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Showing posts from September, 2009

देवप्रयाग - गंगा शुरू होती है जहाँ से

देवप्रयाग से वापस आकर जब मैंने अपने एक बिहारी दोस्त से बताया कि मैं देवप्रयाग से आया हूँ तो वो बोला कि -"अच्छा, तो तू इलाहाबाद भी घूम आया।" मैंने कहा कि नहीं भाई, मैं इलाहाबाद नहीं, देवप्रयाग गया था। बोला कि हाँ हाँ, एक ही बात तो है। इलाहाबाद को प्रयाग भी कहते हैं। अब तू उसे देवप्रयाग कह, शिवप्रयाग कह या रामप्रयाग कह। तेरी मर्जी। घरवालों, घरवाली, बॉस व ऑफिस में डूबे रहने वाले कुँए के मेंढकों को क्या मालूम कि इलाहाबाद के प्रयाग की ही तरह और भी प्रयाग हैं जिनमे से गढ़वाल के पांच प्रयाग प्रमुख हैं। प्रयाग कहते हैं जहाँ दो नदियाँ मिलती हैं। इसे संगम भी कहते हैं। इलाहाबाद में गंगा और यमुना मिलती हैं तो देवप्रयाग में भागीरथी व अलकनंदा का संगम होता है और यहाँ से आगे दोनों नदियों की जो सम्मिलित धारा बहती है उसे गंगा कहते हैं। भागीरथी तो आती है गोमुख-गंगोत्री से और अलकनंदा आती है बद्रीनाथ से।

मथुरा-भरतपुर-कोटा-नागदा-रतलाम

दिल्ली से मुंबई गए हो कभी? ट्रेन से। मथुरा तक तो ठीक है। फिर दो रास्ते हो जाते हैं- एक तो जाता है झाँसी, भोपाल, भुसावल होते हुए; दूसरा जाता है कोटा, रतलाम, वडोदरा होते हुए। अच्छा, ये और बताओ कि कौन सी ट्रेन से गए थे? चलो, कोई सी भी हो, मुझे क्या, लेकिन सुपरफास्ट ही होगी। पैसेंजर तो बिलकुल भी नहीं होगी। ... आज हम इसी रूट पर मथुरा से रतलाम जायेंगे पैसेंजर ट्रेन से। सुबह साढे पांच बजे ट्रेन नंबर 256 (मथुरा-रतलाम पैसेंजर) चलती है। रानीकुण्ड रारह स्टेशन के बाद यह राजस्थान के भरतपुर जिले में प्रवेश करती है। जिले में क्या, धौरमुई जघीना के बाद भरतपुर पहुँच भी जाती है। यहाँ तक तो सभी सवारियां सोते हुए आती हैं, लेकिन भरतपुर में रुकने से पहले ही राजस्थानी सवारियां घुसती हैं -"उठो, भई, उठो। तुम्हारा रिजर्वेशन नहीं है। नवाब बनकर सो रहे हो।"

कालाकुण्ड - पातालपानी

14 अगस्त 2009 को मैं इंदौर में ताऊ के यहाँ था। अगले दिन ओमकारेश्वर जाना था। तो रास्ते में स्टेशन तक छोड़ते समय ताऊपुत्र भरत ने बताया कि महू से आगे एक जगह पड़ती है- पातालपानी। पातालपानी से निकलकर बीच जंगल में ट्रेन रुकती है। ड्राईवर नीचे उतरकर एक स्थान पर पूजा करते हैं, फिर ट्रेन को आगे बढाते हैं। आते-जाते दोनों टाइम हरेक ट्रेन के ड्राईवर ऐसा ही करते हैं। ... आधी रात से ज्यादा हो चुकी थी। इसलिए इस दृश्य को देखने का मतलब ही नहीं था। सोचा कि उधर से वापसी में देख लूँगा। लेकिन 16 अगस्त को जब घूम-घामकर ओमकारेश्वर रोड स्टेशन पर आया तो शाम हो चुकी थी। अब पौने दस बजे एक ट्रेन थी जो बारह बजे पातालपानी पहुंचती थी। अँधेरा होने की वजह से ना तो कुछ देख ही सकता था ना ही फोटो खींच सकता था। इसलिए सुबह चार वाली ट्रेन से जाना तय हुआ जो साढे छः बजे पातालपानी पहुँचती है। वैसे तो स्टेशन के सामने ही एक धर्मशाला थी, जिसमे मेरे सोने का मतलब था गधे-घोडे बेचकर सोना। फिर चार बजे किसकी मजाल थी कि उठता। अलार्म व तीन-चार 'रिमाइंडर' भरकर स्टेशन पर ही सो गया।

सिद्धनाथ बारहद्वारी

सिद्धनाथ बारहद्वारी ओमकारेश्वर के पास ही है। परिक्रमा पथ में पड़ता है यह। आज ज्यादा लिखने का मूड नहीं है, इसलिए चित्र देख लो। यह राजा मान्धाता के खंडहर महल में स्थित है। पूरी पहाडी पर महल फैला था। लेकिन समय की चाल देखिये। आज महल की एक-एक ईंटें इधर-उधर पड़ी हैं। लेकिन इन पर भी जबरदस्त कलाकारी देखने को मिलती है। जब मैं वहां पहुँचा तो एक चौकीदार बैठा था। मैंने उससे पूछा तो उसने इस खंडहरी का कारण मुस्लिम आक्रमण बताया। चलो खैर, कुछ भी हो, एक भरा-पूरा इतिहास यहाँ बिखरा पडा है।

ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग

ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इस बारे में एक कथा है। एक बार नारदजी, विन्ध्य पर्वत पर आये। विन्ध्य ने अभिमान से कहा- "मैं सर्व सुविधा युक्त हूँ।" यह सुनकर नारद बोले-"ठीक है। लेकिन मेरू पर्वत तुमसे बहुत ऊंचा है।" यह सुनकर विन्ध्य उदास हो गया। "धिक्कार है मेरे जीवन को।" फिर उसने शिवजी की तपस्या की। जहाँ आज ज्योतिर्लिंग है, वहां शिव की पिण्डी बनाई और तपस्या करता रहा। तपस्या से प्रसन्न होकर जब शिवजी ने वर मांगने को कहा तो विन्ध्य बोला-"हे भगवान्! आप यहाँ स्थाई रूप से निवास करें।" बस, शिवजी मान गए। ... यह पूर्वी निमाड़ (खंडवा) जिले में नर्मदा के दाहिने तट पर स्थित है। बाएँ तट पर ममलेश्वर है जिसे कुछ लोग असली प्राचीन ज्योतिर्लिंग बताते हैं। इसके बारे में कहा जाता है कि रात को शंकर पार्वती व अन्य देवता यहाँ चौपड-पासे खेलने आते हैं। इसे अपनी आँखों से देखने के लिए स्वतन्त्रता पूर्व एक अंग्रेज यहाँ छुप गया था। लेकिन सुबह को वो मृत मिला। यह भी कहा जाता है कि शिवलिंग के नीचे हर समय नर्मदा का जल बहता है। हालाँकि अत्यधिक

वो बाघ नहीं, तेन्दुआ था

अभी मैं एक किताब पढ़ रहा था- "रुद्रप्रयाग का आदमखोर बाघ"। यह जिम कार्बेट द्वारा लिखित पुस्तक The Man-eating Leopard of Rudraprayag का हिंदी अनुवाद है। इस किताब में अनुवादक ने Leopard का हिंदी अनुवाद 'बाघ' किया है। जबकि तस्वीर तेन्दुए की लगा रखी है। पूरी किताब में अनुवादक ने बाघ ही लिखा है। इसमें दो चित्र और भी हैं जिसमे कार्बेट साहब मृत आदमखोर तेन्दुए के पास बैठे हैं। तस्वीर देखने पर साफ़ पता चलता है कि रुद्रप्रयाग में 1918 से 1926 तक जबरदस्त 'नरसंहार' करने वाला वो आदमखोर बाघ नहीं था, बल्कि तेन्दुआ था। ... असल में बात ये है कि हमें आज तक इन जानवरों की पहचान नहीं है। बिल्ली परिवार के बड़े सदस्यों में शेर, बाघ, चीता व तेन्दुआ आते हैं। शेर की पहचान तो उसकी गर्दन पर चारों और लम्बे-लम्बे बालों से हो जाती है। अब बचे बाघ, चीता व तेन्दुआ। वैसे भारत भूमि से चीता तो गायब हो ही चुका है। बाघ व तेन्दुआ काफी संख्या में हैं। आज का 'रिसर्च' इन्ही के बारे में है।