Skip to main content

डायरी के पन्ने - 16

चेतावनी: ‘डायरी के पन्ने’ मेरे निजी और अन्तरंग विचार हैं। कृपया इन्हें न पढें। इन्हें पढने से आपकी धार्मिक और सामाजिक भावनाएं आहत हो सकती हैं।
16 अक्टूबर 2013, बुधवार
1. अभिषेक साहब मिलने आये। वे पिछले सप्ताह भी आने वाले थे लेकिन नहीं आ पाये। फोटो तो ऐसा लगा रखा है कि लगता है जैसे कितने मोटे ताजे हों जबकि ऐसा है नहीं। खैर, आये तो आते ही क्षमा मांगने लगे कि पिछली बार मेरी वजह से आपको परेशानी उठानी पडी। भाभी ने चाय बना दी तो छोटे से प्याले में उन्हें चाय दी। कहने लगे कि चाय कम करो, बहुत ज्यादा है। मैंने कहा कि ज्यादा का आपको पता नहीं है अभी। आज सभी लोग यहां हैं तो आपको जरा सी चाय मिली है, नहीं तो इससे चार गुने बडे कप में पावभर से भी ज्यादा चाय मिलती और आपको पीनी पडती। चुपचाप पी लो, कोई कम-वम नहीं होगी। फिर कहने लगे कि चाय बहुत अच्छी बनी है। चाय थी भी अच्छी, अदरक डालकर बनाई थी। अदरक थोडा ज्यादा हो जाये तो चाय पीने का जो आनन्द आता है, शानदार होता है।
लेकिन चाय बहुत अच्छी बनी है, खाना बहुत अच्छा बना है, ये सब औपचारिक शब्द हैं। अपनी बताऊं तो मैं कभी भी इन शब्दों का प्रयोग नहीं करता। खाना अच्छा बना है तो इसका अर्थ है कि बुरा भी बनता होगा। जबकि वास्तव में भोजन कभी भी बुरा नहीं बन सकता। पका रहे हैं तो हो सकता है कि कच्चा रह जाये, ज्यादा पक जाये, जल जाये, जम जाये, फट जाये लेकिन भोजन कभी भी बुरा नहीं हो सकता। जिसके पास अत्यधिक मात्रा में भोजन है, हो सकता है कि उसे भोजन का कुछ हिस्सा बुरा लगे, लेकिन जिसने तंगी में गुजारा किया है, वो ही जानता है कि भोजन क्या होता है।
बातों बातों में टैण्ट का जिक्र आ गया। अभिषेक साहब के पीछे ही वो बैग रखा था जिसे लेकर मैं पिछले दिनों हर की दून गया था। बैग में टैण्ट भी था। उनकी जिज्ञासा थी टैण्ट को देखने की। मैंने कहा कि आओ चलो, इसे लगाते हैं। मन तो था उनका भी इसे लगाते हुए देखने का लेकिन फिर से औपचारिकता हावी हो गई- रहने दो भाई, देख लिया। इतना काफी है। मैंने कहा- नहीं, अब तो इसे लगायेंगे ही। टैण्ट खोला तो यह गीला था। हर की दून यात्रा में इसे लगाया था तो सुबह तक इस पर अच्छी खासी ओस पड गई। फिर इसे गीला ही पैक कर लिया। तब से अब तक यह ऐसा ही पैक था। इतने दिन गीला और गर्म स्थान पर रहने के बावजूद भी इसमें से दुर्गन्ध नहीं आ रही थी। इसका कारण ओस थी। ओस बिल्कुल शुद्ध जल होती है। शुद्ध जल कभी खराब नहीं होता।
2. एक मित्र ने कहा- “आप अपनी डायरी को दुनिया को पढने ही क्यों देते हैं? डायरी तो होती ही है अपनी पर्सनल चीज। अगर उसे लोगों से शेयर करोगे तो कोई ना कोई कमेण्ट करेगा ही।” गौरतलब है कि मैंने पिछली बार लिखा था कि डायरी मेरी व्यक्तिगत चीज है और ब्लॉग पाठकों का नैतिक दायित्व है कि इसे न पढें।
बात दरअसल ये है मित्र साहब कि मेरा ब्लॉग ही मेरी सम्पूर्ण दुनिया है। मैं आज जो भी हूं, जैसा भी हूं, इसी की बदौलत हूं। यह समझ लीजिये कि ब्लॉग मेरे घर में बनी एक लाइब्रेरी है जहां मेरी यात्रा पुस्तकें रखी हैं। खुला घर है, कोई दरवाजा नहीं, कोई आये, ना आये, मुझे मतलब नहीं। मित्र आते हैं, यात्रा पुस्तकें पढते हैं, श्रीखण्ड वाली, तपोवन वाली, लद्दाख वाली... बहुत सारी पुस्तकें यहां हैं। अब जब मुझे डायरी लिखने का शौक हुआ तो मैं लिखकर इसे कहां रखूंगा? जाहिर है कि इसी लाइब्रेरी में ही। इसीलिये इसके ऊपर स्पष्ट लिख दिया है- डायरी के पन्ने। ताकि यात्रा वृत्तान्त पढने आये मित्रों को पता चल जाये कि यह यात्रा वृत्तान्त नहीं है, डायरी है। अब उन मित्रों का दायित्व है कि डायरी न पढें। मैंने अगर यात्रा वृत्तान्त के पास ही डायरी भी रख दी है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि आपके पढने के लिये रखी है।
3. अमित का साला कुलदीप आया। बल्कि पिछले दो दिनों से यहीं है। नाम तो उसका कुछ और है, लम्बा चौडा सा नाम है, ह्म्म्म... हां, बाल भवानी शंकर। लेकिन उसमें न तो भवानी का कोई गुण है, न ही शंकर का। लेकिन बाल यानी बच्चों के बहुत से गुण हैं। मुझसे भी बडा है, एक लडके का बाप भी है, वजन पचासी किलो है। परिवार अत्यन्त धार्मिक है तो वो भी अपवाद नहीं है।
तो जब हम तीनों एक कमरे में बैठे थे, बातों ही बातों में रुख धर्म-कर्म की ओर मुड गया। और पता नहीं किस प्रसंग पर उसने मुझसे कहा- “आप हमारे गुरूजी की किताबें पढो।” मैंने कहा- “करीब एक साल पहले किसी ने मुझसे ओशो के बारे में बताया था। मुझे किसी गुरू में कोई दिलचस्पी नहीं है, इसलिये उससे पहले मैंने केवल ओशो का नाम ही सुना था। जब उसने दो-चार बातें बताईं, तो मुझे भी जिज्ञासा हुई कि एक बार देखते हैं कि ओशो क्या है। मैंने पत्रिका खरीदी और प्रभावित हुआ। आज मेरे संग्रह में ओशो के प्रवचनों की कई पुस्तकें हैं। इसी तरह अगर तुम भी अपने गुरू के बारे में बताओ तो शायद मैं उधर भी ध्यान देना शुरू कर दूं।” उसने बताना शुरू कर दिया। अपने गुरू की पूरी जीवनी बता डाली। फिर रुख उनकी शिक्षाओं पर मुड गया। मेरी आदत है कि अगर मैं भी बातों में दिलचस्पी ले रहा हूं तो बीच बीच में अवश्य टोकता हूं। उसे किसी बात पर टोका तो जवाब मिला- अभी चुप रहो। पहले बात पूरी हो जाने दो, उसके बाद आपके प्रश्नों पर गौर करेंगे। मैंने कहा कि तब तो मैं भूल जाऊंगा कि पन्द्रह मिनट पहले, आधे घण्टे पहले क्या प्रश्न मन में आया था? अभी प्रश्न है तो समाधान भी अभी होना चाहिये।
वो नहीं माना। बिल्कुल ऐसे बोल रहा था जैसे माइक पर पेशेवर प्रवचन दे रहा हो। जोर जोर से। जब उसने कहा कि ब्रह्मचर्य छोडना चाहिये। मैंने तुरन्त टोका- एक मिनट, एक मिनट। थोडी चर्चा अगर ब्रह्मचर्य पर हो जाये तो अच्छा रहता। मुझे नहीं पता कि ब्रह्मचर्य है क्या। आश्चर्यचकित होकर बोला कि आपको ब्रह्मचर्य का नहीं पता? मैंने कहा नहीं पता। उसने उंगलियां मोडकर मुट्ठी बन्द की और आगे-पीछे हिलाकर बोला कि यह न करना ब्रह्मचर्य है। समझ तो मैं गया कि वो कहना क्या चाह रहा है, इस मामले में मेरे कुछ विचार हैं लेकिन अगर उसके भी विचार सुनने को मिल जायें तो मजा आ जाये। मैंने अनजान बनते हुए कहा- मैं समझा नहीं कि तुम कहना क्या चाहते हो। जरा ढंग से कहो।
उसने कहा कि अभी दूसरे कमरे में महिलाएं हैं, इसके बारे में बाद में बताऊंगा। मैंने कहा कि क्या ब्रह्मचर्य केवल पुरुषों पर ही लागू होता है? ब्रह्मचर्य का परम्परागत अर्थ तो यह है कि विवाह नहीं करना चाहिये। अगर तुम दूसरों को ऐसा न करने की सलाह दे रहे हो तो तुमने क्यों किया? वह झेंप गया- चुप रह यार। इस बारे में बाद में बात करेंगे।
इसके बाद वह कम से कम घण्टे भर तक बोलता रहा, लेकिन मैंने मुंह नहीं खोला और न ही कान।
बाल भवानी शंकर के कुछ किस्से याद आ रहे हैं। कई महीनों पहले हमारे यहां खिडकी और कूलर के बीच में एक कबूतरी ने अण्डे दिये थे। हमने खिडकी के शीशे पर अखबार लगा दिया ताकि वह हमें देखकर न घबराये। तभी एक दिन भवानी आया। मैंने कहा कि आ, तुझे एक चीज दिखाता हूं। बालकनी में ले गया। इत्तेफाक से उस समय कबूतरी वहां नहीं थी। उसे अण्डे दिखाते हुए पूछा कि बता, ये किसके अण्डे हैं। वो गौर से देखने लगा। उसने कहा कि नहीं पता। तब मैंने कहा कि ये अजगर के अण्डे हैं। मैंने पहले भी कहा है कि उसमें न तो भवानी का कोई गुण है, न ही शंकर का। बाल बुद्धि भरी पडी है। आंखें फाडकर बोला- अजगर के! यहां अजगर कहां से आ गया? मैंने कहा कि बराबर में यमुना है ना, वहां से आया है। -तो वो यहां छठी मंजिल पर आता कैसे है? –इधर आ, इस पाइप से। यह निशान है ना पाइप पर, उसी के आने जाने से बना है। -कितना लम्बा है? –आठ फीट का। -अन्दर चलो, कभी भी बालकनी का दरवाजा मत खोला करो, कहीं वो अन्दर आ गया तो। -हां, तू सही कह रहा है। हम इसे बन्द ही रखते हैं।
सप्ताह भर बाद फिर आया। आते ही पहला प्रश्न पूछा कि अजगर यहां है या नहीं। मैंने कहा कि आधे घण्टे पहले तो यहीं था, आ चल देखते हैं। उसने चीखकर कहा- नहीं, नहीं। वो बालकनी वाला दरवाजा मत खोलना।
एक किस्सा और है। हमारे घर से ऑफिस तकरीबन एक किलोमीटर दूर है। तब मैं पैदल ही आया जाया करता था। पूरा रास्ता बिल्कुल खाली पडा रहता है। इस रास्ते पर जो भी वाहन चलते हैं, सब मेट्रो कर्मचारियों के ही होते हैं। जब वो आया, तो मैं ऑफिस जाने को तैयार था। कान में हैडफोन लगाकर गाने सुनता हुआ मैं चल दिया। उसने तुरन्त कहा- रुको, रुको। हैडफोन लगाकर मत जाओ। -क्यों? –आप अखबार नहीं पढते क्या? हैडफोन लगाकर जो जाते हैं, वे रेल के नीचे आ जाते हैं और कट जाते हैं। -अरे यार, अगर रेल की पटरियों पर चलेंगे तभी तो रेल चढेगी ऊपर। खाली सडक पर रेल कहां से आ जायेगी। -नहीं, मैंने अखबार में पढा है। अखबार वाले गलत थोडे ही लिखेंगे। हैडफोन वालों के ऊपर रेल चढ जाती है।
17 अक्टूबर 2013, गुरूवार
1. किसी ने दरवाजा खटखटाया। हमेशा की तरह दरवाजा खोला, देखा कि कूडे वाला है तो कूडेदान उठाकर उसे देने लगा। तभी मेरी निगाह पडी कि कूडेदान में एक कप टुकडे टुकडे हुए पडा था।
जो मित्र हमारे यहां आये हैं और उन्होंने मेरे हाथ की बनी चाय पी है तो उन्हें याद होगा कि एक बडे से पावभर के कप में पूरा भरकर चाय दी गई थी। आपके मुंह से सबसे पहले एक ही बात निकलती थी- इतने बडे कप? और जब उस पर मेट्रो का निशान व मेट्रो का एक चित्र भी दिख जाता था तो कहते थे- ओये, मेट्रो के कप? अब आप कभी उनमें चाय नहीं पी सकेंगे।
यह अवश्य भाभी के हाथ से छूटकर गिरा होगा शायद बर्तन धोते वक्त। ये दो कप थे, एक अभी भी बचा है तो भाभी को सावधान कर दूं कि दूसरे कप के साथ ऐसा नहीं होना चाहिये। उनसे कहा तो उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- दूसरा कप तो चार दिन पहले टूट गया था।
कपों का यह जोडा पिछले साल मेट्रो की दसवीं बरसी पर मिला था। ऐसा नहीं है कि इसी कारण से मुझे इनसे लगाव था। मैं इनका अत्यधिक उपयोग करता था। ये गिलास की तरह ‘संकरे, ऊर्ध्वाधर’ और कटोरी की तरह ‘क्षैतिज’ नहीं थे। इनका उपयोग दही खाने से लेकर पानी, दूध, चाय पीने तक में जमकर करता था। चूंकि ये दूसरे बर्तनों के विपरीत नाजुक थे, तो इन्हें धोते समय सावधानी से धोता था। बस, हो गया लगाव। कभी कभी तो अगर सब्जी के लिये कटोरी उठानी होती, तो इन पर हाथ चला जाता था।
क्रोध भी बहुत आया। कुछ कहता तो जवाब मिलता- दूसरे कप तो हैं। क्रोधोपचार करना पडा। अपने कमरे का दरवाजा बन्द करके, कुर्सी पर बैठकर, दूसरी कुर्सी पर पैर फैलाकर, पीछे सिर टिकाकर, आंख बन्द करके मन में कहता रहा- नीरज शान्त... शान्त नीरज।
2. कुमार राजेश ने एक कविता मेरे यहां लगा दी- फेसबुक पर। मुसाफिर वुसाफिर जैसा कुछ लिखा था। कुछ देर बाद शशि राणा का सन्देश आया कि वह कविता उनकी लिखी हुई है, जिसे राजेश ने चोरी किया है। साथ ही एक लाइन ओर भी जोड दी- “आप मानो या न मानो, मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पडता। लेकिन दुनिया जानती है कि सच क्या है। आप और आपके दोस्त सब एक जैसे ही हैं।” साफ तौर पर इस सन्देश में एक गुस्सा झलक रहा है अपनी कविता के चोरी होने का। गुस्सा आता भी है। मैं स्वयं भुक्तभोगी हूं। लेकिन उन्होंने इस गुस्से में मुझे भी लपेट दिया- “आप और आपके दोस्त सब एक जैसे हैं।” अरे शशि, मेरी इस चोरी में कोई भूमिका नहीं है।
18 अक्टूबर 2013, शुक्रवार
1. कल रात आठ बजे हल्दीराम का फोन आया था, मैंने नहीं उठाया। रात तीन बजे भी किया, अच्छी नींद आ रही थी, तब भी नहीं उठाया। फिर सुबह आया आठ बजे। मैं उस समय ऑफिस में था। उसने बताया कि वह चांदनी चौक पर है। मैंने उसे शास्त्री पार्क आने को कह दिया। उसने कहा कि अभी तो काम है, शाम को आऊंगा। मैंने मना कर दिया- आना हो तो अभी आ जा, शाम वाम का कोई चक्कर नहीं है। वो साढे नौ बजे तक आ गया। खूब बातें हुईं। बारह बजे चला गया।
2. सन्दीप भाई से बात हुई। उनकी आज की छुट्टी थी, वे घर पर ही थे। मुझे अब मोटरसाइकिल लेने की सनक सवार हो गई है, इसी सिलसिले में बात हुई। उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर सलाह दी कि सवा सौ सीसी की मोटरसाइकिल ठीक रहेगी और दो महीने बाद लेना ताकि 2014 का मॉडल प्राप्त किया जा सके। एक मजेदार बात और बताई- “यार वास्तव में मोटरसाइकिल पर पीछे बैठना बहुत बडी आफत में पडना है। मैं स्पीति यात्रा में मित्र की बुलेट पर ज्यादातर समय पीछे बैठा रहा, महा मुसीबत हुई। जब बात सहनशक्ति से बाहर हो गई तो स्लीपिंग बैग बांधकर उसके सहारे बैठना पडा।” सुनकर आनन्द आ गया।
3. एक नया कैमरा लिया- ओलम्पस का VR-350 मॉडल। एक छोटे कैमरे की सख्त आवश्यकता थी। सोनी का वर्तमान कैमरा बडा है और मुझे इसे हर जगह गले में लटकाकर घूमने में असहज महसूस होता था। जेब में आ जाने लायक एक कैमरे की जरुरत थी। इसके लिये पांच हजार का बजट तय किया। मुख्य फोकस ऑप्टिकल जूम पर था। इस बजट में अधिकतम ऑप्टिकल जूम वाला कैमरा लेना था। खूब ढूंढा-ढांढी की। आखिर में 10x जूम वाला यह कैमरा पसन्द आया। फ्लिपकार्ट पर इसकी कीमत 5690 रुपये थी।
प्रारम्भिक जांच में कैमरा ठीक ही लगा। लीथियम-आयन बैटरी है। पकडने में भी सुविधाजनक है। फोटो खींचने के सभी जरूरी विकल्प स्क्रीन पर आसानी से दिखते हैं। एक बटन दबाकर उन्हें शीघ्रता से बदला भी जा सकता है। थ्री-डी फोटो भी खींचे जा सकते हैं। लेकिन एक बात गडबड है- वीडियोग्राफी की। इस काम के लिये इसमें एक लाल रंग का बटन है। जिसे दबाते ही वीडियो रिकार्ड होनी शुरू हो जायेगी। बस यही गडबड है। जब हम वीडियो बनाने के लिये लाल बटन दबाते हैं तो उस समय कैमरे की सेटिंग फोटो खींचने के लिये रहेगी। वीडियो बनाते समय कुछ सेटिंग वीडियो मोड में पहुंचकर बदलनी पडती है। इसमें वीडियो मोड नाम का कोई मोड ही नहीं है। लाल बटन दबाओ, वीडियो बननी शुरू, दोबारा दबाओ, वीडियो बन्द, सेटिंग पुनः फोटो मोड में। यहां तक कि मूवी बनाते समय जूम भी नहीं हो रहा। कहता है कि Not available in these settings. बहुत जोर आजमाइश कर ली, लेकिन हर बार असफल। फिर भी मैंने कैमरा फोटो खींचने के लिये ही लिया है। आशा है कि उम्मीदों पर खरा उतरेगा।
वैसे तो सैमसंग वाला पुराना कैमरा भी ठीक काम कर रहा है लेकिन उसके लेंस से धूल के कण नहीं हटाये जा सके। जब उसे जूम करते हैं तो धूल के कणों का प्रतिबिम्ब भी बडा हो जाता है और भद्दा लगता है। मैं वैसे तो फोटोग्राफर नहीं हूं लेकिन नहीं चाहता कि मेरे खींचे फोटो में इस तरह की गन्दगी भी आये।
4. राहुल चतुर्वेदी साहब का सन्देश आया- “भाई मैं तो फैन हो गया तुम्हारा। ...मैं डॉक्यूमेण्ट्री बनाता हूं। इतना सब पढने के बाद मैं आप पर एक डॉक्यूमेण्ट्री बनाना चाहता हूं।... मुझे आपकी लिखावट से ज्यादा आपकी फोटोग्राफी अच्छी लगी।’’
राहुल डॉक्यूमेण्ट्री और लघुफिल्म बनाते हैं, तो जाहिर है कि पेशेवर हैं। और यह भी जाहिर है कि पेशेवर फोटोग्राफर भी हैं। उनके मुंह से अपने फोटो की तारीफ सुनकर आनन्द आ गया। मैंने न तो फोटोग्राफी का प्रशिक्षण लिया है, न ही मेरे पास वो बडा वाला डीएसएलआर कैमरा है। हर व्यक्ति की तरह मुझे भी अपने खींचे फोटो बहुत अच्छे लगते हैं। पिछले कई महीनों में, इसमें लद्दाख साइकिल यात्रा भी शामिल है, मैंने हजारों फोटो खींचे हैं, लेकिन इनमें से कोई भी फोटो मुझे दिल से पसन्द नहीं। हर फोटो देखकर लगता है कि नहीं यार, इससे भी अच्छा कुछ हो सकता था। जैसे कि पिछले साल पुष्कर में एक फोटो खींचा था- जिसमें कबूतरों का एक जोडा तार पर बैठा है। एक की चोंच दूसरे की गर्दन पर और दूसरे की चोंच पहले की गर्दन पर। पीछे बहुत दूर बैकग्राउण्ड में गैस का गुब्बारा उड रहा है। वह फोटो मुझे दिल से पसन्द है। इसी तरह का एक फोटो रूपकुण्ड यात्रा में एक रंग बिरंगे गिरगिट का खींचा था। बेहद विरले ही फोटो होते हैं, जो मुझे दिल से पसन्द आते हैं। पिछले कम से कम छह महीनों में कोई ऐसा फोटो नहीं खींचा जा सका। यहां तक कि दूधसागर जलप्रपात के नीचे से गुजरती ट्रेन का भी नहीं। उसे भी देखकर लगा कि यह फोटो इससे भी अच्छा हो सकता था।
तो जब एक पेशेवर व्यक्ति आपके उस काम की तारीफ करता है, जिसमें आपको भी कुछ कमियां नजर आती हैं, तो वास्तव में आनन्द आता है। सोने पे सुहागे की बात यह है कि वे मुझ पर डॉक्यूमेण्ट्री बनाने की सोच रहे हैं। मेरी कोई लघुफिल्म बने या न बने, चाहे जैसी बने लेकिन मैं भी लघुफिल्म बनाना सीख जाऊंगा। वर्तमान में मैं वीडियो नहीं बनाया करता। ऐसा होने से न केवल यात्राओं की वीडियो बनाया करूंगा, बल्कि उनकी एडिटिंग आदि करके उन्हें शानदार लघुफिल्म भी बना सकता हूं। अपने बारे में इतना तो जानता ही हूं कि मैं कोई काम करना पसन्द नहीं करता लेकिन करता हूं तो जी-जान से और बारीकी से करता हूं।
पिछले कुछ दिनों से लोगों की श्रद्धा पर प्रहार करने के बाद जो नकारात्मक माहौल बना, राहुल से बात करके सब छूमन्तर हो गया।
5. भाभीजी ने एलआईसी एजेण्ट को बुलाया था। आज जब दो एजेण्ट आये, उस समय वे बाहर गई थीं सपरिवार। मुझे नींद आ रही थी, इसलिये नहीं गया। छह बजे एजेण्ट आये। जब उनकी बेल्ट पर आईकार्ड देखे- LIC, तभी मैं समझ गया कि बेटा, आज तेरी खैर नहीं। उन्हें अन्दर बैठाया, पानी पिलाया और भाभी को फोन करके पता किया। वे कम से कम घण्टे भर बाद आयेंगे।
एजेण्टों को भी पता चल गया कि वे घण्टे भर बाद आयेंगी, फिर भी वे नहीं गये। पक्का हो गया कि अब मेरा शिकार किया जायेगा। एक ने पूछा कि आपकी हॉबी क्या है? जी में आया कह दूं कपडे धोना। फिर भी घूमना फिरना बता दिया। पेशेवर मंजे हुए खिलाडी थे। बीमे वाले मंजे हुए ही होते हैं, नहीं तो टिक नहीं सकेंगे। तुरन्त पूछा कि विदेश गये हो कभी? नहीं। इच्छा है कभी जाने की? हां, है।
हम आपको विदेश ट्रिप लगवायेंगे। जाल फेंका जा चुका था। लेकिन शिकार भी इन मामलों का अनुभवी होने के साथ साथ पूरा घाघ था। पूरी बात बताओ, क्या स्कीम है आपकी? –आपकी उम्र कितनी है? –पच्चीस साल। -हम आपको 29 साल की उम्र होने पर चार लाख रुपये देंगे, 33 साल का होने पर फिर चार लाख देंगे, हर चार साल बाद चार लाख। आपको पांच साल हो गये नौकरी करते। करीब पन्द्रह लाख रुपये की आपको आमदनी हो चुकी है। आपको एक भी पैसे का हिसाब नहीं पता होगा कि कहां गये? अगर आप हमसे पांच साल पहले जुड चुके होते तो...
कुछ ही देर में उन्होंने ऐसे ऐसे आंकडे सुनाए कि मैं करोडपति बन गया। दुनिया के सारे देश घूम चुका। इधर कुछ भी ताज्जुब नहीं हुआ। सोच रखा था कि एक भी पैसा नहीं दूंगा।
आपके लिये एक स्कीम बेस्ट रहेगी। इसमें आपको एक साल में बहत्तर हजार रुपये की पॉलिसी लेनी पडेगी। चाहो तो छमाही भी कर सकते हो, छत्तीस हजार रुपये की, तिमाही भी है अठारह हजार की। कोई मुश्किल नहीं है, आपको अपनी तीस हजार की सैलरी में से मात्र छह हजार रुपये प्रति माह के औसत से देने होंगे। आप आसानी से कर सकते हो। मैंने ह्म्म्म कहा।
ह्म्म्म की आवाज सुनते ही उन्होंने एक फार्म निकाला और भरने लगे। अगर मैं फार्म भरवाने से मना करता तो फिर से वे शुरू हो जाते। मैंने अपने समर्थन में कुछ तर्क देने शुरू किये, लेकिन एक भी नहीं चली। इधर मुंह से कोई बात निकलती, वे तुरन्त उसे ध्वस्त कर देते। बुरा फंसा। आने दो आज भाभी की बच्ची को। ढंग से क्लास लूंगा। अरे, मेहमान हैं तुम्हारे हैं। मुझे क्यों तंग कर रहे हैं। आज भाभी की खैर नहीं।
फार्म भरा गया, दो फोटो मांगे, वे भी दे दिये। एक आईडी प्रूफ मांगा, मैंने मना कर दिया कि मेरे पास कुछ भी नहीं है। वोटर कार्ड? नहीं है। डीएल? नहीं है। पैन कार्ड? नहीं है। एड्रेस प्रूफ? ना। तो आई कार्ड तो होगा मेट्रो का। उसकी कॉपी दे दो। कॉपी नहीं है। कोई बात नहीं, हमें दो, हम फोटो खींच लेते हैं। मजबूरी में ऐसा करना पडा।
कहने लगे कि कौन सा प्लान लोगे? सालाना या छमाही? मैंने पूछा कि पैसे अभी देने पडेंगे? बोले कि बिल्कुल। कोई बात नहीं, आप चेक दे देना। मेरे पास चेक नहीं है और नगद भी नहीं है। तो एटीएम से निकालकर दे दो। एटीएम एक्सपायर हो गया है। दस दिन बाद नया बनकर आयेगा। चलो तो एक काम करो। आप हजार रुपये दे दो। आपकी प्रक्रिया शुरू कर देंगे। जब आपके पास पैसे होंगे, तब दे देना। मैंने एक खाली पैण्ट उनके सामने उल्टी करके झाड दी कि खाली है इसकी जेबें। कोई पैसा नहीं है। आखिरकार वे पचास रुपये पर आ गये कि आप कुछ शुरूआती धन तो दे दो ताकि हम आगे की प्रक्रिया शुरू कर दें।
अब मैं मूड में आ गया। उनकी आंखों में आंखें डालकर बोला- “आप अनुभवी एजेण्ट हैं। अगर मैं अपनी आईडी देने में आनाकानी कर रहा हूं, पैसे देने में आनाकानी कर रहा हूं तो क्या आपको इसका मतलब नहीं पता? दो घण्टे हो गये आपको यहां। आप तो अपना बिजनेस कर रहे हैं, आपका समय नष्ट नहीं हो रहा है। इसी काम के आपको पैसे मिलते हैं। सोचा है कि मेरे कितने कीमती दो घण्टे आपने ले लिये? क्या मैं इतना बेवकूफ हूं कि अपना भला-बुरा नहीं सोच सकता? अभी ऐसा समय नहीं आया है कि मैं अपनी जिन्दगी के निर्णय आपके हाथों में दूं। आपको भाभी ने बुलाया था। वे यहां नहीं हैं, आपको पता चल गया कि वे घण्टे भर बाद आ सकती हैं, अच्छा होता कि आप पानी पीकर चुपचाप यहां से खिसक लेते। लेकिन चुपचाप खिसकना तो आप जानते नहीं। अभी भी समय है। मैं कोई पॉलिसी नहीं लेने वाला। दरवाजे की कुण्डी खुली है। बाकी आप समझदार हैं।”
19 अक्टूबर 2013, शनिवार
1. आज अमित और भाभीजी सरोजिनी नगर गये कुछ खरीदारी करने। वापस आये तो भाभी ने कहा कि वहां तो इतने सारे चाइनीज हैं, भारत सरकार वैसे तो चीनियों से लडने भिडने की बात करती है लेकिन ये इतने चाइनीज हैं, इन्हें क्यों नहीं भगाती? मैंने कहा कि वहां कोई चाइनीज नहीं है। जिन्हें आपने देखा है, वे सब भारतीय हैं। अमित बोला कि हां, हैं तो वे सब भारतीय ही लेकिन जब हम उनके यहां जाते हैं तो वे हमारे साथ ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे कि हम विदेशी हों। वे हमें इण्डियन कहते हैं जैसे कि वे स्वयं इण्डियन न हों। मैंने कहा कि जैसे को तैसा वाली बात है। हम स्वयं को भारतीय कहते हैं और उन्हें विदेशी तो वे भी हमारी हां में हां मिला लेते हैं। वे भी हमें भारतीय कहते हैं और स्वयं को नहीं। पहले हमें समझना होगा कि वे भारतीय हैं। वे भी समझने लगेंगे।
20 अक्टूबर 2013, रविवार
1. आज राहुल चतुर्वेदी को शास्त्री पार्क आना था दोपहर बारह बजे। नाइट ड्यूटी करके सो गया तो मेरी आंख पौने एक बजे खुली। तुरन्त राहुल को फोन किया। पता चला कि उन्हें रात ठण्ड लग गई है, आज नहीं आ सकेंगे। वास्तव में आज अपेक्षाकृत ठण्ड ज्यादा थी। मैं भी जब छह बजे ऑफिस से घर लौट रहा था, तो कान ठण्डे हो गये थे। लेकिन एक दूसरी बात भी है। राहुल की तबियत सुबह ही बिगड गई थी तो उन्हें सुबह ही बता देना चाहिये था। हालांकि आज मुझे बडी तेज नींद आ रही थी, ऑफिस से आते ही सोना था। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। हो सकता है कि हम अपने कुछ जरूरी काम छोडकर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हों।
2. एक फोन आया- नीरज जी बोल रहे हैं? हां, बोल रहा हूं। आप ट्रेनों का टाइम टेबल बताते हैं? नहीं। लेकिन नेट पर तो आपका नम्बर लिखा है। हां, लिखा है लेकिन मैं टाइम टेबल प्रकाशित करता हूं, इसके अलावा मुझे याद नहीं रहता किसी भी ट्रेन का टाइम।
गौरतलब है कि मेरे समय सारणी वाले ब्लॉग पर भारत भर के सौ स्टेशनों के टाइम टेबल प्रकाशित हैं और मैं समय समय पर इन्हें अपडेट भी करता रहता हूं।। वहीं से उन्होंने नम्बर ले लिया होगा। बताने को तो उन्हें किसी ट्रेन का टाइम बता सकता था लेकिन यह सुविधा केवल मित्रों के लिये ही उपलब्ध है। इसका कारण है कि गलती की सम्भावना रहती है और मित्रों के सामने गलती चलती है। लेकिन वो इंसान जो एकदम परिशुद्ध टाइम जानना चाहता है, न बताना ही अच्छा।
3. पिताजी दिल्ली आये। वे प्रत्येक दोज को अपने गुरू के यहां जाते हैं। वे मोहनराम पंथ के अनुयायी हैं। एक समय मुझ पर भी इस पंथ को मानने का दबाव था लेकिन मैंने नहीं माना। यहां तक कि आलोचना भी कर देता था। वे विनाशकाले विपरीत बुद्धि कहकर भविष्य में मेरे इसी पंथ का अनुयायी बनने की कामना भी करते थे लेकिन साल दर साल गुजरते गये, विपरीत बुद्धि के सामने विनाश काल नहीं आया बल्कि श्रेष्ठ काल ही आया है तो अब वे अपने गुरू की आलोचना सुनने से नहीं गुस्साते।
मोहनराम पंथ के बारे में मुझे कुछ नहीं पता। जब से घरवाले इस पंथ के सम्पर्क में आये तो पूजा पाठ करने के तरीके में मामूली सा परिवर्तन हुआ है। कुछ पतली पतली सी पुस्तकें भी हैं जिनमें आरतियां, भजन और कथाएं भरी रहती हैं।
गौतमबुद्धनगर जिले में एक गांव है बिसरख। इसे रावण की जन्मस्थली भी कहा जाता है। रावण के पिता का नाम विश्रवा था और माना जाता है कि बिसरख विश्रवा का ही बिगडा रूप है। आज भी गांव वाले दशहरा नहीं मनाते। मैं इस गांव में तीन बार गया हूं। गांव काफी पुराना है और एक टीले पर बसा है। बताते हैं कि घर आदि बनाते समय जब खुदाई करते हैं तो पुरानी चीजें निकलती हैं जैसे बर्तन और हथियार आदि। लगभग पूरा गांव मोहनराम पंथ का अनुयायी है। पिताजी के गुरू भी यहीं के हैं। हर महीने उन्हें यहां आना होता है।
जब मैंने घुमक्कडी शुरू की तो घरवाले चिन्तित हुए। एक नौजवान के लिये ये लक्षण अच्छे नहीं थे। उन्होंने गुरू से शिकायत की। गुरू ने भभूत दी कि इसे पानी में डालकर लडके को पिला देना, सब ठीक हो जायेगा। भभूत हजम भी हो गई लेकिन लडका वैसा का वैसा ही रहा। अब गुरू ने कहा कि लडके को यहां लेकर आओ, हम देखेंगे। यह मेरी बिसरख की पहली यात्रा थी। माताजी साथ थीं।
इससे पहले मैंने घरवालों से ही सुना था कि दोज वाले दिन गुरू पर मेहर आती है। कोई देवी देवता सिर पर आ जाता है, गुरूजी आपा खो देते हैं और सामने बैठे भक्तों की परेशानियां सुनते हैं और उपाय बताते हैं। इस दौरान वे साधारण जनों जैसा व्यवाहार नहीं करते बल्कि भयंकर तरीके से चीखते हैं, चिल्लाते हैं और लगातार हिलते रहते हैं।
जब हम पहुंचे, तो वे एक तखत पर साफ सुथरी चादर पर बैठे थे। दो मोटे मोटे गोल गोल तकिये दोनों बगलों में रखे थे। मेरी मोहनराम में भले ही थोडी बहुत श्रद्धा रही हो लेकिन इस काले कलूटे और मोटे तोंदल व्यक्ति में श्रद्धा बिल्कुल नहीं थी। यह लगातार सिगरेट पर सिगरेट और कोकाकोला पीये जा रहा था। माताजी के कहने पर मैंने भी उसके पैर छुए, उसने आशीर्वाद दिया।
कम से कम चार घण्टे हो गये, भजन कीर्तन होता रहा। गवैया वही गुरू था। कण्ठ जोरदार था। तबला वादक और हारमोनियम वादक भी अच्छा काम कर रहे थे। भजन जाहिर है भक्ति रस वाले ही होंगे। चार घण्टे हो गये, उस पर कोई अवतरित नहीं हुआ। माताजी ने बता रखा था कि भजन कीर्तन के दौरान ही उन पर देवता आ जाता है। तब वे खूब हिलते हैं और भजन भी बन्द हो जाता है। भक्तों में बेचैनी थी। जब चार घण्टे बाद उन्होंने कहा कि आज पता नहीं क्यों मेहर नहीं आ रही है, सब अपने अपने घर जाओ तो हम भी उठकर चल दिये। मैंने माताजी से पूछा कि आज ऐसा क्यों हुआ। उन्होंने बताया कि आज तक तो ऐसा नहीं हुआ था, आज पता नहीं क्यों हुआ? उसके अगले ही महीने उन पर देवता आ गया था। लेकिन मैं हर बार थोडे ही जा सकता था?
करीब छह महीने बाद मुझे फिर ले जाया गया। आश्चर्यजनक रूप से इस बार भी ऐसा ही हुआ। साल भर बाद मुझे तीसरी बार ले जाया गया और पुनः वही हुआ। कोई और हैरान हो या न हो लेकिन घरवाले हैरान थे कि केवल तभी उन पर मेहर नहीं आती, जब मुझे ले जाया जाता है। छोटा भाई धीरज भी गया है कई बार, उसके सामने हमेशा देवता आ जाता है। तीन साल हो गये, घरवालों ने मुझे चौथी बार चलने को नहीं कहा।
21 अक्टूबर 2013, सोमवार
1. परसों अवकाश है। अब हाथ में एक छोटा कैमरा भी है। एक पैसेंजर ट्रेन यात्रा करते हैं। पैसेंजर ट्रेनों में बडा कैमरा लेकर चलना मुझे अच्छा नहीं लगता। छोटा कैमरा जेब में आ जाता है, इसलिये बिल्कुल अनुकूल है। योजना बनाते देर नहीं लगी। हिसार से जोधपुर पैसेंजर यात्रा करूंगा। हिसार से जोधपुर के लिये पैसेंजर ट्रेन सुबह पांच बजे चलती है। इस समय अन्धेरा रहता है, इसलिये मैं कल सुबह नाइट ड्यूटी से निवृत्त होकर दोपहर तक हिसार पहुंच जाऊंगा और एक बजे चलने वाली पैसेंजर से सादुलपुर चला जाऊंगा। सादुलपुर जाते ही मुझे रतनगढ की पैसेंजर खडी मिलेगी। चूरू रुकने का इरादा है। अगले दिन यानी बुधवार को सुबह सवेरे चूरू से जोधपुर की ट्रेन मिल जायेगी। मेडता रोड पर उतर जाऊंगा, फिर मेडता सिटी तक रेलबस से यात्रा करूंगा। उसके बाद अगर भोपाल-जोधपुर पैसेंजर ठीक समय पर आ गई तो जोधपुर चला जाऊंगा, नहीं तो मेडता रोड ही रुककर मण्डोर एक्सप्रेस का इन्तजार करूंगा। मेडता रोड से दिल्ली का मण्डोर एक्सप्रेस से आरक्षण करा लिया।
22 अक्टूबर 2013, मंगलवार
1. दिल्ली से हिसार और वहां से चूरू तक की यात्रा की। विस्तार से अलग से लिखा है।
23 अक्टूबर 2013, बुधवार
1. चूरू से मेडता रोड, फिर मेडता सिटी और वापस मेडता रोड पर रेलबस से और दिल्ली वापस।
25 अक्टूबर 2013, शुक्रवार
1. फिल्म ‘ग्रैण्ड मस्ती’ देखनी शुरू की। आधे घण्टे तक तो नॉन स्टॉप देखी, उसके बाद काट-काटकर और आगे बढा बढाकर देखने लगा और शीघ्र ही बन्द कर दी। इतनी घटिया फिल्म! अच्छा होता अगर इसमें मामूली सा परिवर्तन करके इसे पोर्न मूवी बना देते। गारण्टी से कह रहा हूं तब मैं इसे पूरी देखता।
2. 13 से 20 नवम्बर तक की छुट्टियों का प्रबल योग बन रहा है। कुछ छुट्टियां ऐसी होती हैं, जो न चाहते हुए भी लेनी पडती हैं। ये सप्ताह भर की छुट्टियां भी ऐसी ही हैं। लेनी पडेंगी और शायद मिलेंगी भी। हिमालय की तरफ देखा, इच्छा ही नहीं हुई। बाकी भारत में भी किसी स्थान विशेष पर घूमने की इच्छा नहीं हुई। ट्रेन यात्रा करूंगा। नये मार्गों पर पैसेंजर ट्रेनों में यात्रा करना मेरा शौक है। और इच्छा है कि भारत भर की हर लाइन पर एक बार पैसेंजर गाडी से यात्रा करूं। सोच लिया कि ये आठों दिन पूरी तरह पैसेंजर यात्रा को ही समर्पित कर देने हैं। योजना बनानी शुरू कर दी। इलाहाबाद से शुरू करूंगा। देखते हैं कहां तक पहुंच पाता हूं।
26 अक्टूबर 2013, शनिवार
1. पिताजी ने कहा कि 15 और 16 को गढमुक्तेश्वर पहुंचना है मुझे। इस दौरान वहां सप्ताह भर तक चलने वाला मेला होता है और पूर्णिमा को सुबह सवेरे गंगा स्नान के साथ समापन हो जाता है। भारी संख्या में श्रद्धालु सपरिवार वहां पहुंचते हैं और सप्ताह भर तक वहीं तम्बू लगाकर रहते हैं। हमारे गांव में भी इस मौके का बेसब्री से इंतजार रहता है। गेहूं की बुवाई हो चुकी होती है। मौसम परिवर्तन होता है और सुनहरी सर्दियां दस्तक देने लगती हैं। रजाईयां बाहर आ जाती हैं, मूंगफली भी स्वादिष्ट लगने लगती है। ज्यादातर लोग भैंसा बुग्गियों पर जाते हैं। जिनके पास ट्रैक्टर होता है, वे ट्रैक्टर-ट्रॉली को वरीयता देते हैं।
गढमुक्तेश्वर का हमारे यहां बडा महत्व है। शिशुओं और बच्चों के केश विसर्जन से लेकर मृतकों की अस्थि विसर्जन तक सब यहीं होते हैं। इस बार भी हमारे परिवार में कुछ ऐसा ही संस्कार होने वाला है। माताजी को दिवंगत हुए ग्यारह महीने बीत चुके हैं। तो गंगा स्नान पर्व पर परम्परा के अनुसार मुझे कुछ क्रिया-कर्म करना पडेगा। अगर यह कहीं और होता या घर में होता तो शायद मैं मना कर देता, लेकिन स्वयं मेरी भी इच्छा इस मेले के दौरान गढमुक्तेश्वर जाने की है, इसलिये जाऊंगा। आठ दिन की छुट्टियों का कुछ हिस्सा यहां खर्च करूंगा।
सोच रहा हूं कि साइकिल से जाऊं। लगे हाथों उधर से उधर ही हस्तिनापुर, सरधना और बरनावा भी देख लूंगा। हिसाब किताब लगाया तो दिल्ली से दिल्ली तक यह दूरी साढे तीन सौ किलोमीटर बन रही है। आठ दिनों में साढे तीन सौ किलोमीटर साइकिल चलाना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है। साधारण साइकिल भी यहां आराम से चलाई जा सकती है। सारा इलाका मैदानी है।
27 अक्टूबर 2013, रविवार
1. पांच रुपये खर्च करके दैनिक जागरण खरीदा और इस बार भी निराशा हाथ लगी। लद्दाख साइकिल यात्रा का मनाली से लेह वाला हिस्सा छपने के लिये भेजा था। भेजा क्या था बल्कि उन्होंने स्वयं मंगाया था। पिछले महीने नहीं छपा था तो सन्तोष कर लिया था कि मेरी गलती है कि मैंने विलम्ब से भेजा। इस बार क्या सोचकर सन्तोष करूं? अपमान महसूस हो रहा है। जागरण वालों ने खुद ही फोन किया था इस वृत्तान्त के लिये। इससे पहले के लेख मैं अपने आप ही भेज देता था, वे मंगाते नहीं थे। इस बार तो उन्होंने ही मंगाया। मैंने यार दोस्तों में खूब ढोल पीटा कि छपेगा अवश्य। अब क्या मुंह दिखाऊं उन्हें?
गुस्सा भी आ रहा है। नहीं भेजूंगा अब कभी इन्हें अपना कोई लेख। ना, बिल्कुल नहीं।
2. सर्दी बढने लगी है। पंखे बन्द करने की नौबत आने लगी है। आज तो कुछ कुछ ऐसा लग रहा है कि अगले एक दो दिनों में मुझे बुखार वगैरह होने वाला है। हर साल दो बार मौसम परिवर्तन के समय मैं तीन चार दिनों के लिये बीमार पडता हूं।
28 अक्टूबर 2013, सोमवार
1. आज गांव जाना है। कई दिन पहले पिताजी ने बता दिया था कि आज घर में हवन होगा। मैंने उपस्थित होने की हामी भर ली थी। लेकिन जब सुबह छह बजे नाइट ड्यूटी खत्म हुई तो आंख खोले से भी नहीं खुल रही थी। मैंने धीरज को फोन किया कि क्या मेरा आना जरूरी है? उसने कोई जवाब नहीं दिया बल्कि फोन पिताजी को पकडा दिया। उनसे बात करने की इच्छा नहीं थी, इसीलिये तो धीरज को फोन किया था। उन्होंने मरी सी आवाज में जो भी कहा, मैंने कह दिया कि ठीक है, आ रहा हूं। मस्तिष्क लगभग सुप्तावस्था में था, कुछ भी सोचने की क्षमता नहीं थी। वैसे तो मना कर देता लेकिन आज ही गांव जाने का सबसे बडा फायदा है कि कल और परसों अवकाश के दौरान दिल्ली में ही रहूंगा, दो दिन सुकून से कटेंगे। अगर आज नहीं जाऊंगा तो कल जाना पडेगा।
शास्त्री पार्क से मेट्रो में बैठ गया, बैठते ही नींद आ गई। दिलशाद गार्डन जाकर यात्रियों ने जगाया कि भाई, दिलशाद गार्डन आ गया। मैं उतर गया। पैर उठाये नहीं उठ रहे थे। चौराहा पार करने में डर भी लगा। टम्पू में बैठा तो वहां भी झूमता रहा। कोई और दिन होता तो मैं हरिद्वार या देहरादून वाली बस पकडता और सरधना रोड बाईपास पर उतर जाता। आज मेरठ वाली बस में बैठा ताकि अगर न उठ सकूं तो कंडक्टर स्वयं ही उठा दे।
घर पहुंचा तो कोई नहीं था। बाहर से कुण्डी लगी थी। मैं अन्दर घुसा और एक कमरे में पलंग पर पडकर सो गया। कुछ देर बाद पिताजी, धीरज, ताई, बुवा सब आये और उस कमरे में झांके बिना अपने अपने काम करने लगे। गांव में वैसे तो मेरे मोबाइल में फुल नेटवर्क रहता है लेकिन आज पता नहीं क्या हुआ कि नेटवर्क गायब हो गया। शोर सुनकर मेरी आंख खुल गई थी लेकिन मैं पलंग पर ही पडा रहा। पिताजी ने मुझे फोन किया, कई बार किया। जब नहीं मिला तो सोच लिया कि वो नहीं आयेगा, सो गया होगा। ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है कि मैं आने का वादा करके नहीं पहुंचता और सो जाता हूं। फोन बजता रहता है। लेकिन जब आज नेटवर्क ही नहीं था, तो फोन भी नहीं बजा। ऐसे में पिताजी घबरा जाते हैं। सबसे पहले अमित को फोन करते हैं। आज भी जब मेरा फोन नहीं मिला तो उससे ही पता किया। पता नहीं उसने क्या जवाब दिया।
देर सबेर मेरे आने का पता चलना ही था। नहाने का तकादा होने लगा। मैंने तर्क दिया कि मैं बारह घण्टे पहले नहाया था और उसके बाद से सोया भी नहीं हूं। लेकिन मेरी बात सुनने वाला कौन था? फिर मैंने पूछा कि अगर न नहाऊं तो...? ताई ने जवाब दिया कि न नहायेगा तो हवन में नहीं बैठ पायेगा। मैं खुश होकर बोला – ठीक है, बहुत अच्छी बात है। नहीं बैठूंगा। फिर भी नहाना पडा। इसके बाद मैंने पूछा कि हवन किस उपलक्ष्य में कराया जा रहा है? पिताजी ने कहा कि कुछ नहीं, बस ऐसे ही, घर की सुख शान्ति के लिये। उनके चेहरे से स्पष्ट लग रहा था कि कुछ छुपा रहे हैं। बुवा से पूछा तो उन्होंने पहले पिताजी से आज्ञा मांगी कि बता दूं क्या? पिताजी ने तुरन्त कहा कि नहीं। मुझे गुस्सा तो बहुत आया लेकिन मैं जिद नहीं किया करता। इसके बाद पूछा भी नहीं।
पण्डित अवधेश शर्मा आये। गांव के ही रहने वाले हैं और अडोस पडोस के गांवों के भी एक एक प्राणी तक को जानते हैं और हास्य रस प्रयोग करने के कारण सबके चहेते भी हैं। मैंने कहा कि पण्डितजी, नहाने की प्रथा अब बन्द होनी चाहिये। उन्होंने तुरन्त कहा कि हो जायेगी, अगर तू मेरी फिक्र करे तो...। मतलब? मतलब तेरा ब्याह...। मैं समझ गया। मैंने कहा कि वो तो तुम्हारे ही हाथ में है। उन्होंने पूछा कि बात आगे बढायें क्या? मैंने कहा कि बढाओ।
उन्होंने तभी एक जगह फोन किया- “रामराम जी, थारी छोरी की कहीं बात बनी या ना? ... नहीं बनी? एक लडका है, म्हारा भतीज्जा है। बढिया पढा लिखा है, घर परिवार से भी सम्पन्न है। मेट्रो में नौकरी करता है, दिल्ली मेट्रो में।” पिताजी के चेहरे पर उस समय खुशी देखने लायक थी। उन्होंने तुरन्त फुसफुसाया- जेई है। “हां जी, जेई है मेट्रो में। ... कहां रहता है?” –शास्त्री पार्क। “शास्त्री पार्क।... कितनी सैलरी है?” सबने मेरी तरफ देखा। मैंने कहा- पन्द्रह हजार। “पन्द्रह हजार।” पिताजी तुरन्त बोल पडे- पन्द्रह हजार नहीं है, पैंतीस हजार है। “नहीं जी, पन्द्रह नहीं है, पैंतीस हजार है।”
पिछली बार जब मैं गांव आया था तो विवाह के बारे में एक संकेत छोडा था। आज उस संकेत का कहीं कोई अता पता नहीं। संकेत था कि अगर विवाह करूंगा तो अपनी पसन्द की लडकी से करूंगा। शायद उनके लिये मेरी पसन्द का अर्थ है कि पहले हम पसन्द करेंगे, उसके बाद तू भी पसन्द कर लेना। बल्कि पसन्द करनी पडेगी।
जैसे ही आखिरी आहुति दी गई, मैं खाट की तरफ बढ गया- मुझे नींद आ रही है। बडा होने के कारण कुछ विशेष आहुतियां मेरे हाथों दिलाई गई थीं। सबने कहा कि अब कन्या जिमाई जायेंगी। उन्हें जिमा दे, फिर तू भी खाना खा लेना और सो जाना। मैंने मना कर दिया। फिर कहा कि बेटा, तू बडा है, तूने ही आहुतियां भी दी हैं। मैंने स्पष्ट कह दिया- बाकी के काम धीरज कर लेगा। बडा छोटा कुछ नहीं है। मेरे बराबर है वो भी। इसके बाद साढे चार बजे तक क्या हुआ, मुझे नहीं पता।
कई सवाल कौंध रहे हैं। विवाह करूं या न करूं? क्यों करूं? क्यों न करूं? अपनी पसन्द की लडकी से करूं या इनकी पसन्द की लडकी से? इनकी पसन्द की लडकी से क्यों? अपनी पसन्द से क्यों नहीं? और सबसे बडा सवाल कि उस लडकी से क्यों नहीं जो मुझे बहुत प्यार करती है और मुझे भी पसन्द है? अपनी ही बिरादरी की है। एक बार मैंने उस लडकी के बारे में घर में जिक्र किया था। माताजी भी जीवित थीं तब। कितना गुस्सा आया था पिता और माता को यह सुनकर कि कोई लडकी मुझे चाहती है! उस लडकी और उसके घरवालों को जी भरकर गालियां दी थीं और जानवरों से भी बदतर सिद्ध कर दिया था उसके पूरे कुनबे को। अब दोबारा उसका जिक्र करके क्या हासिल होगा? मैं तो घर लगभग छोड ही चुका हूं। वह लडकी भी मेरे लिये घर छोड सकती है लेकिन क्या उसके भाई बन्धु उसे जिन्दा छोडेंगे? बिल्कुल नहीं। यह बात उसने स्वयं मुझसे कही है।
विवाह न करने के कई कारणों में से एक कारण यह भी है। वह भयंकर पढी-लिखी है। मैं तो पढाई के मामले में उसके आसपास भी नहीं ठहरता। भविष्य में नौकरी करना या न करना उसके हाथ में है। अपने पैरों पर खडी होने में उसे कोई समस्या नहीं है। जब मुझे भी वह पसन्द है, उसे भी मैं पसन्द हूं तो क्यों उसे जाकर कहूं कि तुझसे विवाह नहीं कर सकता? इससे समाधान यही निकला कि विवाह न करना ही उचित है। कई महीनों से उससे लगातार कहता आ रहा हूं कि कभी भी विवाह नहीं करूंगा। अब जाकर उसे बात समझ में आने लगी है। वह भी कहने लगी है कि वह भी विवाह नहीं करेगी। अब अगर अचानक उससे कहूं कि घरवालों की मर्जी से विवाह करने जा रहा हूं तो उस पर क्या बीतेगी?
शाम को अहमदाबाद मेल पकडकर दिल्ली आ गया।
29 अक्टूबर 2013, मंगलवार
1. प्रेमचन्द की ‘मानसरोवर-2’ पढी। इसमें कुल 26 कहानियां हैं- कुसुम, खुदाई फौजदार, वेश्या, चमत्कार, मोटर के छींटें, कैदी, मिस पद्मा, विद्रोही, उन्माद, न्याय, कुत्सा, दो बैलों की कथा, रियासत का दीवान, मुफ्त का यश, बासी भात में खुदा का साझा, दूध का दाम, बालक, जीवन का शाप, डामुल का कैदी, नेउर, गृह-नीति, कानूनी कुमार, लॉटरी, जादू, नया विवाह और शूद्रा।
2. एक विदेशी फिल्म देखनी शुरू की- द सिक्स्थ सेंस। फिल्म दोपहर को देखनी शुरू की। घण्टे भर तक तो सब ठीक चलता रहा लेकिन जब उस बच्चे का रहस्य खुला कि उसे मरे हुए लोग दिखते हैं और फिल्म में भी रसोई में एक चुडैल और बाद में तीन फांसी पर लटके जिन्दा भूत दिखे तो तुरन्त फिल्म बन्द कर दी। मैं घर पर अकेला हूं। दिन में तो कोई समस्या नहीं लेकिन रात में समस्या हो जायेगी। पूरे क्वार्टर में अकेला रहूंगा तो रात को मुझे भी भूत-चुडैल दिखने शुरू हो जायेंगे। बाकी फिल्म तब देखूंगा तब तीन चार नाइट ड्यूटी लगेंगी।
फिल्म देखकर सो गया। सपने भी डरावने आते रहे। रात नौ बजे उठा। उठते ही फिर फिल्म याद आ गई। जब दिन में छह सात घण्टे सो लिया तो अब क्यों नींद आयेगी? खाना खाकर लैपटॉप लेकर बैठ गया, कभी ब्लॉग, कभी फेसबुक तो कभी रेलवे वैली गेम खेलता रहा। सारे कमरों की लाइटें जला दीं और पर्दे कोनों में सरका दिये। पर्दे जरा भी हिलते हैं तो ‘किसी’ के होने का भ्रम हो जाता है। सुबह छह बजे फिर सो गया।
दिन में अगर भुतहा फिल्में देख लेता हूं तो उसी रात को अगर मैं अकेला रहूं तो मुझे डर लगने लगता है। अगली रात यह डर कम हो जाता है और उससे अगली रात बिल्कुल नहीं लगता। दिन में कभी डर नहीं लगता, चाहे साक्षात भूत और चुडैल ही सामने क्यों ना आ जायें।
30 अक्टूबर 2013, बुधवार
1. प्रेमचन्द की ‘मानसरोवर-3’ पढी। इसमें कुल 32 कहानियां हैं- विश्वास, नरक का मार्ग, स्त्री और पुरुष, उद्धार, निर्वासन, नैराश्य-लीला, कौशल, स्वर्ग की देवी, आधार, एक आंच की कसर, माता का हृदय, परीक्षा, तेंतर, नैराश्य, दण्ड, धिक्कार, लैला, मुक्तिधन, दीक्षा, क्षमा, मनुष्य का परम धर्म, गुरू-मन्त्र, सौभाग्य के कोडे, विचित्र होली, मुक्ति-मार्ग, डिक्री के रुपये, शतरंज के खिलाडी, वज्रपात, सत्याग्रह, भाडे का टट्टू, बाबा जी का भोज और विनोद।
2. 17 नवम्बर को पूर्णिमा है, गंगा स्नान भी है। वैसे तो बरनावा, सरधना, हस्तिनापुर और गढमुक्तेश्वर का साइकिल यात्रा का कार्यक्रम बना रखा है लेकिन मैं हमेशा एक बैकअप प्लान लेकर भी चलता हूं। आज बैकअप प्लान बना लिया। 12 नवम्बर को दिल्ली से कानपुर जाना और कानपुर से रायबरेली पैसेंजर ट्रेन यात्रा और रात्रि विश्राम इलाहाबाद में, 13 को इलाहाबाद से मुगलसराय पैसेंजर ट्रेन यात्रा और विश्राम वाराणसी में, 14 को वाराणसी से प्रतापगढ और रायबरेली के रास्ते लखनऊ तक पैसेंजर ट्रेन यात्रा और देर रात नौचन्दी पकडकर 15 की सुबह गढमुक्तेश्वर पहुंच जाना, 15 और 16 को गढमुक्तेश्वर में रुकना और अगले दिन दिल्ली वापस।
प्राथमिकता तो साइकिल यात्रा की ही रहेगी, लेकिन द्वितीयक योजना भी ठीक रहती है। दो आरक्षण हैं- दिल्ली से कानपुर और बछरावां से गढमुक्तेश्वर (लखनऊ से नौचन्दी में वेटिंग चल रही है)। साइकिल यात्रा ही फाइनल होगी तो सौ सवा सौ के नुकसान पर टिकट रद्द कर दूंगा।
3. एक फोन आया- शाहजहांपुर से। पूछने लगे कि आप यात्रा कैसे करते हो- मोटरसाइकिल से या अपनी कार वार से? मैंने कहा कि ज्यादातर ट्रेन से। तो उछल पडे- ट्रेन से? ट्रेन से कैसे यात्राएं कैसे हो सकती हैं? हो ही नहीं सकतीं। मैंने समझ लिया कि वे नीरज को बिना पढे या एकाध पोस्ट पढकर ‘नीरज जी’ से बात कर रहे हैं और स्वयं को भी घुमक्कडी का जानकार सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं। फिर पूछने लगे कि आपके ग्रुप में कितने लोग हैं? मैंने कहा कि मेरा कोई ग्रुप नहीं है, मैं ज्यादातर अकेला ही घूमता हूं। फिर से उछल पडे- अकेले? अकेले कैसे यात्रा हो सकती है? सुझाव दिया कि पांच छह लोगों का एक ग्रुप बनाओ और फिर घूमो। अकेले नहीं घूमा जा सकता।
4. आज फिर नाक के आखिरी आन्तरिक सिरे पर गुदगुदी सी हो रही है। मौसम परिवर्तन पर मुझे ऐसा होता ही है। एक दो दिन में नाक बहनी शुरू हो जायेगी। रुक गई तो ठीक, नहीं तो यह सप्ताह दस दिन तक चलेगा और इस दौरान तेज बुखार भी चढेगा। सावधानियां तो बहुत बरत रहा हूं लेकिन यह मौसम ही ऐसा है कि एक कपडा भी ज्यादा पहन लिया तो गर्मी लगती है, अन्यथा ठण्ड लगने लगती है। मात्र एक कपडे के अन्तर से गर्मी-सर्दी का यह अन्तर शरीर झेल नहीं पाता।
5. आशीष इंजीनियर से मैनेजर बन गये हैं। उन्होंने आन्तरिक परीक्षा में पहले तो लिखित परीक्षा उत्तीर्ण की, फिर मौखिक परीक्षा भी। खुशी की बात तो है ही लेकिन थोडे बहुत दुख की बात भी है। मैं चार साल से उनके साथ काम कर रहा हूं- दिन में भी और रात को भी। उनके साथ मेरा अच्छा तालमेल बनता था और मैं उनके साथ काफी सहज भी महसूस करता था। अब उनकी कमी खलेगी। लेकिन एक फायदा भी हुआ है कि उनके जाने से मेरी महत्ता दो चार प्रतिशत बढेगी।
31 अक्टूबर 2013, गुरूवार
1. दोपहर होते होते नाक बहने लगी। लेकिन अभी यह ज्यादा नहीं बह रही है। आराम से बैठकर लिख और पढ सकता हूं। लेकिन बराबर में रुमाल रखना पड रहा है। मैं इस बीमारी में कोई दवाई लेना पसन्द नहीं करता। नाक बह रही है तो बहती रहे। दवाई तब लूंगा, जब खांसी शुरू हो जायेगी। खांसी बडी जानलेवा चीज है, ढंग से सोने भी नहीं देती।
2. पिछले दिनों गूगल ने मैपाथन नाम की योजना शुरू की थी जिसमें प्रयोगकर्ताओं को भारत का गूगल मैप अपडेट करना था। जो जितना ज्यादा अपडेट करेगा, वो उतना ही बडा पुरस्कार प्राप्त करेगा। मैंने भी इसमें काम किया। दिल्ली का तो मुझे ज्यादा नहीं पता था लेकिन अपने गांव और आसपास के गांवों के रास्ते, सडक, मन्दिर, जोहड सब अपडेट कर दिये थे। आज पता चला कि मुझे उसमें टी-शर्ट मिली है। वे मुझसे टी-शर्ट का साइज मांग रहे हैं ताकि ठीक नाप की टी-शर्ट घर पहुंचाई जा सके। नहीं तो सबसे बडे साइज की टी-शर्ट भेज देंगे।
3. राहुल चतुर्वेदी से प्रेरित होकर इस बार मैन्यूअल मोड पर फोटो खींचने शुरू किये। इससे पहले मैं केवल यात्राओं के समय ही फोटो खींचा करता था, वो भी ज्यादातर ऑटोमेटिक मोड पर। करीब छह सात महीने पहले जब मैं और नटवर हिमानी चामुण्डा की यात्रा पर गये थे तो नटवर मुझे मैन्यूअल मोड की फोटोग्राफी का महत्व बताता था। नटवर एक प्रोफेशनल वेडिंग और फैशन फोटोग्राफर बनने की राह पर है। तो उस दिन एक फोटो उसने खींचा मैन्यूअल मोड पर और वही फोटो मैंने खींचा ऑटो मोड पर। मुझे दोनों में कोई फरक नहीं नजर आया। प्राकृतिक नजारों के फोटो थे दोनों। नटवर ने मुंह बिचकाकर कहा- हुंह, ऑटो में भी कहीं फोटो खिंचते हैं? मैंने पूछा कि भाई, दोनों में मामूली सा भी फरक नहीं दिख रहा, जरा कमी बताना कि ऑटो वाले फोटो में क्या चीज नहीं है। बोला कि साफ दिख रहा है। रंग देख, कितने भद्दे रंग हैं। जबकि वास्तव में कोई भद्दाहट नहीं थी। मैंने कहा कि बेटा, तुझे मेरी आलोचना करनी है, बेशक कर ले लेकिन मेरे काम की बिना वजह आलोचना मत कर। तू भी जानता है कि ऑटो वाला यह फोटो तेरे मैन्यूअल फोटो से कहीं शानदार दिख रहा है। जलो मगर प्यार से।
बस, तभी से मैन्यूअल मोड से मुंह मोड लिया। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि अपने कैमरे में मैन्यूअल मोड सलेक्ट किया, शटर स्पीड बदली, अपर्चर बदला, ये बदला, वो बदला और तब एक क्लिक किया। उसके बाद वही दृश्य ऑटोमेटिक मोड में बिना कुछ अदले बदले खींचा तो ऑटो वाला कई गुना शानदार फोटो आया। मन में बैठता चला गया कि अपना ऑटो ही अच्छा।
मैं सब्जेक्ट आधारित फोटो खींचता हूं। चाहता हूं कि जो भी फोटो खींचूं, उसके नीचे कैप्शन न लगाना पडे, उसकी व्याख्या न करनी पडे। देखते ही पता चल जाये कि मैं क्या दिखाना चाहता हूं। इसके साथ ही बैकग्राउण्ड का भी काफी ध्यान रखता हूं। चाहता हूं कि बैकग्राउण्ड से ही पूरी व्याख्या हो जाये और बैकग्राउण्ड में सब्जेक्ट छिपना भी नहीं चाहिये। यानी सब्जेक्ट भी दिखे और बैकग्राउण्ड भी।
अनुभवी और प्रोफेशनल फोटोग्राफर मैन्यूअल फोटोग्राफी करने को कहते हैं तो गलत तो कहते नहीं होंगे। यही सोचकर कैमरा मैन्यूअल पर सेट कर लिया और उसका स्थान अलमारी से हटाकर अपने बैग में कर दिया। कुछ फोटो खींचे हैं, ज्यादातर मैन्यूअल हैं।























डायरी के पन्ने-15 | डायरी के पन्ने-17




Comments

  1. भाई, क्या चीज़ों का वर्गीकरण केवल अच्छे और बुरे में ही हो सकता है . ऐसा भी तो होता है न कि चीज ना अच्छी हो और ना बुरी .

    ReplyDelete
  2. जिन्दगी बड़े रोचक दौर से गुजर रही है, आनन्दमय रहिये, जब जिसकी इच्छा तीव्र होती है तभी समाधान आता है।

    ReplyDelete
  3. अच्छी photography करते हे आप .लैम्प वाला तो मजेदार खिचा हे

    ReplyDelete
  4. नीरज जी नमस्ते , चोर कभी किसी और की कविता के ऊपर उसके लेखक का नाम नहीं डालते बल्कि अपना नाम डालते है |मुसाफिर कविता के ऊपर उसकी लेखिका नाम साफ़ -२ लिखा है ...प्रांजल | शशि राना जी आपसे नम्र निवेदन है की नवभारत टाइम्स के 'अपना ब्लॉग ' पर अपना गुस्सा निकले जन्हा आपकी कविता को प्रांजल जी ने अपने नाम से परकाशित कर रखा है | आपकी सुविधा हेतु उस पेज का लिन्क डाल रहा हूँ http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/mere-sapno-ka-jahaan/entry/%E0%A4%AE-%E0%A4%B8%E0%A4%AB-%E0%A4%B0

    ReplyDelete
  5. भाई पांच रस. भी क्यूँ खर्चे... ऑनलाइन ही देख लेते दैनिक जागरण.....

    ReplyDelete
  6. The photo of bird on lamp and sun in background is awesome.........unbelievable. Shaadi kar lo bhaiya, vaivaahik jeevan jyaadaa sukhdaai hotaa hai...is baat men koi shak nahin hai.

    ReplyDelete
  7. मुझे तो स्टील के गिलास में चाय मिला था नीरज भाई, और कप भी अलमारी में देखा था मैंने ....!! बहुत बढ़िया जिंदगी कट रही है दुआ करता हूँ कि शादी के बाद भी ऐसे ही कटे ......!!

    ReplyDelete
  8. Ha ha ha uparvali 2 coment ke liye , neeraj baba UMESH JOSHI

    ReplyDelete
  9. Neeraj bhai, Zukam ke ek tablet hai (Montek-LC), behti naak bilkul band ho jayegi.

    ReplyDelete
  10. Neeraj bhai, Zukam ke ek tablet hai (Montek-LC), behti naak bilkul band ho jayegi.

    ReplyDelete
  11. Andhere se dosti kar lo bhoot ka dar bhaag jayega..... Try Meditations...

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब