इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें।
19 फरवरी 2012 का दिन था तथा मैं और अतुल मुम्बई में थे। सुबह हम एलीफेण्टा गुफाएं देखने चले गये। अतुल दादर में रुका हुआ था, मेरा कोई ठिकाना नहीं था। एलीफेण्टा जाते समय हम दादर से सीएसटी होते हुए गेटवे ऑफ इण्डिया गये थे, लेकिन इस बार हमने कोई गलती नहीं की और सीधे चर्चगेट स्टेशन पहुंचे। वसई रोड का टिकट लिया और फिर से लोकल में सवार हो गये। दोबारा दादर पहुंचे, सामान उठाया और फिर बोरिवली में एक बार लोकल बदलकर वसई रोड जा पहुंचे। हमें प्रसिद्ध महिला ब्लॉगर श्रीमति दर्शन कौर धनोए जी के यहां जाना था। वे वसई में रहती हैं।
19 फरवरी 2012 का दिन था तथा मैं और अतुल मुम्बई में थे। सुबह हम एलीफेण्टा गुफाएं देखने चले गये। अतुल दादर में रुका हुआ था, मेरा कोई ठिकाना नहीं था। एलीफेण्टा जाते समय हम दादर से सीएसटी होते हुए गेटवे ऑफ इण्डिया गये थे, लेकिन इस बार हमने कोई गलती नहीं की और सीधे चर्चगेट स्टेशन पहुंचे। वसई रोड का टिकट लिया और फिर से लोकल में सवार हो गये। दोबारा दादर पहुंचे, सामान उठाया और फिर बोरिवली में एक बार लोकल बदलकर वसई रोड जा पहुंचे। हमें प्रसिद्ध महिला ब्लॉगर श्रीमति दर्शन कौर धनोए जी के यहां जाना था। वे वसई में रहती हैं।
अतुल जिस गेस्ट हाउस में रुका हुआ था, उन्होंने हमें मुम्बई की एक झलक तो दिखा ही दी। वैसे तो ऐसा सभी बडे शहरों में होता है, लेकिन इस बार मुम्बई में हुआ तो हमने जान लिया कि मुम्बई कैसी है। अतुल को साढे तीन सौ रुपये में मात्र एक छोटा सा पलंग मिला था। चारों तरफ और भी ऐसे ही पलंग पडे थे। प्राइवेसी नाम की कोई चीज नहीं थी। लेकिन अतुल के अनुसार मुम्बई जैसी महा महंगी जगह पर साढे तीन सौ रुपये में रात काटने के लिये कुछ मिल रहा है तो सस्ता ही है। वैसे अगली रात मैंने भी मुम्बई में काटी थी, खूब दमदार नींद सोया था और एक धेला भी खर्च नहीं किया। अतुल बेटा, अभी तुझे घुमक्कडी में कुछ बेसिक बातें सीखनी हैं। मैं सीएसटी स्टेशन पर जा सोया था। ऊपर पंखे चल रहे थे, चारों तरफ मेरे जैसे ही लोग पडे हुए थे, उनके बीच में कोई डर नहीं था। हां, सोने से पहले कसाब जरूर याद आया था। उसकी कार्यस्थली भी तो सीएसटी ही था।
तो जी, बात कुछ ऐसी हुई कि सुबह जब एलीफेण्टा के लिये चले थे, तो अतुल के आग्रह पर अपना बैग भी मैंने वही एक कमरे में रख दिया था। यात्री अगर कोई सामान रखना चाहें, तो उसके लिये उन्होंने अलग कमरा बना रखा था। अब जब बैग उठाने गये तो अतुल गलती से मेरे बैग की बजाय किसी और का बैग उठा लाया। बस, यहीं पर हमारी पोल खुल गई, चोरी पकडी गई। हम थे परदेसी और परदेसी हमेशा लुटता ही है। और अगर बेचारा भाषा भी दूसरी बोलता हो तो सोने पे सुहागे वाली लूट हिस्से में आती है। सौ रुपये जेब से निकल गए। अतुल को हालांकि आज भी यहीं रुकना था, इसलिये उसने कहा कि इसका बदला लेकर ही दिल्ली के लिये प्रस्थान करूंगा। और हम बदला भी कैसा लेते हैं? किसी की पानी की टंकी फोड दी, किसी का बिजली का स्विच खराब कर दिया, मतलब तोड-फोड मचाते हैं और खुश हो लेते हैं कि ससुरे से बदला ले लिया। पता नहीं अतुल ने बदला लिया कि नहीं।
आज रविवार था और लोकल में भीड नहीं थी। दादर के पश्चिमी लाइन वाले स्टेशन से वसई रोड की लोकल मिलती है। हम चढ लिये जी उसी लाइन पर जाने वाली लोकल में। वो बोरिवली जा रही थी, मतलब कि हमें बोरिवली में उतरकर दोबारा लोकल बदलनी पडेगी। और बोरिवली में जब हमने अदला बदली की तो एक छोटी सी झलक मिल गई मुम्बई की प्रसिद्ध लोकल की भीड की। लेकिन फिर भी जाटराम एक सीट लेने में कामयाब हो ही गये थे।
अतुल कल भी दर्शन जी के यहां गया था। होना यह चाहिये था कि वो मुझसे कहता कि आ, इधर से रास्ता है, इधर से रिक्शा मिलेंगी। लेकिन हुआ उल्टा। रास्ता भूल गया। स्टेशन पर जाकर बाहर निकलते समय कहने लगा कि यह कल वाला स्टेशन नहीं है। खूब चक्कर काटे, फिर बोला कि हां, है तो कल वाला ही लेकिन रास्ता नहीं मिल रहा। आखिरकार उसे बाहर निकलने का उपयुक्त रास्ता मिला। उसने बताया कि कल श्री धनोए अपने स्कूटर पर उसे लेने आये थे, इसलिये रास्ता याद करने की जरुरत नहीं थी। आज यह काम खुद करना था।
मेरे पास दो मोबाइल हैं, एक प्रीपेड दूसरा पोस्टपेड। प्रीपेड बैलेंस की मामले में खाली रहता है। उसमें बहुत महीन सी बैटरी बची हुई थी। पोस्टपेड बिल्कुल ऊर्जाहीन हो चुका था। अतुल वाला फोन भी दादर तक तो ठीक ठाक काम कर रहा था, यहां तक आते आते वो भी बोल गया। अब दर्शन जी को फोन मिलाकर रास्ता कैसे पूछें। एसटीडी ढूंढने की कोशिश हुई, सब बेकार। इतनी व्यस्त जगह पर कोई एसटीडी ही नहीं मिली। आखिरकार मेरे उस प्रीपेड फोन में अतुल का सिम डालकर बात हुई, पता चल गया कि रिक्शा करके फलानी कालोनी में पहुंचना है। इतना होते होते वो मोबाइल भी खत्म। अब हम हो गये बेचारे यानी बे-चारे।
यहां टम्पू को रिक्शा कहते हैं। मैं सोचने लगा कि यार, यहां तो रिक्शा दिखाई ही नहीं दे रहा है, चारों तरफ टम्पू वालों का बोलबाला है। आखिरकार असलियत सामने आ ही गई। टम्पू में बैठते ही हम भूल गये कि जाना कहां है। कुछ कृष्ण जी से सम्बन्धित नाम है, यह तो पता था। कभी टम्पू वाले से कहते कि मथुरा कालोनी, कभी वृन्दावन। यहां तक कि गोपी, ग्वाला, सुदामा, रासलीला, कंस, पूतना सब नाम लेकर टम्पू वाले को बताये लेकिन वो मना करता रहा। फिर बस याद आ ही गया असली नाम।
दर्शन जी के यहां हमारा बढिया स्वागत होना ही था। मुझे तीन दिन हो गये थे नहाये हुए, जाते ही नहाया। उन्होंने हमेशा की तरह मेरी शर्ट पर क्रोध व्यक्त किया और इसे बदल डालने को कहा। वे पिछले दो साल से मुझे यही कहती आ रही हैं कि यह शर्ट आउट ऑफ सर्विस हो चुकी है, इसे बदल ले। लेकिन किसकी मजाल जो मुझे इस शर्ट को छुडवा दे। बगल में से फट चुकी है। एक बार प्रेस करते समय अनाडीपन से थोडी सी जल भी गई है। तो इस कारण इसे बडे जतन से धोना पडता है। लेकिन बेचारी की खास बात है कि यह मैली नहीं होती। मैली होती भी होगी तो मैल दिखता नहीं है। मैल दिखता भी है तो मुझे नहीं दिखता। मुझे दिखता है तो.... । तो क्या, धो देता हूं।
चलते समय दर्शन जी ने हम दोनों को गिफ्ट भी दिया। अगले दिन भुसावल जाकर खोला तो एक शर्ट थी। देखते हैं कि साहब कब इस नई शर्ट का उद्घाटन करेंगे। अभी भी इतने दिनों बाद भी उसकी तह नहीं खुली है। जबकि प्राचीन शर्ट दो बार धुल चुकी है। यहां से जब निकले तो पूछते पाछते पैदल ही स्टेशन पहुंचे। दो किलोमीटर के करीब पडता है। अतुल को दादर छोडा और मैं सीएसटी चला गया। हां, दर्शन जी ने मुझे बताया था कि दादर में ही एक गुरुद्वारा है और मुझे वहां रुकने की सलाह दी। मैं वहां तक गया भी था लेकिन तब तक देर हो चुकी थी और वो बन्द हो गया था। वो गुरुद्वारा साढे दस बजे बन्द हो जाता है और मैं पौने ग्यारह बजे वहां पहुंचा।
सीएसटी पहुंचकर साफ सुथरी जगह ढूंढी। बढिया टाइम चल रहा था मेरा कि साफ सुथरी जगह मिल गई। पंखे और खूब सारे सहयात्रियों से घिरा मैं पूरी रात निर्भय होकर सोया।
कुछ बातें लोकल की
मैं उस पूरे दिन लोकल में घूमता रहा। कुल मिलाकर डेढ सौ किलोमीटर से भी ज्यादा सफर कर डाला उस दिन मैंने लोकल में। हालांकि रविवार था और भीड इतनी ज्यादा नहीं होती, फिर भी लोकल है तो खाली तो चलेगी नहीं। आखिर मुम्बई की लाइफलाइन है। मैं तुलना कर रहा था दिल्ली और मुम्बई की।
मुझे दिल्ली वापस आने के बाद निर्माणाधीन मुम्बई मेट्रो के कुछ इंजीनियर मिले। मैंने उनसे पूछा कि बताओ, तुम लोग लोकल को टक्कर दे सकते हो क्या? बोले कि नहीं। मुम्बई में कुछ भी चीज लोकल को टक्कर देने की हालत में नहीं है। फिर मैंने बताया कि हमने यानी दिल्ली मेट्रो ने दिल्ली में हर चीज को टक्कर दी है। भारतीय रेल हो या डीटीसी, सब मेट्रो आने के बाद ‘बेरोजगार’ से हो गये हैं। बोले कि दिल्ली अलग है, जबकि मुम्बई की हालत अलग है। मैंने कहा कि जब दिल्ली में मेट्रो शुरू हुई थी तब सभी यही कहते थे कि यह किसी को भी टक्कर नहीं दे पायेगी। आज हालात ये हो गये हैं कि डीटीसी के कई रूटों पर बसें बन्द कर दी गई हैं। रेलवे की लोकल ईएमयू सेवा तो बिल्कुल खाली ही चलती हैं। रिंग रेलवे पर सप्ताह में पांच दिन ही दो चार ईएमयू चलती हैं। वो भी खाली रहती हैं। ले देकर गाजियाबाद, पलवल और पानीपत रूट वाली ईएमयू ही सुबह शाम भरकर चलती हैं।
एक बात और है कि मेरा उस एक दिन में मुम्बई में मन भी नहीं लगा। होना ये चाहिये था कि नयी जगह है, तो खूब मन लगना चाहिये था। लेकिन हुआ उल्टा। एक तो गर्मी बहुत थी। मैं दिल्ली से चला था तो एक छोटी सी रजाई भी साथ लेकर चला था, जबकि आज पसीना ही पसीना आ रहा था। मैंने उन मुम्बई वाले इंजीनियरों से पूछा कि बताओ दिल्ली में मन लग रहा है कि नहीं। बोले कि नहीं। क्यों? यहां भीड ही नहीं है, सब तरफ खालीपन ही दिखाई दे रहा है। तो कुल मिलाकर ये हालत है मुम्बईकरों की। दिल्ली की भीड से हम तंग हैं और वे कह रहे हैं कि यहां भीड ही नहीं है।
चलो खैर, अपना अपना हिसाब होता है। मुझे अगली सुबह साढे पांच बजे सीएसटी से भुसावल पैसेंजर पकडनी थी। अगली बार मुम्बई से भुसावल तक की यात्रा कराई जायेगी पैसेंजर ट्रेन से।
गिफ्ट वितरण- सबसे बायें श्री धनोए बैठे हैं। |
बायें से- अतुल, दर्शन जी और जाटराम। पूरे चार पांच घण्टे जब तक भी हम रहे, खाने पीने का दौर चलता रहा। हिन्दी में कहूं तो मुंह बन्द नहीं हुआ। |
डिनर |
खाने पीने में जाटराम किसी भी तरह की शर्म नहीं करता। |
और वापस चलते समय का टाइम बडा भावविभोर करने वाला था। |
फुरसत के टाइम में |
अगला भाग: मुम्बई से भुसावल पैसेंजर ट्रेन यात्रा
मुम्बई यात्रा श्रंखला
1. मुम्बई यात्रा की तैयारी
2. रतलाम - अकोला मीटर गेज रेल यात्रा
3. मुम्बई- गेटवे ऑफ इण्डिया तथा एलीफेण्टा गुफाएं
4. मुम्बई यात्रा और कुछ संस्मरण
5. मुम्बई से भुसावल पैसेंजर ट्रेन यात्रा
6. भुसावल से इटारसी पैसेंजर ट्रेन यात्रा
वाकई मुंबई वाला कहीं और नहीं रह सकता और मुंबई को छॊड़ कोई और जगह अच्छी नहीं लगती।
ReplyDeleteअब आप घर पहुँचकर मुम्बई रिटर्न हो जायेंगे।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रहा आपका यात्रासंस्मरण!
ReplyDeleteधनोए जी हमारी भी मित्र हैं!
अच्छी प्रस्तुति हैं नीरज, उस दिन सचमुच बड़ा अच्छा लगा, यदि तुम लोग 'विरार -लोकल' पकड़ते तो बोरीवली में बदलने की जरूरत ही नहीं होती ..खेर, तुम लोगो का आगमन सबको बहुत पसंद आया ..विशेषकर 'धनोय साहेब' आप दोनों को बहुत याद कर रहे थे !
ReplyDeleteनीरज से हमेशा हंसी मजाक चलता रहता हैं ..अतुल से तो मैं अमृतसर में एक बार पहले भी मिल चुकी थी, पर नीरज से मिलने का यह मेरा पहला मौका था ... बहुत ही शरीर और साधारण नौजवान हैं ..लगा ही नहीं की कोई बाहर का आदमी आया हैं .....धन्यवाद नीरज !
ReplyDeleteबहुत बहुत बहुत बढ़िया रहा आपका यात्रा संस्मरण!
ReplyDeleteजरूरी कार्यो के ब्लॉगजगत से दूर था
ReplyDeleteआप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ.....नीरज भाई
बहुत अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteयह मैली नहीं होती। मैली होती भी होगी तो मैल दिखता नहीं है। मैल दिखता भी है तो मुझे नहीं दिखता। मुझे दिखता है तो.... । तो क्या, धो देता हूं।
ReplyDeleteमेरे तो ठहाके ही नहीं रूक रहे हैं
बेहद रोचक संस्मरण
अरे वाह...बड़ी रोचक रही मुंबई दास्तान.
ReplyDeleteयहाँ रविवार को भी लोकल में कम भीड़ नहीं होती..बस किस तरफ जाना है...इस बात का फर्क पड़ता है.
यही वसई या बोरीवली से दादर जाना होता तो पैर टिकाने को जगह नहीं मिलती.
रे भाई जाट ये क्या करा...मुंबई आये और हमें फोन भी न किया...धत तेरे की...अरे भाई एक फोन करता हम भी तेरे दर्शन कर लेते...अगली बार ऐसी गलती मति करना...समझा ना?
ReplyDeleteनीरज
सुंदर प्रस्तुति ...
ReplyDelete