Skip to main content

कहां मिलम, कहां झांसी और कहां चूडधार?

बडे जोर-शोर से तैयारियां हो रही थी मिलम ग्लेशियर जाने की। काफी समय पहले वहां जाने की योजना बन चुकी थी, पर्याप्त होमवर्क भी कर चुका था। इसके अलावा मिलम और मुन्स्यारी के रास्ते में या थोडा-बहुत इधर उधर हटकर कुछ और स्थानों की भी जानकारी ले ली थी जैसे कि नन्दा देवी ईस्ट बेस कैम्प और नामिक ग्लेशियर।
मेरा दिल्ली से सोमवार की सुबह निकलना होता है। हल्द्वानी जल्दी से जल्दी पहुंचने के लिये आनन्द विहार से शताब्दी एक्सप्रेस एक उत्तम ट्रेन है। पहले इसके स्थान पर एक एसी ट्रेन चला करती थी, उसमें थर्ड एसी के डिब्बे होते थे, आराम से सोने के लिये बर्थ मिल जाया करती थी और शताब्दी से सस्ती भी होती थी। अब इसे शताब्दी का दर्जा दे दिया है जिससे कुमाऊं वालों को भी यह कहने का मौका मिल गया है कि उनके पास भी शताब्दी है। हालांकि यह भारत की सबसे घटिया शताब्दियों में से एक है।

इसमें पुराने जमाने के किसी दूसरी शताब्दी के रिटायर हुए डिब्बे लगे हैं। इनका सस्पेंशन उतना अच्छा नहीं है और गाडी चलते समय बुरी तरह इधर उधर हिलती है। समय सारणी इस तरह की है कि ढाई सौ किलोमीटर तय करने में छह घण्टे लगाती है। रामपुर से काठगोदाम के बीच हर स्टेशन पर रुकती है- किसी पर आधिकारिक तौर पर तो किसी पर तकनीकी तौर पर; लेकिन रुकती अवश्य है। चमरुआ जैसे छोटे से स्टेशन पर भी। फिर भी पर्याप्त समय मिलने के कारण हमेशा समय से पहले ही स्टेशनों पर पहुंचती है। रामपुर तो यह पन्द्रह मिनट पहले पहुंच गई थी।
गाजियाबाद में एक मजेदार घटना हुई। गाडी में उदघोषणा हुई कि यह काठगोदाम शताब्दी है, लखनऊ शताब्दी वाले यात्री इसमें न चढें। गौरतलब है कि इसके पीछे पीछे ही नई दिल्ली से आने वाली लखनऊ शताब्दी भी आ रही होती है। तो एक ही समय पर प्लेटफार्म पर दोनों ट्रेनों के यात्री होते हैं। उनके सामने जब शताब्दी ट्रेन आकर रुकती है तो वे बिना आगा-पीछा देखे इसमें चढ लेते हैं। शताब्दी में ज्यादातर ज्यादा पढे-लिखे लोग यात्रा करते हैं। वे इतने ज्यादा पढे-लिखे होते हैं कि उन्हें न तो उदघोषणा सुनाई देती है, न ही ट्रेन के हर डिब्बे पर लिखा काठगोदाम शताब्दी का सूचना-पट्ट। कुछ को तो ट्रेन के अन्दर जाने के बाद उदघोषणा तक नहीं सुनाई देती। अच्छा है कि रेलवे ने इस ट्रेन में उदघोषणा का इन्तजाम कर रखा है, अन्यथा रेलवे इतना भला-मानस नहीं है।
तो जी ट्रेन चल पडी। एक जोडा आनन्द विहार से बैठे आ रहे दो यात्रियों को कहने लगा कि वह उनकी सीट है। दूसरे कुछ समझदार यात्रियों को लगा कि ये लखनऊ शताब्दी वाले हैं। उन्होंने उस जोडे को समझाया। बेचारे एकदम घबरा गये। लखनऊ शताब्दी कानपुर के रास्ते जाती है अन्यथा मुरादाबाद उतरकर बदल सकते थे। तुरन्त चीते सी फुर्ती दिखाई और एक चेन पकडकर पूरी तरह लटक गया। गाडी रुक गई। दोनों उतर गये। अभी तक ट्रेन विजयनगर फाटक भी नहीं पहुंच पाई थी। अब वे या तो पैदल गये होंगे, या रिक्शा विक्शा कर ली होगी।
भारतीय रेल नेटवर्क दुनिया में चौथे स्थान पर है। यह हमारे जनजीवन का हिस्सा है, इसके बिना भारत की कल्पना ही नहीं की जा सकती। मेरे देशवासियों को रेलवे की आधारभूत जानकारी तो होनी ही चाहिये।
इससे पहले आनन्द विहार पर जब मैं पहुंचा था तो आदतन डिब्बे पर लगे आरक्षण चार्ट को देखने लगा। जब देखा कि मेरी बगल वाली सीट पर एक चौबीस वर्षीया लडकी का आरक्षण है तो खुशी से उछल पडा। यह एक दुर्लभ मौका था। अक्सर आरक्षण चार्ट में मेरे नाम के ऊपर और नीचे दूर दूर तक किसी लडकी का नाम नहीं होता। इतनी ट्रेन यात्राएं करता हूं, हमेशा आरक्षण चार्ट देखने से पहले ऊपर वाले से दुआ भी करता हूं लेकिन कभी सुनवाई नहीं होती। इस बार जैसे ही देखा ‘फीमेल 24’ तो तुरन्त डिब्बे में जा घुसा। न उसका नाम देखा, न ये देखा कि वह चढेगी कहां से। अपनी सीट पर गया तो बगल वाली दोनों सीटों पर दो मुश्टण्डे बैठे थे। उन्हें देखते ही दिमाग खराब हो गया- बेटा, लगता है पहली बार ट्रेन में बैठे हो। तभी तो आ गये मुंह उठाकर और खाली सीट देखकर बैठ भी गये। आने दो उस लडकी को, उठना तो पडेगा ही। मुझसे खिडकी वाली सीट भी मांगेगी, तुरन्त दे दूंगा।
ट्रेन चल पडी, वह नहीं आई। चक्कर क्या है? यह जरूर कोई बडा ग्रुप है, लडकी को इन्होंने कहीं और बैठा दिया है। लेकिन जब टीटीई आया, टिकट चेक किया तो यह भ्रम भी मिट गया। ये दो ही थे। इन्होंने टीटीई से कुछ कहा भी लेकिन मुझे समझ नहीं आया।
आखिरकार गाजियाबाद में उसने प्रवेश किया- भईया, यह मेरी सीट है। इन्होंने बडा सभ्य बनते हुए कहा- मैडम, वो वहां उस बुड्ढे के बराबर की खाली सीट हमारी है, आप वहां बैठ जाइये। वो वहां चली गई। अब सारा माजरा मुझे समझ में आ गया। इन दोनों कमीनों को अलग-अलग जगह सीट मिली- मिलनी भी चाहिये। बल्कि अलग-अलग डिब्बों में मिलनी चाहिये थी। साथ बैठने के लिये इन्होंने एक अच्छी-भली लडकी की भी सीट बदलवा दी। दिनभर साथ रहते होंगे, पढते होंगे या नौकरी करते होंगे, साथ ही करते होंगे। आज दो घण्टे के लिये अलग-अलग बैठ जाते तो क्या बिगड जाता इनका? उस बेचारी को बुड्ढे के बराबर में भेज दिया। टीबी-ऊबी हो गई उसे तो...?
खैर, साढे ग्यारह बजे हल्द्वानी पहुंचा। सीधा बस अड्डे गया। मेरा इरादा आज बागेश्वर या बेरीनाग जाने का था ताकि कल दोपहर तक मुन्स्यारी पहुंचकर मिलम के लिये परमिट ले सकूं। बस अड्डे के बाहर प्राइवेट बसें खडी रहती हैं। एक बस बागेश्वर की भी खडी थी। मैं उत्तराखण्ड की इन प्राइवेट बसों में यात्रा करना पसन्द नहीं करता। अन्दर सरकारी बसें होंगी। जाकर देखा तो पहाड पर जाने वाली एक भी बस नहीं मिली। दिल्ली, हरिद्वार और टनकपुर की बसें ही थीं। अब तीसरा विकल्प था सूमो। पूछताछ की तो पता चला कि सभी सूमो और ज्यादातर बसें चुनाव ड्यूटी में लगी हैं। सात तारीख यानी परसों यहां चुनाव हैं। अब मेरे सामने आगे जाने के लिये एकमात्र विकल्प था वही बागेश्वर जाने वाली प्राइवेट बस।
जब वाहनों की इतनी किल्लत है तो भीड भी मिलेगी। बस पूरी तरह भरी हुई थी। बागेश्वर की एक सवारी यानी मुझे देखते ही उन्होंने दरवाजे की बगल में लकडी के एक फट्टे पर आडा-तिरछा होकर बैठने के लिये कह दिया। साथ ही यह भी बताया कि अल्मोडा जाने वाली यह आखिरी बस भी हो सकती है। मुन्स्यारी की बस के बारे में पूछा तो बताया कि कल दिल्ली-मुन्स्यारी बस रद्द थी। ज्यादातर बसों का यही हाल है। यही सोचकर मैं बैठ गया कि आज बागेश्वर तक तो पहुंच ही जाऊंगा, कल की कल देखी जायेगी।
बस चली तो बुरी तरह भर चुकी थी। दरवाजे के पास होने के कारण कई यात्री मेरे ऊपर गिरने की कगार पर थे। काठगोदाम के बाद चढाई और घुमावदार रास्ता शुरू हो गया। यह ज्योलीकोट के रास्ते जा रही थी। मौसम भी खराब होने लगा और ज्योलीकोट से निकलने के बाद बारिश भी पडने लगी।
खैरना पुल के बाद और अल्मोडा से पच्चीस-तीस किलोमीटर पहले बस एक होटल के पास आधे घण्टे के लिये रुक गई। अब तक मेरी हालत खराब होने लगी थी और उल्टी होने के लक्षण भी दिखने लगे थे। बस रुकी तो बडी राहत मिली। बाहर टहलने लगा। कुछ खा नहीं सकता था क्योंकि इससे उल्टी और जल्दी हो जाती। उधर मौसम भी खराब था ही। नेट पर मुन्स्यारी का मौसम देखने लगा तो अगले चार पांच दिनों तक वहां खूब बारिश होने वाली थी। हिमाचल तरुण गोयल से बात की तो उन्होंने बताया कि सुन्दरनगर में दो दिनों से बडी भयंकर बारिश हो रही है। इसका अर्थ है कि मुन्स्यारी के मौसम की भविष्यवाणी बिल्कुल ठीक है। यह पश्चिमी विक्षोभ की वजह से हो रहा था जो पहले हिमाचल में बरसता है और फिर उत्तराखण्ड आता है।
दूसरी बात थी कि पता नहीं मुन्स्यारी से मिलम का परमिट मिले या न मिले। खराब मौसम की वजह से मिलम के आसपास बर्फबारी भी हो सकती है। बर्फबारी हो गई तो अफसर लोग किसी भी हालत में परमिट नहीं देने वाले। फिर चुनाव। अगर कल परमिट नहीं मिला तो परसों तो कतई नहीं मिलेगा। उसके बाद मिलेगा तो मेरे पास वापस लौटने के लिये समय कम रहेगा।
यही सब सोचकर मैंने मिलम जाना स्थगित कर दिया। बस से सारा सामान उतारा। वैसे एक बार बद्रीनाथ जाने की भी इच्छा हुई। फिर उसे भी रद्द कर दिया। वापस हल्द्वानी चलता हूं। वहां पहुंचकर आगे का कार्यक्रम बनाऊंगा। सामान ढोने वाली एक छोटी गाडी में बैठकर शाम पांच बजे तक काठगोदाम आ गया। बारिश होने से मौसम सुहावना हो ही गया था। अच्छा लग रहा था। स्टेशन में घुसा तो सामने गरीब रथ खडी थी। इस पर लिखा था- अमृतसर-काठगोदाम-कानपुर सेंट्रल। यह ट्रेन सप्ताह में एक दिन अमृतसर और काठगोदाम के बीच चलती है और एक दिन काठगोदाम और कानपुर के बीच। आज अब पता नहीं यह कानपुर जायेगी या अमृतसर। मैंने सोचा अमृतसर जायेगी। ठीक है, अमृतसर ही चलता हूं। मौसम अच्छा है ही। जब तक ऐसा मौसम रहेगा, अमृतसर घूमूंगा। जब गर्मी बढ जायेगी तो हिमाचल चला जाऊंगा।
करंट आरक्षण कराना था। क्लर्क से पूछा कि गरीब रथ में करंट में मिल जायेगा क्या? बोला कि हां, मिल जायेगा, खाली पडी है। मैंने फार्म भरा और क्लर्क को दे दिया। उसने देखते ही कहा कि यह ट्रेन आज अमृतसर नहीं जायेगी, बल्कि कानपुर जायेगी। आव देखा न ताव, कानपुर का टिकट बनाने को कह दिया। बाद में योजना बनाई कि बुन्देलखण्ड और मध्य प्रदेश देख लूंगा।
ठीक समय पर सुबह चार साढे चार बजे कानपुर पहुंच गया। सुबह सवेरे तो वैसे भी हर जगह मौसम खुशनुमा ही होता है। सोचा शुरूआत झांसी से करूंगा। सात बजे झांसी पैसेंजर चलती है। टिकट लिया और बैठ गया। इसमें उम्मीद से ज्यादा भीड थी। कानपुर से निकलने के बाद बूंदाबांदी भी हुई। लेकिन यह खुशनुमा मौसम ज्यादा देर नहीं चला। कालपी और उरई तक बादल गायब हो चुके थे। तेज धूप पडने लगी थी। जैसे जैसे झांसी की तरफ बढता जा रहा था, दोपहर भी होती जा रही थी और गर्मी व लू भी। मैंने इस मौसम की कल्पना भी नहीं की थी। झांसी पहुंचने से पहले ही तय कर लिया कि अब बुन्देलखण्ड और एमपी नहीं घूमना। आज का दिन वैसे तो खराब हुआ ही लेकिन एक बात की तसल्ली है कि कानपुर-झांसी रूट देख लिया। आज नहीं तो कल इस रूट पर आना ही था।
दो बजे झांसी पहुंचा- डेढ घण्टे लेट। अब जाकर देखा तो दिल्ली की कई ट्रेनें मिल गईं। झेलम, पंजाब मेल और मदुरई-देहरादून। इनमें झेलम और पंजाब मेल दैनिक ट्रेनें हैं जबकि मदुरई-देहरादून साप्ताहिक। इस तरह इस ट्रेन में कम भीड होनी चाहिये। फिर इसके ठहराव भी कम हैं। तभी ध्यान आया कि इसमें कुछ डिब्बे चण्डीगढ के भी लगे होते हैं। मैंने चण्डीगढ का टिकट ले लिया। क्लर्क ने टिकट देते समय सुझाव दिया कि झेलम से चले जाना, एक्सप्रेस ट्रेन है। मैंने जब मदुरई-देहरादून का नाम लिया तो बोला ठीक है।
जैसी उम्मीद थी, वैसा ही हुआ। पहले झेलम आई, फिर पंजाब मेल। दोनों ठसाठस भरी हुई। बाद में जब मदुरई-देहरादून आई तो बिल्कुल खाली थी। जो कुछ जनरल डिब्बों में यात्री थे, वे झांसी उतर गये। मैं चण्डीगढ वाले डिब्बों में जा चढा, आगे ही लगे होते हैं। झांसी से इस डिब्बे में कुछ लोग चढे तो मैंने झट से पूछ लिया कि कहां जाओगे। उन्होंने बताया हरिद्वार तो मैंने कहा कि यह डिब्बा हरिद्वार नहीं जायेगा, सहारनपुर में कट जायेगा। तुम अभी सबसे पीछे वाले डिब्बों में चले जाओ। वे चले गये। इसी तरह पूछ-पूछकर मैंने हरिद्वार-देहरादून के कई यात्रियों को उतारा। आखिर मेरी भी रातभर की यात्रा थी, डिब्बा खाली रहे तो ही अच्छा है।
यहीं से एक बडा सा परिवार चढा। ट्रेन जब चल पडी तो मैंने उनसे भी पूछ लिया। उन्होंने बताया मथुरा। मैंने कहा कि यह ट्रेन मथुरा नहीं रुकती, आपको आगरा उतरकर दूसरी ट्रेन से जाना पडेगा। बेचारे परेशान तो हुए लेकिन चूंकि मैंने भी सच ही कहा था, इसलिये निजामुद्दीन जाकर भटकने से अच्छा था कि आगरा ही उतर जाते। उन्होंने ऐसा ही किया।
ये तीन ट्रेनें एक के पीछे एक चल रही थीं। सबसे आगे पंजाब मेल, फिर झेलम और फिर मेरी वाली। इनमें झेलम के ठहराव सबसे ज्यादा हैं। फिर भी मेरी वाली को झेलम से आगे नहीं निकाला गया। इस वजह से इस ट्रेन को भी झेलम की तरह ही चलना पड रहा था। झेलम किसी स्टेशन पर रुकती, इसे पिछले स्टेशन पर रुकना पडता। झेलम फिर बीस किलोमीटर बाद रुकती तो इसे भी रुकना पडता। पता नहीं ट्रैफिक कण्ट्रोलर किस तरह का आदमी था? उसे इस ट्रेन को झेलम से आगे निकाल देना चाहिये था। दिल्ली तक झेलम आगे ही रही।
रात दस बजे निजामुद्दीन पहुंचे। ट्रेन जिस तरह न मथुरा रुकी, न फरीदाबाद रुकी; कुछ यात्रियों ने सोचा कि यह निजामुद्दीन भी नहीं रुकेगी। प्लेटफार्म पर आधी ट्रेन ने ही प्रवेश किया था कि किसी ने चेन खींच दी। ट्रेन रुकी तो जिसे उतरना था, उतर गये। जो निजामुद्दीन पर प्रतीक्षा कर रहे थे, वे भी भागदौड करके चढ गये। मेरे डिब्बे में हरिद्वार-देहरादून के काफी सारे यात्री आ गये। मुझे नीचे वाली सीट पर सोना था। मैंने इनसे भी कहा कि सबसे पीछे वाले डिब्बों में जाओ तो वे परेशान हो गये कि ट्रेन तो निजामुद्दीन से चल चुकी है, अब कहां रुकेगी? मैंने बताया कि चेन खींचने के कारण रुक गई थी। अब निजामुद्दीन पर ही अपने ठीक स्थान पर रुकेगी। आधे घण्टे से ज्यादा रुकी रहेगी। आराम से चले जाना। ऐसा ही हुआ। यहां ट्रेन से इलेक्ट्रिक इंजन हटाकर डीजल इंजन लगाया जाता है।
गाजियाबाद से सात-आठ लडके चढे। उन्हें अम्बाला जाना था। मेरे ही कूपे में आ गये। मैं तब तक पैर फैलाकर पसर चुका था। इन्हें देखकर सोचा कि कुछ भी हो जाये, अब उठना नहीं है। अनुभव से पता था कि ये कुछ देर तक बैठे रहेंगे लेकिन जैसे जैसे समय बीतता जायेगा, नींद आती जायेगी और ये जहां जगह मिलेगी, अखबार या चादर बिछाकर सोते चले जायेंगे। बातचीत की तो पता चला कि वे नोयडा में नौकरी करते हैं। इनकी कम्पनी की दूसरी शाखा काला अम्ब में है, उस सिलसिले में जा रहे हैं। मैंने इन्हें धिक्कारा कि कम्पनी के काम से जा रहे हो और इस तरह जनरल डिब्बे में गिर-पडकर यात्रा कर रहे हो। आपको तो शताब्दी से जाना चाहिये था। बोले कि नई नई नौकरी लगी है, जैसा बॉस कहेगा वैसा करना होता है।
ग्यारह से ऊपर बज चुके थे। जल्दी ही इन्हें नींद आने लगी। लेकिन इधर उधर लेटने से संकोच कर रहे थे। मैंने उकसाया कि पूरी रात का सफर है, बैठे बैठे नहीं काटा जा सकता। यहीं नीचे चादर या अखबार बिछा लो और सो जाओ। देखो, उधर दूसरे यात्री भी इसी तरह सो रहे हैं। भाषण सुनकर एक की हिम्मत बढी। उसने दोनों सीटों के बीच में चादर बिछा दी और लेट गया। बस, खरबूजों ने रंग पकड लिया। दस मिनट के अन्दर सभी लेट चुके थे।
सहारनपुर में ट्रेन के चण्डीगढ और देहरादून वाले डिब्बे अलग अलग होते हैं। चण्डीगढ वालों का यहां एक घण्टे का ठहराव है। मच्छर लगने लगे। मेरे पास ऑडोमॉस था। खुद भी लगाया और अम्बाला वाले सहयात्रियों को भी दिया। आओ मच्छरों, अब काटकर दिखाओ।
अम्बाला में हलचल सुनकर आंख खुल गई। कूपा पूरी तरह खाली हो चुका था। उधर लगातार उदघोषणा भी हो रही थी बाडमेर से कालका जाने वाली ट्रेन फलां प्लेटफार्म पर आने वाली है। बस, तभी सोच लिया कि चण्डीगढ से कालका जाने के लिये इसी ट्रेन से जाऊंगा। झांसी से यहां तक 14-15 घण्टों की यात्रा में तय कर लिया था कि चूडधार जाऊंगा।
हल्द्वानी में खडी शताब्दी

काठगोदाम में खडी गरीब रथ

कानपुर-झांसी रूट पर भीमसेन है। यहां से बांदा के लिये लाइन अलग होती है।

“रानी बढी कालपी आई”... यह वही कालपी है, यमुना के बिल्कुल किनारे बसा हुआ।




अगला भाग: चूडधार यात्रा- 1

चूडधार कमरुनाग यात्रा

1. कहां मिलम, कहां झांसी, कहां चूडधार
2. चूडधार यात्रा- 1
3. चूडधार यात्रा- 2
4. चूडधार यात्रा- वापसी तराहां के रास्ते
5. भंगायणी माता मन्दिर, हरिपुरधार
6. तराहां से सुन्दरनगर तक- एक रोमांचक यात्रा
7. रोहांडा में बारिश
8. रोहांडा से कमरुनाग
9. कमरुनाग से वापस रोहांडा
10. कांगडा रेल यात्रा- जोगिन्दर नगर से ज्वालामुखी रोड तक
11.चूडधार की जानकारी व नक्शा




Comments

  1. मुझसे खिडकी वाली सीट भी मांगेगी, तुरन्त दे दूंगा।
    उस बेचारी को बुड्ढे के बराबर में भेज दिया। टीबी-ऊबी हो गई उसे तो...?

    हाय रे किस्मत "बेचारी की" :-)

    ReplyDelete
  2. ultimate travelling...chudddhar ek mast treking place hai

    ReplyDelete
  3. नीरज भाई असली घुमक्कडी का इससे बढ़िया उदाहरण नहीं हो सकता ....अगले भाग का बड़ा बेसब्री से इंतज़ार है ..

    ReplyDelete
  4. क्या घुम्मकड़ी है... जाना कहाँ था कहाँ पहुँच गए..... | बहुत खूब...

    ReplyDelete
  5. afsos!!! iss baar bhi ladki ni mili..........
    aapke lekhan ne purani raftar pakad li........ dekh kar achha laga!!!!!!!!!!

    jaate the japan pahuch gaye chin samajh gaye na...... yani!!!!!! pyaar ho gaya!!!!!!!!!

    ReplyDelete
  6. भाई निकले थे,ग्लेशियर के लिए, पहुंच गए लू से मुकाबला करने.
    इतनी हिम्मत आप मे ही है भाई की चलते फिरते कार्यक्रम बना लो,यहां नही तो वहां.
    आपको व आपकी घुम्मक्कडी को सलाम.

    ReplyDelete
  7. नीरज भाई कुछ नया रूट ढूंढो आजकल आपकी पोस्ट कम आ रही है है

    ReplyDelete
  8. बड़े ही चटकारे ले-ले कर पढ़ा ... बहुत ही चटपटी पोस्ट थी इस बार तो नीरज भाई मजा आ गया.....
    चटपटी इतनी की शिकंजी पीनी पद गयी चटपटाहट मिटाने के लिए.

    और लिक्खो

    ReplyDelete
  9. लड़की की बड़ी फ़िक्र हुई :)

    ReplyDelete
  10. नीरज भाई मुसाफिर है तो कही ना कही जाना है

    ReplyDelete
  11. यार झाँसी आये आप और पता नहीं चला । आपसे एक बार फोन पे बात भी हुयी थी। फिर ऋषिकेश में कैम्पिंग का प्रोग्राम कैंसल हुआ।

    ReplyDelete
  12. Gr8 Bhai>>>>>kya khoob likha hai>>>

    ReplyDelete
  13. bahut be-insafi hui Niraj--- "nikle the kaha jane ke liye pahuche hai kaha maalum nahi "

    ReplyDelete
  14. खूब चक्रम प्रोग्राम रहा भई..

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब