Skip to main content

बराक घाटी एक्सप्रेस

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें
यह भारत की कुछ बेहद खूबसूरत रेलवे लाइनों में से एक है। आज के समय में यह लाइन असोम के लामडिंग से शुरू होकर बदरपुर जंक्शन तक जाती है। बदरपुर से आगे यह त्रिपुरा की राजधानी अगरतला चली जाती है और एक लाइन सिल्चर जाती है। अगरतला तक यह पिछले दो-तीन सालों से ही है, लेकिन सिल्चर तक काफी पहले से है। इसलिये इसे लामडिंग-सिल्चर रेलवे लाइन भी कहते हैं। यह लाइन मीटर गेज है। मुझे आज लामडिंग से शुरू करके सिल्चर पहुंचना है।
लामडिंग से सिल्चर के लिये दिनभर में दो ही ट्रेनें चलती हैं- कछार एक्सप्रेस और बराक घाटी एक्सप्रेस। कछार एक्सप्रेस एक रात्रि ट्रेन है जबकि बराक घाटी एक्सप्रेस दिन में चलती है और हर स्टेशन पर रुकती भी है। इनके अलावा एक ट्रेन लामडिंग से अगरतला के लिये भी चलती है। दक्षिणी असोम को कछार कहते हैं। इनमें दो जिले प्रमुख हैं- कछार और नॉर्थ कछार हिल्स। कछार जिले का मुख्यालय सिल्चर में है और नॉर्थ कछार हिल्स जिले का मुख्यालय हाफलंग में। यह ट्रेन हाफलंग से होकर गुजरती है। इसी तरह कछार में एक मुख्य नदी है- बराक। सिल्चर बराक नदी के किनारे बसा हुआ है। इन्हीं के नाम पर ट्रेनों के नाम भी हैं।
इस लाइन का इतिहास सौ साल से भी ज्यादा पुराना है। उस समय गुवाहाटी का रेल सम्पर्क आज की तरह न्यूजलपाईगुडी से नहीं था बल्कि ढाका और चटगांव से था। बांग्लादेश के रास्ते ट्रेनें कलकत्ता भी जाया करती थीं। बदरपुर से आगे करीमगंज है। चटगांव वाली ट्रेनें करीमगंज से ही होकर जाती थीं। आजादी के बाद करीमगंज से आगे का इलाका पाकिस्तान में आ जाने के कारण उधर की ट्रेनें बन्द कर दी गईं। एक समय असोम का रेल सम्पर्क बाकी देश से कट गया था। इसे न्यू जलपाईगुडी से जोड देने पर यह सम्पर्क पुनः बहाल हुआ।
आइये, यात्रा जारी रखते हैं। बराक घाटी एक्सप्रेस लामडिंग से सुबह चार बजे चलती है। सिल्चर की दूरी यहां से 215 किलोमीटर है और इसे तय करने में 13 घण्टे से भी ज्यादा लगते हैं। मेरी इच्छा लामडिंग से सिल्चर तक जगे रहने की थी लेकिन राजधानी एक्सप्रेस के लेट हो जाने और पर्याप्त नींद न ले पाने के कारण मैं सो गया। इस ट्रेन में दो डिब्बे शयनयान के होते हैं। मेरा आरक्षण था। साइकिल को मैंने बर्थ के नीचे रख दिया था। इस काम में स्थानीय यात्रियों ने काफी सहायता की।
भारत के इस हिस्से में दिल्ली के मुकाबले एक घण्टे पहले सूर्योदय हो जाता है लेकिन फिर भी साढे चार बजे काफी अन्धेरा था, ठण्ड उतनी नहीं थी। ठीक समय पर ट्रेन रवाना हुई। इसमें काफी संख्या में ऐसे यात्री भी थे जिन्हें रात कछार एक्सप्रेस पकडनी थी और नहीं पकड सके थे। कछार एक्सप्रेस सभी स्टेशनों पर नहीं रुकती इसलिये वह अपना सफर इस ट्रेन के मुकाबले जल्दी तय कर लेती है।
पौने सात बजे मूपा जाकर आंख खुली, गाडी आधे घण्टे की देरी से चल रही थी। बाहर सूरज निकल आया था। सुभाष जोशी जो दिल्ली से मेरे साथ राजधानी एक्सप्रेस में आये थे, भी सिल्चर जा रहे थे। वे बीआरओ में हैं और लम्बे समय मिज़ोरम के सेलिंग में काम किया है। आजकल सिल्चर में पोस्टिंग है। उन्होंने बताया था कि सिल्चर से पहले कुछ भी खाने को नहीं मिलेगा। इसलिये मैंने लामडिंग में ही पेट भर लिया था और काफी मात्रा में बिस्कुट नमकीन भी ले लिये थे। हां, वो अलग बात है कि ये सभी बिस्कुट नमकीन सिल्चर तक ज्यों के त्यों बैग में रखे रहे।
माईबांग में काफी यात्री उतर गये। माईबांग उत्तरी कछार हिल्स में काफी बडा कस्बा है। यह एक ऐतिहासिक स्थान भी है। माईबांग कछारी राजाओं की काफी लम्बे समय तक राजधानी भी रही है। राजमहल के अवशेष यहां अब भी हैं।
यह इलाका पूर्णतः पर्वतीय है। अगर आप भारत के नक्शे को देखें तो आपको सुदूर पूर्व में म्यांमार दिखाई देगा। भारत-म्यांमार का सीमावर्ती इलाका घने जंगलों और पहाडों से युक्त है। इनमें विभिन्न जनजातियां निवास करती हैं। पहले यह सब आसाम का हिस्सा था लेकिन इन जनजातियों के संघर्ष के पश्चात नागालैण्ड, मणिपुर और मिज़ोरम जैसे राज्य बनाये गये। ये तीनों राज्य इन्हीं पहाडियों और जंगलों में स्थित हैं। इन्हीं पर्वतीय श्रंखलाओं से एक श्रंखला पश्चिम की ओर भी चली गई है जिसमें असोम का यह कछार इलाका है। और पश्चिम में जायें तो जयन्तिया, खासी और गारो पहाडियां भी इन्हीं का विस्तार हैं। जयन्तिया, खासी और गारो पहाडियों को मिलाकर मेघालय बनाया गया। मेघालय के पश्चिम में ये पहाडियां नहीं हैं। ब्रह्मपुत्र नदी कछार और मेघालय की पहाडियों के साथ साथ उत्तर में बहती है। जबकि दक्षिण में बराक नदी और उसकी सहायक नदियों का प्रभुत्व है।
फोटो पर क्लिक करके बडा किया जा सकता है।

दाओतुहाजा, फाइडिंग, माहुर और मिग्रेनडिसा के बाद लोअर हाफलंग स्टेशन आता है। माहुर में अगरतला से आने वाली ट्रेन मिली। इसमें सेकण्ड एसी के भी डिब्बे लगे थे।
इस मार्ग को ब्रॉड गेज में परिवर्तित करने का काम चल रहा है। ब्रॉड गेज के लिये पुल निर्माण का कार्य जोरों पर है। जहां कहीं आवश्यकता है वहां सुरंगें भी बनाई जा रही हैं। वैसे इस मीटर गेज में भी पुलों और सुरंगों की भरमार है। कुछ पुल तो काफी ऊंचे हैं और इन पर से गुजरना रोमांचित करता है। इसी तरह का एक प्रसिद्ध पुल दयांग पुल है। दयांग पुल के बराबर में इससे भी काफी ऊंचाई पर नया पुल बन रहा है जो बडी लाइन के लिये होगा।
लोअर हाफलंग इस मार्ग का मुख्य स्टेशन है। गौरतलब है कि हाफलंग उत्तरी कछार हिल्स जिले का मुख्यालय भी है। हाफलंग असोम का एकमात्र हिल स्टेशन भी है। स्टेशन पर रिटायरमेंट रूम हैं।
लोअर हाफलंग के बाद बागेतार और फिर है हाफलंग हिल। हाफलंग हिल स्टेशन 638 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। लामडिंग से यहां तक लगातार चढाई है। अब उतराई आरम्भ हो जायेगी। इस तरह देखा जाये तो यह स्थान ब्रह्मपुत्र और बराक नदियों का जल-विभाजक है।
हाफलंग हिल से अगला स्टेशन है जातिंगा। जातिंगा का नाम मैंने पहले भी कई बार सुना है। कहते हैं कि यहां मानसून के बाद पक्षी सामूहिक आत्महत्या करते हैं। वे रात में किसी प्रकाश स्त्रोत पर जाते हैं और वहीं मर जाते हैं। ऐसा हर साल बडे पैमाने पर होता है। विश्व के पक्षी विज्ञानी इस गुत्थी को सुलझाने में लगे हैं। इस मामले में विज्ञानियों ने कई सिद्धान्त दिये हैं। कोई कहता है कि ऐसा चुम्बकीय शक्ति की वजह से होता है। मानसून के बाद इस स्थान के चुम्बकत्व में कुछ परिवर्तन होता है जिसकी वजह से पक्षियों को मति-भ्रम हो जाता है। कोई इसके लिये स्थानीय निवासियों को जिम्मेदार मानता है। गौरतलब है कि यहां के लोग पक्षियों को खा लेते हैं। मानसून के बाद जब पक्षियों की संख्या बढ जाती है तो उन्हें रात में जंगल में जाकर भयभीत किया जाता है, उन्हें उडने को मजबूर किया जाता है और सीधी सी बात है कि वे अन्धेरे में उडने की बजाय किसी प्रकाश-स्त्रोत की ओर ही उडना पसन्द करेंगे। इस प्रकार अगर यही बात सत्य है तो यह सामूहिक आत्महत्या नहीं बल्कि सामूहिक हत्या है। खैर, जो भी हो, इस वजह से जातिंगा प्रसिद्ध है।
इस मार्ग पर यात्री गाडियों के मुकाबले मालगाडियां ज्यादा चलती हैं। सिल्चर एक प्रमुख व्यापारिक नगर है जो मणिपुर, मिज़ोरम और त्रिपुरा के केन्द्र में है। फिर गुवाहाटी-सिल्चर सडक बडी खराब अवस्था में है। इसलिये मालगाडियां ही सामान को इधर से उधर पहुंचाने का उपयुक्त विकल्प है। दिन में एक ही सवारी गाडी होने के कारण मालगाडियों में भी बडी संख्या में लोग यात्रा करते हैं। गार्ड का डिब्बा तो भरा रहता ही है, अगर कोई मालडिब्बा खुला हो तो उसमें भी यात्री बैठे मिल जाते हैं।
पता नहीं क्या बात है कि गाडी हर स्टेशन पर बीस-बीस पच्चीच-पच्चीस मिनट तक रुकती है। सामने से कोई गाडी नहीं आती, तब भी इतनी देर तो रुकती ही है। पर्वतीय मार्ग इसकी वजह नहीं है। शायद सिग्नल प्रणाली उतनी दुरुस्त न हो। इसी वजह से ट्रेन की समय सारणी भी इसी तरह की बनाई गई है कि कितनी भी देर तक रुके, लेकिन गाडी लेट न हो। आखिर 215 किलोमीटर की दूरी को 13 घण्टे में तय करने की क्या तुक? फिर भी गाडी दो घण्टे की देरी से हारांगाजाऔ पहुंची।
यह स्टेशन 241 मीटर की ऊंचाई पर है। इसके बाद दो स्टेशन छोडकर पहाडी मार्ग समाप्त हो जायेगा और मैदानी मार्ग आरम्भ हो जायेगा। पर्वतीय मार्ग पर दो इंजनों की आवश्यकता पडती है। हारांगाजाऔ में दूसरा इंजन छोड दिया। पता नहीं किस स्टेशन पर लगाया था दूसरा इंजन। शायद माईबांग में लगाया होगा, या फिर लामडिंग से ही लगकर चला होगा।
जो भी हो, हारांगाजाऔ स्टेशन मुझे बहुत पसन्द आया। स्टेशन पर ही फल बेचने वाले बैठे थे। धुर से धुर तक। फलों में मुख्यतः अनानास था। अनानास खट्टा-मीठा होता है। दस-दस रुपये में सभी विक्रेता काफी सारा अनानास छीलकर, काटकर और नमक-मिर्च लगाकर दे रहे थे। गाडी यहां आधे घण्टे से भी ज्यादा खडी रही। मैंने जमकर अनानास खाया। यहां चौबीस घण्टे में छह यात्री-गाडियां ही आती हैं, तीन इधर जाने वाली और तीन उधर जाने वाली; इनके अलावा कुछ मालगाडियां भी आती हैं। हालांकि सभी यात्री-गाडियों का यहां एक एक मिनट का ही ठहराव है लेकिन इंजन लगने के कारण आधा घण्टे तो रुकती ही हैं। इस प्रकार देखा जाये तो कम ट्रैफिक होने के बावजूद भी इन फलवालों की अच्छी बिक्री हो जाती होगी।
हारांगाजाऔ से अगला स्टेशन डिटकछडा है। डिटकछडा में सिल्चर से आने वाली इसी ट्रेन की जोडीदार बराक घाटी एक्सप्रेस मिली। मेरी जानकारी के विपरीत इसमें पीछे भी एक इंजन लगा था। और उससे भी मजेदार बात यह थी कि उस इंजन पर एक निरीक्षण-ट्राली जुडी थी जिस पर कई लोग बैठे थे। इनमें कुछ तो रेलवे के ही लोग होंगे, कुछ यात्री भी होंगे। निरीक्षण-ट्राली में बेहद छोटे छोटे पहिये होते हैं और कभी कभी तो यह लाइन बदलते समय या दो लाइनों के मिलन बिन्दु पर पटरी से उतर भी जाती है। यह ज्यादार मानव शक्ति से चलती है, कभी कभी मोटर भी लगा दिया जाता है। अब जब यह इंजन से जुडकर चलेगी और किसी जगह अगर यह पटरी से उतर गई तो हादसा भी हो सकता है। भले ही यहां ये लोग हमेशा ऐसा करते हों लेकिन ऐसा करना खतरनाक होता है।
इसी डिब्बे में कुछ साधु भी बैठे थे। उनकी बोलचाल से पता चल रहा था कि वे मथुरा के आसपास के हैं। पूछा तो मेरा अन्दाजा ठीक निकला। वे भ्रमण पर निकले थे। अब परशुराम कुण्ड से आ रहे थे। उससे पहले काफी समय कामाख्या और शिबसागर में भी बिताया। परशुराम कुण्ड अरुणाचल प्रदेश में है। अब वे सिल्चर जा रहे थे। किसी ने उन्हें किसी बडे मन्दिर के बारे में बता दिया था, उसके दर्शन करने जा रहे थे। मुझसे पूछा तो मैंने बताया कि मैं मिज़ोरम जा रहा हूं। बोले- मिज़ोरम... मिज़ो राम ... राम.. राम... राम। वहां राम का कोई धाम है क्या? मैंने कहा कि धाम तो छोडो, वहां राम का नाम तक नहीं है। सारी आबादी ईसाई है। वहां जाओगे तो ईसा मसीह के सिवाय कोई नहीं मिलेगा। राम के लालच में वे वहां चले भी जाते लेकिन मेरी बात सुनकर ‘उस देश’ में जाने का इरादा छोड दिया।
बान्दरखाल तक गाडी ढाई घण्टे लेट हो चुकी थी। यह चल कम रही थी और रुक ज्यादा रही थी। ज्यादातर यात्री इससे परेशान भी थे। स्थानीय यात्रियों ने इन परेशान यात्रियों को सुझाव दिया कि चन्द्रनाथपुर स्टेशन पर उतर जाना और वहां से सिल्चर ज्यादा दूर भी नहीं है। स्टेशन पर ही सिल्चर जाने वाली सूमो भी खडी मिलेंगी। इस तरह जब गाडी चन्द्रनाथपुर पहुंची तो बडी संख्या में यात्री उतर-उतर कर सूमो पकडने के लिये दौडने लगे। मुझे कोई जल्दी नहीं थी, मैं नहीं उतरा।
चन्द्रनाथपुर समुद्र तल से 27 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और मैदान अब शुरू होता है। कछार पहाडियां पीछे छूट चुकी थीं और बडी सुन्दर लग रही थीं। इसके बाद गाडी की रफ्तार भी बढ गई। आगे बिहारा, हिलारा और सुकृतिपुर में यह एक-एक मिनट भी नहीं रुकी।
बराक नदी पार करके बदरपुर जंक्शन पहुंच गये। जैसा कि पहले भी बताया है कि यहां से एक लाइन अगरतला जाती है और एक सिल्चर। सिल्चर जाने के लिये इंजन की बदली करनी पडती है। जब यह गाडी बदरपुर स्टेशन पर प्रवेश कर रही थी तो बराबर वाली लाइन से अगरतला-सिल्चर पैसेंजर धडधडाती हुई निकल गई। अगर अगरतला-सिल्चर पैसेंजर पांच मिनट और बदरपुर स्टेशन पर रुकी रहती तो मैं इसे ही पकड लेता और काफी पहले सिल्चर पहुंच गया होता।
साढे सात बजे सिल्चर पहुंचा। स्टेशन से करीब दो किलोमीटर दूर एक मुख्य चौक है। वहां बहुत सारे ट्रैवल एजेंट हैं और होटल भी। तीन सौ रुपये में एक कमरा लिया। सबसे पहला काम किया कि कपडे धोये और नहाया। इस समय मुझे काफी गर्मी लग रही थी। साथ ही एक ट्रैवल एजेंट से कल सुबह की पहली सूमो में आइजॉल का टिकट भी बुक कर लिया।
यह इलाका सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील है। काफी समय से यहां का आतंकी संगठन उल्फा हिंसक गतिविधियों में लगा है। ये पहाडियां उनके छिपने के लिये सर्वोत्तम हैं। सडक मार्ग निम्न कोटि का होने के कारण उनके ठिकाने सुरक्षित भी हैं। फिर बांग्लादेश तो पडोसी है ही यहां। इसलिये भारतीय सुरक्षा-बलों को काफी मेहनत करनी पडती है। हर स्टेशनों पर सुरक्षा-बल तैनात थे। एक बात मुझे आश्चर्यचकित करती है कि सुरक्षा-बल केवल स्टेशनों पर ही क्यों थे? बीच सेक्शन में कोई सुरक्षा नहीं थी। यहां तक कि सुरंगों और पुलों पर भी नहीं। इसका कारण यही हो सकता है कि अब यहां से खतरा टल गया हो। वैसे भी जब से मैंने ‘करंट अफेयर्स’ में दखल देना शुरू किया है, कछार में इस तरह की किसी हिंसक गतिविधि की खबर नहीं पढी। उत्तरी असोम में अवश्य कुछ गडबड है।
ये तो मुझे पता नहीं कि त्रिपुरा की तरफ मूल रूप से कहां तक रेलवे लाइन थी। लेकिन इतना अवश्य पता है कि अगरतला हाल ही में रेल पहुंची है। इसे अगरतला से भी आगे बनाया जा रहा है। लेकिन ताज्जुब की बात ये है कि यह नई लाइन मीटर गेज है। यूनीगेज पॉलिसी के तहत नई लाइन ब्रॉड गेज होनी चाहिये थी। लामडिंग से इधर की तरफ मीटर गेज को ब्रॉड गेज में परिवर्तित करने का काम चल रहा है, उसके बाद अगरतला की तरफ भी गेज-परिवर्तन होगा। अगरतला यदि शुरू से ही ब्रॉड गेज होता तो लामडिंग तक गेज परिवर्तन का और ज्यादा दबाव बन जाता। अब चूंकि लामडिंग व सिल्चर से अगरतला तक ट्रेन चल रही है तो शीघ्रता करने का कोई राजनीतिक दबाव नहीं रह गया।
डेढ साल पहले जब मैंने ट्रेन से भारत परिक्रमा की थी तो पूर्वोत्तर में आते हुए डर लग रहा था। हिन्दी-भाषियों पर हमले नई बात नहीं है। जब सुदूरस्थ लीडो गया, डिब्रुगढ गया और वहां के निवासियों का आचार-विचार देखा तो मेरा यह सारा डर खत्म हो गया। उससे पहले इस मीटर गेज की लाइन पर यात्रा करते हुए भी डर लगता था, लेकिन उसके बाद सारा डर जाता रहा। अब मैंने इस लाइन पर इस तरह यात्रा की थी जैसे भारत के अन्य भागों पर करता हूं। हालांकि यहां मीटर गेज का एक विस्तृत जाल बिछा हुआ है, जिसके केन्द्र में सिल्चर है। सिल्चर से एक लाइन मणिपुर सीमा पर स्थित जिरीबाम तक जाती है, तो एक लाइन मिज़ोरम सीमा पर भैराबी तक। इसी तरह करीमगंज से एक लाइन बांग्लादेश सीमा पर मैशासन तक तो एक लाइन दुल्लबचेरा तक और अगरतला तक तो जाती ही है। अब आवश्यकता है शीघ्र ही इन सबको ब्रॉड गेज बनाया जाये और सिल्चर व अगरतला से गुवाहाटी, कोलकाता और दिल्ली तक ट्रेनें चलाई जाएं। भारत के इस हिस्से को भी बाकी देश के बराबर सुविधाएं मिलने का अधिकार है।


हर स्टेशन पर सुरक्षा-बल के जवान मिले।


एक पुराना पुल





यह पुल हाल ही में बना है जो ब्रॉड गेज के काम आयेगा।

दयांग पुल




जातिंगा पक्षियों की सामूहिक आत्महत्या के लिये प्रसिद्ध है।


मालगाडियों में यात्रा करना यहां एक आवश्यकता है।

हारांगाजाऔ स्टेशन पर फल विक्रेता





पिछले इंजन के साथ जुडी निरीक्षण-ट्राली

ब्रॉड गेज का काम प्रगति पर है।



दक्षिणी असोम का मैदानी भाग और दूर दिखती कछार पहाडियां




View Larger Map

अगला भाग: मिज़ोरम में प्रवेश

मिज़ोरम साइकिल यात्रा
1. मिज़ोरम की ओर
2. दिल्ली से लामडिंग- राजधानी एक्सप्रेस से
3. बराक घाटी एक्सप्रेस
4. मिज़ोरम में प्रवेश
5. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- आइजॉल से कीफांग
6. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- तमदिल झील
7. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- तुईवॉल से खावजॉल
8. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- खावजॉल से चम्फाई
9. मिज़ोरम से वापसी- चम्फाई से गुवाहाटी
10. गुवाहाटी से दिल्ली- एक भयंकर यात्रा




Comments

  1. Jaldi utro train se bhai.. Mizoram dekhne ka mun hone laga... :-)

    ReplyDelete
  2. अगरतला से हमारे एक पडोसी भागकर आये है -- पिछले २ साल से यही है, वर्माजी बेचारे जिंदगी भर कि कमाई वहाँ लुटा आये --उनकी पत्नी वहाँ के स्कुल में टीचर थी --- वहाँ के लोगो ने उनको चेतावनी भी दी कि भाग जाओ पर बेचारे बगैर बीबी के रिटायर्ड हुए कैसे आते? उनके बच्चे उनकी बहन के पास मुम्बई में पड़ते थे २ साल पहले जब वो छुटियो में मुम्बई आये तो पीछे से उनका सारा घर ही लूट लिया गया -- अब लोग भी उनके और पुलिस भी उनकी --बेचारे चुप होकर रह गए --उनके घर का सारा सामान पडोसी यूज़ करते रहे पर वो किस्से बोले --अपने ही देश में लुटे हुए वो २ साल बाद वापस मुम्बई लौट आये ---जिंदगी भर कि कमाई लुटा कर --- मिजोरम यानि कि जंगल --

    ReplyDelete
  3. २५ वर्ष पहले हॉफलांग गये थे, आपने सब याद दिला दिया।

    ReplyDelete
  4. Bhaiya a few corrections:
    Maibong was the capital of Kachari kingdom. Kachari Kingdom had their capital earlier at Dimapur, then expunsion of the Ahom kingdom forced them to dislocate and they arrived Maibong and around. From the Kachari the two districts North Kachar and Kachar derived their names.
    Not related to this post but let me tell you one more fact: Dimapur was actually a territory of Assam which was leased to Nagaland for 50 years, only for 1 Indian Rupee!

    ReplyDelete
  5. इतना समय और साहस कैसे जुटा लेते हो जाट भाई , फैन बन गए है आपके।

    भगवान् करे ये सिलसिला यूँ ही चलता रहे ।

    ReplyDelete
  6. सम्पूर्ण यात्रा वृतांत.
    पोस्ट की गईं तस्वीरें सजीव हैं.

    ReplyDelete
  7. Sunder abhivyakti...
    Neeraj ji aapko bhut bhut dhanyavad..
    Ghr baithe hi ghuum lete h aapke blog se...
    Aap sda yun haste gaate ghumte rhen... :)

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।