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तराहां से सुन्दरनगर तक- एक रोमांचक यात्रा

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10 मई 2014, शनिवार
पहले कल की बात बताता हूं। कल शाम जब मैं चूडधार से तराहां आया था तो बहुत थका हुआ था। इसका कारण था कि कल ज्यादातर रास्ता जंगल से तय किया था और मैं अपनी हैसियत से बहुत ज्यादा तेज चला था। नीचे उतरने में पूरे शरीर पर झटके लगते हैं। इसलिये जब रात सोने लगा तो पैर के नाखून से सिर के बाल तक हर अंग दर्द कर रहा था। इस दर्द के कारण रात भर अच्छी नींद भी नहीं आई। रही सही कसर उन पडोसियों ने पूरी कर दी जो उसी कमरे में दूसरे बिस्तरों पर सो रहे थे। उनके खर्राटे इतने जोरदार थे कि कई बार तो रोंगटे खडे हो जाते।

नींद नहीं आई, बिजली थी और फोन का नेटवर्क भी। फेसबुक पर ऑनलाइन हो गया। पहले तो उन नामुराद मित्रों को गरियाया जिन्होंने मिलम जाने की हामी भरी थी और गये नहीं। हामी भरने के बाद मना भी कर देते तो ठीक रहता, उन्होंने मना भी नहीं किया। हामी भरने के लिये एक क्लिक भर करना होता है। इन नामुराद मित्रों को कहीं भी क्लिक करने वाली चीज दिखी, एकदम क्लिक कर देते हैं। इसीलिये मुझे फेसबुक बुरा लगता है। वो तो ब्लॉग का काफी ट्रैफिक फेसबुक से आता है, इसलिये मुझे आना पडता है यहां, नहीं तो मैं कभी नहीं आने वाला।
इसी दौरान एक नये मित्र से बातचीत शुरू हो गई- सुरेंद्र सिंह रावत से। अगर बराबर में ‘नगाडे’ न बज रहे होते तो मैं कभी इनसे बात नहीं करता। रावत साहब भी मेरी तरह 16 तारीख तक खाली थे इसलिये जैसे ही मैंने कहा कि कल मैं कमरुनाग जाऊंगा तो वे भी चलने को तैयार हो गये। बाद में बात करते-करते तय हो गया कि वे कल मुझे चण्डीगढ मिलें। वहां से दोनों साथ सुन्दरनगर चलेंगे। मेरी सलाह पर उन्होंने अपना आरक्षण ऊना जनशताब्दी में करा लिया। लेकिन मुझसे एक भूल हो गई। मैंने उन्हें कीरतपुर की बजाय रूपनगर तक का आरक्षण कराने को कह दिया। इसके बाद एक भूल उनसे भी हो गई। उन्होंने नई दिल्ली से चण्डीगढ का आरक्षण करा लिया। फिर बोले कि ओ तेरे की, ये तो चण्डीगढ तक हो गया। अभी कैंसिल कराता हूं। मैंने कहा कि इसे कैंसल मत कराओ, बल्कि चण्डीगढ से रूपनगर तक दो आरक्षण करा लो- एक अपना और एक मेरा।
इसी दौरान पानीपत के रहने वाले सचिन जांगडा से भी चैटिंग शुरू हो गई। उन्होंने अंग्रेजी में लिखा हुआ है- Jangra, पता नहीं इसे जांगरा बोला जायेगा या जांगडा या झांगडा या... झगडा।
तो सचिन को भी पता चल गया कि महाराज कमरूनाग जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि एक दिन रुक जाओ, दो दिन बाद चले जाना, मैं भी चलूंगा। मैंने कहा कि ऐसा होना नामुमकिन है। अगर आ सको तो ठीक, नहीं तो फिर कभी। उन्हें भी मैंने यही कहा कि अगर आना है तो कल शाम को पानीपत से ऊना जनशताब्दी पकड लेना और रूपनगर का टिकट ले लेना। साथ ही दोनों को गर्म कपडों और रेनकोट की हिदायत भी दी। दोनों के पास गर्म कपडे तो थे लेकिन रेनकोट नहीं थे। मैंने कहा जो होगा देखा जायेगा, आप आ जाओ।
असल में चूडधार से यहां तक आने में जो जंगल का भयानक रास्ता पार करना पडा था, उससे मैं बहुत आतंकित था। अभी भी चार दिनों की छुट्टियां बची हुई थीं। मुझे कमरुनाग से शिकारी देवी भी जाना था। मुझे जानकारी मिली थी कि वह रास्ता भी जंगलों से होकर जाता है। तो मैं चाहता था कि उस रास्ते में कोई न कोई मेरे साथ रहे।
उस ट्रेन का चण्डीगढ से चलने का समय शाम सवा सात बजे है तो मुझे सात बजे तक वहां हर हालत में पहुंच जाना है। पता नहीं तराहां से कितने बजे वाली बस पकडी कि मैं नौ बजे हरिपुरधार पहुंच गया। योजना थी कि आधे घण्टे में भंगायणी माता के दर्शन करके हरिपुरधार से प्रस्थान कर जाना है लेकिन ऐसा नहीं हो सका। जब मन्दिर के सामने सडक पर पहुंचा तो पता चला कि अगली बस दोपहर बाद दो बजे आयेगी। लेकिन दो किलोमीटर दूर मेन मार्किट से अभी मिल जायेगी। दो किलोमीटर पैदल आना पडा।
शिमला की एक प्राइवेट बस खडी थी। यह शिलाई से आई थी। बाहर से देखने पर तो यह खाली ही लग रही थी, लेकिन जब अन्दर घुसा तो हर सीट पर बैग व सामान रखे मिले यानी बस भरी हुई थी। सवारियां बराबर में होटल में खाना खा रही थीं। कुल मिलाकर जब यहां से चले तो ग्यारह बज चुके थे। दो तीन दिन पहले जब सोलन से नोहराधार आया था तो पांच घण्टे लगे थे। नोहराधार अभी भी 30 किलोमीटर के आसपास है तो सोलन पहुंचने में यहां से सात घण्टे लगेंगे। फिर सोलन से चण्डीगढ का कम से कम दो घण्टे का रास्ता है। यानी मैं ट्रेन नहीं पकड सकूंगा।
हरिपुरधार से बस चली तो मुझे सीट नहीं मिली। पूरी बस में अस्सी प्रतिशत यात्री नई उम्र के लडके थे जो जमकर हुडदंग मचाते हुए जा रहे थे। बाद में पता चला कि कल शिमला में कोई पुलिस वुलिस की भर्ती है, तो सभी वहां जा रहे हैं। इसका अर्थ है कि मुझे इस बस में पूरे रास्ते सीट नहीं मिलने वाली। फिर नोहराधार से स्लीपिंग बैग भी लेना था, पता नहीं बस उस दुकान से कितनी दूर रुके, कितनी देर रुके; मैंने नोहराधार तक का टिकट ले लिया। कोशिश करूंगा फटाफट अपना काम करके इसी बस में चढने की।
यह एक बेहद बुरी बस यात्रा थी। सडक पूरी तरह टूटी हुई थी, फिर पतली सी सडक, सिंगल लेन। पहाडी रास्ता, तीखे मोड, गोल-गोल। दो घण्टे लग गये नोहराधार पहुंचने में। एक जगह बस रोक दी और इंजन बन्द कर दिया व ड्राइवर नीचे उतर गया। मैंने पूछा तो बताया कि पन्द्रह बीस मिनट बस रुकी रहेगी। आराम से जाकर स्लीपिंग बैग उठा लाया।
नोहराधार में एक से पूछा कि अगली बस कितनी देर में आयेगी? बोला कि दो बजे। मैंने कहा कि वो भी इतनी ही भरी होगी, बोले कि नहीं, यह लम्बी दूरी की बस है, वो छोटी दूरी की बस होगी, इसलिये भरी नहीं होगी। अभी सवा एक बजा था। समय बर्बाद न करने की दृष्टि से फिर इसी बस में चढ लिया। इसकी छत पूरी भरी थी और अन्दर भी पूरी गैलरी में सवारियां खडी थीं। सीटों पर भी एक दूसरे के घुटनों पर लोग बैठे थे। बडा बुरा हाल था। एक जगह पुलिस ने बस को रोक लिया। लेकिन जब देखा कि लडके पुलिस भर्ती में जा रहे हैं तो बिना कोई कार्यवाही किये जाने दिया।
चार बजे राजगढ पहुंचे। मैंने नोहराधार से राजगढ का ही टिकट लिया था। जैसे ही बस स्टैण्ड पर रुकी, सबसे पहले नीचे उतरने वालों में मैं था। राजगढ से सोलन तक थोक में बसें चलती हैं। रास्ता दो घण्टे से ऊपर का है, तो क्यों इस भरी हुई बस में जाऊं? दस मिनट भी इंतजार नहीं करना पडा। राजगढ-सोलन बस आ गई। आराम से सीट पर पैर पसारकर बैठ गया।
अब तो ध्यान नहीं लेकिन जब मैं सोलन उतरा तो छह बज गये होंगे। एक घण्टे में चण्डीगढ पहुंचना नामुमकिन था। इस बारे में सचिन और सुरेन्द्र को भी बता दिया। उन्हें एक-दूसरे के फोन नम्बर मैंने दे दिये थे और वे पानीपत में ट्रेन में मिल भी लिये थे। अब साथ-साथ थे। मेरी इच्छा आज रात यात्रा करने की नहीं थी, इसलिये उनसे कह दिया कि रूपनगर उतरकर एक कमरा ढूंढ लेना। आज हम रूपनगर रुकेंगे। कल सुन्दरनगर जायेंगे। एक तो मैं रातभर का जगा हुआ था, ऊपर से आज का यह घटिया, उबाऊ और थकाऊ सफर। फिर रात दस बजे तक मुझे अपनी रूपनगर पहुंचने की उम्मीद थी। अगर चण्डीगढ से ही सीधे सुन्दरनगर की बस पकडूं तो रात दो-ढाई बजे वहां पहुंचूंगा। ना इधर के रहेंगे, ना उधर के।
जब आप जल्दी में होते हैं तो सारी कायनात आपके विरुद्ध हो जाती है। आप और ज्यादा लेट होते चले जाते हैं। अब भी ऐसा ही हुआ। शिमला-चण्डीगढ के बीच में बसों की लाइनें लगी रहती हैं। आपको दस मिनट भी इंतजार नहीं करना पडता। मेरी इच्छा हिमाचल परिवहन की बस से चण्डीगढ जाने की थी क्योंकि मुझे लग रहा था कि हिमाचल रोडवेज के ड्राइवर बाकियों के मुकाबले पहाडों पर ज्यादा तेज बसें चलाते हैं। जल्दी पहुंच जाऊंगा। इसीलिये जब देखा कि पहली बस पंजाब रोडवेज की आ रही है और इसे एक बूढे सरदारजी चला रहे हैं, तो इसे छोड दिया। इसके बाद इंतजार शुरू। इंतजार और बस इंतजार। बीस मिनट... बहुत होते हैं बीस मिनट जब आप किसी का बेसब्री से इंतजार कर रहे हों... बीस मिनट बाद हरियाणा रोडवेज की बस आई। अब तक हिमाचल रोडवेज का भूत उतर चुका था और पंजाब वाली बस में न बैठने के लिये पछता रहा था। तो हरियाणा वाले को रुकने को कहा, खाली बस थी, फिर भी नहीं रोकी। ऐसे निकम्मे ड्राइवरों की पहचान करके खाली सीटों का किराया उनकी तनख्वाह से काटा जाना चाहिये। सरकारी खजाना खाली करने पर तुले हैं।
फिर से इंतजार शुरू। आखिरकार हिमाचल परिवहन की बस दिखी। यह सोलन डिपो की डाक बस थी। बडा खुश होकर चढा इसमें। सोचा कि जल्दी ही ड्राइवर देवता पंजाबी और हरियाणवी को पीछे छोड देंगे। लेकिन ऐसा नहीं होना था। महाराज यहीं बस रोककर बैठ गये। अभी तक मैं बस रुकवाने की जद्दोजहद में लगा था, अब राम-राम भज रहा था कि बस चले। परवाणू जाने वाला एक प्राइवेट बस वाला इससे भिड गया कि ले जा अपनी सरकारी बस को, क्यों हमारी सवारियां कम कर रहा है? इधर यह भी उस भिडन्त में शामिल हो गया- अबे कहां तू, कहां मैं? तू परवाणू वाला, मैं चण्डीगढ वाला। तेरी और मेरी सवारियां तो अलग-अलग ही हैं। जा ले जा मेरी सवारियों को और चण्डीगढ छोड दे। खैर, करीब पन्द्रह मिनट बाद बस चली।
और बस की स्पीड! आहा! क्या कहने? लग रहा था पचास साल का यह ड्राइवर बस चलाना सीख रहा है। धर्मपुर में रोक दी। डाक बस थी, इसलिये इसमें डाक भरी जा रही थी। कालका बाईपास आया तो शहर के अन्दर चल पडा। मुझे लग रहा था कि बाईपास से जायेगा। शाम का समय था, कालका की तंग सडक पर वाहनों की काफी भीड थी। रुक-रुक कर चलना पड रहा था। और जब रेलवे स्टेशन की तरफ मुडी तो मैं सिर पकडकर बैठ गया। इसकी ही कमी बची थी। कालका रेलवे स्टेशन पर कोई बस नहीं जाती। यह चूंकि डाक बस थी, हिमाचल से डाक लाई थी इसलिये इसे स्टेशन पर भी छोडना था। आधी रात को जब हावडा मेल चलेगी तो सारी डाक उसमें भरकर देश के महानगरों की तरफ चल देगी।
पुनः कालका बाजार में आये और दाहिने मुडकर चण्डीगढ का रुख लिया। आठ बज चुके थे, रूनगर के लिये कोई ट्रेन नहीं थी, इसलिये बस से ही जाना पडेगा।
चण्डीगढ से मनाली, मण्डी, ऊना, कांगडा जाने वाली सभी बसें रूपनगर से ही जाती हैं। रूपनगर को रोपड भी कहते हैं। जैसे ही मैं रोपड का नाम लेकर किसी बस में चढता, मुझे उतार दिया जाता। कहते कि जब बस चलेगी, तब चढना। पहले हम लम्बी दूरी की सवारियां लेंगे, लोकल सवारियां बाद में। अब मैं देखने लगा कि इनमें से कौन सी बस रोपड होकर जायेगी और उसके बाद भी ज्यादा दूर नहीं जायेगी। यहां मनाली, बैजनाथ और धर्मशाला की बसें खडी थीं। तभी स्वारघाट जाने वाली एक बस दिखी। मैं इसी में चढ लिया। सबसे पीछे एक सीट खाली थी। इसी पर बैठ गया और रोपड का एक टिकट ले लिया।
अब जब आराम से बैठ गया, थोडा आराम मिला तो सोचा कि नक्शा देख लिया जाये। आज तो रोपड रुकेंगे। रोपड से सुन्दरनगर कितना दूर है? वहां से रोहांडा कितना दूर है? और जैसे ही देखा कि सुन्दरनगर का रास्ता रोपड से नहीं बल्कि कीरतपुर से अलग होता है तो फिर सिर पीट लिया। सचिन और सुरेन्द्र को ट्रेन से कीरतपुर ही उतरने को कहना चाहिये था। खैर, कोई बात नहीं। सुबह थोडा जल्दी निकल पडेंगे।
सचिन का फोन आया कि वे रूपनगर पहुंच चुके हैं। मैंने उससे कहा कि अब कोई कमरा देख लो। मैं रातभर का जगा हुआ हूं और आज सात आठ घण्टे बस में खडे खडे यात्रा की है, बहुत थका हुआ हूं। तो सचिन का जवाब सुनकर हैरान रह गया- नहीं, मैं सोच रहा हूं कि हम आज रात यात्रा करें। इससे हमारा कल का काम आसान हो जायेगा। मैंने कहा कि कोई फायदा नहीं है। हमें मनाली नहीं जाना है, बल्कि सुन्दरनगर जाना है। अगर हम रात को भी यात्रा करेंगे तो दो बजे तक सुन्दरनगर पहुंच जायेंगे। फिर वहां जाकर किसका दरवाजा पीटेंगे? कौन होटल वाला इतनी रात को हमें घुसने देगा? और अगर तीन बज गये तो स्वयं हमारा भी मन नहीं करेगा दो घण्टों के लिये कमरा लेने का। आज रूपनगर ही रुक जाते हैं, नहीं तो रात काली हो जायेगी।
बस जब कुराली पहुंच गई तो फिर फोन आया- हम यहां फ्लाईओवर के पास खडे हैं। सुन्दरनगर नहीं जायेंगे बल्कि बिलासपुर जाकर वहीं रुक जाते हैं। मैंने फिर विरोध किया तो सचिन टस से मस नहीं हुआ। मैं स्वयं को कोसने लगा कि क्यों बुलाया था इन्हें? मैं आज रात को यात्रा करने की स्थिति में नहीं हूं, ये लोग समझ क्यों नहीं रहे हैं? जब पुनः समझाने पर भी नहीं माना तो कहना पडा- मैं आधे घण्टे में रूपनगर पहुंच जाऊंगा। जिस बस में अब बैठा हुआ हूं, इसी में तुम भी आ जाना, आगे जहां भी जाना होगा, साथ ही जायेंगे।
कुराली से रोपड का आधा घण्टा ही लगा। फ्लाईओवर पार करके सुनसान सडक पर ये दो ही जीव खडे थे। कंडक्टर से पहले ही बात हो चुकी थी, इसलिये बस रुक गई और ये चढ लिये। मेरे पास के दो यात्रियों को भरतगढ उतरना था, इसलिये वे यहीं उठ गये और दोनों महाराजों को सीट मिल गई।
मैंने फिर रोनी सी सूरत बनाकर उन्हें आपबीती सुनाई लेकिन सचिन फिर भी नहीं पसीजा। वह बिलासपुर की ही रट लगाये हुए था। मैं कीरतपुर के पक्ष में था। लेकिन फिर सोचा कि मेरे ही बुलाने पर ये आये हैं, मान लेनी चाहिये इनकी बात। यह बस स्वारघाट जा रही थी, स्वारघाट के तीन टिकट ले लिये। आगे की आगे देखी जायेगी। इन्होंने बताया कि उन्होंने पिछले एक घण्टे में मनाली वाली दो बसें छोडी थीं। छोडी इसलिये थी क्योंकि दोनों बुरी तरह भरी हुई थीं। मैंने बताया कि आज शनिवार है, सब मनाली घूमने जा रहे हैं। रूपनगर की छोडो, चण्डीगढ में भी यही हाल है।
रात बारह साढे बारह बजे स्वारघाट पहुंचे। यह एक छोटा सा कस्बा है। पूरा कस्बा सोया पडा था। बस जब आगे कहीं चली गई तो देखा कि जागने वालों में थाने के सामने सडक पर तीन पुलिसकर्मी और एक चायवाला ही थे। अब तक सचिन बिलासपुर से स्वारघाट रुकने पर आ गया था। यहां किसी होटल के बारे में पता किया तो एक होटल का पता चला। जब वहां गये तो वह अन्दर से बन्द मिला। खूब दरवाजा पीटा, आवाज लगाई लेकिन कोई नहीं जगा। पुनः उसी चायवाले के पास आ गये। उसने बताया कि यहां हिमाचल की सभी बसें पांच-दस मिनट रुकती हैं, उनके ड्राइवर बदले जाते हैं। इसी से इस सुनसान कस्बे में उसकी छोटी सी दुकान चलती है।
पता तो चल गया था कि अब स्वारघाट से आगे बढना ही पडेगा। इसलिये गुजरने वाले हर वाहन को हाथ देते। ट्रक वाले रोक भी लेते लेकिन वे बिलासपुर नहीं जा रहे थे। इसी तरह एक ट्रक वाले ने बताया कि बिलासपुर से पांच किलोमीटर पहले नौणी है, जहां सोने की अच्छी व्यवस्था है और बिलासपुर जाने के लिये साधन भी ज्यादा हैं। लेकिन उसकी बात जब तक हमारी समझ में आती, तब तक वह जा चुका था। नौणी वह जगह है जहां पर शिमला से आने वाली सडक मिल जाती है। अक्सर ट्रक वालों के लिये ढाबे वाले सोने का इंतजाम करके रखते हैं। वहां भी ऐसा ही कुछ होगा। बात समझ में आ गई। अबकी बार कोई भी ट्रक आये तो उससे नौणी के बारे में ही कहना है।
मनाली की एक बस आई। यह दिल्ली से आई थी और पूरी भरी थी। कुछ यात्री गैलरी में भी सोये पडे थे। हमें चूंकि हर हालत में यहां से निकलना था, इसलिये इसमें चढ लिये। सबने अपना सामान भी इसमें जमा दिया। कंडक्टर ने कहा कि यहां पन्द्रह मिनट रुकेंगे। यह सुनकर हम तीनों सामान बस में ही छोडकर नीचे उतर गये, किसी ट्रक की तलाश में। कम से कम आराम से बैठकर तो जायेंगे। कुछ देर बाद एक ट्रक आया तो हमने नौणी ही कहा, वह हमें ले जाने को राजी हो गया। सचिन ने आव देखा न ताव, तुरन्त ट्रक में चढ गया। मैं और सुरेन्द्र सामान लेने दौडे और अपने अपने बैग लेकर हम भी ट्रक में चढ गये। इसमें केवल ड्राइवर था और पीछे वाली सीट पूरी खाली पडी थी। मैंने स्लीपिंग बैग कमर के पीछे तकिये की तरह लगाया और आंख बन्द कर ली। सचिन भी रिलैक्स होकर बैठा था और सुरेन्द्र तो सो ही चुका था।
यह खाली ट्रक था और ड्राइवर टूटी सडक पर बडी तेजी से दौडाये जा रहा था। स्वारघाट से पांच-छह किलोमीटर ही आये होंगे कि सचिन कुछ चौकस हुआ- मेरा बैग कहां है? मैंने कहा कि तुझे पता होगा। बोला कि बस में रखा था, तुम लोग लाये या नहीं?... नहीं हम तो नहीं लाये। ... क्यों नहीं लाये?... अरे हमें क्या पता कि तेरा बैग कहां है? तेरे पास है या नहीं। तू तो ट्रक में झट से चढ गया था। हमें अपने बैगों की चिन्ता थी, तुझे अपने की करनी चाहिये थी।
और हम तीनों एक दूसरे से कुछ ही समय पहले पहली बार मिले थे। अगर किसी कारण से ये दोनों अलग हो जाते और कुछ समय बाद मेरे सामने आते तो मैं इन्हें पहचान भी नहीं सकता था। ऐसे में किसके पास क्या सामान है, कितना सामान है, कहां रखा है; यह जानने का मौका ही नहीं था। सचिन बुरी तरह घबरा गया- ट्रक रोको। वापस चलो, मेरा बैग बस में रह गया है। वह बिल्कुल बदहवास हो चुका था। मैंने समझाया कि शान्त हो जा। बैग कहीं नहीं जायेगा। बस अभी भी पीछे ही है। जिस तरह ट्रक चल रहा है, अगर इसी तरह चलता रहा तो बस कभी भी इससे आगे नहीं निकल सकेगी। तू बेफिक्र रह, बैग मिल जायेगा। वह कुछ शान्त तो जरूर हुआ लेकिन बुरी तरह बेचैन अवश्य था।
ऊपर वाले, तेरे यहां देर तो है लेकिन अन्धेर नहीं। और आज तो तूने देर भी नहीं की। जिस तरह इसने हमारे साथ बर्ताव किया है, तूने अच्छा सबक सिखा दिया। एक तरह की खुशी सी हो रही थी मुझे। लेकिन यकीन भी था कि बैग मिल जायेगा। कुछ देर बाद जब वह कुछ सामान्य हो गया, तो मैंने कहा- बच्चा, तुझे बैग मिल जायेगा। कमरुनाग पर पांच रुपये चढाने होंगे।... चढाऊंगा।... शिकारी माता पर भी पांच रुपये चढाने होंगे।... चढाऊंगा।... और जाटराम को भोजन कराना होगा।... कराऊंगा।... बस तो, निश्चिन्त रह। तेरा बैग कुछ ही समय बाद तेरे पास होगा।
नौणी उतर गये। ट्रक शिमला वाली सडक पर चला गया। हमने ट्रक वाले को पैसे देने चाहे लेकिन उसने नहीं लिये। बडे ही शान्त भाव से शालीनतापूर्वक उसने मना कर दिया। यहां से बिलासपुर पांच छह किलोमीटर दूर है। मुझे पता था कि बिलासपुर के बस अड्डे पर हर बस कुछ समय के लिये जरूर रुकती है। इसलिये हमें जल्दी से जल्दी बिलासपुर जाना होगा। यहीं पुलिस वाले भी थे, हर गाडी की तलाशी ले रहे थे। हम ट्रक से उतरे तो हमारे सामान की भी तलाशी ली। इसके बाद हमने उन्हें अपनी आपबीती सुनाई तो उन्होंने पहले तो कहा कि बस ट्रक को पीछे छोडकर आगे निकल गई है। हमने कहा कि नहीं, बस अभी पीछे ही है। उन्होंने कहा कि ऐसा होना असम्भव है कि स्वारघाट से कोई ट्रक बस से आगे ही रहे। आखिरकार उसने कह ही दिया कि ध्यान रखना, जब बस आयेगी तो बता देना, हम रुकवा देंगे।
एक टैक्सी तलाशी के लिये रोकी। यह बिलासपुर जा रही थी। ड्राइवर के अलावा एक आदमी और था। इसमें हमें बैठा दिया। जल्दी ही हम बिलासपुर के बस अड्डे के सामने थे। टैक्सी वाले ने सौ रुपये मांगे। हमने पचास रुपये दिये। टैक्सी वाली का वही रटा-रटाया जवाब कि आपको वहां से लाये हैं, तेल का खर्च भी पूरा नहीं पडेगा पचास रुपये में। हम इससे बहस कर ही रहे थे कि वह बस आती दिख गई। जितनी तेजी से बस ने अड्डे में प्रवेश किया, उससे भी ज्यादा तेजी से हम भी टैक्सी के पास से भाग गये और अड्डे में घुस गये। मेरा यकीन सच निकला। सचिन का बैग सही-सलामत मिल गया।
दो बज चुके थे। मन तो मेरा भी नहीं था कमरा लेने का लेकिन नींद ऐसी आ रही थी कि आंख खोले नहीं खुल रही थी। कमरे की तलाश में निकल पडे। कई होटलों के दरवाजे पीटे, सभी में हलचल भी हुई लेकिन किसी भी होटल में कोई भी कमरा खाली नहीं मिला। कम से कम छह-सात जगह टक्कर मारी। लोग तो घूमने मनाली जाते हैं, ये कौन गधे हैं जो बिलासपुर में छुट्टियां मना रहे हैं। सारे होटल भरे पडे हैं।
काफी दूर एक गुरुद्वारे के दरवाजे के सामने सुनसान गली में चार पांच पुलिसवाले दारू पीने में लगे पडे थे। हमें आते देखा तो चौकस भी हुए। जब हमने आपबीती सुनाई और कहा कि कल हम शिकारी माता जायेंगे तो सहायता करने की कोशिश करने लगे। बताया कि बस अड्डे के पास ही मण्डी है। वहां गेटकीपर अगर दरवाजा खोल दे तो आपको फ्री में सोना मिल जायेगा। नहीं तो पास में एक मन्दिर है, उसके आंगन में सो सकते हो। एक पुलिसवाला हमें कुछ दूर तक लेकर भी आया ताकि हमें रास्ता समझ में आ जाये।
मण्डी में कोई नहीं दिखा, आवाज भी लगाई लेकिन कोई नहीं आया। अब मैं बस अड्डे के पास एक गली में रुक गया और सचिन व सुरेन्द्र मन्दिर की तरफ चले गये कि सोने की कैसी सम्भावना है। मैं वहां सोने के खिलाफ था क्योंकि घण्टे भर बाद ही लोगबाग आने शुरू हो जायेंगे।
तीन बज गये। हमें सुनसान पडे बिलासपुर में घूमते हुए एक घण्टा हो चुका था। अब मेरा इरादा सुन्दरनगर जाने का होने लगा था। पांच बजे तक सुन्दरनगर पहुंच जायेंगे। उसके बाद की वहां पहुंचकर देखी जायेगी। तभी सुरेन्द्र ने खुशखबरी दी कि बस अड्डे के प्रतीक्षालय में बडा अच्छा सोने का प्रबन्ध है। जाकर देखा तो लगा जन्नत में आ गये। जिसके लिये कई घण्टों से तरस रहा था, अब वो सामने थी। पूरे प्रतीक्षालय में कंक्रीट की बेंचें बनी हुई हैं। कुछ लोग सो भी रहे हैं, फिर भी कई खाली थीं। पंखें भी चल रहे थे। मैंने अपने लिये कोने वाली जगह ले ली। पास ही में सुरेन्द्र भी लेट गया। सुरेन्द्र के उस तरफ सचिन ने आसन जमाया। प्रतीक्षालय में घुसने के पांच मिनट के अन्दर मैं इस दुनिया से अनजान हो चुका था।
छह बजे सचिन ने मुझे उठाया। मैंने कहा कि सोने दे, मैं अपने आप उठ जाऊंगा। फिर उसने सात बजे उठाया। इस बार भी मैंने यही कहा। वो नहीं माना- उठो, बहुत टाइम हो गया है। जल्दी चलो, नहीं तो हम लेट हो जायेंगे। मैं अनसुना करते हुए लेटा रहा तो वह मुझे हिलाने लगा। इस समय बडी गहरी नींद आ रही थी। सुरेन्द्र भी गहरा सोया हुआ था। मैं उठ तो गया लेकिन कहा कुछ नहीं। किसी शेर के सामने से शिकार छीन लो और शेर को जो गुस्सा आयेगा, उससे भी ज्यादा गुस्सा मुझे इस समय आ रहा था। इसे मैं कल से अपनी रामकहानी सुनाता आ रहा हूं, इस पर कोई असर नहीं हो रहा। मैं हालांकि चुप था लेकिन अन्दर ही अन्दर उबलता जा रहा था। दिल्ली वापस लौटने का मन भी बना चुका था। पूरी रात सचिन ने खराब की, अब नींद भी खराब कर रहा है। इसीलिये मैं अकेला घूमता हूं। मेरा दिमाग खराब था, समय खराब था कि सचिन से चैटिंग की और इसे साथ चलने का न्यौता दे बैठा।
लेकिन गुस्से में मैं कभी कोई निर्णय नहीं लिया करता। कल पूरे दिन नहीं नहाया था, परसों भी नहीं नहाया था और उससे पहले दिन भी नहीं। दिल्ली की बस तो पकडनी ही है, लेकिन पहले नहा लूं। अभी इन्हें अपना निर्णय नहीं बताऊंगा, नहाते समय ये मेरे सामान की रखवाली करेंगे। ... और जब नहाने लगा तो शान्ति मिली, सुकून मिला। मन में अच्छी अच्छी बातें आने लगीं- गलत तो सचिन भी नहीं है। थोडी नींद की समस्या जरूर हुई है लेकिन अगर अब रूपनगर से शुरू करते तो दोपहर हो जाती यहां बिलासपुर पहुंचने में। शाम हो जाती रोहांडा पहुंचने में जहां से कमरुनाग की पैदल यात्रा शुरू होती है। अब अच्छा ही हुआ, दोपहर तक रोहांडा पहुंच जायेंगे और शाम तक कमरुनाग। फिर ये दोनों भी तो मेरे ही भरोसे आये हैं। मैं ऐसा करूंगा तो क्या सोचेंगे ये? कितनी घटिया छवि बनेगी मेरी?
भला बिलासपुर से सुन्दरनगर की बसों की क्या कमी?


यह वास्तविक गूगल मैप है। इसे जूम-इन, जूम-आउट व इधर-उधर भी किया जा सकता है। पहले पता होता कि हम आज बिलासपुर जायेंगे तो मैं सोलन से शिमला जाकर रात ग्यारह-बारह बजे तक बिलासपुर जा पहुंचता।

चूडधार कमरुनाग यात्रा

1. कहां मिलम, कहां झांसी, कहां चूडधार
2. चूडधार यात्रा- 1
3. चूडधार यात्रा- 2
4. चूडधार यात्रा- वापसी तराहां के रास्ते
5. भंगायणी माता मन्दिर, हरिपुरधार
6. तराहां से सुन्दरनगर तक- एक रोमांचक यात्रा
7. रोहांडा में बारिश
8. रोहांडा से कमरुनाग
9. कमरुनाग से वापस रोहांडा
10. कांगडा रेल यात्रा- जोगिन्दर नगर से ज्वालामुखी रोड तक
11.चूडधार की जानकारी व नक्शा




Comments

  1. थका देना वाला सफर व साथ मे रोमांचक भी.

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  2. "छह बजे सचिन ने मुझे उठाया। मैंने कहा कि सोने दे, मैं अपने आप उठ जाऊंगा। फिर उसने सात बजे उठाया। इस बार भी मैंने यही कहा। वो नहीं माना- उठो, बहुत टाइम हो गया है। जल्दी चलो, नहीं तो हम लेट हो जायेंगे। मैं अनसुना करते हुए लेटा रहा तो वह मुझे हिलाने लगा। इस समय बडी गहरी नींद आ रही थी। सुरेन्द्र भी गहरा सोया हुआ था। मैं उठ तो गया लेकिन कहा कुछ नहीं। किसी शेर के सामने से शिकार छीन लो और शेर को जो गुस्सा आयेगा, उससे भी ज्यादा गुस्सा मुझे इस समय आ रहा था। इसे मैं कल से अपनी रामकहानी सुनाता आ रहा हूं, इस पर कोई असर नहीं हो रहा। मैं हालांकि चुप था लेकिन अन्दर ही अन्दर उबलता जा रहा था।"

    जो भी नीरज के साथ घूमने जाएँ वो इस बात का अवश्य ध्यान रखे कि भाई घूमने से ज्यादा सोता है !

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  3. अब पता चल गया

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  4. अब इस जाट को कभी नही उठाना

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  5. जब आप जल्दी में होते हैं तो सारी कायनात आपके विरुद्ध हो जाती है। आप और ज्यादा लेट होते चले जाते हैं।ये बात एकदम सही है --- इस बार तो पढ़ते -पढ़ते थका दिया नीरज --और क्या कैमरे में रील नहीं थी या चार्ज नहीं था फोटु एक भी नहीं ---

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब