Skip to main content

हिमाचल के गद्दी

सम्पूर्ण यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें।

हिमाचल के घुमंतू चरवाहों को गद्दी कहते हैं। इनके पास घर तो होता है, पर ठिकाना नहीं होता। अपने घरों में इनका मन नहीं लगता। साल भर में चले जाते हैं एकाध बार। बाकी पूरे साल पहाडों पर जंगलों में ही रहते हैं। काम क्या करते हैं? भेड़-बकरियां पालते हैं और बेच देते हैं। भेडें ही इनकी संपत्ति होती हैं। इनके पास सैकडों की संख्या में भेडें होती हैं।


...

कभी-कभी गाँव वाले भी इनको अपने ढोर-डंगर दे देते हैं। गद्दी लोग भेड़ों के साथ-साथ उनकी भी देखभाल कर लेते हैं। कुछ महीनों बाद गाँव वालों को वापस लौटा देते हैं। जंगल में खुले घूमने, खुलकर खाने से ढोर-डंगर तगडे हो जाते हैं। इससे गद्दियों को भी कुछ आमदनी हो जाती है।
...
बिलिंग जाते समय हमारी मुलाकात एक गद्दी से हुई। सड़क के किनारे घास पर बैठा हुआ था। बहुत दूर पहाड़ पर भेडें चर रही थीं। उन भेड़ों को परिवार के बाकी सदस्य 'कंट्रोल' कर रहे थे। हम भी बैठ गए थोडी देर के लिए उसके पास।
...
शेर जैसे जानवरों के बारे में पूछने पर उसने बताया कि यहाँ शेर तो नहीं है, ना ही चीता है। तेंदुआ, बाघ व भेडिये, भालू हैं। इन गर्मी के दिनों में वे और ऊपर चले जाते हैं। जाडों में बर्फ पड़ने पर वे नीचे आते हैं और भेड़ों को उठा ले जाते हैं। ये जानवर इंसान को कुछ नहीं कहते, शरमाते हैं और देखते ही छुप जाते हैं। इस कारण गद्दियों को इनकी उपस्थिति का पता भी नहीं चल पाता। पता तब चलता है जब भेड़ों की संख्या कम होने लगती है। तब इन्हें अधिक चौकसी बरतनी होती है। इनके पास हथियार भी होते हैं।


...
जंगल से सूखी लकडियाँ और पत्ते इकट्ठे करके, उन्हें जलाकर खाना बना लेते हैं। जब हमने उससे पूछा कि क्या ऊपर बिलिंग में खाना मिलेगा? तो बताया कि खाना तो मुश्किल से ही मिलेगा। पता नहीं नीचे वापस जाने के लिए कोई वाहन भी मिले या ना मिले। अगर ना मिले तो वो देखो, वहां हमारा ठिकाना है, वहीं चले आना। मजे से खा-पीकर सोना और कल सुबह चले जाना। वैसे हमें वापसी में ऐसा करने की नौबत नहीं आयी।
...
खैर, इन गद्दियों का जीवन कष्टसाध्य होता ही है। केवल भेड़-बकरियों का ही तो आसरा होता है।

अगला भाग: पालमपुर यात्रा और चामुंड़ा देवी

बैजनाथ यात्रा श्रंखला
1. बैजनाथ यात्रा - कांगड़ा घाटी रेलवे
2. बैजनाथ मंदिर
3. बिलिंग यात्रा
4. हिमाचल के गद्दी
5. पालमपुर यात्रा और चामुंड़ा देवी

Comments

  1. ये तो बढ़िया जानकारी रही..

    ReplyDelete
  2. सही में बड़ा ही कष्टप्रद जीवन होता होगा. शायद उन्हें उसी में मजा आता हो. चित्र सुन्दर थे. आभार.

    ReplyDelete
  3. कम ही लोग इन खानाबदोशों की जिंदगी में झाँकने का समय निकल पते हैं. अच्छी जानकारी दी आपने. अगली कभी ऐसी मुलाकात में इनसे मेरी ओर से इनकी परम्पराओं आदि के बारे में भी बात करें. आशा है काफी नई जानकारियां मिलेंगीं.

    ReplyDelete
  4. मेहनत जी तोड़ करना पड़ता है घुमन्तुओं को।घर से दूर रह कर जीना काफ़ी कठीन है। अच्छी जानकारी दी आपने।चित्र तो बेहद खूबसूरत हैं।

    ReplyDelete
  5. गद्दी तो नहीं पता था ्भाई... हम तो एवड़ नाम से जानते थे...

    ReplyDelete
  6. कुछ समय पहले पढ़ा था इनके बारे में ..अच्छी रोचक जानकारी दी है आपने शुक्रिया

    ReplyDelete
  7. आपकी पोस्टें तो उत्तरोत्तर निखार पर हैं। बहुत सुन्दर।

    ReplyDelete
  8. जानकारी बढ़िया दी है । वैसे ये लोग हमारे यहाँ भी बहुत होते है । जिन्हें चरवाहा कहा जाता है।

    ReplyDelete
  9. हिमाचल के घुमंतू चरवाहों को गद्दी कहते हैं।
    परन्तु उत्तराखण्ड के तराई के जंगलों में वनगूजर भी इसी तरह का जीवन यापन करते हैं।

    ReplyDelete
  10. बहुत अच्छी और रोचक जानकारी मिली...आप की जीवन शैली मुझे बहुत प्रभावित करती है...फक्कड़ जीवन...घूमना और खुश रहना...बहुत खूब...
    नीरज

    ReplyDelete
  11. neeraj bhai aap to bahut ghumte ho main bhi edhar udhar muh marata ghumta rehta hu per aap se jyada nahi bahut achha laga aap ke lekh pad kar, phle main south side, orisa side goa side ghumta rahta tha aap ke lekh ped kr 1 sal se himachal ghum raha hu, aap se jarur melu ga. apne blog main hindi conversion bhi dal do. ROSHAN KALYAN, DELHI

    ReplyDelete
  12. aap itna ghume ho ek baar mani mahesh ho kar aao.

    ReplyDelete
  13. बाघ तो नही है हिमाचल में ,लेपर्ड, भालुओ की कोई कमी नही है , गद्दियों की वजह से भी जंगली जानवरों को कुछ न कुछ तो फायदा हो ही रहा है

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब