Skip to main content

नेपाल से भारत वापसी

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें
13 जुलाई की शाम थी और मैं बेगनासताल से पोखरा के लिये वापस चल दिया। 7 बजकर 40 मिनट पर सुनौली की बस थी, जिसका टिकट मैंने साढे चार सौ रुपये देकर पहले ही बुक करा लिया था। मैं 7 बजकर 35 मिनट पर बस स्टैण्ड पर पहुंचा, तो पता चला कि बस दस मिनट पहले ही चली गई है यानी 7 बजकर 25 मिनट पर ही। मैं बस स्टैण्ड के अधिकारियों पर खदक पडा कि टिकट पर बस का टाइम सात चालीस लिखा है तो वो पन्द्रह मिनट पहले क्यों चली गई। बोले कि तुम्हारी घडी सही नहीं है, बस अपने निर्धारित समय पर ही गई है। असल में नेपाल का समय भारतीय समय से पन्द्रह मिनट आगे है। मैं नेपाल में प्रविष्ट तो हो गया था लेकिन घडी को नेपाली समय से नहीं मिलाया, भारतीय ही रहने दिया।
जब अकल ठिकाने लग गई तो पूछा कि अगली बस कितने बजे है तो पता चला कि सुबह पांच बजे। अब सुनौली के लिये कोई बस नहीं है। यानी मेरा कल लुम्बिनी देखना रद्द हो जायेगा। और लुम्बिनी की बात छोडिये, साढे चार सौ रुपये गये पानी में। अधिकारियों ने पैसे लौटाने से मना कर दिया। ऊपर से अब पोखरा में तीन सौ का कमरा भी लेना पडेगा। कल फिर से साढे चार सौ का टिकट लेकर सुनौली जाना पडेगा। यानी एक ही झटके में साढे सात सौ रुपये का नुकसान!
मुझे नेपाल की कोई जानकारी नहीं है। रास्ते कहां कहां से जाते हैं, यह भी नहीं पता। हालांकि दिल्ली वापस आकर मैंने नेपाल के रोड मैप की कामचलाऊ जानकारी हासिल कर ली है। अगले दो-तीन चक्कर और लगेंगे तो यह जानकारी और भी बढ जायेगी। अगर रोड मैप की जानकारी होती तो मैं पक्के तौर पर दावा कर सकता हूं कि बस के छूट जाने पर भी सुबह तक किसी ना किसी तरह सुनौली पहुंच ही जाता। मान लो हम मनाली में हैं और हमारी दिल्ली की आखिरी बस निकल गई, तो क्या करेंगे। चूंकि मुझे हिमाचल के रोड मैप की अच्छी जानकारी है तो मैं मण्डी, रोपड, चण्डीगढ आदि जगहों पर बस बदल-बदल कर दिल्ली लौट ही आता। हिमाचल की ही तरह नेपाल में भी लम्बे रूट पर रात भर बसें चलती हैं, तो मुझे पूरा यकीन है कि किसी ना किसी तरह मैं ऐसा कर ही लेता।
बेगनासताल यानी बेग-नास-ताल, वेग नाश ताल। यात्रा के इस आखिरी सत्र में जिस तरह रात का, पैसों का और अगले दिन की योजना का पूरे वेग से नाश हुआ, उससे यह नाम चरितार्थ हो गया।
भूख लगी थी। मैं कुछ खाने के चक्कर में पृथ्वी चौक की तरफ बढा तो वही होटल वाला मिल गया, जिसके यहां कल रुका था। उसे सारा माजरा बताया। मेरे बिना कहे ही वो टिकट काउण्टर पर गया, अधिकारियों से नेपाली में बात की कि बेचारे के कुछ तो पैसे लौटा ही दो, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। आखिरकार मैं उनके होटल पर गया। उसने चुपचाप उसी कमरे की चाबी मुझे दे दी जिसमें कल रुका था। कल साढे तीन सौ का कमरा तीन सौ में मिला था, आज भी अगर मैं उससे मोलभाव करता तो शायद मेरी गरीबी को देखते हुए ढाई सौ का दे देता, लेकिन ना हम बोले ना तुम बोले।
भूख भयंकर लगी थी। दाल भात और आलू की सब्जी, कोल्ड ड्रिंक के साथ उदर में सरका दिये, तब कुछ राहत मिली। सौ रुपये के आसपास लगे। सुबह जल्दी उठने की प्रतिज्ञा करके मैं सो गया।
पांच बजे आंख खुली। फटाफट मुंह धोकर सवा पांच बजे तक होटल छोड दिया। इस समय तक तो हमारे देश में भी उजाला हो जाता है, लेकिन पन्द्रह मिनट पहले वाले देश में और भी उजाला हो गया था, होटल वाला जग गया था। जाते जाते उसने अच्छी तरह समझाया कि कहां से बस मिलेगी। और सबसे अच्छी बात यह रही कि उसने मुझे पचास रुपये लौटाये। बोला कि कल आपका बहुत नुकसान हो गया, तो मेरी तरफ से कुछ भरपाई। हालांकि यह भरपाई ऊंट के मुंह में जीरा तो नहीं पर लड्डू जरूर थी। साढे सात सौ से घटकर नुकसान सात सौ रह गया।
पृथ्वी चौक पर जाने से पहले ही सुनौली की एक बस खडी मिल गई। यह बस मैदानी नहीं बल्कि पहाडी वाले रास्ते से जायेगी। मुझे बुटवल जाना था। कण्डक्टर ने साढे चार सौ रुपये मांगे। मैंने दे दिये। बस के चलते ही मेरे बराबर में एक नेपाली सज्जन आ बैठे। वे बोले कि बुटवल के चार सौ रुपये लगते हैं, उतरते समय पचास रुपये वापस ले लेना। वे सज्जन नेपाल पुलिस से रिटायर्ड हैं और अब अगली नौकरी की तलाश में हैं। उनसे अच्छी बात हुई, कुछ भौगोलिक राजनैतिक जानकारियां भी मिली और उससे भी बडी बात कि अपने घर चलने का न्यौता दिया। बोले कि जहां मैं उतरूंगा, वहां से दो किलोमीटर पैदल चलकर मेरा घर आयेगा, जहां अपने सब घरवाले रहते हैं। बस से उतरते समय फोन नम्बरों की अदला-बदली भी हुई, हालांकि फोन करने की इच्छा नहीं हुई अभी तक।
एक बजे बुटवल पहुंचे। यहां से सीमा करीब बीस किलोमीटर है। वहां से कुछ आगे नौतनवा है, जहां से दो चालीस पर गोरखपुर की ट्रेन चलती है। इस बस ने एक धोखा दे दिया कि सभी सवारियों को बुटवल में ही उतार दिया। बोले कि आगे नहीं जायेंगे। मेरे पचास रुपये फंस गये। मैंने कण्डक्टर से कहा कि तुमने साढे चार सौ रुपये लिये हैं। सात आठ घण्टे पहले उसने मुझसे पचास रुपये ठगे थे, जिन्हें वो अब तक भूल गया। तुरन्त तीस रुपये निकालकर दिये। हालांकि दूसरी बस में बैठने के बाद पता चला कि बुटवल से सुनौली का किराया चालीस रुपये हैं। दस रुपये अपनी जेब से देने पड गये।
और बेग-नास का भूत यहां तक भी पीछे पडा रहा। सीमा से दो किलोमीटर पहले भैरहवा में बस वापस मोड ली कि आगे नहीं जाऊंगा। उतरकर तेज तेज पैदल चलने लगा। एक रिक्शा वाला मिला। उसने बॉर्डर के सौ रुपये मांगे। अपने हाथ से दो किलोमीटर के लिये सौ रुपये देना शोभा नहीं देता। फिर एक नेपाली बाइक वाले को हाथ दिया। पचास मीटर आगे जाकर उसने बाइक रोकी। बोला कि तुम्हें सीमा पार करा दूंगा लेकिन साठ रुपये देने पडेंगे। अरे भाड में जा तू, मैं पैदल ही अच्छा हूं। नहीं जाना तेरी बाइक पर। अब तक दो बज चुके थे और चालीस मिनट बाद नौतनवा से ट्रेन थी। फिर वो बोला कि ठीक है, तेल के आधे पैसे दे देना। मैंने कहा कि ओक्के, चल बीस रुपये दे दूंगा लेकिन सीमा के उस तरफ छोडना पडेगा। बोला कि चिन्ता मत करो।
आराम से बॉर्डर पार हो गया। किसी ने बाइक को नहीं टोका। और भारत में भी काफी नेपाली गाडियां खडी दिखीं। सब बेरोकटोक आ जा रही थीं। मैंने पहले बताया था कि सुनौली कस्बा दोनों देशों में है। नेपाल में इसे सुनौली कहते हैं और भारत में सौनोली। अब हम सौनोली में थे। मुझे समझ नहीं आया कि नेपाली बाइक और कारों को सीमा पर नहीं टोका जाता। सब इधर उधर ऐसे हो जाती हैं जैसे गाजियाबाद से दिल्ली में जा रहे हों। सौनोली से करीब पांच किलोमीटर दूर नौतनवा में भी मुझे नेपाली गाडियां दिखीं लेकिन उसके बाद नहीं दिखीं। शायद उन्हें नौतनवा तक आने-जाने की छूट है।
बीस रुपये देकर मैं सौनोली में उतर गया। अब नौतनवा का सफर जीप से तय होगा। पन्द्रह मिनट बचे थे ट्रेन के रवाना होने में। लेकिन जब तक मैं नौतनवा स्टेशन पहुंचा तब तक तीन बज चुके थे और ट्रेन कभी की जा चुकी थी।... बेग-नास-ताल।
यहां से गोरखपुर करीब नब्बे किलोमीटर है। ठीक तीन घण्टे बाद यानी छह बजे बाघ एक्सप्रेस थी, जिससे मुझे रामपुर तक जाना था और मेरा रिजर्वेशन भी था। तीन घण्टे में नब्बे किलोमीटर का सफर यूपी में आसान नहीं होता। अब लगने लगा कि मैं काफी लेट हूं। एक ट्रेन तो छूट गई, अब दूसरी भी छूटेगी। नौतनवा से पहली बस मिली कैम्पियरगंज की। फिर वहां से गोरखपुर की बस मिली। हालांकि नौतनवा से गोरखपुर के लिये बसों की कोई कमी नहीं है लेकिन पहली बस कैम्पियरगंज की आई तो उसमें ही चढ लिया। अब मेरा फोन नेटवर्क भी अच्छा काम करने लगा था। जाते समय रक्सौल के बाद जैसे ही बीरगंज में घुसा था तो नेटवर्क भारत में ही छोड दिया था, अब सौनोली से फिर पकड लिया। नेटवर्क आते ही सबसे पहले देखा कि बाघ एक्सप्रेस कितनी लेट है। महारानी देवरिया से पन्द्रह मिनट लेट चली थी। कुछ सांस में सांस आई।
ठीक छह बजकर दस मिनट पर गोरखपुर स्टेशन के अन्दर था। जाते ही पता चला कि महारानी जी अपने निर्धारित समय छह बजे गोरखपुर से चली गई हैं। यह ट्रेन भी छूट गई।... बेग-नास-ताल।
इस ट्रेन में मेरे दो रिजर्वेशन थे- एक था गोरखपुर से लखनऊ और दूसरा था लखनऊ से रामपुर। पहला वेटिंग था, जो शायद बाद में कन्फर्म भी हो गया हो, जबकि दूसरा शुरू से ही कन्फर्म था। ये पैसे भी गये। अब बस से जाने में ही फायदा है। क्योंकि रात का सफर है, कम से कम सो तो लूंगा। किसी ट्रेन में बैठने की तो क्या, खडे होने की भी जगह मिल जाये तो जानूं।
सात बजे यहां से कुशीनगर एक्सप्रेस चलती है। नेट था ही जेब में, फटाफट हिसाब किताब मिलाया तो देखा कि कुशीनगर एक्सप्रेस रात बारह पच्चीस पर लखनऊ पहुंचती है, जबकि बाघ के लखनऊ से चलने का समय भी बारह पच्चीस ही है। लेकिन एक और पंगा है। कुशीनगर पहुंचती है उत्तर रेलवे वाले लखनऊ पर यानी चारबाग स्टेशन पर जबकि बाघ चलती है पूर्वोत्तर वाले लखनऊ से। उत्तर लखनऊ से पूर्वोत्तर लखनऊ जाने में तेज चाल चलते हुए कम से कम पांच मिनट तो लगते ही हैं। अगर कुशीनगर सही समय पर लखनऊ पहुंचा दे और बाघ पांच मिनट भी लेट हो जाये तो बात बन सकती है।
अपनी महारानी साहिबा पन्द्रह मिनट पहले बाराबंकी पहुंची। सत्रह मिनट तक खडी रही, तब लखनऊ के लिये चली। लेकिन बडे स्टेशनों के बडे नखरे होते हैं- आउटर जैसी जगहें भी होती हैं। नतीजा यह रहा कि बारह पच्चीस की बजाय बारह तीस पर यह ट्रेन लखनऊ पहुंची। अब मुझे दौड तो लगानी ही थी। लगाई भी। बारह पैंतीस पर मैं पूर्वोत्तर लखनऊ में प्रविष्ट हो गया। सामने ही पूछताछ केन्द्र दिखा। बोर्ड पर आने जाने वाली सभी ट्रेनों के नाम नम्बर लिखे थे, लेकिन बाघ नदारद थी। इसका मतलब है कि यह ट्रेन निकल गई और इसे बोर्ड से मिटा दिया।
अगर आप कभी मुम्बई गये हों तो छत्रपति शिवाजी स्टेशन भी देखा होगा, पुरी गये हों तो वहां का स्टेशन भी देखा होगा, हावडा स्टेशन देखा होगा। ठीक इसी तरह का स्टेशन है पूर्वोत्तर लखनऊ। हमारे सामने सभी प्लेटफार्म होंगे और हम अपनी मर्जी से बिना कोई लाइन पार किये किसी भी प्लेटफार्म पर प्रवेश कर सकते हैं। यानी रेलवे लाइन यहां टर्मिनेट होती हैं, खत्म हो जाती हैं। अगर कोई ट्रेन आयेगी और उसे कहीं जाना है तो इंजन की अदला बदली होनी ही होनी है। प्लेटफार्म पर जिस दिशा से ट्रेन आई थी, उसी दिशा में जायेगी, हालांकि बाद में दूसरी लाइन पकडकर कहीं और पहुंच जायेगी। बाघ एक्सप्रेस का भी इंजन इधर से उधर होता है यहां।
मुझे यकीन था कि शायद प्लेटफार्म नम्बर पांच या छह पर बाघ आयेगी। क्योंकि प्लेटफार्म नम्बर एक गोरखपुर की दिशा में है जबकि ट्रेन को उसके विपरीत जाना है, बरेली की तरफ जाना है, तो शायद पांच या छह पर आयेगी। जाकर देखा तो दोनों प्लेटफार्म बिल्कुल खाली पडे थे। जिसकी उम्मीद थी, वही हुआ। ट्रेन यहां से भी गई।... बेग-नास-ताल।
लेकिन दुर्भाग्य ज्यादा देर तक असर नहीं करता। मुझे प्लेटफार्म नम्बर एक पर एक ट्रेन खडी दिखी। गौर से देखा तो उसमें सवारियां भी दिखाई पडी। यह कोई भी ट्रेन हो, लेकिन बाघ तो कतई नहीं हो सकती। उसके पास गया तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अरे, यह तो बाघ ही है। पन्द्रह मिनट लेट हो गई। और सिग्नल भी इसे हरा मिल रहा है।
लेकिन
कहीं यह वापस गोरखपुर की तरफ जाने वाली तो नहीं है, क्योंकि यह उस प्लेटफार्म पर खडी है, जिसके बारे में मेरा विचार था कि वहां गोरखपुर जाने वाली ट्रेनें ही रुकती हैं। एक से पूछा तो बताया कि गोरखपुर नहीं जायेगी, बल्कि काठगोदाम जायेगी। जब पक्का हो गया कि यह वही ट्रेन है जो गोरखपुर में दस मिनट के अन्तर से निकल गई थी, तो मैं बेग-नास-ताल को पूरी तरह भूल गया।
लेकिन बेग-नास जो इतनी दूर से यहां तक आया था, इतनी आसानी से पीछा छोडने वाला नहीं था। मेरी सीट पर एक बन्दा सोया हुआ था। और सोयेगा भी क्यों ना, आधी रात का समय जो था। मैंने उसे उठाया तो बेचारा तुरन्त उठकर चला गया परन्तु उसके जाते ही एक और आ गया कि यह मेरी सीट है। अक्सर ऐसा होता है कि अगर कोई ट्रेन रात बारह बजे और एक बजे के बीच में छूटती है तो तारीख का पंगा पड जाता है। मुझे लगा कि उसका रिजर्वेशन चौदह तारीख का है, जबकि पिछले आधे घण्टे से पन्द्रह तारीख चल रही है। उसका टिकट देखा तो वो वेटिंग पाया, तारीख सही थी।
असल में टीटी ने आधी रात देखकर और गाडी चलने तक मुझे ना पाकर मेरी सीट उसे दे दी थी। अब मैं आ गया तो सीट से उसका दावा खारिज होना ही था। बेग-नास की आखिरी कोशिश नाकाम हो गई।
अलविदा बेग-नास, फिर मिलेंगे। अपनी आदत में सुधार कर लेना। अगर अगली बार भी ऐसा ही रवैया रहा तो देख लेना। तेरा नाम बदल दूंगा... कम से कम अपने लेखों में तो बदल ही दूंगा... इतना तो अपने हाथ में है ही।

चलिये नेपाल के कुछ बचे-खुचे फोटो हैं, उन्हें देख लेते हैं।






यह है जुगाड का नेपाली संस्करण। यह वहां एक मान्यता प्राप्त वाहन है और इसका पंजीकरण भी होता है, नम्बर प्लेट भी होती है। यह अधिकतर सामान ढोने के काम में आता है।




नेपाल यात्रा
1. नेपाल यात्रा- दिल्ली से गोरखपुर
2. नेपाल यात्रा- गोरखपुर से रक्सौल (मीटर गेज ट्रेन यात्रा)
3. काठमाण्डू आगमन और पशुपतिनाथ दर्शन
4. पोखरा- फेवा ताल और डेविस फाल
5. पोखरा- शान्ति स्तूप और बेगनासताल
6. नेपाल से भारत वापसी

Comments

  1. लगता है की ट्रेन छूटने का तुम्हारा कुछ ज्यादा ही याराना है

    बात बेग नास की नहीं, निजामुद्दीन की भी ऐसी ही होनी थी, याद है उस दिन कुल कितना पैदल चले थे?

    ReplyDelete
  2. बेग नास ताल का सत्यानाश हो. मैं तो दुखी हूँ कि लुम्बिनी गयी.

    ReplyDelete
  3. ओह लुम्बिनी छुट गई, ट्रेन तो आखिरकार मिल ही गई, पर यार आपकी दाद देनी पड़ेगी, जैसे तैसे करके पहुँच ही गये, बड़े हिम्मती हैं ना हार मानने वाले। इस यात्रा से एक बात जो समझ में आई कि नेपाल जाने के लिये पासपोर्ट की जरूरत नहीं पड़ती है, सही है ना ?

    ReplyDelete
  4. इस यात्रा ने सबको जता दिया है की हमेशा चोकन्ने रहो . यात्रा के लिए पूरा वर्क आउट करो .... कुछ भी हो हम सब आपके साथ हैं जय नेपाल यात्रा
    धन्यवाद नीरज जी

    ReplyDelete
  5. नीरज भाई, यात्रा में बस या रेल निकल जाए दुःख तो होता ही हैः, समय का समय खराब, पैसे के पैसे. पर कुछ अनुभव भी होता हैं. समय को मैनेज करने में कई बार गलती हो जाती हैं. पर आपने फिर भी मैनेज किया. धन्यवाद, वन्देमातरम.

    ReplyDelete
  6. कभी-कभी कोई दिन इतना खराब आ जाता हैं सारे के सारे बने काम भी बिगड़ जाते हैं....यही आपके साथ हुआ उस दिन....| सही नाम दिया...बेग-नास-ताल |
    बाकी विवरण अच्छा दिया आपने

    ReplyDelete
  7. MAZA AA GYA BOSSS

    ReplyDelete
  8. bhagwan,nepal yatra samapt,laut k ............. ghar ko aaye.bura mat man na bhagwan.bharat parikrama ki subhkamnayen.thanks.

    ReplyDelete
  9. बेग नास :)

    जै राम जी की

    ReplyDelete
  10. नेपाली जुगाड़ भी बहुत मजेदार लगा. :)

    ReplyDelete
  11. आप के यात्रा वृतांत अति रोचक हैं. मैं स्वयम भी देश विदेश की यात्राओं से सम्बंधित लेख लिखता रहा हूँ, जो सरिता, कादम्बिनी आदि पत्रिकाओं में छपते रहें हैं. इस दृष्टि से देखने पर मुझे आप के यात्रा विवरण अत्यंत पसंद आये है. मेरी शुभ कामनाएं आप के साथ है.
    बिमल श्रीवास्तव (bksrivastava2000@gmail.com)

    ReplyDelete
  12. aapke lekhon se behad mahtvpoorn jankari milti hai aapki har yatra safal ho is kamna ke sath shubhkamnayen

    ReplyDelete
  13. भाई नेपाल घूम कर बहुत आनंद आया ! पता नहीं इसके पिछले अंक को पढ़ते हुए मुझे यह अहसास क्यों हो गया था की भाई नीरज "जाट " की बस जरुर छूटेगी और हुआ भी ऐसा हीं ! खैर घूमकडी का शौक रखने वालों के साथ ऐसा घटना आम बात होता है !

    ReplyDelete
  14. bahut uche darje ka likhate ho sir. mene aaj din tak itna achha nhi pada he kahi pe.

    ReplyDelete
  15. अच्छा यात्रा वर्णन पढने को मिला भाई मैं भी मेरठ से ही हूँ मेरठ में आप कहाँ से हो

    ReplyDelete
  16. नमस्कार,
    नेपालयात्रा बहुत अच्छी लगी,हमे जाना है,सारी जानकारी लिख ली है,नेपालसे आनेके बाद आपको मेल लिखुंगी,धन्यवाद।फोटो सुंदर है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. नीरज भाई के निर्देश भी काम लीजिएगा
      जैसे बॉर्डर पर रिक्शे वालो से सावधान ओर खाने में शाकाहारी हो तो उसकी व्यवस्था

      Delete
  17. नीरज भाई बस छूटने का बड़ा दुख हुआ होगा आपको,ये
    एहसास मुझे तब हुआ जब मेरी भी बस का समय हो गया था काठमांडू में और मैं भारतीय समय पर उसका इंतजार कर रहा था परन्तु यह बस लेट होने के कारण मुझे मिल गई थी

    ReplyDelete
  18. नीरज भाई बस छूटने का बड़ा दुख हुआ होगा आपको,ये
    एहसास मुझे तब हुआ जब मेरी भी बस का समय हो गया था काठमांडू में और मैं भारतीय समय पर उसका इंतजार कर रहा था परन्तु यह बस लेट होने के कारण मुझे मिल गई थी

    ReplyDelete
  19. हाहाहाःहाहा} बेग-नास-ताल
    भाई मजा आ गया

    ReplyDelete
  20. Wah niraj ji aisa Laga mai hi Nepal safar par hu .

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब