Skip to main content

दिल्ली से अहमदाबाद ट्रेन यात्रा

18 फरवरी 2013, 
शास्त्री नगर मेट्रो स्टेशन से सराय रोहिल्ला रेलवे स्टेशन तक जाने के लिये रिक्शा नहीं मिले। यह बडी अजीब बात थी क्योंकि यहां हमेशा रिक्शे वालों की भारी भीड रहती है। पैदल डेढ किलोमीटर का रास्ता है। पच्चीस मिनट अभी भी ट्रेन चलने में बाकी थे। पैदल ही चला गया। दस रुपये बच गये।
सुबह घर से नमकीन मट्ठा पीकर चला। स्टेशन तक की ‘मॉर्निंग वाक’ में पेट में ऐसी खलबली मची कि रुकना मुश्किल हो गया। ट्रेन चलने में अभी भी दस मिनट बाकी थे, ये दस मिनट मैंने किस तरह काटे, बस मैं ही जानता हूं। ट्रेन ने जैसे ही प्लेटफार्म पार किया, जाटराम सीधे शौचालय में।
इस रूट पर मैंने आबू रोड तक पैसेंजर ट्रेनों से यात्रा कर रखी है लेकिन कई चरणों में- दिल्ली से गुडगांव, गुडगांव से रेवाडी, रेवाडी से बांदीकुई, बांदीकुई से फुलेरा और आखिरी कोशिश फुलेरा से आबू रोड। वैसे भारत परिक्रमा के दौरान आबू रोड से अहमदाबाद तक का रास्ता भी देख रखा है।
रात्रि सेवा करके यात्रा के शुरूआत की। नींद आनी लाजिमी है। हल्ला-गुल्ला सुनकर आंख खुली तो ट्रेन रेवाडी पहुंच चुकी थी। एक पचास की उम्र पार चुके महाशय सुबह सुबह अपनी बेकद्री करा बैठे। मेरी बर्थ नम्बर है-70, यह ऊपरी बर्थ है। मेरे सामने दरवाजे के बराबर में साइड में 71 और 72 हैं। नीचे वाली 71 पर एक मेरी ही उम्र का लडका अपनी चादर बिछाकर दोनों खिडकियां बन्द करके आराम की मुद्रा में लेटा था। महाशय और उनके साथी ने आते ही अपनी बर्थ नम्बर चिल्लाकर बोलते हुए लडके को हडका दिया- ओये, हट यहां से। ये 71 व 72 हमारी हैं। खडा हो फटाफट, चादर बिछाकर पडा हुआ है।
लडके ने शालीनता से महाशय से कहा कि आप एक बार अपना टिकट देखिये, कुछ गडबड है। महाशय ने टिकट देखने की बजाय लडके की चादर को हटाना शुरू कर दिया। उनके साथी ने टिकट देखा और कहा कि हमारी सीट इस डिब्बे में नहीं है, बल्कि एस तीन में हैं। इतना सुनते ही लडके ने बर्थ पर बैठ चुके महाशय को चुटकी बजाते हुए कहा- उठो यहां से, अपनी सीट पर जाओ। खडे होओ फटाफट। कैसे बैठ गये तुम मेरी बर्थ पर?
महाशय तुरन्त बचाव की मुद्रा में आ गये- बेटे, धीरे बोलो। देखो, तुमसे बडा हूं मैं। इज्जत बनती है।
लडके ने कहा- उठते हो या धक्के मारकर उठाऊं।
आनन्द आ गया यह वार्तालाप सुनकर।
जयपुर पहुंचने पर एक और वाकया ऐसा ही हुआ। आदमी के पहनावे को देखते ही उसकी वित्तीय स्थिति का अन्दाजा लगाया जा सकता है। पांच ‘गरीब’ पहनावे और वित्तीय स्थिति वाले डिब्बे में चढे। इनमें एक तिनके जैसा पच्चीस साल का लडका, एक महिला, एक बुजुर्ग और दो युवा थे। बाद में पता चला कि तिनके जैसे लडके की किडनी फेल है, दवा दारू चल रही है। मैं उस समय उन्हीं की नीचे वाली शायिका पर बैठा था। मेरे सामने दो कन्याएं थीं।
उन्होंने अपनी शायिका टिकट में पढकर एक दूसरे को सुनाईं- पैंसठ, छियासठ, सडसठ, अडसठ और उन्हत्तर। जिस शायिका पर मैं बैठा था, उस पर उन्होंने एक चादर बिछा दी। किडनी वाले मरीज को बैठा दिया और तुरन्त ही वो लेट गया। मेरी तरफ उसके पैर थे। मेरी वजह से उसके पैर पूरे फैल भी नहीं रहे थे। अब इस शायिका पर किसी और के बैठने की सम्भावना नहीं रही। बाकी लोग सामने वाली शायिका पर बैठ गये। किसी ने मुझसे न तो हटने को कहा और न ही कोई और पूछताछ की। जबकि सभी को पता था कि मैं उन्हीं की पैंसठ नम्बर वाली शायिका पर बैठा हूं। खैर, जल्दी ही मैं वहां से उठ गया।
ये गरीब थे धरतीपुत्र और वो महाशय था हवा में उडने वाला वायुपुत्र। पैसा निर्धारित करता है कि आपका बाप कौन है, आप किसके पुत्र हो।
अलवर में भुज से बरेली जाने वाली आला हजरत एक्सप्रेस मिली। जनरल डिब्बे तो खिडकियों तक भरे ही थे, आरक्षित भी खाली नहीं थे। उनकी भी खिडकियों पर लोग लटके थे। उस समय मेरे सामने एक ‘मॉडर्न फैशनेबल’ लडका बैठा था। पूछने लगा कि क्या ये खिडकियों पर लटके लोग बेटिकट हैं। मैंने कहा कि नहीं। बोला कि फिर ये लटके क्यों हैं? मैं उसकी इस बात पर मुस्करा दिया।
टीटी आया। वो दिल्ली से निकलते भी आया था। मेरे पास आजकल टिकट मोबाइल में एसएमएस के रूप में रहता है। मैंने मोबाइल तो नहीं दिखाया, बल्कि अपना आईकार्ड दे दिया। इतना काफी था।
सामने बैठी दो लडकियों के पास साधारण डिब्बे का टिकट था। टीटी शक्लसूरत से ही भला-मानुस लग रहा था, अब उसने अपनी इस भले मानुस की पदवी का बखूबी प्रयोग भी किया। अपने पास रखी नई नकोर किराया पुस्तिका निकालकर अतिरिक्त किराया बता दिया। लडकियों को अजमेर तक जाना था। मॉडर्न लडके के पास भी साधारण डिब्बे का टिकट था- उसे जयपुर जाना था। उसे भी किराये का अन्तर बता दिया। लडके ने पहले तो आश्चर्य व्यक्त किया कि टिकट होने के बावजूद भी और पैसे क्यों दूं। जब उसे हकीकत बताई गई तो उसने सौ का नोट निकालकर दे दिया। अतिरिक्त किराया पिछत्तर रुपये था।
लडकियों से अतिरिक्त पैसे लेकर उन्हें रसीद काटकर दे दी। जब लडके की रसीद की बारी आई तो टीटी को अपनी ही एक गलती पकड में आई। असल में रसीद पर लिखते समय उसके नीचे के दो पृष्ठों पर कार्बन पेपर लगाकर लिखा जाता है। टीटी ने एक पेपर सीधा लगा दिया, दूसरा उल्टा लगा दिया। नतीजा? एक पेज के दोनों तरफ छप गया और दूसरा पेज खाली रह गया। हर तीन पेज के बाद सीरियल नम्बर बदल जाता था। वो अब तक करीब दस लोगों की रसीद काट चुका था। इससे सीरियल नम्बर बिगड गया।
यह उस सीधे सादे टीटी के लिये बडी मुसीबत की बात थी। उल्टा टीटी होता तो वो इसमें ढाई सौ रुपये जुर्माना भी जोडता और सवारियों से सौ सौ रुपये लेकर उन पर ‘एहसान’ करके चला जाता। इस टीटी ने लडके की रसीद नहीं काटी, सौ रुपये लौटा दिये और बिना कुछ कहे चला गया। लडके को अभी तक भी जनरल क्लास और स्लीपर क्लास का अन्तर नहीं समझ आया था। उसने टीटी के सौ रुपये लौटाने की घटना पर व्यंग्य से कहा कि देखा, ये लोग ऐसा ही करते हैं।
मैं सोच रहा था कि काश, सभी ऐसा ही करते।
अजमेर से पहले हजरत साहब के सेवादार आ गये और कपडा हिलाते हुए कर्कश स्वर में हजरत के नाम पर पैसे मांगने लगे। अजमेर के बाद गायब हो गये।
नाइट ड्यूटी के कारण नींद आ रही थी, हालांकि थोडे थोडे अन्तराल के लिये नींद ले भी लेता था लेकिन ऐसे अन्तरालों से यह पूरी होने वाली नहीं थी। मारवाड ऐसे ही सोते सोते निकल गया।
नौ बजे जब अच्छी खासी नींद आ रही थी, तो शोर शराबा सुनकर आंख खुल गई। कुछ लोग आबू रोड उतरने की तैयारी करने लगे थे। ये सभी तीस पार के थे और देखने से अच्छे पैसे वाले लग रहे थे। बातों से पता चला कि माउण्ट आबू घूमने जा रहे हैं। हर एक के पास भारी भरकम सूटकेस था। बोलचाल से पूर्वी यूपी के लग रहे थे।
आबू रोड स्टेशन पर रबडी मिल रही थी। लेकिन थी बहुत महंगी- बीस रुपये की चुल्लू भर। जीभ की इच्छा थी, इसलिये चुल्लू भर रबडी में डूबना पडा।
रात ठीक दो बजे अहमदाबाद पहुंच गया। कल शाम प्रशान्त ने फोन करके बता दिया था कि अहमदाबाद में स्लीपर क्लास प्रतीक्षालय में मिलेंगे। प्रशान्त और नटवर जोधपुर से आ रहे हैं। उनकी गाडी अहमदाबाद पांच बजे पहुंचेगी। प्रशान्त जोधपुर का ही रहने वाला है जबकि नटवर कुचामन का है। कुचामन से जितना दूर फुलेरा पडता है, उतना ही दूर मेडता रोड है। फुलेरा से किसी भी गाडी में सीट खाली नहीं थी, इसलिये मेरी सलाह पर उसने मेडता रोड से उसी ट्रेन में आरक्षण कराया जिसे प्रशान्त जोधपुर से पकडता।

अगला भाग: अहमदाबाद - उदयपुर मीटर गेज रेल यात्रा

1. दिल्ली से अहमदाबाद ट्रेन यात्रा
2. अहमदाबाद - उदयपुर मीटर गेज रेल यात्रा
3. रतलाम से कोटा पैसेंजर ट्रेन यात्रा चित्तौड के रास्ते

Comments

  1. बहुत महंगी- बीस रुपये की चुल्लू भर। जीभ की इच्छा थी, इसलिये चुल्लू भर रबडी में डूबना पडा। ओये नीरज भाई, इतना खर्च करोगे तो हमें भी प्रॉब्लम होगा! वैसे बहुत ही आनंददायक यात्रा !!

    ReplyDelete
  2. चुल्लू भर बेशक मिले, लेकिन होती है बहुत स्वादिष्ट

    ReplyDelete
  3. राम राम जी, नीरज भाई अब तो आप की लेखनी में साहित्यिक पुट आता जा रहा हैं, पढ़ने में मज़ा आता हैं...ऐसे लगता की जैसे कोई उपन्यास या डायरी पढ़ रहे हो...बहुत खूब....ऐसे ही लगे रहो.....वन्देमातरम....

    ReplyDelete
  4. where is photo?????????????????

    ReplyDelete
  5. रबड़ी के लिये तो कितना भी खर्च किया जा सकता है।

    ReplyDelete
  6. आबू में खाई रबड़ी की याद ताजा हो आई ....जब 1996 में आबू गई थी तो 20 रु में काफी रबड़ी आती थी जिसमे हमारा सारा परिवार डूबा था हा हा हा हा

    ReplyDelete
  7. aap likhta accha hai neeraj ji.........

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब