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Showing posts from October, 2013

मेडता रोड से मेडता सिटी रेलबस यात्रा

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । सवा दो बजे मेडता रोड पहुंचे। यहां बीकानेर से आने वाली लाइन मिल जाती है। मैं यहीं उतर गया। प्रशान्त को फोन किया तो पता चला कि वो नहीं आया है। दस मिनट बाद ही मेडता सिटी जाने वाली रेलबस चलने वाली थी। पांच रुपये का टिकट लगता है और दूरी है पन्द्रह किलोमीटर। रेलबस इस दूरी को तय करने में बीस मिनट लगाती है। बस ठसाठस भरी थी। ड्राइवर ने आम बसों की तरह सवारियों से खूब कहा- अरे आगे हो जाओ, वहां बहुत जगह पडी है, देखो खिडकी पर लोग लटके हैं। ओये, तू सुनता क्यों नहीं? आगे बढ। यह बस सिंगल एक्सल वाली बोगी की थी। डबल एक्सल की बोगियां होनी चाहिये थीं। सिंगल एक्सल बोगी वाली गाडियां एक तो हिलती बहुत हैं, फिर कभी कभी तेज झटका भी देती है, लगता है कि अब यह पटरी से उतर जायेगी। फिर भी इसकी स्पीड चालीस पचास के आसपास रही। रास्ते में दो मानवीय फाटक पडे, एक मेडता रोड से निकलते ही और दूसरा मेडता सिटी में। कई मानव रहित फाटक भी मिले। बस एक बार चली तो अपने गन्तव्य पर ही जाकर रुकी।

हिसार से मेडता रोड पैसेंजर ट्रेन यात्रा

22 अक्टूबर 2013 सुबह नई दिल्ली स्टेशन पहुंचा तो टिकट लेने वालों की उतनी लम्बी लाइन नहीं लगी थी, जितनी उम्मीद की थी। हिसार का सुपरफास्ट का एक टिकट ले लिया। गोरखधाम एक्सप्रेस सुपरफास्ट गाडी है। दूरी 184 किलोमीटर और टिकट 75 रुपये का है। स्क्रीन पर देखा कि यह गाडी बिल्कुल ठीक समय पर आ रही है। मुगलसराय रूट भारत भर में एक बदनाम रूट है। इस पर ट्रेनें लेट होनी ही होनी हैं। लेकिन कुछ ट्रेनें ऐसी हैं जिन्हें इस रूट पर इज्जत बख्शी जाती है। इन ट्रेनों में गोरखधाम के साथ साथ प्रयागराज, पुरुषोत्तम, कालका मेल आदि हैं। महाबोधि की यहां कोई इज्जत नहीं है। आज महाबोधि पांच घण्टे की देरी से चल रही थी। पुरुषोत्तम आ चुकी थी, गोरखधाम अपने निर्धारित समय पर आ जायेगी। भले ही गोरखधाम इस रूट पर कानपुर तक ही चलती हो, फिर भी है तो इसी रूट का हिस्सा ही। पांच मिनट की देरी से गाडी आई। भयंकर भीड। लेकिन मुझे इसकी कोई चिन्ता नहीं क्योंकि यह सारी भीड दिल्ली वाली है। इस मजदूरों की भीड को हरियाणा में खासकर अर्धमरुस्थलीय भिवानी और हिसार से कोई मतलब नहीं। यही हुआ। आगे पांच छह डिब्बे साधारण श्रेणी वाले थे। जब गाडी चली तो मैं एक

हर की दून यात्रा- गंगाड से दिल्ली

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 5 अक्टूबर 2013 की सुबह आठ बजे आंख खुली। खुलने को तो छह बजे भी खुली थी। जब देखा कि उजाला हो गया है, बाहर हलचल भी शुरू हो गई है तो डर भी कम हो गया और दो घण्टे के लिये गहरी नींद आ गई। यह स्थान नदी की पूर्व दिशा में है, ऊंचे ऊंचे पहाडों के नीचे इसलिये धूप देर से यहां पहुंचेगी। उठकर सबसे पहला काम किया कि बिस्कुट के दोनों पैकेट निपटा दिये, ऊपर से पानी पी लिया। दोनों एडियों में छाले पडकर फूट चुके थे। रात सोते समय जुराबें बदलकर सोया था, इसलिये अब छालों पर खाल चिपक सी गई थी। लेकिन जब चलना शुरू करूंगा तो कुछ दूर जाते ही यह फिर से अलग हो जायेगी। बाहर निकला। सामने गंगाड गांव पूरी तरह धूप में नहाया हुआ था। बराबर में पुल है, एक बंगाली आया हर की दून की तरफ से और यहीं बैठ गया। ये कई लोग हैं जिनमें दो महिलाएं व एक बुजुर्ग भी शामिल हैं। बाकी लोग धीरे धीरे आ रहे हैं और पीछे हैं।

हर की दून यात्रा- दिल्ली से गंगाड

3 अक्टूबर का झारखण्ड यात्रा का आरक्षण था। एक दिन पहले यानी दो अक्टूबर को मन बदल गया। सोचा कि अभी अगस्त में रेल यात्रा तो की ही थी, इस बार हिमालय यात्रा हो जाये। जून में जब लद्दाख गया था, तब से हिमालय नहीं देखा। अक्टूबर की शुरूआत और मौसम खराब होना इस बात का सूचक था कि उच्च हिमालय में छह महीनों के लिये जाना रद्द। मणिमहेश में बर्फबारी की खबरें मिल चुकी थीं। पूरा एक सप्ताह हाथ में था। इस साल ट्रेकिंग नहीं की थी सिवाय हिमानी चामुण्डा व बशल चोटी के छोटे ट्रेकों के। ट्रेकिंग का मन था लेकिन खराब मौसम मना भी कर रहा था। अगर ट्रेकिंग करूं तो कहां जाना चाहिये? अविलम्ब मन में आया- हर की दून। यह अपेक्षाकृत आसान ट्रेक है और रुकने खाने का कोई झंझट नहीं। ठीक पिण्डारी ट्रेक की तरह। फिर भी बर्फबारी की आशंका तो थी ही। दूसरा विचार आया किन्नौर यात्रा का। इसमें नाको से लेकर छितकुल तक घूमना तय हुआ। वैसे भी यह साल हिमालय पार की यात्राओं पर केन्द्रित था। किन्नौर भी हिमालय पार की धरती है।

डायरी के पन्ने- 15

[डायरी के पन्ने हर महीने की पहली व सोलह तारीख को छपते हैं।] 1 अक्टूबर 2013, मंगलवार 1. आज की शुरूआत ही बडी खराब रही। एक चूहा मारना पड गया। रात जब अच्छी नींद सो रहा था तो उसने पैर में काट खाया। हालांकि दांत नहीं गडे, नहीं तो चार इंजेक्शन लगवाने पड जाते रेबीज के। काटे जाने के बाद मैंने लाइट जलाई तो चूहे को अलमारी में घुसते देखा। अलमारी का दरवाजा जरा सा खुला था। मैंने बिना देर किये दरवाजा पूरा भेड दिया। चूहा अन्दर कैद हो गया। फिर भी पूरी रात कटर कटर की आवाज आती रही। सुबह उठकर देखा तो लकडी की अलमारी में एक छेद मिला। चूहा गायब था। नीचे बुरादा पडा था। वाकई मेहनत काबिल-ए-तारीफ है। हमारे यहां चूहे आते जाते रहते हैं, गिलहरियां भी। हमारे यहां से निकल जायेंगे तो नीचे वाले के यहां चले जायेंगे, इनका इसी तरह क्रम लगा रहता है। मैं निश्चिन्त था कि कल वो किसी और के यहां होगा।

एक लाख किलोमीटर की रेल यात्रा

जब गोवा से लौट रहा था तो 15 अगस्त 2013 की सुबह ठीक साढे चार बजे पुणे से बीस किलोमीटर आगे निकलते ही मेरी रेल यात्राओं के एक लाख किलोमीटर पूरे हो गये। उस समय मैं गहरी नींद सो रहा था। अहमदनगर के पास जब आंख खुली तो इस बात की अनुभूति होना स्वाभाविक ही था क्योंकि इस बात की जानकारी मुझे थी जब रात सोया था। बधाई देने वालों में पहला व्यक्ति कमल था। 8 अप्रैल 2005 को पहली बार ट्रेन में बैठा था। एक लाख किलोमीटर यात्रा करने में 8 साल 4 महीने और 7 दिन लगे। वैसे अभी तक 604 बार 327 ट्रेनों में यात्रा की। 322 बार 29544 किलोमीटर पैसेंजर में, 208 बार 36596 किलोमीटर मेल एक्सप्रेस ट्रेनों में और 74 बार 35495 बार सुपरफास्ट ट्रेनों में सफर कर चुका हूं। जहां तक दर्जे की बात है तो 526 बार 50034 किलोमीटर साधारण दर्जे में, 72 बार 49218 किलोमीटर शयनयान में, 3 बार 1327 किलोमीटर सेकण्ड सीटिंग में, 2 बार 752 किलोमीटर थर्ड एसी में और 1 बार 303 किलोमीटर एसी चेयरकार में यात्रा की।

गोकर्ण, कर्नाटक

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । मंगलौर से मडगांव पैसेंजर पकडी तो रास्ते में गोकर्ण रोड स्टेशन पर उतर गये। पहले योजना थी कि गोवा जायेंगे और चौबीस घण्टे तक वहीं रहेंगे। लेकिन मुझे गोवा रास नहीं आया, तो गोकर्ण उतर गया। वैसे एक दूसरा विकल्प मुरुडेश्वर भी था, लेकिन गोकर्ण के ओम बीच के बारे में बहुत सुना था, उसे देखने की इच्छा बलवती हो गई। गूगल मैप ने कभी भी हमारा साथ नहीं छोडा, इसलिये बिना किसी से पूछे ही पता चल गया कि स्टेशन से गोकर्ण की दूरी ग्यारह किलोमीटर है। स्टेशन से करीब एक किलोमीटर दूर मुख्य सडक है, जहां से गोकर्ण की बस भी मिल सकती है। स्टेशन के बाहर सिर्फ ऑटो खडे थे। एक से किराया पूछा तो उसने डेढ सौ रुपये बताया। कमल ने तुरन्त कहा कि हम सौ देंगे। मैंने मना कर दिया कि ग्यारह किलोमीटर के हम सौ भी नहीं देंगे, पचास देंगे। सभी ऑटो वालों ने मना कर दिया। हम मुख्य सडक की ओर बढ चले।

शिमोगा से मंगलुरू ट्रेन यात्रा

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 12 अगस्त को शिमोगा से सुबह चलने वाली मैसूर पैसेंजर में बैठे। आज की योजना थी इस ट्रेन से हासन तक जाना और आगे यशवन्तपुर-कारवार एक्सप्रेस से मंगलुरू तक यात्रा करना। आज की यात्रा का मुख्य आकर्षण सकलेशपुर और सुब्रह्मण्य रोड स्टेशनों के बीच घाट सेक्शन को देखना था। कल बिरूर से शिमोगा टाउन तक पैसेंजर से यात्रा कर चुके थे, इसलिये आज इस खण्ड पर कुछ खास नहीं था करने को। साढे नौ बजे गाडी बिरूर पहुंची तो मेरा काम शुरू हो गया। गाडी में भीड बिल्कुल नहीं थी, हम आराम से बैठे थे। कमल ने अपना शयनासन ग्रहण कर लिया था और एक सीट को अपनी शायिका बना लिया था। एक चादर बिछाकर, एक ओढकर और बैग को सिर के नीचे रखकर वह शानदार नींद ले रहा था। सोने से पहले मुझसे कह दिया था कि जहां भी उतरना हो, जगा देना। देखा जाये तो कमल भले ही साथ हो, लेकिन यात्रा मैं अकेला ही कर रहा था। कमल को मैंने दिल्ली में ही मना किया था कि मत चल, लेकिन ना, नीरज जी के साथ एक बार यात्रा करने की इच्छा है। भुगत।

लोंडा से तालगुप्पा रेलयात्रा और जोग प्रपात

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । हमें लोंडा से बिरूर तक रानी चेन्नम्मा एक्सप्रेस से जाना था और बिरूर से तालगुप्पा तक बैंगलोर-तालगुप्पा एक्सप्रेस से। रानी चेन्नम्मा एक्सप्रेस रात 02:48 पर बिरूर पहुंचती है जबकि वहां से तालगुप्पा एक्सप्रेस 03:25 पर मिलती है अर्थात 37 मिनट बाद। दोनों गाडियों में हमारा आरक्षण था। रानी चेन्नम्मा एक्सप्रेस एक घण्टे विलम्ब से लोंडा आई। यह आती तो कोल्हापुर से ही है, जो यहां से ज्यादा दूर नहीं लेकिन पता नहीं क्यों लेट हो गई। शायद सम्पर्क क्रान्ति की वजह से हुई होगी। सम्पर्क क्रान्ति लोंडा नहीं रुकती और हमारे सामने ही बैंगलोर की तरफ निकली थी। शुरू में हमारा आरक्षण आरएसी में था। चार्ट बनने के बाद मेरी और प्रशान्त की सीटें तो कन्फर्म हो गईं लेकिन कमल आरएसी में ही रहा। कमल हमारी तरह रेलयात्री नहीं है इसलिये यह हमारे लिये जश्न मनाने की बात थी। कोई दया नहीं करेंगे। फिर रात तीन बजे उठना भी है, इसलिये कन्फर्म बर्थ वाले सो गये। कमल की आरएसी बर्थ एक अन्य यात्री के साथ इसी डिब्बे में थी।

डायरी के पन्ने- 14

[डायरी के पन्ने हर महीने की पहली व सोलह तारीख को छपते हैं।] 16 सितम्बर 2013, सोमवार 1. एक मित्र ने कहा कि आप दिल्ली में रहते हैं, पढे लिखे हैं फिर भी जातिवाद और अलग-अलग धर्मों की बात करते हैं। अगर कोई छोटी जाति का होगा तो क्या आप उससे बात नहीं करेंगे? या आपके धर्म का नहीं होगा तो क्या आप उसका अपमान करेंगे? हालांकि मैंने उन्हें इस बात का स्पष्टीकरण दे दिया है, यहां उसका उल्लेख करना आवश्यक नहीं लेकिन इस बात ने मुझे कुछ सोचने को मजबूर कर दिया। वो यह कि मैं नीरज जाट के नाम से लिखता हूं। क्या ‘जाट’ शब्द लगाना अनिवार्य है? इस शब्द से जातिवादिता झलकती है। इसे हटाने का मन बना लिया। सोच लिया कि अब नीरज कुमार के नाम से लिखा करूंगा। लेकिन नहीं हटा सका। असल में अब इस शब्द से मुझे लगाव हो गया है, बहुत ज्यादा लगाव। अब यह मेरे लिये जातिसूचक नहीं रहा। पांच साल पहले जब मुझे इस दुनिया का कुछ भी नहीं पता था, तब ब्लॉग बन गया, संयोग से। यह भी नहीं पता था कि आगे चलकर इस ब्लॉग के सहारे मैं कहां पहुंचूंगा। बस ऐसे ही बन गया, संयोग था। उस समय नाम के आगे ‘जाट’ लगाने की धुन थी। मेल आईडी बनाता था, उसमें ‘जाट’ लि