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लोंडा से तालगुप्पा रेलयात्रा और जोग प्रपात

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हमें लोंडा से बिरूर तक रानी चेन्नम्मा एक्सप्रेस से जाना था और बिरूर से तालगुप्पा तक बैंगलोर-तालगुप्पा एक्सप्रेस से। रानी चेन्नम्मा एक्सप्रेस रात 02:48 पर बिरूर पहुंचती है जबकि वहां से तालगुप्पा एक्सप्रेस 03:25 पर मिलती है अर्थात 37 मिनट बाद। दोनों गाडियों में हमारा आरक्षण था।
रानी चेन्नम्मा एक्सप्रेस एक घण्टे विलम्ब से लोंडा आई। यह आती तो कोल्हापुर से ही है, जो यहां से ज्यादा दूर नहीं लेकिन पता नहीं क्यों लेट हो गई। शायद सम्पर्क क्रान्ति की वजह से हुई होगी। सम्पर्क क्रान्ति लोंडा नहीं रुकती और हमारे सामने ही बैंगलोर की तरफ निकली थी।
शुरू में हमारा आरक्षण आरएसी में था। चार्ट बनने के बाद मेरी और प्रशान्त की सीटें तो कन्फर्म हो गईं लेकिन कमल आरएसी में ही रहा। कमल हमारी तरह रेलयात्री नहीं है इसलिये यह हमारे लिये जश्न मनाने की बात थी। कोई दया नहीं करेंगे। फिर रात तीन बजे उठना भी है, इसलिये कन्फर्म बर्थ वाले सो गये। कमल की आरएसी बर्थ एक अन्य यात्री के साथ इसी डिब्बे में थी।
तीन बजे का अलार्म लगाया था मैंने, तय समय पर बज गया। गूगल मैप पर देखा, गाडी अभी बिरूर नहीं पहुंची थी। प्रशान्त मेरे सामने ही पडा शानदार नींद ले रहा था। बिरूर में गाडी बदलवाने की सारी जिम्मेदारी अकथित रूप से मेरे ऊपर ही थी।
साढे तीन बजे जब ट्रेन बिरूर जंक्शन पर प्रवेश करने लगी, तो मैंने प्रशान्त को उठा दिया। यही समय तालगुप्पा एक्सप्रेस का भी है। दिल की धडकनें ऐसे समय पर असामान्य रूप से बढ जाती हैं। अगर तालगुप्पा एक्सप्रेस सही समय पर चल रही हो तो हमारा उसे पकडना मुश्किल हो जायेगा। हमारी उस गाडी में कन्फर्म बर्थ है।
कमल की बर्थ पर गये। वहां होने तो दो यात्री चाहिये थे लेकिन एक ही सोता दिखा- कम्बल ओढे। जाहिर तौर पर यह कमल नहीं था। तो क्या टीटीई ने कमल को कोई कन्फर्म बर्थ दे दी है? अगर ऐसा है तो शायद उसके सहयात्री को मालूम हो। उसे उठाया तो बेचारे भले मानस ने तुरन्त उठते ही कमल को ढूंढना शुरू कर दिया। उसे भी नहीं मालूम था कि कमल है कहां, लेकिन है इसी डिब्बे में। कमल का फोन स्विच ऑफ था।
मुझे उसकी चप्पलों की पहचान थी। चादर ओढे हर यात्री को उठाना असम्भव था। मैंने चप्पल ढूंढनी शुरू की। नहीं मिली। गाडी कभी की प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। प्रशान्त और कमल का वो सहयात्री दूसरे डिब्बे में भी ढूंढने गये, मैं चप्पल ढूंढने में लगा रहा। तभी खिडकी से निगाह पडी बराबर वाले प्लेटफार्म पर। विपरीत दिशा में जाने वाली तालगुप्पा एक्सप्रेस खडी थी।
मन में आया कि कमल कमल का शोर मचा दूं, इस डिब्बे में होगा तो उठेगा ही। यात्रा कार्यक्रम बिगडने का डर नहीं था। मात्र 37 मिनट का समय मिलता हमें इस स्टेशन पर। सामान्यतः ट्रेन इतनी लेट तो हो ही जाती है। मैं इसके लिये तैयार था। लेकिन असल समस्या थी कि कमल आगे निकल जायेगा। शायद सुबह होने तक बैंगलोर भी चला जाये। वो कमल जो मेरे भरोसे अपनी खुशियों का गला घोंटकर साथ आया था। जो ना चाहते हुए भी मेरे साथ रेल में यात्रा कर रहा था। जिसने यह कह दिया था कि कहीं भी चलो, कैसे भी चलो, मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा, हालांकि ट्रेन यात्राओं में वो कभी खुश नहीं दिखा।
और उस पर गुस्सा भी बहुत आ रहा था। कमीने ने फोन क्यों बन्द कर रखा है? क्या चोरी के डर से चप्पलें भी अपनी बगल में दबाकर सो रहा है? जब उसके पास आधी रात को उठने के लिये अलार्म नहीं है, तो क्यों किसी को बताकर नहीं गया अनजानी बर्थ पर? उसने क्यों नहीं सोचा कि नीरज और प्रशान्त तुझे ढूंढेंगे कैसे?
जब रानी चेन्नम्मा चलने लगी तो मैं उतर गया। बराबर वाले डिब्बे से प्रशान्त भी उतरा। मुंह लटका था। कुछ कहने ही वाला था कि मैंने कह दिया- बराबर में तालगुप्पा वाली खडी है। जाने दे कमल को। बैंगलोर पहुंच जायेगा लेकिन आखिरकार उसे हमारे साथ ही आना है, आना पडेगा। गलती उसकी है, भुगतने दे।
जब इस गाडी का आखिरी डिब्बा भी निकल गया तो देखा सामने से तालगुप्पा एक्सप्रेस का भी आखिरी डिब्बा निकल रहा है। प्रशान्त ने कहा- जाने दे। अगर मैं ही होता तो दौडकर पकड लेता लेकिन प्रशान्त ऐसा नहीं कर सकता।
प्रतीक्षालय में गये। कुछ लोग बैठे, कुछ लेटे सो रहे थे। जब हम बैठ गये, एक दूसरे को देखा। फिर जोर से खुलकर हंस पडे। जबरदस्त हंसी आई। हमारी ट्रेन निकल गई, इस बात का दुख नहीं था बल्कि कमल इसी ट्रेन में सोता हुआ चला गया, इस बात की खुशी भी थी। अब हम इस घटना को दूसरे नजरिये से देखने लगे। पट्ठे को अब पता चलेगा कि घुमक्कडी क्या होती है। दूसरे के बनाये कार्यक्रम के अनुसार चलना बहुत सरल है। हम तो अभी भी अपने उसी कार्यक्रम से चलते रहेंगे लेकिन यह देखना मजेदार होगा कि वो हमें कैसे और कब तक पकड पाता है। आज 11 तारीख है, 14 को मडगांव से दिल्ली का हमारा आरक्षण है। उसे 14 तक हर हाल में मडगांव पहुंचना ही पडेगा।
लेकिन यह खुशी थोडी देर ही रह सकी। कमल का फोन आया- अरे यार, तुम मुझे सोता छोडकर चले गये। सुनते ही मेरा दिमाग खराब हो गया। सोता छोडकर मतलब? यानी हमें पता था कि तू कहां सो रहा है? हां, हम तो तुझे जानबूझकर छोडकर उतर गये। मेरा मूड देखकर वो कुछ नरम पडा। फिर बोला कि अभी कडूर से निकली है गाडी। अब कैसे करूं? मैंने बता दिया कि थोडी देर में अरसीकेरे आयेगा। तू वहीं उतर जाना। सुबह नौ बजे के आसपास तालगुप्पा की गाडी आयेगी। उससे आ जा। हम तुझे बिरूर में मिलेंगे। हमारी भी गाडी छूट गई है।
काफी ठण्ड थी। इतनी ठण्ड की हमने उम्मीद नहीं की थी। बिरूर का प्रतीक्षालय छोटा सा है। फिर उसमें कुर्सियां भी हैं, कुछ यात्री भी सो रहे थे, हमारे लेटने को जगह नहीं बची थी। बाहर प्लेटफार्म पर सोना मैं पसन्द नहीं करता। लेकिन मजबूरी थी। ठीक सी जगह की तलाश की तो एक जनरेटर की बगल में छोटी सी दीवार मिल गई जो पर्याप्त चौडी थी। शायद स्टेशन के कर्मचारी इसका इस्तेमाल बैठने के लिये करते हों। यहां लेटा तो मच्छरों ने भयंकर हमला कर दिया। भागा भागा प्रतीक्षालय में प्रशान्त के पास गया। उसने सोने से मना कर दिया था। वो सुबह तक यहीं रहेगा। उसके पास एक चादर थी। चादर भी कमल की थी। जब हम गोवा में थे तो मैं और कमल दूधसागर प्रपात देखने आ गये। प्रशान्त को ट्रेन से आना था, इसलिये कमल ने अपना सामान कम करने के लिये चादर प्रशान्त को दे दी थी। चादर लेकर मैं फिर वहीं जनरेटर की बगल में गया। नींद आ गई। हां, एक बार नींद उजडी अवश्य थी जब एक मच्छर ने चादर में सेंधमारी कर ली।
एक ट्रेन के लेट हो जाने के कारण हमारी दूसरी ट्रेन निकल गई- इस आधार पर प्रशान्त स्टेशन मास्टर के पास गया ताकि तीसरी ट्रेन से यात्रा करने के लिये टिकट न लेना पडे। लेकिन असफल रहा। स्टेशन मास्टर ने कहा कि यह नियम पांच सौ किलोमीटर से ज्यादा की यात्रा करने के लिये है। हमने पहली ट्रेन से साढे तीन सौ किलोमीटर की यात्रा की थी और दूसरी से डेढ सौ किलोमीटर की करते। अगर पहली से ही पांच सौ किलोमीटर करते तो वह इस बात को टिकट पर लिखकर दे देता और हमें फिर से टिकट न लेना पडता। बिरूर से टिकट लेना पडा।
अब तालगुप्पा वाली ट्रेन पौने दस बजे आयेगी। उससे पहले आठ दस पर शिमोगा की पैसेंजर है। प्रशान्त ने सुझाव दिया कि पैसेंजर से चलते हैं। शिमोगा से एक्सप्रेस पकड लेंगे।
जब पैसेंजर में बैठने जा रहे थे तो बिरूर की ऊंचाई दिख पडी- समुद्र तल से 794 मीटर ऊपर। हमने इतनी ऊंचाई की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं की थी। अब समझ में आ गया कि इतनी ठण्ड क्यों है।
ठीक समय पर गाडी चल दी। पहला स्टेशन मिला शिवपुर, फिर कोरनहल्ली, तरीकेरे, मसरहल्ली, भद्रावती, शिमोगा और शिमोगा टाउन। भद्रावती में भद्रा नदी पार करनी होती है और शिमोगा से पहले तुंगा। ये दोनों नदियां कुछ आगे जाकर मिल जाती हैं और तुंगभद्रा बन जाती हैं। फिर यह तुंगभद्रा एक लम्बा सफर तय करती है और पश्चिमी घाट से अपनी यात्रा शुरू करके पूर्वी घाट की ओर चल देती है और आन्ध्र प्रदेश में श्रीसैलम में कृष्णा नदी में मिल जाती है। कृष्णा भी विजयवाडा से आगे बंगाल की खाडी में जा मिलती है।
साढे नौ बजे शिमोगा टाउन पहुंचे- बिल्कुल ठीक समय पर। उधर कमल अरसीकेरे से तालगुप्पा एक्सप्रेस में बैठ गया था। हमने उसे बता दिया था कि हम बिरूर नहीं मिलेंगे, बल्कि शिमोगा मिलेंगे।
प्रवीण पाण्डेय साहब का फोन आया। वे रेलवे में बैंगलोर में एक बडे अफसर हैं। उन्होंने बताया कि मेरी इस यात्रा को देखकर उन्होंने भी सपरिवार जोग प्रपात का कार्यक्रम बना लिया और मुझसे अचानक मिलते। पिछले साल भारत परिक्रमा के दौरान भी उन्होंने सेलम में मिलने को कहा था हालांकि नहीं आ सके। लेकिन ऐसा यहां भी नहीं होना था, हमारी ट्रेन जो छूट गई थी बिरूर में। ट्रेन न छूटती तो हम इस समय तालगुप्पा में पाण्डेय साहब के साथ होते।
खैर, आधे घण्टे विलम्ब से तालगुप्पा एक्सप्रेस शिमोगा आई। पांच मिनट रुकी। कमल नहीं मिला। कोई बात नहीं, तालगुप्पा में तो मिलना ही है। हमने तो फोन किया नहीं, उसने भी नहीं किया। शायद अपने पसन्दीदा स्टाइल में होगा- सो रहा होगा।
ट्रेन लगभग खाली ही थी। सबसे अच्छी बात थी कि इसमें टीवी लगे थे, हालांकि बन्द थे, चल नहीं रहे थे। किसी ट्रेन में टीवी पहली बार देखा है।
यह एक एक्सप्रेस गाडी थी, इसलिये हर स्टेशन पर नहीं रुकी। फिर भी रास्ते में पडने वाले कुछ स्टेशन थे- कोटे गंगूर, हारनहल्ली, केंचनाल, आनन्दपुरम, बालेगुण्डी, सागरा जम्बगारू, कानले और आखिर में तालगुप्पा। आनन्दपुरम और सागरा जम्बगारू में गाडी का ठहराव है।
कुछ समय पहले तक यह लाइन मीटर गेज थी। ज्यादा दिन नहीं हुए शिमोगा-तालगुप्पा खण्ड को खुले हुए। अभी तक इस मार्ग पर केवल एक्सप्रेस गाडियां ही चलती थीं। आज जब मैं यह लेख लिख रहा हूं, दो जोडी पैसेंजर भी चलने लगी हैं।

जोग प्रपात
डेढ बजे हम तालगुप्पा पहुंचे। अब हमें जोग प्रपात देखने जाना है। इसे गरसोप्पा प्रपात भी कहते हैं। यह भारत का दूसरा सबसे ऊंचा प्रपात है। पहला स्थान मेघालय में है नोहकालीखाई प्रपात का।
प्रवीण पाण्डेय साहब प्रपात पर पहुंच चुके थे। अब हम वहीं मिलेंगे। वापसी में हमें शाम आठ बजे वाली ट्रेन से लौटना है।
स्टेशन से बाहर निकले। टैक्सियां खडी थीं, सभी जोग जोग कर रहे थे। हमने बस अड्डे के बारे में पूछा। स्टेशन से करीब आधा किलोमीटर है। एक जीप जा रही थी। बारह किलोमीटर के लिये प्रति सवारी तीस रुपये ले रही थी। हम तुरन्त उसमें सवार हो गये।
प्रपात पर पहुंचे। भयंकर भीड। आज इतवार जो था। तभी दूर प्रपात दिख भी गया। एक झलक दिखी झुरमुट के पीछे से, रोंगटे खडे हो गये। दो-चार फोटो खींचे।
भूख लगी थी। शिमोगा से चले थे तो सोचा कि तालगुप्पा में खाने को मिल जायेगा लेकिन तालगुप्पा पहुंचकर जीप पकडने की जल्दी मची। यहां भेलपूरी मिल रही थी, बीस रुपये में जरा सी। कमल और प्रशान्त से नजर बचाकर ले ली। भीड की वजह से नजर बचाने में सहूलियत रही।
प्रवेश शुल्क देकर अन्दर घुसे। कोई जल्दी नहीं थी प्रपात देखने की। बीस रुपये खर्च कर देने पर भी भूख उतनी ही जोरों की लगी थी। बायें हाथ एक व्यस्त सा बाजार है जहां ज्यादातर दुकानें खाने की हैं। उत्तर भारतीय भोजन तो नहीं मिला, दक्षिण भारतीय हमारी समझ में नहीं आया। यहां मांसाहार और शाकाहार दोनों था। हमने आमलेट बनवा लिये। प्रशान्त अण्डे से भी दूर रहता है। हम ऐसे समय यहां घुसे जब प्रशान्त एक सामानघर में अपना बैग रखने लगा, उसका बैग फट गया था, आसानी से लादा नहीं जा सकता था।
प्रशान्त ने हमें जहां छोडा था, हम वहां नहीं मिले। भीड की वजह से फिर हम गुम हो गये। बच्चे तो हैं नहीं कि परेशानी की बात थी। वो हमें ढूंढ रहा होगा लेकिन न पाकर शीघ्र ही प्रपात का आनन्द लेने लगा होगा। हमने भी ऐसा ही किया। कुछ देर प्रशान्त को ढूंढा, नहीं मिला तो आनन्द से घूमने लगे।
इसे गरसोप्पा प्रपात भी कहते हैं। शरावती नदी यहां 253 मीटर की ऊंचाई से गिरती है। यह शिमोगा और उत्तर कन्नड जिलों की सीमा पर स्थित है। यही वह स्थान है जहां से ठीक आगे पश्चिमी घाट की पहाडियां समुद्र से मिलने चल देती हैं। यहां से आगे ढलान है। समुद्र ज्यादा दूर नहीं है। असल में पश्चिमी घाट की पहाडियों और समुद्र के बीच में 30 -40 किलोमीटर चौडी समतल पट्टी है। समुद्र से अगर चलना शुरू करें तो 30-40 किलोमीटर बाद पश्चिमी घाट की पहाडियां शुरू हो जाती हैं। अचानक से चढाई शुरू हो जाती है। चूंकि ये पहाडियां दक्षिणी गुजरात से केरल तक फैली हैं, इसलिये इस पूरे क्षेत्र में यही हाल है। कई जगह रेल भी इन्हें पार करती है। उत्तर से शुरू करें तो सबसे पहले मुम्बई-भुसावल लाइन इन्हें पार करती है जहां कसारा-इगतपुरी के बीच में चढाई है। फिर मुम्बई-पुणे लाइन है जहां करजत से आगे चढाई शुरू होती है। उसके बाद मडगांव-लोण्डा लाइन है जहां कुलेम-केसल रॉक के बीच चढाई है। फिर दक्षिणी कर्नाटक में मंगलौर-हासन लाइन है जहां सुब्रह्मण्य रोड-सकलेशपुर के बीच चढाई है। हालांकि केरल में पालघाट में कुदरत ने थोडी सी रियायत दे दी है। वहां दर्रा है।
जहां हम खडे हैं, वहां से सामने एक गहरा खड्ड पार करके जोग प्रपात दिख रहा है। दाहिनी तरफ समतल जमीन है। साफ दिखता है कि यह खड्ड ठीक इसी स्थान से शुरू होता है। बायें नजर घुमाये तो खड्ड में शरावती नदी बहती दिखती है और दूर तक और भी गहरा होता दिखता रहता है। अगर हम नीचे नदी किनारे खडे होते तो स्वयं को चारों तरफ से पर्वतों से घिरा पाते लेकिन यहां महसूस होता है कि हम पर्वतों से नहीं घिरे हैं बल्कि पर्वतों के शिखर पर खडे हैं। दाहिनी ओर जहां से खड्ड शुरू होता है, उसके पार समतल है, होन्नावर वाली सडक भी है और इस खड्ड के दूसरी तरफ जाने का रास्ता भी है। बहुत से लोग हमें सामने प्रपात के ऊपर खडे भी दिखाई दे रहे हैं। मेरा भी इरादा था उस पार जाने का लेकिन नहीं गया।
यहां और भी कई प्रपात हैं लेकिन जोग प्रपात सबसे ऊंचा और खूबसूरत है। नीचे नदी पर बांध भी बना है जहां विद्युत उत्पादन होता है।
इसके अलावा पास ही एक बडा बांध और भी है। लेकिन ट्रेन लेट हो जाने के कारण हम भी काफी देर से आये थे, समय कम था। नहीं जा सके। हालांकि वापस तालगुप्पा जाने के लिये हमें एक बस मिल गई, वह बस उसी बांध के पास से गुजरी थी। बस में भीड थी, फिर लम्बे रास्ते से गई, जान निकल गई। अगर पता होता तो हम 17 रुपये वाली इस बस से न आते। जीप से आते पन्द्रह मिनट में तालगुप्पा पहुंच गये होते।
तालगुप्पा एक ढाबे पर जब मैं और कमल खाना खा रहे थे तो कमल ने कहा- नीरज, यह यात्रा याद रहेगी। क्यों? जिन्दगी में पहली बार ऐसी ‘रफ एण्ड टफ’ यात्रा की है। अगर मैं अकेला होता तो खिडकी तक लदी उस बस में कभी न चढता, भले ही तीन-चार सौ रुपये में कोई टैक्सी ही क्यों न करनी पडती।
हालांकि प्रपात के पास आखिर में प्रशान्त हमें मिल गया था लेकिन वह उस बस से नहीं आया, जिससे हम आये थे। बाद में आने वाली बस से आया। वास्तव में उस एक घण्टे की बस यात्रा से हम इतने तंग हो गये थे कि प्रशान्त से न बताने का निश्चय कर लिया। हमने सोचा कि प्रशान्त जीप से आयेगा जो सीधे रास्ते से आती हैं और पन्द्रह मिनट में पहुंच जाती है।
जब स्टेशन पर प्रशान्त मिला, उसने भी कुछ नहीं कहा तो मैंने ही पूछा- तू बस से आया था या जीप से? बोला- मत पूछ। अगर पता होता कि यहां बस में ऐसे हाल होते हैं तो कभी बस से नहीं आता। फिर मैंने सोचा कि कहीं अगर यह हमसे सस्ते में आ गया होता तो इज्जत खराब हो जायेगी। पूछा- कितने रुपये लगे बस में? बोला- मात्र बीस रुपये।
मैं खुशी से चिल्ला पडा। जेब से टिकट निकालकर दिखाया- देख, इसे देख। हम सत्रह सत्रह रुपये में आये हैं।
प्रवीण पाण्डेय साहब को फोन किया तो पता चला कि वे शिमोगा हैं। हम आठ बजे वाली ट्रेन से यहां से चलेंगे और आज शिमोगा रुकेंगे। कल शिमोगा से आगे पैसेंजर पकडेंगे। उधर पाण्डेय साहब शिमोगा से इसी ट्रेन से बैंगलौर जायेंगे। यानी हमारे पास मिलने को पांच मिनट से भी कम समय रहेगा।
बडी लम्बी लाइन लगी थी स्टेशन पर टिकट लेने वालों की। हम उत्तर भारत वाले घबरा गये। लेकिन जब से नर्मदा के दक्षिण में कदम रखा, लम्बी लाइनों से ही पाला पडा और कितनी तेजी से ये सरकती हैं, हैरतअंगेज है। क्लर्क का एक हाथ कम्प्यूटर पर और दूसरा हाथ छुट्टे पैसे देने पर रहता है। शीघ्र काम होता है, इसलिये धक्कामुकी भी नहीं होती।
पुनः पाण्डेय साहब को फोन किया- क्या बिरूर में रिटायरिंग रूम है? बोले कि शायद नहीं है। तो शिमोगा में होगा। कहा कि हां है। मैंने बताया कि सुबह हम रिटायरिंग रूम की बात कर रहे थे शिमोगा पर ताकि अपना सामान रख सकें तो उन्होंने मना कर दिया था। यह सुनकर पाण्डेय साहब ने आश्वासन दिया कि बेफिक्र रहो, शिमोगा आओ, तुम्हें एक कमरा मिल जायेगा। यह बात मैंने न कमल को बताई, न प्रशान्त को। उन्हें कितना अच्छा लगेगा जब शिमोगा जाकर वे स्टेशन से बाहर निकलकर कहीं सस्ता सा कमरा ढूंढने की सोचेंगे और स्टेशन पर ही उन्हें शानदार कमरा मिल जायेगा।
लेकिन प्रशान्त ने ऐन टाइम पर अपनी योजना में परिवर्तन किया और बंगलौर जाने का निश्चय कर लिया। मैंने दो टिकट शिमोगा के और एक टिकट बैंगलौर का लिया। प्रशान्त का विचार था कि शिमोगा उतरकर कमरे पर पैसे खर्च करने से अच्छा है कि ट्रेन में ही पडे रहो, उससे भी कम में सोना भी हो जायेगा। हमें कल शिमोगा से अरसीकेरे और वहां से मंगलौर जाना है। वो मंगलौर वाली ट्रेन बैंगलौर से ही आती है। प्रशान्त सुबह बैंगलौर उतरकर उस मंगलौर वाली ट्रेन को पकडेगा और हमें अरसीकेरे या हासन में मिल जायेगा। पुनः हम साथ साथ हो लेंगे।
रात दस बजे जब ट्रेन शिमोगा स्टेशन पर रुकी तो मैंने ट्रेन के रुकने से पहले ही दौड लगानी शुरू कर दी। पाण्डेय साहब का आरक्षण एसी डिब्बे में था, जो यहां से काफी दूर था। ट्रेन रुकने पर कमल भी उतर गया, प्रशान्त गाडी में ही पडा रहा। उसे जनरल डिब्बे में ऊपर वाली बर्थ मिल गई थी।
पाण्डेय साहब से मिला। गाडी पन्द्रह मिनट से भी ज्यादा रुकी। उन्होंने बच्चों से भी मिलवाया और एक फोटो भी खींचा। इस दौरान जितनी भी बातें हो सकती थीं, हुई। बाद में उन्होंने एक लेखमाला भी लिखी जिसमें नीरज, रेल और पर्यटन के बारे में लिखा। मेरी साइकिल यात्रा को फोकस करके भी एक लेख लिखा है।
पाण्डेय साहब दोपहर बाद शिमोगा आ गये थे। रेलवे के बडे अधिकारी हैं, गाडी के आने तक तुरन्त एक रिटायरिंग रूम ले लिया। वही कमरा अब हमें मिल गया था। हालांकि स्टेशनों पर कमरे बडे होते हैं, साथ ही सस्ते भी होते हैं। लेकिन यहां हमारा एक धेला भी नहीं लगा।
बाद में प्रशान्त का फोन आया। शिमोगा में ही उसकी बडी दुर्गति हो गई थी। भयंकर भीड चढी डिब्बे में। प्रशान्त को उठना पडा। पूरी रात बैठे हुए नहीं काट सकता था। पट्ठा फिर भी शिमोगा नहीं उतरा, बल्कि स्लीपर डिब्बे में जा घुसा। बाद में क्या हुआ, कैसे सोया, वो ही जाने।

प्रवीण पाण्डेय के साथ



शिमोगा की ओर








एक अखबार में छपा था।




प्रशान्त






तालगुप्पा स्टेशन के बाहर

कमल और प्रशान्त

जोग प्रपात की पहली झलक












अगला भाग:  शिमोगा से मंगलुरू रेल यात्रा

पश्चिमी घाट यात्रा
1. अजन्ता गुफाएं
2. जामनेर-पाचोरा नैरो गेज ट्रेन यात्रा
3. कोंकण रेलवे
4. दूधसागर जलप्रपात
5. लोण्डा से तालगुप्पा रेल यात्रा और जोग प्रपात
6. शिमोगा से मंगलुरू रेल यात्रा
7. गोकर्ण, कर्नाटक
8. एक लाख किलोमीटर की रेल यात्रा




Comments

  1. bahut badiya yatra vratant.kamal or prasant ne toh hadh kar di.aap ke sath ghumna bhi h aur aap ka kilhaff bhi rehta h.jog perpat ke photo ache h.

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  2. Red teshart me smart lag rahe ho .

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  3. जोग फॉल के दूसरी ओर भी जाना था, वहाँ पर भी हमने २-३ घंटे बिताये थे, बच्चों को बहुत आनन्द आया था।

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  4. अच्छा विवरण
    Anilkv

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  5. Barsho ki tamanna puri hui, jog falls ko dekha. Pravinbhai ke blog ko bhi dekha, anand aa gaya

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  6. bahut achha neeraj ji. sabhi pic bahut achhi hai sabse achhi pic woh lagi jisme pura prapaat show ho raha hai. pic no. 26 uppar se.

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

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ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब