलिए धिक्कारते है ताकि शहरी जीव पहाड़ों की सुन्दरता को कोई हानि न पॅंहुचाऐं या उनका मिज़ाज ही ऐसा है ।

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    3. रोहित भाई, ज्यादातर लोकल लोगों को किसी पहाडी सुन्दरता से कोई मतलब नहीं होता। उनके लिये पहाड बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे हमारे लिये मैदान। धिक्कारने के पीछे उनका मिजाज है। कुछ लोग चार पैसे कमाने के लिये ऐसा कहते हैं।

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  2. नीरज भाई एक बात बताओ,
    ज्यादातर आपने अकेले ही यात्रा की है,ओर यह यात्रा एक ग्रुप वाली है,फोटो देखकर ऐसा प्रतित हो रहा है जैसे आप इस यात्रा को पूरा इंजाय कर रहे हो,
    तो आपके हिसाब से अकेले यात्रा ओर ग्रुप यात्रा मे से कौन सी बहतर होती है आपके के लिए.

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    1. अकेले ही सर्वोत्तम है। हालांकि यहां हम चारों बिल्कुल एक जैसे थे। एक थकता था तो इसका अर्थ था कि सभी थक गये हैं, बैठने की जरुरत है। भूख लगी है तो मतलब कि सभी भूखे हैं, खाना खाने की जरुरत है। ऐसा ग्रुप मिलना बेहद दुर्लभ है। फिर भी अकेला घूमना ही सर्वोत्तम है।

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  3. ग्रुप में घूमना समझदारी है।

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  4. ghane jangle me aag jalkr tent me rat bitane vale sach aap logo jaise virle hi hote h...

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  5. मैंने भी यूथ होस्टल का चंद्रखानी ट्रेक किया है. वह जरी के पास मलाना पावर प्रोजेक्ट के मेन गेट से शुरू होता है, रुम्सू होते हुए नग्गर में समाप्त. मलाना बहुत अधिक गन्दा और पिछड़ी मानसिकता वाला गाँव है, हजारों सालों से अंतर्विवाह के कारण यहाँ के लोगों में आनुवांशिक विकृतियाँ आ गई हैं. मैं इस मई मलाना से गुज़रा था तब यहाँ की कुछ अजीब सी विकृत चेहरे और आकार की लड़कियों को देख कर बड़ा बुरा लगा था.

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  6. Hahahaha...pani ki wo bottle😂...sab log bade khush hue the usse dekh kar...nd neeraj bhai Ashok ke pass bear nahi Rum thi.....jo usne jab li thi jab aap khane ke liye kullu bus stand wale dhabe mai chale gaye the.

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  7. हमेशा की तरह रोचक और अगले भाग के इंतज़ार के लिए मजबूर करने वाला वर्णन ..

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  8. बहुत सुंदर वृतांत

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  9. बहुत सुंदर वृतांत आपके लेखन में यह सादगी और सरल शब्दों का प्रयोग प्रभावित करता है। ऐसे ही घूमते जाइये और लिखते जाइये

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  10. ​नीरज , बहुत लम्बे गैप के बाद जब तुमने चंद्रखनी का यात्रा वृतांत लिखना शुरू किया तो मुझे कुछ फीका सा लगा ! फीका इसलिए क्यूंकि अगर आदमी को तुम आदत दाल दो तीखा खाने की तो अगर उसे कुछ काम तीखा डोज तो वो उसे फीका ही कहेगा ! ये बात मैंने फेसबुक वॉल पर भी कही थी लेकिन अब जैसे जैसे तुम आगे बढ़ रहे हो , पुराना वाला स्वाद मिल रहा है ! बियर ( या फिर रम , जैसा मधुर ने बताया ) क्या सच में घोडा बना देती है ? एक आध बार तरय करके देख लेते !!

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  11. भालू भगाने के लिए bear spray बड़ी अच्छी चीज है। किफायती और प्रयोग में बेहद आसान। ऐसे जंगलों में बड़े काम की चीज़ है। Best of luck for your trip.I always like your style and simplicity.

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  12. Us gujjar ko nahi pata isi ko ghummakri khete hai.....naksha dimag me guide khud .....ye hai neeraj bhai ki ghummakari....
    Ranjit...

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  13. बहुत सुंदर वृतांत.......

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  14. एक और बेहतरीन पोस्ट, पढ़कर मजा आ गया। लगा की आप नही हम ही सैर कर रहे है। आप किसी जगह की इतनी बारीकी से जानकारी कैसे हाँसिल करते है ये मेरे लिए शोध का विषय है। लगता है आप यात्रा से पहले काफी होमवर्क करते है।

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  15. जंगल में मंगल ---बहुत सुन्दर --क्या भालू सचमुच में खतरनाक होता ही --हमेशा तुझे उन्ही का डर लगता है ---

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  16. इस यात्रा का वर्णनं शायद इससे पहले मैंने कही पढ़ा हुआ लगता है --जरी ,मालाना नाम सुने हुए लगते है --शायद संदीप के ब्लॉग पर ---ठीक से याद नहीं

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  17. भालू सचमुच में खतरनाक ही होता है रोचक वर्णन बेहतरीन पोस्ट, पढ़कर मजा आ गया।

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