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डायरी के पन्ने- 7

1 मई 2013, बुधवार
1. आज की तो वैसे मेरी छुट्टी थी, फिर भी कपडे वगैरह धोने के कारण दिल्ली ही रुकना पडा। दोपहर को जॉनी का फोन आया। मैं समझ गया कि जॉनी आज रोहित की सगाई करा रहा होगा। मेरे न पहुंचने पर याद कर रहा होगा।
लगभग दो महीने पहले ही रोहित ने मुझे बता दिया था कि दो मई को उसकी शादी है। इसके बाद पिछले दिनों उसने अपने सैंकडों मित्रों के साथ मुझे भी शादी का कार्ड ई-मेल से भेज दिया। मैंने इस मेल को नजरअंदाज कर दिया। दो महीने पहले सुनी हुई बात को तो मैं कभी का भूल गया था।
इसके बाद जॉनी का फोन आया कि तू सगाई में क्यों नहीं आया? मैंने यह कहकर पीछा छुडाया कि कल बारात में साथ चलूंगा। वैसे मेरा कोई इरादा नहीं था बारात में चलने का, और याद भी नहीं था। कल मेरी सायंकालीन ड्यूटी है। शाम को ही मोदीपुरम बारात जायेगी। सबसे पहले खान साहब से कहकर ड्यूटी बदलवाई गई। प्रातःकालीन ड्यूटी करूंगा और शाम को बारात कर लूंगा।
कुछ ही देर बाद खान साहब का फोन आया कि क्या तू आज नाइट ड्यूटी कर सकता है? भला इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है। मैंने तुरन्त हां कर दी और आज ही रात्रि ड्यूटी में जाने के लिये सो गया। दस बजे ड्यूटी चला गया।
2. फणीश्वरनाथ रेणु द्वारा लिखित उपन्यास ‘जुलूस’ पढकर समाप्त किया। यह उपन्यास मुझे जेएनयू में सम्मान समारोह के दौरान मिला था। उपन्यास विभाजन के दौरान बंगाली शरणार्थियों को मुख्य बिन्दु बनाकर लिखा गया है जिन्हें बिहार के पूर्णिया में रहने को आवास दिया गया। दो प्रान्तों की विविधताओं और लोगों की मानसिकता का अच्छा चित्रण किया है। इसमें काफी वार्तालाप बंगाली में भी है, जो मेरे पल्ले नहीं पडा।

2 मई 2013, गुरूवार
1. किरनपाल का फोन आया कि वो भी रोहित की शादी में जायेगा। मोहननगर से दोनों साथ चले चलेंगे।
2. पिताजी से बात हुई तो पता चला कि वे दोनों बाप-बेटे शादी में नहीं जायेंगे। रोहित मेरे साथ पढा है, कुछ समय तक साथ रहा भी है, उसके पूर्वज हमारे गांव के निवासी थे। इसलिये उसके घरवाले अक्सर हमारे घर आते-जाते रहते हैं। यह आना-जाना बेहद साधारण है। साल में कभी कभार ही आना-जाना होता है। धीरज की जिद थी कि वो तीन चार दिनों के लिये दौराला जाकर रहेगा और शादी की तैयारियों में हिस्सा लेगा। पिताजी इसके लिये राजी नहीं थे, उन्होंने मना कर दिया। धीरज का मुंह फूल गया। वो कल सगाई में भी नहीं गया था और आज बारात में भी नहीं जायेगा।
मुझे यह मामला पता चला तो मैं भी पिताजी से सहमत था। मैंने फोन पर धीरज को समझाया। पिताजी ने अवश्य उसके साथ गाली-गलौच की होगी, मुझे गाली-गलौच पसन्द नहीं। मैंने समझाया कि हर काम अपनी मर्जी का नहीं हो सकता। समय को देखते हुए जितना फायदा उठाया जा सकता है, उठा लेना चाहिये। आखिरकार मेरे प्रवचनों से तंग आकर उसे कहना पडा कि ठीक है, चला जाऊंगा। मैंने इस बात पर भी ऐतराज किया नहीं, पिताजी ने कहा कि मत जा, तो तू नहीं गया, मैं कह रहा हूं कि चला जा, तो तू चला जायेगा। तू इंसान है या मशीन कि दूसरों के कहे अनुसार चलेगा। सुन सबकी लेकिन निर्णय अपने विवेक से ले ताकि इधर से भी बनी रहे और उधर से भी। आखिरकार उसने कुछ समय के लिये बारात में जाना तय कर लिया।
3. शाम छह बजे शास्त्री पार्क से निकल पडा। मोहननगर से किरणपाल को भी साथ लेना था। उसने कहा कि दोनों मुरादनगर तक बस से चलेंगे, उसके बाद उन्हीं की कार से। मैंने प्रस्ताव मान लिया।
किरणपाल के साथ दो जने और थे- एक भाई दूसरा साला। साला एक नम्बर का पियक्कड है। एक-दो पैग किरणपाल ने भी लिये। मेरे हिस्से कोल्ड ड्रिंक और चिप्स आये। एक-दो पैग कार चला रहे भाई ने भी लिये। भाई उन लोगों में से है, जिनपर दारू का कम असर होता है। ड्राइवर ने दारू पी रखी हो तो सारी सवारियां मौत के मुंह में ही होती हैं, फिर भी उसने कुशलता से गाडी चलाई।
4. विवाह भी एक अजीब रीत है समाज की। मैं हर विवाह समारोह में खाना खाकर एक किनारे बैठ जाता हूं और यही सोचता हूं। लडका और लडकी ही आज के आकर्षण होते हैं लेकिन ये अपनी मर्जी से खाना तक नहीं खा सकते। रोहित दूल्हे के वेश में खडा यार लोगों से मिल रहा था, हालचाल पूछ रहा था, सुना रहा था, तभी किसी ‘बडे’ ने उसकी बांह पकडी और कार में धकेल दिया कि तू यहां बैठ, वहां खडा मत हो। यह एक छोटी सी झांकी है। बडे यहां भी अपनी चलाने से बाज नहीं आते। मुझे बडों का इस तरह छोटों को खिलौना बनाना बहुत अखरता है।
5. साढे दस बजे वापस चल दिये। साढे ग्यारह बजे मुरादनगर पहुंच गये। रात किरणपाल के घर ही रुका।

3 मई 2013, शुक्रवार
1. सुबह उठा तो गले में खराश सी थी। यह कोई मामूली खराश नहीं थी। ढिंढोरा पिट रहा था कि जल्द ही जुकाम होने वाला है। जुकाम के साथ खांसी और बुखार भी होंगे। पुराना अनुभव रहा है इस बात का। लेकिन अब मौसम भी नहीं बदल रहा। महीने भर से अच्छी गर्मी और लू चल रही है। मुझे अक्सर मौसम परिवर्तन पर ही इस तरह की शिकायत होती है। फिर अब ऐसा क्यों? कल भी कुछ उल्टा सीधा नहीं खाया था। आइसक्रीम तक नहीं खाई थी। चलो खैर, कुछ भी हो। कल के खाने को ही जिम्मेदार माना जायेगा। या फिर भयंकर गर्मी को।
2. आज मेट्रो का स्थापना दिवस था। मेट्रो भवन और शास्त्री पार्क डिपो में कार्यक्रम थे। मेरी सायंकालीन ड्यूटी थी। खुद ऑफिस में ही रह गया, सहकर्मियों को कार्यक्रम में यह कहकर भेज दिया कि जब भी खाने का कार्यक्रम शुरू हो, तुरन्त फोन कर देना। सात बजे के आसपास भोज शुरू हुआ।
3. शाहदरा से तबीर साहब मिलने आये। बताया कि वे बचपन से ही घूम रहे हैं। एक बार मेरे साथ स्पीति जाना चाहते हैं। अभी तक हिमालय में नहीं घुस सके है। किस बात के घुमक्कड हैं? अकेले घूमना बसकी नहीं, चौबीस साल के हो गये, अभी तक हिमालय में नहीं घुसे हैं। मैंने कहा कि बस या टैक्सी से कभी भी स्पीति नहीं जाऊंगा। जाऊंगा तो केवल साइकिल या मोटरसाइकिल से। मोटरसाइकिल से भी तब, जब खुद चलानी आ जायेगी।
मैंने सुझाव दिया कि आपने पहले कभी भी हिमालय में ट्रेकिंग नहीं की है। अच्छा हो कि कोई छोटा मोटा एक-दो दिन का ट्रेक करके हिमालय की बारीकियों को समझना शुरू करो। बोले कि कोई परेशानी नहीं होगी, मैं हर तरह की ट्रेकिंग कर सकता हूं। अजमेर में दरगाह से तारागढ तक की चढाई पैदल की है।
मई में भी ट्रैकिंग के कम ही विकल्प रहते हैं, अगर सर्दियों में बहुत ज्यादा बर्फ पडी हो। किन्नर कैलाश मई में जाना मूर्खता है। तबीर को स्पीति की पडी थी। स्पीति के लिये दो ट्रेक सर्वोत्तम हैं- पिन पार्वती और भाभा पास। दोनों ही हम जैसों के लिये मई में त्याज्य हैं। आखिरकार मामला मणिमहेश पर जाकर समाप्त हुआ। इक्कीस मई को मणिमहेश के लिये निकलेंगे। दिल्ली से चम्बा तक हिमाचल रोडवेज की बस में तथा पठानकोट से दिल्ली आने के लिये ट्रेन में आरक्षण भी हाथोंहाथ करा लिया।
जब मैंने बताया कि मणिमहेश जाते समय ज्यादातर रास्ता बर्फ से होकर तय करना पडेगा तो बडे खुश हुए। बर्फ देखने के नाम से लोग बडी जल्दी खुश होते हैं। उनकी यह खुशी देखकर मैंने कहा कि मुझे लगता है कि आप शायद यात्रा पूरी न कर पाओ। बोले कि आराम से कर लूंगा। हर तरह से हतोत्साहित करने की कोशिश की मैंने उन्हें। लेकिन वे टस से मस नहीं हुए। मैंने सलाह दी कि एक स्लीपिंग बैग और अच्छे रेनकोट का इंतजाम करो तथा रोज कसरत व दौड लगाया करो। ये सब चीजें देखने व पढने में बडी आसान लगती हैं, लेकिन जब खुद पाला पडता है तो हकीकत पता चलती है कि कितना खतरनाक काम है यह।
4. रात नौ बजे जब ड्यूटी खत्म होने में एक घण्टा ही बाकी था, सहकर्मी सुनील त्यागी का फोन आया कि उनके पेट में दर्द है। उनकी घण्टे भर बाद से नाइट ड्यूटी शुरू होने वाली थी, पूछ रहे थे कि क्या मैं उनकी नाइट कर सकता हूं। मुझे भला कब परेशानी होने लगी नाइट ड्यूटी से? तुरन्त हां। हालांकि तबियत तो मेरी भी ठीक नहीं थी, लेकिन दिन में आजकल मौसम इतना भयंकर रहता है कि घर में पडे रहना ही सर्वोत्तम लगता है। त्यागीजी अगर रातोंरात ठीक हो गये तो मेरे बदले दिन की ड्यूटी करेंगे।
5. आगरा स्थित दैनिक सांध्यकालीन पत्र डीएलए से विश्वदीप जी का फोन आया। हर शनिवार को इस पत्र में एक पृष्ठ यात्रा के बारे में होता है। वे कफनी ग्लेशियर के बारे में पूछ रहे थे। पहले भी उनसे इस बारे में बात होती रही है।

4 मई 2013, शनिवार
1. सुबह तक गले की खराश काफी बढ गई। खांसी नहीं है, लेकिन दूर भी नहीं है, नाक से पानी बहना शुरू हो गया है।
2. प्रवीण गुप्ता जी का फोन आया। मैं उस समय सो रहा था। सोते हुए कभी फोन उठा लूं, नामुमकिन। नींद पूरी करने के बाद बात की तो उन्होंने मुझे मुबारकवाद दी कि कादम्बिनी में मेरा रूपकुण्ड वाला लेख छप गया है।
असल में महीने भर पहले कादम्बिनी के सहयोगी सम्पादक राजीव कटारा जी ने मुझसे एक लेख तैयार करने को कहा था- मई अंक यात्रा विशेषांक बनेगा। मैंने रूपकुण्ड यात्रा भेज दी। इसलिये मई शुरू होते ही मुझे भी इसकी प्रतीक्षा होने लगी थी। जब सुबह पता चल गया कि कादम्बिनी छप गई है तो इसे ढूंढना शुरू कर दिया। सबसे पहले पहुंचा शाहदरा रेलवे स्टेशन। हां, कुछ ही देर पहले संजीव चौधरी ने बताया कि मेरा एक लेख- कफनी ग्लेशियर- सांध्यकालीन समाचार पत्र डीएलए में छपा है। शाहदरा गया तो कादम्बिनी तो मिली नहीं, डीएलए मिल गया। कफनी ग्लेशियर यात्रा को अति संक्षिप्त करके फोटो सहित छापा गया था।
3. शाम तक बुखार भी हो गया। बीमारी होते ही पहले दिन दवाई लेना मुझे अच्छा नहीं लगता। दूसरे दिन बीमारी का रुझान देखकर दवाई लेने जाता हूं।

5. मई 2013, रविवार
1. पूरी रात सो नहीं सका। गले में खराश चरम सीमा तक पहुंच गई। सुबह छह बजे से ड्यूटी है, सोना जरूरी था। करवट लेते ही नाक से गंगा जमुना बहने लगती। रात तीन बजे उठा, पानी में नमक डालकर गरारे किये। फिर कुछ देर फव्वारे के नीचे खडा होकर नहाया। पता चल गया कि बुखार भी है। नहाते समय जो सुबकी आती है, उससे मुझे पता चल जाता है कि बुखार है या नहीं। कभी कभी लगने लगता है कि बुखार है और वास्तव में नहीं होता। इसके बाद बिस्तर पर बैठकर कुछ देर भ्रामरी प्राणायाम किया। पहले गरारे और अब भ्रामरी ने गले की खराश का प्रकोप कम कर दिया, नींद आ गई।
2. रात कम सोने के कारण दिन में नींद आती रही। इसी दौरान कादम्बिनी के लिये पुरानी दिल्ली स्टेशन भी गया। वहां भी नहीं मिली। शरीर बिल्कुल निढाल था, बुखार भी बढ गया था। आज प्रातःकालीन ड्यूटी के बाद आठ घण्टे का आराम करके नाइट ड्यूटी भी है। शरीर की हालत को देखते हुए नाइट करने का मन नहीं था, लेकिन दवाई लेकर कुछ देर सोने के बाद जब आराम मिला तो रात्रि सेवा करने का इरादा बना लिया।
3. बीमारी के बाद सबसे ज्यादा आवश्यकता है भरपूर आराम करने की। इस अवकाश यानी बुधवार को इरादा गांव जाने का था लेकिन वह बदल गया। घर पर कुछ निर्माण कार्य भी चल रहा है, पैसों की दरकार है तो धीरज को बुला लिया। साथ में मेरठ से कादम्बिनी लाने को भी बोल दिया। रात होने तक धीरज आ गया। कादम्बिनी में अपना रूपकुण्ड वृत्तान्त पढकर अच्छा लगा। दस बजे ड्यूटी चला गया।

6 मई 2013, सोमवार
1. सुबह ड्यूटी से लौटा तो काफी अच्छा महसूस हो रहा था। रात मौका मिलते ही भरपूर आराम भी कर लिया। अब बुखार बिल्कुल नहीं है, जुकाम भी नहीं है, खांसी है। दवाई ने अपना पूरा असर दिखाया। बडी शक्तिशाली दवाई थी, रातभर पसीना आता रहा। यह मात्र पसीना नहीं था, बीमारी शरीर से कूच कर रही थी।
2. पिताजी को पता था कि मैं बेचारा बीमार हूं, फिर भी उन्होंने धीरज से कहा कि दोपहर तक वापस आ जा। बात उनकी भी ठीक थी क्योंकि वहां भी काम चल रहा है। उन्हें यकीन था कि मैं बीमारी से अकेला लड लूंगा, काम पर कम से कम घर के दो आदमी तो होने ही चाहिये। धीरज को पैसे दिये और उसने साढे दस बजे जाने वाली पैसेंजर पकड ली।
3. एक कोरियर आया। कादम्बिनी थी। चूंकि मैं इसे खरीद चुका था लेकिन फिर भी इतनी खुशी हुई कि जैसे खरीदी ही न हो। पहली बार इस तरह कोई पत्रिका मेरे पास आई थी जिसमें मेरा भी लेख था। मेरे लेख पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं, इनमें से दैनिक जागरण को छोडकर जहां भी छपे हैं, पहल पत्र-पत्रिकाओं ने ही की है। उन्होंने ही पहले मुझसे सम्पर्क करके लेख प्रकाशित करने को पूछा है। दैनिक जागरण ने कभी नहीं पूछा मुझसे, मैं खुद ही स्वेच्छा से उन्हें भेजता हूं। इसके अलावा एक मनहूस पत्रिका ऐसी भी है, जिसने बेशर्मी की सारी हदें पार की हैं। मेरा पिण्डारी ग्लेशियर वृत्तान्त किसी और के नाम से छाप दिया और पात्रों के नाम भी बदल दिये। भला हो प्रवीण गुप्ता जी का, जिन्होंने इस बेशर्मी को पकडा। वह पत्रिका है भारत की एकमात्र हिन्दी पर्यटन पत्रिका का दावा करने वाली- ये है इण्डिया।
मेरे पास जाने-अनजाने पत्र पत्रिकाओं से फोन आते रहते हैं लेख प्रकाशन के लिये। कभी भी मैं मना नहीं करता। शर्त इतनी होती है कि एक प्रति मुझे भेज दी जाये। प्रति न भेज पायें तो उस पेज का फोटो ही भेज दें, जहां लेख छपा है। कभी मिल जाता है, कभी नहीं मिलता। झारखण्ड से निकलने वाली एक पत्रिका ने कहा था कि मैं उनके लिये हर महीने एक लेख अलग से तैयार करूं। मैंने असमर्थता जता दी। इसी तरह डीएलए से विश्वदीप जी भी यही कहते हैं। अलग से किसी के लिये लेख तैयार करना अभी मेरे बसकी बात नहीं है। आप मुझे सूचित करके अपनी मर्जी से ब्लॉग से कोई भी लेख उठा सकते हैं।
4. दिन छिपते ही लोहे के पुल के नीचे गया। सबसे पहले नींबू लिये। रोज कई कई गिलास नींबू-पानी पिया करूंगा। साथ ही दो किलो आम भी ले लिये। अंगूर की भी इच्छा थी, लेकिन कहीं नहीं दिखे। अंगूर के बदले एक किलो आम और ले लिये। घर आते ही किलो भर आम की मैंगो शेक बना दी। मैंगो शेक को हिन्दी में क्या कहेंगे? आम का कम्पन? गलत। इसे कहेंगे आम की खिचडी। आम काटो, इसमें दो-चार चीजें और डालो और मिक्स कर दो। बन गई आम की खिचडी। आज के सायंकालीन भोज में केवल इसी का प्रयोग होगा।
मैं आम की खिचडी बनाते समय मोटा छिलका उतारता हूं। बाद में चूसने में आनन्द आता है। और हां, पता नहीं क्या बात है कि छिलका चूसते समय मेरी जुबान पर हमेशा एक शब्द आ जाता है- बारनावापारा। हमेशा। इससे पहले यह शब्द बिल्कुल भी जुबान पर नहीं आयेगा, इसके बाद भी कभी नहीं आयेगा। बारनावापारा छत्तीसगढ में एक अभयारण्य है।
5. बचपन की एक घटना याद आ गई। मेरा बचपन भयंकर तंगी में गुजरा है। एक बार नीम के पेड के नीचे बैठी मां ने बुलाया और हाथ में एक सिक्का लेकर पूछने लगीं कि यह कितने का सिक्का है? ऊपर अशोक की लाट दिख रही थी। उस समय तक पांच-दस पैसे के सिक्के खूब चलते थे। मैंने देखते ही कहा- पचास पैसे का। मां ने सिक्का थोडा सा घुमा दिया। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। इतना मोटा पचास पैसे का सिक्का? मां बोली- अब बता। मैंने खूब दिमाब दौडा लिया- एक पैसे का, दो पैसे का, तीन पैसे का, पांच, दस, बीस, पच्चीस, पचास पैसे और एक रुपये, दो रुपये; कोई भी सिक्का इतना मोटा नहीं होता। यह पचास पैसे का ही सिक्का है। दो सिक्के ऊपर नीचे चिपके हुए हैं। और जब सिक्का पलटा गया तो आंखें फटी रह गईं- पांच रुपये का सिक्का!
खैर, इन छोटी छोटी बातों के बहाने मां की याद जाती नहीं।
6. सन्दीप पंवार से बात हुई। वे मनु त्यागी के साथ इसी सप्ताह मदमहेश्वर और रुद्रनाथ की यात्रा पर जा रहे हैं। मैंने उन्हें मैंगो शेक के लिये आमन्त्रित किया। कल आयेंगे।

7 मई 2013, मंगलवार
1. राहुल सांकृत्यायन की ‘जीवन यात्रा’ के सभी भाग पढकर समाप्त कर दिये। पिछले काफी दिनों से आखिरी भाग के सौ के करीब पृष्ठ बचे हुए थे। पढने में आनन्द भी नहीं आ रहा था, क्योंकि राहुलजी बूढे हो गये थे और दो बच्चों के पिता होने से घुमक्कडी बन्द थी। हिम्मत करके ये पृष्ठ पढे और ‘जीवन यात्रा’ खत्म की।
राहुल की ‘जीवन यात्रा’ को पढकर पता चलता है कि राहुल किस हस्ती का नाम था। बचपन में ही महाराज की शादी कर दी गई थी लेकिन इन्होंने घरवाली को कभी स्वीकारा नहीं। कम उम्र में ही घर से भागना सीख लिया था। कलकत्ता का चक्कर लगा आये थे महाराज घर से भागकर। खैर, उनकी जीवनी तो मुझे यहां लिखनी नहीं है, कुछ पंक्तियां हैं जो मुझे पढते समय अच्छी लगी और हाइलाइट कर लीं जो जाहिर हैं घुमक्कडी से सम्बन्धित ही हैं:
- ज्ञान की भी कोई भूख है, विस्तृत जगत के देखने की भी कोई भूख है, शिक्षित संस्कृत समाज में रहने की भी कोई भूख है, जो भोजन की भूख से हजारों गुना ज्यादा तेज और सदा अतृप्त रहने वाली है।
- जो रुपये के बल पर सैर करना चाहता है, वह सैर का मजा नहीं उठा सकता- आखिर मिर्चों की कडवाहट ही स्वाद है।
- समाज बहुत अक्षन्तव्य अपराधों, महापापों का कारण है। एक आदमी उसकी अपार शक्ति का सामना कैसे करे?
- यदि वियोग न हो तो नये स्नेहसूत्र भी तो पैदा नहीं हो सकते।
- गृहस्थ होने पर आदमी को नून-तेल-लकडी से ही छुट्टी नहीं मिलती, वह अपने जीवन को विशेष कार्य के योग्य कैसे बना सकते हैं?
- जब कभी मैं अपने अतीत पर नजर डालता हूं, तो एक बात साफ मालूम होती है- मेरी जीवन की सफलताएं निर्भर थीं मेरे विवाह-बन्धन-मुक्त, स्त्री-स्नेह से स्वतन्त्र रहने पर।
- जब तक उडान की चाह है, जब तक अपने आदर्श के सहायक साधनों को आदमी जमा नहीं कर सका है, तब तक उसका दोपाया (अविवाहित) रहना सबसे जरूरी चीज है।
- इन तनकर सीधे खडे, हाथ की तरह अपनी फैली शाखाओं से शिखर की ओर गावदुम बनते सदा हरित विशाल वृक्षों से ढके हिमालय को जिसने देख लिया, उसने अपने नेत्रों को सफल कर लिया।
- इस्लाम में मुझे यदि कोई चीज बहुत बुरी लगती है, तो वह स्थानीय भाषा और संस्कृति के प्रति अवहेलना और विद्रोह का भाव; और जहां यह बात नहीं रहती, वहां उसके ऐतिहासिक महत्व का मैं बहुत प्रशंसक हो जाता हूं।
- भूगर्भी रेल के स्टेशन जमीन से सैंकडों हाथ नीचे होते हैं, जल्दी उतरने-चढने के लिये वहां बिजली की सीढियां होती हैं। पुरानी दुनिया से नई दुनिया में आने में कितनी दिमागी अडचनें पडती हैं, वह इस सीढी के उतरने-चढने में मुझे मालूम हो रही थीं। सीढी बिजली के जोर से स्वयं सरकती जाती, लेकिन सरकने वाली सीढी और स्थिर धरती का एक संधिस्थान था, जहां अचल से चल आधार पर पैर रखना पडता था। सीढी लगातार सरकती जा रही है, अगर आप दाहिना पैर रखकर जरा देर भी सोचने लगते हैं, तो बायां पैर अपनी जगह रह जाता है और दाहिने को सीढी खींचे जा रही है। इसलिये जरूरी है कि एक क्षण की देरी किये बिना ही दूसरे पैर को भी सीढी पर रख दें। (लन्दन यात्रा में मेट्रो रेल की सवारी का वर्णन)
- जब तक नशा न हो, तब तक कोई आदमी असाधारण काम नहीं कर सकता।
- जिस एक बात ने मुझे आज के समाज का अधिक कट्टर दुश्मन बना दिया है, वह है प्रतिभाओं की अवहेलना। प्रतिभाएं सिर्फ शौक की चीजें नहीं हैं। यह राष्ट्र की सबसे ठोस, सबसे बहुमूल्य पूंजी है।
- हिमालय का मैं अनन्य प्रेमी हूं, लेकिन हिमालय के इन आधुनिक नगरों (मसूरी, शिमला आदि) से मैं बडी घृणा करता हूं। वहां मुझे अपना दम घुटता सा मालूम होता है।
- चकराता तहसील को छोड देहरादून का बाकी प्रदेश, बुलन्दशहर की गुलावठी तहसील, मेरठ-मुजफ्फरनगर-सहारनपुर के तीनों जिले- अर्थात कुरु-देश। हिन्दी इसी कुरु देश की मातृ-भाषा है।
- चित्त वैसे भी सदा चंचल समुद्र है, वह एक-सा नहीं रह सकता, बिना पर्याप्त कारण के भी कभी-कभी उसमें अवसाद आ जाता है। इससे बचने का एक ही उपाय है, मन को सदा काम में लगाये रखा जाये।
- जवाबदेही जीवन को गम्भीर बनाती है।
- आदमी अपने अविवेक से फंसता है, फिर दुनियाभर को दोष देता फिरता है।
- किसी भी तरुण का अपनी भाषा छोडकर पराई भाषा में लिखने का प्रयत्न करना मैं अच्छा नहीं समझता। यदि प्रतिभा है, तो अपने साहित्य में उसे स्थान मिलेगा। अंग्रेजी में जब माइकल मधुसूदन दत्त, सरोजिनी नायडू, तारुदत्त को नहीं पूछा गया; तो दूसरों को कौन पूछता है?
- कुटिया हो या महल, सब जगह आनन्दपूर्वक रहना घुमक्कड के लिये आवश्यक चीज है।
- घर में चाय मत पीजिये, चाय का व्यसन भी लगाना ठीक नहीं, लेकिन बाहर जाने पर अगर कोई एक प्याला चाय दे तो उसके पीने में आनाकानी मत कीजिये।
- गृहस्थ बनने पर आदमी की काम करने की शक्ति आधी रह जाती है।
- आदमी अकेले रहते वक्त, विशेषकर घुमक्कड, आर्थिक चिन्ताओं में नहीं पड सकता।
- खूसट (बूढा) दिमाग ज्यादा खुराफाती है, चाहे वह क्षमता में शून्य हो। वह कुछ दे नहीं सकता और बिगाड बहुत सकता है।
यह थी उस इंसान की जीवनी जिसने लन्दन से लेकर जापान तक की धरती अपने पैरों से नाप रखी थी। वो भी ऐसे समय में जब विश्व युद्ध चल रहा था। पुस्तक राधाकृष्ण प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली ने चार भागों में छापी है। पेपरबैक संस्करण उपलब्ध है।
2. आज कबूतरों का घर उजाड दिया। लू चलने लगी है और कूलर आवश्यक हो गया है। कबूतरों ने कूलर और खिडकी के बीच में घौंसला बना रखा था। कूलर हटाया तो घौंसला भी हट गया। ध्यान नहीं दिया कि कूलर के अन्दर ततैयों का भी छत्ता है। ततैयों की मार खाने से बाल-बाल बच गया। कल कूलर की पिछले साल की घास में आग लगा दूंगा तो छत्ता भी उजड जायेगा।
3. मणिमहेश जाने की इच्छा नहीं है। जनवरी में एक लम्बा हाथ मारा था- लद्दाख जाने का। तब से अब तक साढे तीन महीने हो चुके हैं, छोटी छोटी कई यात्राएं हो चुकी हैं। अब फिर से लम्बा हाथ मारने की फिराक में हूं। वैसे तो मणिमहेश जाना भी स्वयं बडी बात है, लेकिन इसे लम्बा हाथ मानने को मैं तैयार नहीं हूं। जून में ही सही, कुछ ऐसा करूंगा जो अभी मैं सोच भी नहीं रहा। तबीर साहब से अभी रद्दीकरण के बारे में नहीं बताया है। बहाना मारना पडेगा। भारी बर्फ ही एकमात्र बहाना ठीक प्रतीत हो रहा है।

8 मई 2013, बुधवार
1. सन्दीप भाई आये। परसों आमन्त्रित किया था उन्हें आम्र-रस पीने। आज पांच घण्टे यहीं रहे। इन जैसे व्यक्तित्व, ऊर्जा और उत्साहवान इंसान से मिलना हमेशा अच्छा ही होता है। मनु त्यागी के साथ ग्यारह तारीख को गढवाल के लिये निकलेंगे और मदमहेश्वर, रुद्रनाथ तथा कल्पेश्वर देखकर उन्नीस को लौटेंगे।
मैंने अपनी मणिमहेश यात्रा के बारे में बताया कि मन नहीं है जाने का। एक लम्बा हाथ मारने का मन है अब। यह सुनकर उन्होंने मेरे मन की ही बात कह दी- साइकिल उठा और लेह चला जा। मैं भी यही सोच रहा हूं। जोजीला तो खुल गया है, मनाली-लेह और खुलने दो, जून के शुरू में निकल पडूंगा।

9 मई 2013, गुरूवार
1. एवरेस्ट बेस कैम्प। अगर काठमाण्डू से लुकला और लुकला से काठमाण्डू वायुवान से आना-जाना करें तो कम से कम दस दिन बचते हैं। नहीं तो पूरे महीने भर का ट्रेक है यह। साइकिल से लद्दाख यात्रा करने का एक विकल्प और मिल गया। ईबीसी (एवरेस्ट बेस कैम्प) के बारे में मनन किया तो इसी का पलडा भारी हो रहा है- साइकिल ज्यादा नहीं चलाई और ट्रैकिंग अपना पसन्दीदा शौक ठहरा। रेल में आरक्षण देखा तो नई दिल्ली से लखनऊ नीलांचल एक्सप्रेस से तथा लखनऊ से मुजफ्फरपुर बरौनी एक्सप्रेस से- दोनों में जून के शुरू में जगह खाली है। मुजफ्फरपुर से रक्सौल कोई परेशानी नहीं और उसी दिन सीमा पार करके रात होने तक काठमाण्डू जाया जा सकता है।
2. तरुण गोयल से बात हुई। वे कल चम्बा जिले के उस इलाके में जायेंगे जहां भद्रवाह-डोडा वाली सडक जम्मू कश्मीर में प्रवेश करती है। वहां से लौटकर वे मणिमहेश जायेंगे। यह सुनकर मेरे अन्दर भी मणिमहेश कुनमुनाने लगा। तबीर के साथ जाना था तो इक्कीस तारीख को निकलने की बात तय हुई थी, अब सोच रहा हूं कि चौदह को ही निकल जाऊं। आखिर जून के शुरू में लम्बी छुट्टी लेनी है, दोनों छुट्टियों के बीच में कुछ दिनों का अन्तराल तो होना ही चाहिये। तबीर से बताऊं या नहीं?

10 मई 2013, शुक्रवार
1. नाइट ड्यूटी की। साथ में विपिन तोमर भी थे। विपिन मेरे वरिष्ठ हैं। ऑफिस में हमारी बिल्कुल नहीं बनती लेकिन बाहर निकलते ही हम भाई सरीखे बन जाते हैं। एक-दूसरे के घरों में भी हमारी घुसपैठ है। मैं इनके सिर हो गया कि मणिमहेश चलो। बोले कि खान साहब से तो सुलट लूंगा लेकिन तुम्हारी भाभी से सुलटना असम्भव है। मैंने कहा कि अगर भाभीजी को समझाऊं तो? किसी दिन घर बुलाओ, ऐसी बात करूंगा कि वे खुद ही तुम्हें ताना मारेंगी। बोले कि प्रभु, ऐसा हो जाये तो बडी कृपा हो। कल घर आने का न्योता दे दिया।
2. कृष्णनाथ की ‘हिमाल यात्रा’ पढकर समाप्त की। यह उनकी नेपाल में पोखरा और आगे मुक्तिनाथ तक जाने की यात्रा कथा है। इससे पहले इनकी ‘लदाख में राग-विराग’, ‘स्पीति में बारिश’, और ‘किन्नर धर्मलोक’ यात्रा वृत्तान्त पढे हैं। कृष्णनाथ की लेखन शैली बडी भयंकर गम्भीर है। कभी कभी तो सिर दुखने लगता है। गाम्भीर्य के अलावा कोई और रस है ही नहीं। सोचता हूं कि एक घुमक्कड कैसे गम्भीर रह सकता है?

11 मई 2013, शनिवार
1. रात भर नींद नहीं आई। एक तो कल दिनभर सोता रहा था, आज रात कैसे नींद आ सकती थी? सुबह छह बजे से ड्यूटी है। मच्छरों ने परेशान किये रखा। चादर ओढता तो पसीना आता, उघाडता तो मच्छर। धुआं करने का भी मन था, लेकिन ये रक्तचूषक इतने शर्महीन हैं कि नहीं भागते। फिर खांसी होने के कारण धुआं मेरे लिये भी खतरनाक था।
2. इस सप्ताह मेरी छह ड्यूटी में से शुरू की दो रात्रिकालीन, इसके बाद दो प्रातःकालीन और आखिरी दो पुनः रात्रिकालीन थीं। ऑफिस पहुंचकर देखा तो दूसरी प्रातःकालीन ड्यूटी को हटाकर उसके स्थान पर रात्रि ड्यूटी लगी हुई है। बडी प्रसन्नता मिली। खान साहब को आशीष वचन देने लगा। दो बजे जब घर आया तो खान साहब का फोन आया। मैं सोचने लगा कि खान साहब फोन क्यों कर रहे हैं? कहीं मेरी अगली तीन रात्रि ड्यूटी कम करने की सूचना तो नहीं दे रहे? उनका कुछ नहीं पता कि कब कौन सी ड्यूटी बदल दें। आखिरकार फोन उठाया। बोले कि नीरज, जे है, तुम्हारी आज रात्रि ड्यूटी है, देख ली थी क्या? हां जी, देख ली थी। अब मैं सोने जा रहा हूं, दस बजे ड्यूटी पहुंच जाऊंगा। जे है, ठीक है। सो जा सो जा। इसीलिये फोन किया था कहीं देखी ना हो।
3. रात नींद तो आई नहीं थी, अब आ रही थी। कूलर अभी भी मैंने चलाकर नहीं देखा है। शक था कि इसमें ततैयों का छत्ता है। बडी हिम्मत करके एक तरफ की जाली हटाई। सामने दूसरी जाली पर छत्ता दिख गया। दस बारह ततैये बैठे थे। बालकनी में कूलर रखा है, चुपचाप किवाड बन्द कर लिये। किसी दिन धुआं करके इन्हें उजाड दूंगा।
4. तरुण गोयल से बात हुई। वे अभी लंगेरा में हैं, यानी हिमाचल व जम्मू-कश्मीर की सीमा पर। डोडा से चम्बा तक एक सडक बन रही है। सडक बन चुकी है लेकिन अभी आवागमन पर रोक है। कारण आतंकवाद। यह इलाका दोनों ही राज्यों का सीमान्त इलाका है। जम्मू कश्मीर की तरफ दहशतगर्दों को छिपने के लिये अनुकूल जगह मिल जाती है। हिमाचल चौकस है, इसलिये वे इधर प्रवेश नहीं कर पाते। भद्रवाह के पास एक कैलाश है। हर साल सावन में उसकी यात्रा होती है। हिमाचल से काफी संख्या में श्रद्धालु जाते हैं वहां। गोयल साहब का विचार है कि उसी दौरान लंगेरा से पैदल निकल पडा जाये और कैलाश यात्रा करते हुए भद्रवाह पहुंचा जाये।
बताया कि मणिमहेश में बर्फबारी हुई है। मुझे बुधवार को यानी चार दिन बाद भरमौर पहुंचना है। पूरी उम्मीद है कि तब तक मौसम खुल जायेगा। गोयल साहब ने सलाह दी कि कोई दूसरी योजना बना लो ताकि अगर मणिमहेश न जा सको तो वहां चले जाओ। मैंने कहा कि इस बार जाना मणिमहेश ही है।
विपिन तोमर ने आज इस यात्रा के बारे में कोई जिक्र नहीं किया। मैंने भी नहीं किया। सामने वाला अगर राजी नहीं है तो उसे मणिमहेश जैसी जगहों के लिये उकसाना भी नहीं चाहिये। धीरज भी जाने को कह रहा था लेकिन उसे भी रोक दिया। घर पर निर्माण कार्य चल रहा है, रोकने का अच्छा बहाना मिल गया। ऐसे स्थानों का उसे भी कोई अनुभव नहीं है। टोकना तो तबीर को भी चाहिये था, लेकिन बात वही अनुभव की आती है। मई में जबकि लगातार बर्फबारी हो रही है, तो साथ वाले की सुरक्षा की सारी जिम्मेदारी अपने आप मुझ पर आ जायेगी। साथ वाला अगर अनुभवहीन है तो यह जिम्मेदारी बहुत भयंकर काम है। अकेला ही जाऊंगा। यात्रा के लिये स्लीपिंग बैग आवश्यक है।

12 मई 2013, रविवार
1. आज का मुख्य काम रहा मणिमहेश यात्रा का रद्दीकरण। दोपहर बाद गोयल साहब से बात हुई। हिमाचल में लगातार जोरदार बारिश हो रही है। अगले दो दिनों तक मौसम खुलने के आसार नहीं हैं। मणिमहेश में बर्फ पड रही होगी, दो दिनों में ताजी बर्फ बहुत ज्यादा इकट्ठी हो जायेगी। छुट्टी लगा दी थीं, शनीचर इतवार होने के कारण अभी तक वे पास नहीं हुई थीं, कल पास भी हो जातीं। इससे पहले ही हटा लीं।
वैसे तो इसके बदले रुद्रनाथ भी जा सकता था। सन्दीप भाई गये हुए हैं। वे पहले मदमहेश्वर जायेंगे, फिर रुद्रनाथ। मैं उन्हें रास्ते में मिल सकता हूं। लेकिन इस साल उत्तराखण्ड न जाने की सोच रखी है। फिर अगले महीने साइकिल भी उठानी है। ऊर्जा बचाकर रखनी जरूरी है।
2. पता चला कि तीस हजारी कोर्ट के पास से श्रीनगर के लिये सीधी बस जाती है। दोपहर एक बजे चलकर पच्चीस घण्टे बाद यह श्रीनगर पहुंचती है। इसमें सीटों के साथ साथ स्लीपर भी है। बैठने का किराया चौदह सौ कुछ है जबकि स्लीपर का पन्द्रह सौ कुछ। लेकिन इसकी छत पर कुछ नहीं रखा जा सकता। साइकिल कैसे ले जाऊंगा? सोच रहा हूं कि साइकिल को खोलकर एक बोरी में बन्द कर दूं। ऐसा करने से यह आसानी से इसी बस में चली जायेगी। मैकेनिकल इंजीनियर के लिये साइकिल खोलना और बाद में जोडना कौन सा बडा काम है?
3. मौसम ठण्डा हो गया। अभी तक अत्यधिक गर्मी हो रही थी, अब ठण्डक हो जाने से बीमारी बढने का भी खतरा है। रात की ड्यूटी करके आया, जबरदस्त नींद आई। बाहर हवा भी चल रही थी। सोचा कि खिडकियां खोल देता हूं, भीतर भी ठण्डी हवा का आवागमन चालू हो जायेगा। छठी मंजिल पर रहता हूं, बडे कमरे के बाहर बालकनी है। बालकनी में ‘शापित’ कूलर रखा है- ततैयों वाला, इसलिये बालकनी वाला दरवाजा और खिडकी नहीं खोलता। दूसरे कमरे की खिडकी भी जरा सी खोल दी।
जब शानदार नींद आ रही थी, तो आवाज सुनकर आंख खुली। एक कबूतर दूसरे कमरे की खुली खिडकी से अन्दर आ गया था। कबूतर अव्वल दर्जे का मूर्ख पक्षी होता है। लगता होगा जिसे यह सुन्दर, मुझे तो इसे देखते ही मारने का मन करता है। खैर, नींद क्यों खराब करूं? करवट लेकर सो गया।
अबकी आंख खुली तब, जब कबूतर मेरे पैरों पर आ बैठा। पंजे चुभे, तुरन्त आंख खुल गई। मूर्ख प्राणी, तेरी यह हिम्मत। अब तू यहां बैठकर बींट भी करेगा। भगाऊंगा तो भागने में भी नखरे करेगा। सबसे पहले किसी तरह इसे इस कमरे से निकालकर घर में मूंद दिया, कमरे के किवाड बन्द किये और सो गया। दोपहर बाद तीन बजे आंख खुली। सबसे पहले पंखा बन्द किया। कबूतर की ढूंढ शुरू हुई। शौचालय से लेकर रसोई तक कई जगह बींट मिली। रसोई में कई बर्तन भी गिरे मिले, लेकिन कबूतर नहीं मिला। भाग गया होगा कहीं ना कहीं से।
4. आज एक बडे काम की चीज मिली। हमारे विभाग के हर कर्मचारी को सुरक्षा हेलमेट पहनकर काम करना होता है। हेलमेट के ऊपर लगाने के लिये लाइटें मिली हैं। इन्हें बिना हेलमेट के सीधे सिर पर भी लगाया जा सकता है। आगे माथे पर जो लाइट है, उसमें तेज सफेद प्रकाश वाली हेड लाइट के अलावा लाल, नीली और हरी लाइटें भी जलती हैं। एक लाइट पीछे गर्दन पर भी है जो लाल रंग की है तथा जलती-बुझती है। यात्राओं के लिये बडे काम की है यह लाइट। साइकिल यात्रा में तो इसका जबरदस्त इस्तेमाल होने वाला है।

13 मई 2013, सोमवार
1. कल तरबूज लाया था। दो साल पहले तरबूज खाकर दस्त लग गये थे, तब से अब तक यह मेरी नजरों में गिरा हुआ ही रहा। लाते ही फ्रिज में रख दिया। आज थोडा सा काटा और काले नमक से खा लिया। सुना है कि तरबूज काटो तो पूरा ही खत्म होना चाहिये। बचा हुआ अगले दिन नहीं खाना चाहिये। साढे तीन किलो था- बारह रुपये किलो। भला मैं इतना अकेला कैसे खा सकता था? ऑफिस घर से ज्यादा दूर नहीं है, दो सहकर्मी बुला लिये। देखते ही देखते तरबूज खत्म।

14 मई 2013, मंगलवार
1. आज 29 दिन की छुट्टियां लगा दी- 5 जून से लेकर 3 जुलाई तक। साइकिल उठाने का पूरा मन है। श्रीनगर के रास्ते लेह जाना, खारदूंगला पार करके नुब्रा घाटी, पेंगोंग झील, मोरीरी झील देखते हुए मनाली आना। साथ ही यह भी तय किया कि शारीरिक श्रम तो खूब करूंगा जून आने तक लेकिन साइकिल से अभ्यास कतई नहीं करूंगा। अगर किसी भी दिन साइकिल दिल्ली में बीस-तीस किलोमीटर चला ली तो मन भर जायेगा और लद्दाख साइकिल से जाना खटाई में पड जायेगा। श्रीनगर जाकर सीधे ओखली में मुंह दे दूंगा, मूसल पडेगी तो उससे सुलटना तो हो ही जायेगा।
2. नाइट ड्यूटी करके आया। कल का अवकाश है। यानी दो दिन तक फ्री। आज गांव जाने की धुंधली सी योजना थी। लेकिन मन नहीं था। दोपहर तक किसी तरह जगा रहा, खाना-पीना और नेट चलाना होता रहा। उसके बाद फोन एक कमरे में छोडकर खुद दूसरे में जाकर सो गया। बस, यही ‘दुर्घटना’ हो गई।
रात दस बजे किवाडों में खड-खड की आवाज सुनकर आंख खुली। कोई बाहर से दरवाजा खटखटा रहा है। उठा देखा कोई नहीं। कोई काफी देर से खटखटा रहा होगा, न खोलने पर चला गया। यह कोई नही बात नहीं है। आंख खुल गई तो फोन भी देखना पडा- 34 मिस्ड काल। सबसे ज्यादा गांव से। उन्हें पता था कि मैं आज गांव आऊंगा। गया भी नहीं और फोन भी नहीं उठा रहा। घबरा उठे होंगे। उन्होंने अमित को फोन किया, अमित ने मेरे पडोसी को, पडोसी दरवाजा खटखटा रहा था। घरवालों को अपनी खैरियत की सूचना दी।
खान साहब की 12 मिस्ड काल। कल मेरा साप्ताहिक अवकाश है, तो खान साहब क्यों फोन करेंगे, मुझे अच्छी तरह मालूम है। पता चला कि मुझे आज नाइट ड्यूटी आने के लिये बुलाया गया था। अगर मैं अवकाश वाले दिन दिल्ली में ही रहता हूं, तो ड्यूटी करना पसन्द करता हूं। इसके बदले महीने भर के अन्दर एक छुट्टी ले सकते हैं। और ऊपर से नाइट। धत्त तेरे की। मेरे कोई जवाब न देने पर उन्होंने किसी और को बुला लिया।
3. दस्त लग गये। तरबूज तेरा सत्यानाश हो।

15 मई 2013, बुधवार
1. चन्द्रेश जी दिल्ली आये, तो सुबह सवा सात बजे मेरे ठिकाने पर आ धमके। मूल रूप से बनारस के रहने वाले और रोजी-रोटी का बन्दोबस्त अलवर में कर रहे हैं। सुबह तीन बजे अलवर से मण्डोर एक्सप्रेस पकडी दिल्ली आने के लिये। घुमक्कड ऐसे कि अगर किसी दिन लिखने बैठ गये तो मेरा चन्द्रास्त कर देंगे। दस दिनों तक कुमाऊं में घूमते रहे और खर्चा 2100 रुपये, गंगासागर गये- खर्चा 1500 रुपये, पिछले साल उत्तराखण्ड के चारों धामों की यात्रा 2500 रुपये। साढे ग्यारह बजे यहां से चले गये निजामुद्दीन, किसी सम्बन्धी के साथ मथुरा और उससे आगे इलाहाबाद जाना है। निजामुद्दीन जाने का रास्ता पूछने लगे तो मैंने बिस्तर पर पडे-पडे ही समझा दिया। साथ ही यह भी कह दिया- इतनी धूप में बाहर निकलने का मन नहीं है, नहीं तो आपको कश्मीरी गेट जाकर काले खां की बस में बैठाकर आता।
2. राहुल सांकृत्यायन की ‘विस्मृत यात्री’ पढकर पूरी की। यह एक उपन्यास है जो छठीं शताब्दी के एक घुमक्कड नरेन्द्रयश की जीवन-गाथा है। नरेन्द्रयश वर्तमान पाकिस्तान की स्वात घाटी में पैदा हुए। उस समय यह इलाका बौद्ध था। घूमने की लालसा थी तो वर्तमान भारतभूमि की ओर पैर बढाये, श्रीलंका भी गये। इसके बाद घूमते घामते साइबेरिया में बैकाल झील और फिर चीन जाकर जीवन के अन्तिम दिन गिनने लगे। उपन्यास रोचक है, यात्रा-वृत्तान्त सा ही लगता है।
इसकी दो पंक्तियां मुझे अच्छी लगीं- (i) शास्त्र पढने से आदमी की आंखें खुलती हैं, लेकिन उसकी कूपमंडूकता दूर करने के लिये देशाटन भी आवश्यक है। देश और काल से परिचित होकर ही हम जान सकते हैं कि संसार में किस तरह परिवर्तन हुआ करते हैं।
(ii) यदि आदमी बहुत घूमा हुआ न हो तो चार ही कदम आगे की दुनिया बिल्कुल अन्धकार पूर्ण मालूम होती है।
3. ‘विभाजन की कहानियां’ भी आज ही समाप्त हुई। यह मुशर्रफ आलम जौकी द्वारा संग्रहीत कहानियों का संग्रह है। जौकी साहब आजकल हमारे पडोस में ही यानी गीता कालोनी में रहते हैं। इस पुस्तक को खरीदते समय मेरे मन में जिस तरह की कहानियों की कल्पना थी, वो कई कहानियों में पूरी हुई, कई में नहीं हुई। विभाजन के दौर की कहानियां लिखना आसान नहीं है। दर्द तो इनमें होता ही है, साथ ही कहानीकार का एक काम और भी है- साम्प्रदायिक सौहार्द। इस तरह की कहानियां लिखते समय या तो आपको हिन्दू-सिखों के साथ हमदर्दी दिखानी पडेगी या मुसलमानों के साथ। हालांकि कई कहानियां बिल्कुल तटस्थ होकर भी लिखी गई हैं।
पहली कहानी है मुखबिर (अहमद नदीम कासमी)- विभाजन के दौर की कहानी नहीं है। फिर भी कासमी साहब ने रोचक बनाने की कोशिश की है।
दूसरी है कपास के फूल- यह भी कासमी साहब की ही कहानी है। मुझे इसमें कुछ भी अच्छा नहीं लगा। पाकिस्तान के एक गांव की कहानी है जहां भारतीय सैनिकों की दरिन्दगी दिखाई गई है। एक भारतीय कैसे इसे बर्दाश्त कर सकता है। बात देशप्रेम की है, अगर मैं पाकिस्तानी होता या पाकिस्तानियों की दरिन्दगी दिखाई जाती तो शायद मुझे भी यह अच्छी लगती।
या खुदा-कुदरतुल्लाह शहाब द्वारा लिखी यह अम्बाला की रहने वाली एक ऐसी मुसलमान युवती की कहानी है, जिसके सभी परिजनों को सिखों ने मार दिया और युवती होने के कारण उसे छोड दिया। बाद में उसे पाकिस्तान जाना पडा। दोनों तरफ की अवस्थाओं का वर्णन किया है, इसलिये मुझे अच्छी लगी।
गडेरिया- अशफाक अहमद- निस्सन्देह उत्तम कहानी। एक ही गांव के हिन्दू-मुसलमान किस तरह आपस में घुले मिले रहते थे और एक ही झटके में कैसे खून के प्यासे हो गये, कहानी में दर्शाया गया है।
पेशावर एक्सप्रेस- कृष्ण चन्दर- यह रेलगाडी के डिब्बे की आत्मकथा है जो विभाजन के दौरान पेशावर से चलती है। जाहिर है इसमें हिन्दू और सिख ही होंगे। हसन अब्दाल, तक्षशिला, रावलपिण्डी, लाहौर में हिन्दुओं का कत्लेआम, बाद में सीमा पार करने के बाद भारतीय पंजाब में मुसलमानों का कत्लेआम, बडे ही मार्मिक ढंग से दिखाया है। लेखक की वेदना इन शब्दों से स्पष्ट हो रही है- “लाखों बार धिक्कार हो इन पथ-प्रदर्शकों पर और इनकी आने वाली सन्तानों पर, जिन्होंने इस सुन्दर पंजाब के, उस अलबेले, प्यारे, सुनहरे पंजाब के टुकडे-टुकडे कर दिये और इसकी पवित्र आत्मा को दफना दिया... आज पंजाब मर गया...”
और हां, यह गाडी वर्तमान समय में अमृतसर से मुम्बई सेंट्रल तक चलती है गोल्डन टेम्पल मेल। पहले यह पेशावर से चलती थी तो इसे सीमान्त मेल यानी फ्रण्टियर मेल कहते थे। आज भी इसे बहुत से लोग फ्रण्टियर मेल ही कहते हैं।
जडें- इस्मत चुगताई- उत्कृष्ट कहानी है।
अंधियारे में एक किरण- सुहेल अजीमाबादी- उत्कृष्ट कहानी। भारतीय हिन्दुओं ने किस तरह अपनी जान पर खेलकर अपने गांव के मुसलमानों के प्राण बचाये, कहानी में दिखाया है।
आख... थू- प्रेमनाथ दर- मुझे यह बकवास लगी।
मोजेल- मण्टो- शानदार कहानी। मण्टो का तो मैं प्रशंसक हूं ही। अश्लीलता तो होती है उसकी कहानियों में लेकिन सतत प्रवाह भी होता है जो मण्टो को दूसरों से आगे ला देता है।

डायरी के पन्ने-6 | डायरी के पन्ने-8

Comments

  1. राहुल जी के घुमक्कड़ी शास्त्र पर एक पुस्तक अवश्य लिखिये..मुक्ति के साधक के नाम से।

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  2. राहुल जी जैसा नाम तो घुमक्कडी में आप कमाओगे ही (संभवत: उनसे भी ज्यादा, साधन ज्यादा हैं आज)
    लेकिन उनकी तरह घरवाली की उपेक्षा करने जैसा काम मत करना।
    राहुल जी के इस कथन से घोर असहमति है कि - "गृहस्थ बनने पर आदमी की काम करने की शक्ति आधी रह जाती है।"
    मन कर रहा है कि आपके कमरे का एक चक्कर लगा लूं और जिन पुस्तकों का आप जिक्र करते हैं सब उठा लाऊं (उधारी)

    प्रणाम

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  3. aur photo? ha ha .....

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  4. नीरज जी नमस्कार... बैठे बिठाये क्यों चने के झाड़ पर क्यों चढ़ा रहे हैं. किसी दिन गिर जाऊंगा. और दूसरी बात आपका कोई भी चंद्रास्त या सूर्यास्त नहीं कर सकता.

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  5. नाम रोशन करोगे चौधरी , लिखने में बदलाव महसूस किया ..अच्छा लगा !
    अगली बार जब मिलोगे, तब तुम्हे सौ रुपये का सिक्का दिखाऊंगा :)
    मंगल कामनाएं !

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  6. Jat Ram Ji, Kailash nahin kaha tha maine, Garhmata Peak kaha tha, uski jaatar shuru hone waali hai agle mahine. Aur ye saara devta naag Devta ke adhheen aata hai. Nag Devta, Devi-Devta, aur Bhagwan, pahadon me ye major classification chalti hai.

    saath chalenge dono bhai kisi trip pe...

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  7. Diary ke panne padhne me bahut maja aata hai

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  8. Diary ke panne padhne me bahut maja aata hai

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब